सुबह-सुबह अखबार खोलते ही निधन वाले कालम में बिल्लू की मंद-मंद मुस्कान वाली तस्वीर देख चकित रह गया..कल रात ही तो उससे मिला था..हमेशा की तरह ...
सुबह-सुबह अखबार खोलते ही निधन वाले कालम में बिल्लू की मंद-मंद मुस्कान वाली तस्वीर देख चकित रह गया..कल रात ही तो उससे मिला था..हमेशा की तरह चुस्त-दुरुस्त अपनी गद्दीवाली कुर्सी पर पान चबाते बैठा था.. देखते ही बोला था- ‘ अरे वर्माजी..बड़े दिनों बाद आये..बताईये क्या पैक करवाऊँ ? ’
तब मैंने उसे हाफ चिकन और तीन तंदूरी पार्सल बनाने कहा था..और उसने भट्टी की ओर मुखातिब हो जोर से चिल्लाया था-‘ अरे विजय..एक हाफ चिकन कम तेल का और तीन तंदूरी पार्सल बना..’
[ads-post]
तब न वह कहीं से बीमार लगा था न ही चोटिल या गंभीर..वह आदतन पान चबाते टेबल पर सामने रखे टी.वी.को निहार रहा था..हमेशा की तरह ही पान से उसके दोनों होंठ रचे थे और होंठ के एक छोर से एक पतली लाल धार ठुड्डी की ओर बार-बार बहे जा रही थी जिसे वह तत्काल रुमाल से पोंछता.. मेरी भी बरसों से आदत थी - झांककर एक बार टी.वी जरूर देखता कि वो क्या देख रहा है ? कल रात तब वह कोई स्पोर्ट्स चैनल में क्रिकेट देख रहा था..शायद लाइव चल रहा था..मैंने तत्काल अपनी आँखें फेर ली थी..क्रिकेट से तो मुझे जन्मजात एलर्जी रही..
चिकन के बनते तक उससे वही दो टूक बातें हुई जो सालों से करता आ रहा था..मैंने पूछा-‘ क्या चल रहा है आजकल बिल्लू ? सब ठीक तो है ? ‘ और उसने भी वही रटा-रटाया जवाब दिया जो वह वर्षों से देता आ रहा था-‘ सब ठीक है वर्मा जी.. बस..आप सब की दुआ है..’ तब मैंने घड़ी देखी थी-रात के नौ बज रहे थे..होटल में ग्राहकों का रेला शुरू ही हो रहा था..मेरी आदत थी , भीड़ से बचने अक्सर इसी वक्त ही शेरे पंजाब जाता..कल भी वक्त से गया था..तब सोचा भी न था कि सुबह उसके नूरानी चेहरे को ‘निधन’ वाले कालम में देखूँगा..मेरी आदत है कि अखबार आते ही सबसे पहले मैं क्षेत्रीय-समाचार वाले पन्ने को पढ़ता हूँ और उसमें भी सबसे पहले ‘निधन’ वाले स्तम्भ को..सुबह-सुबह बुरी खबर पढ़ने की बुरी आदत है..
जब भी किसी परिचित को इस कालम में देखता हूँ तो दुःख होता है और कभी-कभी हैरानी..बिल्लू की खबर ने तो एकबारगी चौंका ही दिया..अभी उसकी उम्र ही क्या थी ? चालीस-पैंतालीस का रहा होगा..सरल ,स्वस्थ-तंदुरुस्त और मजबूत कद-काठी वाले आदमी का यूं एकाएक चले जाना ,समझ ही नहीं आया.. मृदुभाषी था इसलिए कोई उसके लिए पराया नहीं होता..सबको वो अपना बना लेता था.. वैसे तो लिखा है कि ’हृदयाघात’ से निधन हुआ पर लगता नहीं कि ऐसा हुआ होगा..न कभी उसे आज तक कराहते देखा न कभी हास्पिटल जाते..इसलिए विश्वास नहीं होता..
मेरा उससे परिचय कब और कैसे हुआ,ठीक से याद नहीं पर विगत कई सालों से उसका ग्राहक रहा..पूरे शहर में वैसे तो सैकड़ों होटल और रेस्टारेंट हैं पर ‘शेरे पंजाब’ का जवाब नहीं..यहाँ का मसालेदार चिकन-मटन ,मछली बिरयानी, भुर्जी ,कबाब आदि पूरे शहर में मशहूर है..ईश्वर जाने ,मसाले में क्या-क्या नपा-तुला चीज डालते हैं कि तरी तो चाटने ही लायक होता है..कई सालों से यहाँ के डिश खा रहा हूँ पर स्वाद हमेशा ही एक सा और स्वादिष्ट रहा है..ये इसकी खासियत है..मिस्त्री तो वक्त के साथ बदलते रहे पर स्वाद कभी नहीं बदला..मुझे तो इसके अलावा किसी अन्य होटल का डिश अच्छा लगा ही नहीं..इसलिए जब भी नानवेज खाने का मूड होता,यहीं आता और हमेशा पार्सल बंधवा कर घर में ही आराम से स्वाद ले-लेकर खाता..होटल में बैठकर खाना कभी रुचिकर नहीं लगा..शोर-शराबे के बीच खाना मुझे पसंद नहीं..ऊपर से वहां दारु की अजीब सी गंध..ओफ..इनके यहाँ दारु भी सर्व होता था इसलिए कभी बैठकर नहीं खाया.
बिल्लू का यूं एकाएक चले जाना मुझे शोकमग्न और हैरान कर गया..ऐसी ही हैरानी एक बार तब हुई थी जब बिल्लू का बाप गुजरा था..वर्षों पहले बिल्लू की गद्दी पर उसका बाप सुच्चासिंह बैठा करता था..एकदम ही चुस्त-दुरुस्त,सज्जन,सहृदय चौड़े सीने वाला छः फुटिया गठीला गबरू जवान..हमेशा ही वह सफ़ेद पगड़ी पहनता..सफ़ेद कुरता और सफ़ेद पाजामा..उसके चहरे से ओज टपकता था..तब बिल्लू बहुत छोटा था और बहुत कम ही गद्दी पर बैठा करता..मैं तब भी यदा-कदा बड़े भैया के लिए चिकन लेने शेरे पंजाब जाया करता..तब बिल्लू से परिचय नहीं था न ही उसके बाप से..सुच्चासिंह का व्यवहार बड़ा ही सौम्य था इसलिए वे अच्छे लगते..उन दिनों कई बार दोस्तों के साथ रात के बारह बजे के बाद भी होटल गया तो हमेशा उसे आबाद ही पाया..भगवान् जाने ग्राहकों की भीड़ कब छंटती थी और जाने कब वो दुकान बढाते थे..दो-दो बजे रात तक चलते तो मैंने खुद देखा था..
उन दिनों अक्सर रात को पार्सल लेने जाता तो मेरी आँखें फटी की फटी रह जाती..बीस-पच्चीस मिनट में ही ग्राहकों का इतना रुपया गल्ले में समा जाता कि देखकर मैं चकित रह जूता..अक्सर सोचता कि इतने सारे रुपयों को वह गिनता कब होगा ? सम्हालता कैसे होगा ?क्योंकि अल्लसुबह होटल फिर खुल जाता..आश्चर्य होता कि यह सब वह मेंटेन कैसे करता था ?..और फिर इतने रुपयों का ये करते क्या होंगे ? न वे कोई ताम-झाम करते थे न ही उनका कोई रईसों के माफिक पहनना-ओढ़ना, खाना-पीना था.. न ही कोई पैसों का उन्हें गुरुर या रौब था..बिलकुल ही सादे लिबास में होते और सबसे सदव्यवहार ही रखते..न वे ज्यादा पढ़े-लिखे थे न ही कोई कुटिल-चालाक कारोबारी थे..कुछ थे तो बस-धुन के पक्के और मेहनतकश..लक्ष्मी शायद इन्हीं गुणों के चलते उन पर मेहरबान थी.. इन पर रुपयों की अनवरत बरसात होती थी.
फिर आज की तरह ही एक दिन सुबह अखबार में अचानक सरदार सुच्चासिंह की फोटो ‘उठावना’ में देखा तो अचंभित रह गया था..उसे भी कुछ ही दिन पूर्व ही स्वस्थ-कुशल,हंसते-बोलते और चलते-फिरते देखा था..उसकी मौत का भी काफी अफसोस हुआ था क्योंकि वह एक तमीजदार,व्यवहार कुशल व्यक्ति था..और असमय ही निपट गया था.. घटना के एक-दो महीने बाद होटल गया तो बिल्लू को बाप की गद्दी पर बैठा पाया..पहले वह बगल की कुर्सी में बैठा करता..जब वह थोडा बड़ा और सयाना हुआ तो उसके पापाजी जल्दी ही घर जाने लगे थे ..वैसे पूरे दिन तो उसके पापा जमकर बैठते ही..उस दिन उसके पापा के निधन पर उसे शोक जताया था..
याद आया..शायद तभी से बिल्लू से खासी जान-पहचान हुई थी..बात-बात में ही उसने बताया था कि मेरे बड़े भैया का वह कभी स्टूडेंट रहा था..बिल्लू के जमाने में होटल ने काफी तरक्की की..उसने होटल के सारे फर्नीचर बदल दिए..नए फाल्स सीलिंग लगवाये..खूबसूरत लाईटिंग व्यवस्था की..आरामदेह टेबल-कुर्सी लगवाये और बगल में ही एक बड़ा ही आधुनिक बार भी खोल लिया..जब भी उसके होटल जाता ,पार्सल के बनते तक वही सब कुछ देखता और वही सब सोचता जो उसके बाप के जमाने में सोचा करता..मसलन- इतने सारे रुपयों को गिनता कब हैं ? हिसाब कौन रखता है ? कैसे होटल मैनेज करते हैं ? इतने रुपयों का क्या करते होंगे ? आदि..आदि.
मेरी जिज्ञासाओं का अंत तब हुआ जब एक दिन मेरे एक अजीज मित्र ने उस परिवार की कहानी सुनाई..मेरे ये मित्र मुझसे तीन साल बड़े हैं..दरअसल वे बड़े भैया के मित्र थे पर चूंकि बड़े भैया बाहर रहा करते इसलिए वे मुझसे भी मित्रवत व्यवहार रखते..कई दशक पहले उनका ‘ओशो’ से साक्षात्कार हुआ था..वे उनके भक्त हो गए थे..तब से शहर वाले उन्हें ‘स्वामी’ के नाम से ही संबोधित करते..अक्सर वे गेरुआ वस्त्र ही पहनते..वैसे उनका पूरा व्यक्तित्व वैराग्य वाला ही था..उनका ज्ञान काफी गूढ़ और विस्तृत था. वे प्रवचन बढ़िया करते...छोटे-बड़े सभी को प्यार करते..लोग उनसे अपनी परेशानी,कष्ट,दुःख कहते और उम्मीद करते कि स्वामीजी चुटकियों में उन्हें उबार देंगे..और ऐसा होता भी था..उनके हथेलियों में कोई जादू तो अवश्य था..जिनके सिर पर हाथ फेरते,उसके दिन फिर जाते.. वे काफी हंसोड़ और मजाकिया भी थे..उनका मेरे घर आना-जाना लगा ही रहता..कभी घंटों भी बैठ जाते तो कभी आते ही कहते-‘चल..अमुक ढाबा जायेंगे..वहां की जलेबी और खीर खाकर आयेंगे..’ खाने का उन्हें काफी शौक था..शुद्ध शाकाहारी थे..फिर अचानक कई सालों तक उनसे न जाने कैसे संपर्क टूट सा गया..
दुबारा जब संपर्क हुआ तो वह अक्सर एक नाम का जिक्र बार-बार करते ‘ दर्शन ‘ का..तब मैं नहीं जानता था कि कौन है ये दर्शन ? आते-जाते हमेशा कहता कि दर्शन के पास गया था..दर्शन आया था..दर्शन ने बुलाया है..ये दर्शन की सायकल उठा लाया हूँ..दर्शन के यहाँ खा लिया..आदि-आदि..उनकी बातचीत से इतना जरुर जान गया था कि दर्शन किसी रेस्तरा या होटल का मालिक है..एक दिन उसके नाम के साथ बिल्लू का जिक्र आया तब उनसे पूछा था कि कौन है ये दर्शन ? तब बताया कि बिल्लू का छोटा भाई है दर्शन और स्टेशन रोड पर उसका होटल है जहां सुबह से देर रात तक पोहा, समोसा,जलेबी. भजिया, मिक्सचर,चाय-काफी ,डोसा-इडली आदि मिलता.. एक दिन मेरे मित्र मुझे उसकी दूकान ले गए..रात के दस बज रहे थे..जैसे ही मित्र के साथ होटल के गेट पर पहुंचा ,एक साधारण डीलडौल का बिना पगड़ीवाला गोरा सरदार हाथ जोड़ते-‘स्वामी जी ,नमस्कार’ कहते आया और मित्र के चरण छूने लगा..उसने उन्हें अपनी गद्दी पर बिठाया और गरमागरम कुछ खाने-पीने का आग्रह करते नौकर को दो काफी बनाने का आर्डर दिया..उनकी आपसी बातचीत से लगा कि मित्र का यहाँ नियमित आना-जाना था....ग्राहको की भारी भीड़ ने एकबारगी मुझे शेरे पंजाब की याद दिला दी..यहाँ भी गल्ला रुपयों से मुंह तक भरने को था..रुपयों की बरसात हो रही थी..फिर वही पुरानी जिज्ञासाओं ने अंगड़ाई ली..और मैं सोचने लगा...
मित्र ताड़ गए..मुझे घर छोड़ने आये तो कुछ देर शांत बैठे फिर बोले-‘तुझे हैरत है ना कि इतने सारे रुपयों का ये करते क्या हैं ? कब गिनते हैं ? कैसे हिसाब रखते है ? कैसे होटल मैनेज करते हैं ? तो सुन..एक बार बातों ही बातों में दर्शन ने एक रोचक घटने का जिक्र किया था और जो बात उसने मुझे बताई वो आज मैं तुम्हें बताता हूँ.. इनका पूरा परिवार शुरू से अच्छे संस्कारों से बंधा रहा है..बाप ने बचपन से इनमें ऐसे संस्कार डाले कि ये कभी उनसे डिगे नहीं..हर स्थिति में ये खुश रहना जानते थे..एक जमाने में ये बड़े ही विपन्न हुआ करते थे..मेहनत-मजदूरी कर आज इस मुकाम पर पहुंचे हैं..धन-धान्य से भरपूर हैं.. उसके पापा अक्सर रात नौ बजे ही होटल से घर चले जाते और वे दोनों भाई रात लगभग एक -डेढ़ बजे ही घर पहुँचते थे..अक्सर बिल्लू बाद में आता , दर्शन ही पहले दुकान बढ़ाकर पहुंचता..आते ही रुपयों की सारी गड्डियां जो दुकान में वे पहले से बनाकर रखे होते,पापा को थमाते..पापाजी दीवान के पास वाले कुर्सी पर बैठे कुछ हिसाब-किताब करते रहते..सामने रखे टेबल पर नोटों की गड्डियों को वे क्रमवार जमाते.. हजार का, पांच सौ का, सौ का, पचास का,बीस का,दस का,पांच का..आदि-आदि..
तत्पश्चात किचन में जाकर दोनों भाई खाते-पीते फिर अपने-अपने कमरे में सोने चले जाते तो सुबह छः बजे ही उठते..कभी-कभार दर्शन दो-तीन बजे रात को बाथरूम जाने उठता तो पापाजी के कमरे में रोशनी देख उधर झाँक आता..तब पापा उन गड्डियों को अपने दीवान में जमाते दीखते..फिर उसी के ऊपर बिस्तर लगा सो जाते..और ताज्जुब होता कि सुबह सबसे पहले पापा ही उठते..सबेरे जल्दी-जल्दी चाय नाश्ता कर दोनों पुनः एक बार पापाजी के पास हाजिर होते और अपनी जरुरत के हिसाब से रुपयों की मांग करते..वे मिनटों में दोनों भाईयों को गड्डियां थमा देते और दोनों अपनी-अपनी स्कूटी से दुकान के लिए निकल पड़ते तो फिर रात को ही मिलते..यही रोज का दिनचर्या था..
दर्शन थोड़े चुलबुल स्वभाव का था..शरारती भी था..एक दिन उसे शरारत सूझी और पापाजी के बिस्तर के नीचे से कुछ नोटों की गड्डियां चुराकर अपने सिरहाने रख सोने की कोशिश करने लगा..वो देखना चाहता था कि पापा को पता चलता भी है या नहीं..वह करवटें बदलता रहा पर नींद आने का नाम नहीं ले रही थी..बिस्तर से वह उठा और सिरहाने से गड्डी निकाल उसे गिना...पूरे सत्रह हजार थे..फिर बिस्तर के नीचे फैलाकर उस पर सोने की चेष्टा करने लगा किन्तु नींद जैसे गायब ही हो गई थी..पूरी रात वह सो न सका..जैसे-तैसे सुबह हुई तो रोज की तरह खरीदारी के लिए रुपया लेने पापाजी के पास गया..
दर्शन ने रूपये मांगे तो बिस्तर के नीचे से गड्डी निकाल दे दिया..बिल्लू को भी नोटों की गड्डियां दी..बार-बार वे बिस्तर पर बिछे नोटों की गड्डियों को घूर रहे थे..दर्शन को लगा कि वह अब पकडाया..तब पकडाया..पर ऐसा कुछ नहीं हुआ..पापा ने दीवान बंद कर बिस्तर ठीक किया और दूध लेने चले गए...दर्शन को राहत तो मिली पर पापा की बेपरवाही पर गुस्सा भी आया..रात को पापाजी से भेंट हुई तो दर्शन ने अपनी भड़ास निकाली, कहा -‘ पापाजी...आप इतने रुपयों के ऊपर बिस्तर लगा चैन से सो कैसे जाते हैं ? कल रात मैंने आपके बिस्तर के नीचे से सत्रह हजार रूपये चुराए और आपको पता तक न चला..क्या आप हिसाब-किताब करके नहीं रखते ? मुझे तो इतनी ही रकम ने रात भर सोने नहीं दिया..पूरी रात जागता रहा..भगवान् जाने आप इस अकूत खजाने के ऊपर कैसे सो जाते हैं ?..कैसे आपको नींद आ जाती है ?’
तब पापा ने जवाब दिया- ‘ बेटा..मुझे तुम दोनों पर इतना एतबार है जितना कि खुद पर नहीं..और ये संस्कार ही है कि तुमने जो किया उसे ईमानदारी से बता भी दिया..इससे साफ़ जाहिर है कि चोरी , तुम्हारी मंशा ही नहीं थी..तुम केवल देखना चाहते थे कि मैं हिसाब-किताब रखता हूँ या नहीं..और सच कहूँ तो मैं सचमुच कभी कोई हिसाब नहीं रखता...तुम लोग लाकर देते हो,मैं जस का तस उसे दीवान में डाल देता हूँ..जितना माँगते हो,दे देता हूँ..सब कुछ तुम्हारा ही तो है..गिनता रहूँगा तो सोऊंगा कब ? अब रही बात तुम्हारे न सो पाने की तो बता दूँ – तुम्हारे मन को इस बात ने घर कर रखी थी कि चोरी के रुपये हैं.. इसलिए तुम सो न सके..तुम्हें नींद नहीं आई..गलत तरीके से हासिल किये गए धन होंगे तो नींद कभी आएगी भी नहीं..इसीलिए तो अक्सर भ्रष्ट और काला बाजारियों की नींद हमेशा हराम रहती है..मेहनत की कमाई है,इसलिए मैं चैन की नींद सोता हूँ..
एक बात और..महीने में एक दिन मैं झोले में लाखों रूपये ले बाहर जाता हूँ तो शायद तुम दोनों सोचते हो मैं बैंक में जमा करता होऊंगा..किन्तु सच्चाई ये है कि मैं कभी कोई बैंक गया ही नहीं बल्कि वह रूपये कुछ गैर सरकारी संस्थाओं को नियमित रूप से हर महीने दान कर आता हूँ जो समाज के जरूरतमंद लोगों के लिए अच्छा काम करते हैं..बेहिसाब पैसों का पूरा –पूरा और सही उपयोग करता हूँ..किसी ने कहा है न- ‘तुम एक पैसा दोगे वो दस लाख देगा ‘ बिलकुल ही ठीक कहा है..दान-पुण्य करने से धन तत्काल ही कई गुणित हो जाता है, और हमारी बरकत का यही रहस्य है..मेहनत, ईमानदारी,लगन और दान..’
मित्र की कहानी ने तब मेरी सारी जिज्ञासाओं को शांत कर दिया था.
अखबार अभी भी मेरे हाथ में है..और बिल्लू निधन के कालम से मंद-मंद मुस्कुराते निहार रहा है..अब वह कभी नहीं पूछेगा -‘ क्या पैक करना है वर्मा जी ? ’ क्योंकि जिंदगी की बाजी में वह हमेशा के लिए “पैक” हो गया है..
zzzzzzzzzzzzzzzzzzzzzz
प्रमोद यादव
गयानगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़
E mail- pramodyadav1952@gmail.com
COMMENTS