जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी पंक्ति के रचयिता महर्षि वाल्मीकि ने मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी से अयोध्या लौटने पर इन दोनों का ...
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी पंक्ति के रचयिता महर्षि वाल्मीकि ने मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी से अयोध्या लौटने पर इन दोनों का महत्व रेखांकित कराया आज भी जननी और जन्मभमि का महत्व किसी से छुपा नहीं हैं ।सालों से अनेक कवियों-शायरों ने इन पर विशेष कर मां पर अपनी कलम चलायी है और अपने अस्तित्व- विकास के लिए उसको स्वीकारा है। मां जैसे अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय पर अनेक रचनाकारों की कलम चल रही है। तेजी से गिरते मूल्यों-बदलते व्यवहार के मध्य यह बहुत आवश्यक हो गया है कि हम अपनी जन्मदायिनी, अपने अस्तित्व का आधार मां के लिए सोचें। उसके प्रति अपने दायित्व व कर्तव्यों का आंकलन करें।
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मां पर समय के साथ बदलती सोच व रचनाकार की दृष्टि को दर्शाती कलम के सिपाहियों की कुछ पंक्तियां मैंने संकलित की हैं जिनका रसास्वादन, अवलोकन कर आप स्वंय निर्णय करेंगे -
जनाब निदाफाजली घरेलू उपयोग की सामान्य वस्तुओं से सामंजस्य कैसे बिठाते हैं। उसमें क्या-क्या देखते हैं। उन्हीं की पंक्तियों में देखें -
बेसन की सोंधी रोटी पर चटनी जैसी मां,
याद आती है चौका-बासन चिमटा फुकनी जैसी मां,
आधी सोई आधी जागी थकी दोपहरी जैसी मां,
दिन भर एक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी मां,
बांट के अपना चेहरा माथा, आंखें जाने कहां गईं
फटे पुराने इक एलबम में चंचल लड़की जैसी मां।
मां बच्चों के लिए क्या-क्या नहीं सहती और क्या-क्या नहीं करती जनाब गाफिल स्वामी ने शब्दों में पिरोया है-
अपना दूध पिलाकर मेरा तन मन पुष्ट बनाया मां ने,
जब भी मैं रोया चिल्लाया छाती से चिपकाया मां ने,
घुटुअन चला गिरा पुचकारा चोट लगी सहलाया मां ने,
धीरे-धीरे बड़ा हुआ मैं उंगली पकड़ चलाया मां ने,
भूखी रही बाद में खाया पहले मुझे खिलाया मां ने,
गीले में सोयी महतारी सूखे मुझे सुलाया मां ने।
राजकुमार सचान जी का मानना है कि जमान जायदाद से बढ़कर है मां का आशीर्वाद -
जमीन याद आई फिर मकान आया
पिता के जाते ही उभरकर विवाद आया,
भाईयों ने ले लिये हिस्से अपने- अपने
मेरे हिस्से मां का आशीर्वाद आया।
प्रकृति और मां के विविध रूपों के मध्य सम्बन्धों को जोड़ती सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की पंक्तियां देखिए -
चीटियां अंडे उठाकर जा रही हैं
और चिड़िया नीड़ को चारा दबाए
थान पर बछड़ा रंभाने लग गया है
टकटकी सूने विजन पथ पर लगाए
थमा आंचल थका बालक रो उठा है
है खड़ी मां शीश का गट्ठर गिराए।
मां क्या नहीं कर सकती अर्थात अपनी सन्तान के लिए मां सब कुछ कर सकती है विष्णु नागर जी की पंक्तियों में देखिए -
मां सब कुछ कर सकती है
रात-रात भर बिना पलक झपकाये जाग सकती है।
पूरा-पूरा दिन घर में खट सकती है
धरती से ज्यादा धैर्य रख सकती है
बर्फ से तेजी से पिघल सकती है
हिरणी से ज्यादा तेज दौड़कर खुद को भी
चकित कर सकती है
आग में कूद सकती है
तैर सकती है समुद्रों में
देश-परदेश शहर- गांव, झुग्गी- झोपड़ी सड़क
पर भी रह सकती है।
जगदीश व्योम जी ने अपनी पंक्तियों में मां को वेद, गीता, त्रिपिटका, पदावली, कबीर के साक्षात्कार तक से जोड़ दिया -
मां कबीर की साखी जैसी
तुलसी की चौपाई जैसी
मां मीरा की पदावली -सी
मां है ललित रूबाई सी।
मां वेदों की मूल चेतना
मां गीता की वाणी-सी
मां त्रिपिटका के सिद्ध सूक्त-सी
लोकोत्तर कल्याणी सी।
मशहूर शायर मुनव्वर राना जी ने घर में सबसे छोटा होने पर भी अमूल्य धन पाया -
किसी को घर मिला
हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था
मेरे हिस्से में मां आई।
अशोक वाजपेयी जी मां का कितना सुन्दर बिम्ब सामने रखते हैं -
कांच के आसमानी टुकड़े
और उन पर बिछलती
सूर्य की करुणा
तुम उन सबको सहेज लेती हो
क्योंकि तुम्हारी अपनी खिड़की के
आठों कांच सुरक्षित हैं
और सूर्य की करुणा
तुम्हारे मुंडेरों पर भी रोज बरस जाती है।
कुंअर बेचैन जी मां के लिए किस तरह भाव और शिल्प का चयन करते हैं उनकी ही पंक्तियों से जानिये -
मां तुम्हारे सजल आंचल ने धूप से हमको बचाया है
चांदनी का घर बनाया है,
तुम अमृत की धार, प्यासों को ज्योति -रेखा
सूरदासों को संधि को आशीष की कविता अस्मिता,
मन की समासों को मां,
तुम्हारे प्रीति के पल ने आंसुओं को भी हंसाया है
बोलता मन को सिखाया है।
खड़ी बोली हिन्दी के प्रथम महाकाव्य रचयिता अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध जी मां को संसार में ममता हो या प्यार सबमें अतुलनीय मानते हैं -
मिले न खोजे भी कहीं खोजा सकल जहान,
माता सी ममतामयी पाता पिता समान,
छाती से कढ़ता न क्यों तब बन पय की धार,
जब माता उर में उमंग नहीं समाता प्यार।
आलोक यादव जी तो मां को अपने और अपने घर के हर तसव्वुर में मानते हैं ।वहीं उनके जीवन में उसूलों का दिया भी रोशन करने वाली है। उन्हीं की पंक्तियां देखिए -
दर्द गैरों का भी अपना सा लगा है लोगों।
ये हुनर मुझको मेरी मां से मिला है लोगों।।
उसके कदमों के निशा हैं मैं जिधर भी देखूं।
घर तो मां का ही तसव्वुर में बसा है लोगों।।
मां अपने बच्चे की भूख के लिए क्या -क्या नहीं करती चद्रकांत देवताले जी के शब्दों में देखिए -
जब कोई भी मां
छिलके उतार कर चने, मूंगफली या मटर
दाने नन्हीं हथेलियों पर रख देती है,
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर थर- थराने लगते हैं,
मां ने हर चीज के छिलके उतार मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया।
बालहठ का अनोखा उदाहरण है राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी का यह गीत -
मां कह एक कहानी।
बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी ?
कहती है मुझको यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह मां कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी ?
मां कह एक कहानी।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि समय के साथ भाव विषयवस्तु ,संवेदना और अनुभूति भले बदली हो। तुकान्त, अतुकान्त, गेय- अगेय ,छन्दयुक्त -छन्दमुक्त आदि का रूप लेकर कविता भले आयी हो पर जन्मदायिनी को महत्व सभी ने दिया है और दिया जाता रहेगा। सार्थक होती रहेगा यह श्लोकांश- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
शशांक मिश्र भारती संपादक - देवसुधा, हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर -
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