अब्दुलहयी ’साहिर’ लुधियानवी का जीवन उनके इस शेर की तस्वीर है- दुनिया ने तजुरबाते-हवादिस की शक्ल में , जो कुछ मुझे दिया है लौटा रहा हूँ मैं। ...
अब्दुलहयी ’साहिर’ लुधियानवी का जीवन उनके इस शेर की तस्वीर है-
दुनिया ने तजुरबाते-हवादिस की शक्ल में,
जो कुछ मुझे दिया है लौटा रहा हूँ मैं।
’साहिर’ लुधियाना के ज़मींदार परिवार के चश्मों-चिराग़ थे। उर्दू के अहम प्रगतिशील शायरों में इनका नाम बड़े ही सम्मान और आदर के साथ लिया जाता है। साहिर ने फ़िल्मी तथा ग़ैर फ़िल्मी दोनों ही क्षेत्रों में अपनी शायरी की अमिट छाप छोड़ी, इनका प्रगतिशील काव्य-संग्रह तल्ख़ियाँ (1945) था, जो लाहौर में बड़ी ही मुसीबतों और परेशानियों के बाद प्रकाश में आया, इन्हें अपने पहले ही काव्य संग्रह से बड़ा यश और सम्मान प्राप्त हुआ।
अपनी शायरी और मधुर गीतों में समोंए अपने भावों और जीवन सम्बन्धी दृष्टिकोणों के साथ ’साहिर’ अपने नाम की तरह अपने चाहने वालों के मनोमस्तिष्क पर ऐसे छा गये थे जैसे कोई जादूगर अपने जादू से अपने आसपास के वातावरण और लोगों को सम्मोहित कर रहा हो, उनकी शायरी एक नाकाम आशिक की शायरी थी, जो अपनी मेहबूबा से रातों के अन्धेरों में भी सवाल करती है -
’’मेरे ख्वाबों के झरोकों को सजाने वाली,
तेरे ख्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं।
पूछ कर अपनी निगाहों से बता दे मुझको,
मेरी रातों के मुकद्दर में सहर है कि नहीं॥
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यह सही है इंसान के सपनों की ताबीर के साथ इंसान के दिल की भावनाएं भी बदलती रहती हैं। किसी कला के उत्कर्ष की कोई निर्धारित सीमा नहीं। हर कवि का अपना वातावरण अपना अनुभव और अपनी आत्मा होती है। साहिर के गीत तो केवल साहिर ही लिख सकते थे और जैसी धड़कन उन गीतों में छिपी है, उनसे लगता है यह गीत सदा ही धड़कनों को झंझोड़ते रहेंगे, इन गीतों में सोज़ भी है साज़ भी है और प्रेम और सौन्दर्य का राज़ भी। नाकाम होते हुए भी शायर हार नहीं मानता और अपनी मेहबूबा से कहता है -
’’मुझे तुम्हारी जुदाई का कोई रंज नहीं,
मेरे ख्याल की दुनिया में मेरे पास हो तुम।
ये तुमने ठीक कहा है तुम्हें मिला न करूं,
मगर मुझे ये बता दो कि क्यों उदास हो तुम॥’’
साहिर ऐसे शायर थे जिन्होंने सरल भाषा में बहुत कोमल और मधुर ढंग से गीतों का निर्माण किया, जो उनके सुनने वालों को आसानी से समझ में आ जाएं, वह आम आदमी के शायर थे, अगर देखा जाय तो साहिर के जीवन में इश्क की गम्भीरता के अलावा कहीं ठहराव न था, लेकिन जनता के इस प्रिय शायर को कभी अपनी मेहबूबा का प्यार नसीब न हुआ, अगर यह कहा जाय तो ग़लत न होगा कि वह औरत को कभी समझ ही न सका, वह उसके लिए सदैव एक पहेली ही रही-
’’तेरी सांसों की थकन, तेरी निगाहों का सकूत,
दर हक़ीकत कोई रंगीन शरारत ही न हो।
मैं जिसे प्यार का अन्दाज़ समझ बैठा हूँ,
वो तबस्सुम, वो तकल्लुम तेरी आदत ही न हो॥’’
शायद भगवान की भी यही इच्छा थी कि वह साहिर के दिल में तड़प और कसक पैदा करके सुन्दर से सुन्दर गीत की रचना करवाये। सही मायने में साहिर को कभी किसी का प्यार मिला ही नहीं, तंग आकर उसने हालात से रिश्ता जोड़ लिया, यह पंक्तियाँ उसके जीवन को पूर्ण रूप से दर्शाती हैं-
’’हालात से लड़ना मुश्किल था,
हालात से रिश्ता जोड़ लिया।
जिस रात की कोई सुबह नहीं,
उस रात से रिश्ता जोड़ लिया॥’’
साहिर के जीवन पर बचपन की घटनाओं का भी गहरा असर था। किन्हीं कारणों से उनकी माँ उन्हें लेकर पिता से अलग हो गयीं, और बेटे को लेकर एक मामूली से मकान में उसकी परवरिश करने लगीं, इसी कारण उन्हें आर्थिक परेशानियों का भी सामना करना पड़ा। बचपन की इन घटनाओं का प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर भी पड़ा। कालेज में भी अपने बागी तेवर और इंक़लाबी नज़मों के कारण वह प्रसिद्ध हुए, उनका व्यक्तित्व एक क्रांतिकारी जैसा हो गया था-
’’मेरे जहाँ में समनज़ार ढूंढने वाले,
यहाँ बहार नहीं आतिशों बगूले हैं।’’
साहिर सौन्दर्य के प्रेमी थे तथा स्वयं भी सुन्दर थे उनके आकर्षक व्यक्तित्व के कारण कई फ़िल्मी और गैर-फ़िल्मी महिलाएं उनकी ओर आकर्षित हुईं, उनके प्रेम के विषय में कई प्रसिद्ध कहानियाँ है, परन्तु वह जिस प्यार की तलाश में थे वह उन्हें कभी प्राप्त ही न हुआ। इस लोकप्रिय शायर की कोई प्रेयसी उनकी जीवन संगिनी न बन सकी। सही मायनों में साहिर दिल से दिल मिलाकर अपना दुःख-सुख किसी व्यक्ति विशेष से नहीं बांट सके। इसी कारण वह सबके हमज़ुबान बन गये। उन्होंने झुंझलाकर अपने दुःख उछाले नहीं बल्कि उन्हें महक देकर, गीतों में पिरोकर लयबद्ध करके वातावरण में फैला दिया -
’’अपने सीने से लगाए हुए उम्मीद की लाश,
मुद्दतों ज़ीस्त को नाशाद किया मैंने।
तूने तो एक ही सदमें से किया था दो चार,
दिल को हर तरह से बर्बाद किया मैंने।।’’
हिन्दी फिल्मों में ’साहिर’ का स्थान शायद ही कभी भर सके, उनके गीतों से सुसज्जित पचासों फ़िल्में आज भी हिन्दी सिनेमा में मील का पत्थर मानी जाती हैं। फ़िल्मों में अपने गीतों के माध्यम से नायिका को भावविभोर कर नायक से मिलन कराने वाला यह शायर वास्तविक जीवन में अपनी मेहबूबा का दिल कभी न जीत सका-
’’तेरी नज़रों को मुहब्बत की तमन्ना न सही,
तेरी नज़रें मेरी हमराज़ तो बन सकती हैं।
चार दिन के लिए तकलीफ़ें- मुरव्वत करके,
इक नए दर्द का आगाज़ तो बन सकती हैं॥’’
साहिर ने जीवन में इतने कष्ट और परेशानियों का सामना किया था कि उन्हें अपने अतीत से नफ़रत सी हो गयी थी-
’’अपनी माज़ी के तसव्वुर से हरासां हूँ मैं,
अपने गुज़रे हुए अय्याम से नफ़रत है मुझे।
अपनी बेकार तमन्नाओं पे शर्मिन्दा हूँ,
अपनी बेसूद उम्मीदों पे नदामत है मुझे॥’’
आगे इसी नज़्म में वह कहते हैं-
’’मेरे माज़ी को अन्धेरों में दबा रहने दो,
मेरा माज़ी ज़िल्लत के सिवा कुछ भी नहीं।
मेरी उम्मीदों का हासिल मेरी काविश का सिला,
एक बे नाम अज़ियत के सिवा कुछ भी नहीं॥’’
साहिर का व्यक्तिगत जीवन उनकी माँ और बहन तक ही सीमित था। अपनी माँ के प्रति जो स्नेह और भावनाएं उनके मन में थीं वे आज के युग में विश्वास करने योग्य नहीं हैं, साहिर एक पल भी मित्रों के बिना नहीं गुज़ार सकते थे। शायद तन्हाई उन्हें उस दुनिया में पहुंचा देती थी जिससे वह पीछा छुड़ाना चाहते थे, और उस मेहबूब की याद दिला देती थी जिससे उन्हें नफ़रत के सिवा कुछ न मिला-
’’हमने भी मुहब्बत की थी मगर,
कुछ भी न मिला हसरत के सिवा।
तुमने भी हमें इल्ज़ाम दिया,
क्या कहने इसे किस्मत के सिवा॥’’
साहित्य से हटकर अगर साहिर के फ़िल्मी सफ़र की बात की जाए तो उसमें भी वह एक गीतकार के तौर पर बेजोड़ हैं, उनके क़लम ने हिन्दी सिनेमा को एक से बढ़कर एक नायाब गीत दिए, ग़म और प्रेम का उदात्त रूप उनके गीतों में अपनी चरम सीमा पर है, कुछ गीतों पर प्रकाश डालते हैं, जैसे-
ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात,
एक अन्जान हसीना से मुलाक़ात की रात, (बरसात की रात)
तुम मुझे भूल भी जाओ तो यह हक़ है तुमको,
मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है। (दीदी)
भूले से मोहब्बत कर बैठा नादां था बेचारा दिल ही तो है,
हर दिल से खता हो जाती है समझो न खुदारा दिल ही तो है। (दिल ही तो है)
मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी,
मुझको रातों की तन्हाई के सिवा कुछ न मिला। (चन्द्रकान्ता)
देखा है ज़िन्दगी को कुछ इतना क़रीब से,
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से। (एक महल हो सपनों का )
जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला,
हमने तो जब कलियाँ मांगी, कांटों का हार मिला। (प्यासा )
जिसे तू कुबूल कर ले, वो अदा कहा से लाऊं,
तेरे दिल को जो लुभा ले वो अदा कहा से लाऊं। (देवदास)
जीवन के सफ़र में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को,
और दे जाते हैं यादें तन्हाई में तड़पाने को। (मुनीमजी)
दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना,
जहाँ नहीं चैना, वहाँ नहीं रहना। (फ़न्टूश)
मैैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया,
हर फ़िक्र को धूएं में उड़ाता चला गया। (हम दोनों)
दामन में आग लगा बैठे हम प्यार में धोखा खा बैठे,
छोटी सी भूल जवानी की जो तुमको याद न आएगी। (धूल का फूल)
इसी तरह साहिर ने और भी अनेक मौज़ूओं पर सुन्दर गीतों का निर्माण किया, जो आज भी श्रोताओं का दिल लुभा रहे हैं, जैसे-
बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले,
मेयके की कभी न याद आए, ससुराल में इतना प्यार मिले। (नील कमल)
लागा चुनरी में दाग़ छुपाऊँ कैसे घर जाऊँ कैसे,
हो गई मैली मेरी चुनरिया कारे बदन की कारी चुनरिया। (दिल ही तो हैं)
मैं पल दो पल का शायर हूँ पल दो पल मेरी कहानी है,
पल दो पल मेरी हस्ती है पल दो पल मेरी जवानी है। (कभी-कभी)
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा,
इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा। (धूल का फूल)
औरत ने जन्म् दिया मरदों को, मरदों ने उसे बाज़ार दिया,
जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा धुतकार दिया। (साधना)
यह देश है वीर जवानों का अलबेलों का मस्तानों का,
इस देश के यारों क्या कहना, यह देश है दुनिया का गहना। (नया दौर)
मन रे तू काहे न धीर धरे,
वो निर्मोही प्रीत न जाने, जिनका मोह करे। (चित्रलेखा)
अपने फ़िल्मी कैरियर में साहिर ने 113 फ़िल्मों में गीत लिखे जिनमें बाज़ी, जाल, टैक्सी ड्राइवर, नया दौर, प्यासा, धूल का फूल, हम दोनों, गुमराह, बरसात की रात, ताजमहल, कभी-कभी, फिर सुबह होगी जैसी फ़िल्मों के गीत खूब प्रसिद्ध हुए। साहिर राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिए चलाए जाने वाले आन्दोलन में अत्याचार के विरुद्ध खुलकर लिखा करते थे, उन्होंने अपनी लेखनी द्वारा नारी संवेदना को भी प्रमुखता से उजागर किया। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और मानवीय अत्यचारों पर भी साहिर की लेखनी खूब चली।
जो स्थान साहिर का फ़िल्मों में है उससे कहीं बढ़कर उन्हें उर्दू अदब में सराहा जाता है, उनकी प्रसिद्ध नज़्म ’परछाईयां’ उर्दू अदब में अपना एक अलग मकाम रखती है। उनके स्वभाव में सच्चाई और सादगी थी। फ़िल्म जगत में आने के बाद उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी हो गयी थी, जिस कारण समय-समय पर उन्होंने अपने मित्रों और ज़रूरतमंदों की बड़ी सहायता की। इतनी कम आयु में अपने जीवनकाल में इतनी प्रसिद्धि, इतना सम्मान प्राप्त करने वाला शायद वह पहला उर्दू शायर है। महाराष्ट्र सरकार ने साहिर को ’जस्टिस ऑफ द पोसे’ और उसके बाद स्पेशल ऐगज़ैक्टिव मजिस्ट्रेट नियुक्त किया। लुधियाना में एक सड़क और कश्मीर की पहाड़ियों में सीमा पर एक फ़ौजी चौकी को ’साहिर’ का नाम दिया गया।
25 अक्टूबर, 1980 की सांझ ढले दुनिया से ख़फ़ा रेशमी उजालों और सुरमई अन्धेरों के गीत गाने वाला यह लोकप्रिय शायर शरीर की मिट्टी का चोला देश की मिट्टी को लौटाकर उस परमात्मा के पास शान्ति की तलाश में चला गया, जहाँ उसकी तड़प कुछ कम हो सके, इस दुनिया में वह जब तक रहा दुखी रहा, मेहबूबा से मिलने के बाद भी उसे सुख की अनुभूति नहीं मिली-
’’चन्द कलियाँ निशात की चुनकर,
मुद्दतों महवे-यास रहता हूँ।
तेरा मिलना खुशी की बात सही,
तुझसे मिलकर उदास रहता हूँ॥’’
आज साहिर लुधियानवी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन वह अपने पीछे अपने फ़िल्मी गीत और शायरी की शक्ल में ऐसा नायाब खज़ाना अपने चाहने वालों के लिए छोड़ गए हैं जो रहती दुनिया तक हमें उनकी याद दिलाता रहेगा-
’’अहले दिल और भी हैं, अहले वफ़ा और भी हैं,
एक हम ही नहीं दुनिया से खफ़ा और भी हैं।’’
डॉ. आसिफ़ सईद
जी-4, रिज़वी अपार्टमेन्ट, द्वितीय
मेडिकल रोड, अलीगढ़
उ0प्र0 भारत
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