कविता तुम ऐसी तो न थीं सुशील शर्मा कविता तुम ऐसी तो न थीं उत्ताल तरंगित तुम्हारी हंसी लगता था जैसे झरना निर्झर निर्भय बहता हो। शब्दों के स...
कविता तुम ऐसी तो न थीं
सुशील शर्मा
कविता तुम ऐसी तो न थीं
उत्ताल तरंगित तुम्हारी हंसी
लगता था जैसे झरना
निर्झर निर्भय बहता हो।
शब्दों के सम्प्रेषण इतने
कुन्द तो न थे स्थिर सतही।
तुम्हारे शब्द फ़िज़ाओं में तैर कर।
सीधे हृदय में अंकित होते थे।
तुम पास होती थी तो गुलाब की खुश्बू तैरती थी वातावरण में।
अचानक सब शून्य कैसे हो गया।
क्यों मूक बधिर सी तुम एकाकी हो।
क्यों मन से भाव झरना बंद हो गए।
क्यों स्थिर किंकर्तव्यविमूढ़ सी
तुम बहती रहती हो।
कविता और नदी कभी अपना स्वभाव नही बदलती।
नदी बहती है कल कल सबके लिए।
कविता स्वच्छंद विचरती है सबके मन में
उल्लसित भाव लिए सबको खुश करती।
कविता तुम मूक मत बनो।
कुछ कहो कुछ सुनो
उतरो सब के दिलों में निर्मल जल धार बन।
मत बदलो अपने स्वभाव को।
कविता तुम ऐसी तो न थी।
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एक बार तो कहते
सुशील शर्मा
एक बार तो कहते मत जाओ तुम मेरी हो।
एक बार तो कहते आ जाओ तुम मेरी हो।
मन की पहली धड़कन तुम्ही थे।
तन की पहली सिहरन तुम ही थे।
आंखों में तुम प्रथम दृष्टया प्रेमी थे।
जीवन का पहला सुमिरन तुम ही थे।
एक बार तो कहते रुक जाओ तुम मेरी हो।
एक बार तो कहते मत जाओ तुम मेरी हो।
जीवन के अनुरागों को तुम से बल था।
हृदय के गहरे भावों को तुम से बल था।
जीवन की हर खुशी शुरू थी तुमसे।
जीने के हर पल को तुम से बल था।
एकबार तो कहते फिर आओ तुम मेरी हो।
एक बार तो कहते मत जाओ तुम मेरी हो।
तुम बिन जीवन सूना सा मन थका थका।
तुम बिन आँगन रूठा सा सब रुका रुका।
तूफानों में नाव किनारा मुश्किल है।
तुम बिन मन ये टूटा सा दिल फटा फटा।
एक बार तो कहते दिल दे जाओ तुम मेरी हो।
एक बार तो कहते मत जाओ तुम मेरी हो।
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*ब्रज की रज पर दोहे*
सुशील शर्मा
ब्रज रज की महिमा अमर ब्रज रस की है खान।
ब्रज रज माथे पर चढ़े,ब्रज है स्वर्ग समान।
भोली भाली राधिका भोले कृष्ण कुमार।
कुंज गलिन खेलत फिरें ब्रज रज चरण पखार।
ब्रज की रज चंदन बनी, माटी बनी अबीर।
कृष्ण प्रेम रंग घोल के लिपटे सब ब्रज वीर।
ब्रज की रज भक्ति बनी, ब्रज है कान्हा रूप।
कण कण में माधव बसे कृष्ण समान स्वरूप।
राधा ऐसी बावरी कृष्ण चरण की आस।
छलिया मन ही ले गयो अब किस पर विश्वास।
ब्रज की रज मखमल बनी कृष्ण भक्ति का राग।
गिरीराज की परिक्रमा कृष्ण चरण अनुराग
वंशीवट यमुना बहें राधा संग ब्रजधाम।
कृष्ण नाम की लहरियाँ निकलें आठों याम।
गोकुल की गलियां भलीं कृष्ण चरणों की थाप।
अपने माथे पर लगा धन्य भाग भईं आप।
ब्रज की रज माथे लगा रटे कन्हाई नाम।
जब शरीर प्राणन तजे मिले कृष्ण का धाम।
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हाइकु-88
सुशील शर्मा
श्रम दिवस
श्वेद तरल
श्रम है अविरल
नव निर्माण।
दो सूखी रोटी
नमक संग प्याज
सतत श्रम।
विकास पथ
श्रम अनवरत
मैं हूँ विगत।
मेरा निर्माण
श्रेष्ठ अट्टालिकाएं
टूटी झोपड़ी।
श्रम के गीत
जो भी गुनगुनाता
होता सफल
ऊंचे भवन
गिरते आचरण
श्रम आधार।
पहाड़ खोदा
समंदर को बांधा
मैं हूँ निर्माता।
विकास रथ
मुझसे गुजरता
हूँ अग्नि पथ।
फटे कपड़े
अवरुद्ध जीवन
यही नियति।
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आत्मविजेता
सुशील शर्मा
अपने कष्टों को सहकर
जो पर उपकार रचाता है।
अपने दुःख को हृदय सात
कर जो न किंचित घबराता है।
वही श्रेष्ठ मानव,जीवन में
आत्म विजेता कहलाता है।
देख कष्ट दूसरों के जो
अविरल अश्रु बहाता है।
परहित के परिमाप निहित
निज कष्टों को अपनाता है।
वही श्रेष्ठ मानव,जीवन में
आत्म विजेता कहलाता है।
अन्यायों के अंधियारों में
न्याय के दीप जलाता है।
शोषित वंचित पीड़ित के जो
मौलिक अधिकार दिलाता है।
वही श्रेष्ठ मानव,जीवन में
आत्म विजेता कहलाता है।
अपनी इंद्रियों को वश में रख
मन संयमित कर जाता है।
संघर्षों से लड़कर जो अपना
जीवन सुघड़ बनाता है ।
वही श्रेष्ठ मानव,जीवन में
आत्म विजेता कहलाता है।
राष्ट्र प्रेम की वलिवेदी पर
जो अपना शीश चढ़ाता है।
मातृभूमि की रक्षा में जो
अपना सर्वस्य लुटाता है।
वही श्रेष्ठ मानव,जीवन में
आत्म विजेता कहलाता है।
मृत्यु से आंख मिला कर जो
मृत्यंजय बन जाता है।
काल के कपाल पर जो
स्वयं भाग्य लिख जाता है।
वही श्रेष्ठ मानव,जीवन में
आत्म विजेता कहलाता है।
माता पिता की सेवा कर जो
इस धरा पर पुण्य कमाता है।
वसुधैवकुटुम्बकं के विचार
को जो मन से अपनाता है।
वही श्रेष्ठ मानव,जीवन में
आत्म विजेता कहलाता है।
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*जल पर दोहे*
सुशील शर्मा
सूखा जंगल चीखता,खूब मचाये शोर
पेड़ो को मत काटिये ,सूखा जल सब ओर।
पानी पानी सब करें सूखी नदिया ताल।
मरती चिड़िया कर गई मुझ से कई सवाल।
मटका सिर पर लाद कर,कर पानी की आस।
चार कोस पैदल चलें,पानी करें तलाश।
झुलसी धरती ताप से,जीव जंतु बेहाल।
तन मन व्याकुल प्यास से,जीना हुआ मुहाल।
बिन पानी सांसे रुकीं ,जीवन है मजबूर।
प्यासी गौरैया कहे मुझे पिला दो नीर।
भुवन भास्कर क्रोध में उगलें धूप की आग।
दिन सन्नाटे से सना रात फुसकती नाग।
जल जीवन अनमोल है सृष्टि का परिधान।
अमृतमय हर बून्द है,श्रेष्ठ प्रकृति वरदान।
जल संरक्षण का नियम ,मन में लिया उतार।
जल का नियमन हम करें,शुद्ध करें व्यवहार।
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*जल है तो कल है*
हाइकु-87
पानी जल नीर
सुशील शर्मा
सिर पे घड़ा
चिलचिलाती धूप
तलाशे पानी।
शीतल नीर
अमृत सी सिंचित
मन की पीर।
जल का कल
यदि नहीं रक्षित
सब निष्फल।
उदास चूल्हे
नागफनी का दंश
सूखता पानी
नदी में नाव
बैलगाड़ी की चाप
स्वप्न सी बातें।
सूखते पौधे
गमलों में सिंचित
पानी चिंतित
पानी की प्यास
माफियाओं ने लूटी
नदी उदास
जल के स्त्रोत
हरियाली जंगल
संरक्षित हों।
जल की बूंदें
अमृत के सदृश्य
सीपी में मोती
जल जंगल
मानव का मंगल
नूतन धरा।
पानी का मोल
खर्चना तौल तौल
है अनमोल।
हाइड्रोजन
ऑक्सीजन के अणु
बनाते पानी।
अमूल्य रत्न
बचाने का प्रयत्न
सुखी भविष्य।
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तीन लिमरिक कविताएं
सुशील शर्मा
तुम मुझे बहुत पुराने लगते हो।
धूर्त चालक किन्तु सयाने लगते हो।
हो बहुत होंशियार
करते हो प्यार
न जाने क्यों अफसाने से लगते हो।
तुम्हारी बातें दिमाग खाती हैं।
कान में कुछ फुसफुसाती हैं।
बेकार सी होती हैं
आपा खोती हैं।
रात को सपनों में डराती हैं।
जोर जोर से आज बोली पत्नी।
क्यों जी बना दूँ आपकी चटनी
मैने किया मना
खाना ही नही बना
मना रहा हूँ मैं खैर अपनी।
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माँ पर मुक्तक
सुशील शर्मा
न पूजा न अरदास करता हूँ।
माँ तेरे चरणों में निवास करता हूँ।
औरों लिए तू सब कुछ दे दे।
मैं तेरी मुस्कान की आस करता हूँ।
तेरा हर आंसू दर्द का समंदर है।
माँ बक्श दे मुझे जो दर्द अंदर है।
यूँ न रो अपने बेटे के सामने।
तेरा आँचल मेरे लिए कलंदर है।
माँ तू क्यों रोती है मैं हूँ ना।
तुझको जन्नत के बदले भी मैं दूँ ना।
तेरी हर सांस महकती मुझ मैं।
तेरे लिए प्राण त्याग दूँ ना।
तू गीता सी पवित्र है।
तू सीता का चरित्र है।
तुझ में चारों धाम विराजे।
तू मेरी अनन्य मित्र है।
तू रेवा की निर्मल धारा।
गंगा का तू मोक्ष किनारा।
तेरे चरणों में है ईश्वर।
तू मेरा जीवन उजियारा।
आंसू गिरे आँख से तेरे।
धिक्कार उठे जन्मों को मेरे।
मत रो माँ तू अब चुप हो जा।
शीश समर्पित चरण में तेरे।
माँ सावन की फुहार है।
माँ ममता की गुहार है।
माँ तेरे महके आँचल में।
हम बच्चों की बहार है।
तेरी ममता काशी जैसी।
बिन तेरे ये धरती कैसी।
तेरे हर आंसू की कीमत।
मेरे सौ जन्मों के जैसी।
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भारत की पहचान
(सहिष्णुता बनाम राष्ट्रीय एकता पर कविता)
सुशील शर्मा
सहिष्णुताओं की आधार शिला
पर भारत भुवन भास्कर चमके।
त्याग संकल्प बलिदानों के दम
शुभ्र ज्योत्सना सी यह भूमि दमके।
कई सहस्त्र वर्षों से भारत
अविचल अखंड अशेष खड़ा है।
कई संस्कृतियों को इस भारत
ने अपने हृदय विशाल जड़ा है।
सृष्टि अनामय शाश्वत
अनादि अपरिमेय अति प्राचीन।
सब सभ्यताओं का उदभव
किन्तु हरपल सदा नवीन।
सब धर्मों का पवित्र संगम
धारित करता भारत वर्ष।
हर सम्प्रदाय को पारित
करता देता नवल उत्कर्ष।
गीता कुरान बाइबिल को
एक समान मिलता सम्मान।
हर पंथी को पूरी आजादी
हर धर्म का मिलता ज्ञान।
सब धर्मों की एक सीख है
सुखमय मानवता उत्थान।
राष्ट्रप्रेम की अलख जगाएं
करें दुष्टता का अवसान।
धर्म ,सहिष्णुता ,राष्ट्र भक्ति ,
जीवन मूल्यों को कर अवधारित।
मस्तक को विस्तीर्ण बना कर
सद्गुण संग जीवन आचारित।
एक राष्ट्र की परिकल्पनाएं
हर मन में हो प्रतिकल्पित।
साम्प्रदायिक कलुष मिटे
नव पल्लव प्रेम के हो संकल्पित।
संविधान अनुरूप चलें हम
सबको विकास का पथ देवें।
अंतिम छोर पर खड़े गरीब को
समग्र विकास का रथ देवें।
भारत का इतिहास
सहिष्णुता पर है आधारित।
भारत में सब धर्म हमें
बनाते है संस्कारित।
सब धर्मो को लेकर चलना
ही भारत की पहचान है।
राष्ट्र एकता और सहिष्णुता
भारत का अभिमान है।
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*मैं तुम्हारी उर्मिला*
(लक्ष्मण उर्मिला संवाद)
सुशील शर्मा
मैं तुम्हारी उर्मिला अशेष
चौदह बरस निर्मिषेष
एक दीप के सहारे
काटे मैंने बिना तुम्हारे।
तुम तो अक्षुण्य हो गए
भ्रात सेवा कर धन्य हो गए।
मेरा किसी ने जिक्र न किया
तुम बिन कैसे कैसे रही मैं पिया।
क्या इस चुप्पी पर बोलोगे?
क्या भ्रात धर्म से मुझे तौलोगे?
सीता मेरी बहिन दुखी है।
सब कष्टों के बाद सुखी है।
क्योंकि अपने पिय के पास रही है।
मेरी प्रीत आंसुओं में बही है।
एक पल सदियों से बीता है।
इंतजार में कोई इतना जीता है।
सदियों सी लंबी अकेली मेरी रातें
पिय बिन आंख बनी बरसातें।
मूक दीप जलाए अकेली इस संसार में।
प्रिय लौट आओ खड़ी हूँ इंतजार में।
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*लक्ष्मण का आश्वासन*
सत्य उर्मिले तुम्हारा त्याग
नही उसका मैं एक भाग।
जो तुम न देती विश्वास।
कैसे काटता ये वनबास।
प्रभु सेवा का पुण्य।
मिलेगा तुम्हे भी अक्षुण्य।
जब भी होगी भ्रात सेवा की बात।
उर्मिला का तप नही होगा निर्वात।
राम के चरणों की सौगंध
भ्रातसेवा से आबंध
डोर संग जैसे पतंग
लक्ष्मण है उर्मिले संग
अयोध्या में जब भी वापिस आऊंगा।
तुम्हारे बीते पलों को लौटाऊंगा।
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टूट चुकी हूं अंदर अंदर
सुशील शर्मा
तुमसे सीखे तौर तरीके
क्या तुम मेरे सीखोगे
हर पल मुझसे जीतते आये
अब और कितना जीतोगे।
अपने छोड़े सपने छोड़े
तुमको अपना माना है
हर सपने का समझौता कर
हाथ तुम्हारा थामा है।
*मैं औरत हूं*की सीखें
देना तुम कब छोड़ोगे
टूट चुकी हूं अंदर अंदर
मन से तुम कब जोड़ोगे।
चौका वर्तन खाना पानी
क्या सब मेरी जिम्मेदारी
घर के कामों के करने की
कब लोगे तुम हिस्सेदारी।
सुबह से उठ कर रात तलक
मैं मशीन बन जाती हूँ।
बच्चों से बूढ़ों की इच्छा की
मैं अधीन हो जाती हूँ।
घर के कामों को मेरे
कर्तव्यों में ढाला जाता।
सारे लोंगों की अपेक्षाओं
को मुझे से ही पाला जाता।
रिश्तों की डोर बांध कर
बेलों सा खींचा जाता।
कर्तव्य निर्वहन का संदेश
मेरे कानों में सींचा जाता।
थका हुआ है बच्चा मेरा
जब ये सासु कहतीं हैं।
माँ की याद दिला कर
ये आंखे क्यों बहती हैं।
घर बच्चे आफिस संभाल कर
भूल गई खुद का व्यक्तित्व।
जीवन के इस पड़ाव पर
ढूंढ रही अपना अस्तित्व।
मैंने अपना सब कुछ छोड़ा
क्या तुम भी कुछ छोड़ोगे।
टूट चुकी हूं अंदर अंदर
मेरा मन कब जोड़ोगे।
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ठंडा है मटके का पानी
(बाल कविता)
सुशील कुमार शर्मा
गरम धूप में शोर मचाएं
मुन्नू टिल्लू रोते आएं
माँ नानी उनको पुचकारे
जोर जोर से हंसती रानी
ठंडा है मटके का पानी
गई परीक्षा गर्मी आई
नानी ने मंगवाई मिठाई।
धमा चौकड़ी करते भाई।
नानी की न कोई सानी
ठंडा है मटके का पानी।
पुस्तक कापी कौन पढ़े अब।
बच्चों के पीछे हैं पड़े सब।
मौका ऐसा किसे मिले कब।
अब तो छुक छुक रेल चलानी।
ठंडा है मटके का पानी।
शहर छोड़ नानी घर आये।
कूद नदी में खूब नहाए।
पत्थर मार आम गिराए।
नानी से सब सुनी कहानी।
ठंडा है मटके का पानी।
नानी का घर स्वर्ग के जैसा
मिलती मस्ती मिलता पैसा
नाना है तो अब डर कैसा।
नानी जैसा न कोई दानी।
ठंडा है मटके का पानी।
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*तुम ऊपर उठने लगे हो*
सुशील शर्मा
जब अंतर्मन चोटिल हो।
जब मन मे कांटे चुभें।
जब कोई प्रतिकार करे।
जब मन आहत हो।
समझ जाना कि तुम सत्य के करीब हो।
जब मन की वेदना ।
शब्दों के सांचे में ढलने लगे।
जब अंतस का दर्द।
बाहर उबलने लगे।
सोच लेना कि तुम्हे लोग स्नेह करने लगे हैं।
जब अपनों के शब्दबाण चुभने लगें
जब अपने ही मन से उतरने लगें।
जब खुद की परछाईं साथ छोड़ दे।
जब साफ रास्ते पर भी ठोकर लगे
सोच लेना तुम संपूर्णता की ओर जा रहे हो।
जब मन दूसरों को माफ करने लगे।
जब गुस्सा प्यार में बदलने लगे।
जब विषमता में भी हर्ष दिखने लगे
जब अपमान में भी मन शांत रहे।
सोच लेना कि तुम दूसरों से ऊपर उठ रहे हो।
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बुढापा पर कविता
*जीता रहूँगा*
सुशील शर्मा
क्या हुआ सब जा चुके है।
बच्चे अपना घर बना चुके हैं।
जीवन के इस सफर में।
अकेला हूँ अपने घर मे।
जीवन के इस उपवन में
खिलता रहूंगा खिलता रहूँगा।
जीवन मे सब कुछ पाया।
छोड़ कर सब मोह माया।
अपने अनुभवों की कीमत
नही रखूंगा खुद तक सीमित।
मानवता के हितार्थ काम
करता रहूंगा करता रहूंगा।
सांसों की गिनती कम हो रही है।
मृत्यु जीवन की ओर बढ़ रही है।
सभी अपने पराये से लग रहे हैं।
दिन में सोए पल रात में जग रहे हैं।
जितने भी पल बचे हैं जिंदगी के।
जीता रहूँगा जीता रहूँगा।
बुढापा नैराश्य का पर्याय नही है
जीवन इतना असहाय नही है।
माना कि तन मजबूर है।
माना कि मंजिल दूर है।
फिर भी बिना किसी के सहारे
चलता रहूंगा चलता रहूंगा।
हे ईश्वर बोझ न बनूँ किसी पर।
रहूं अपने सहारे इस जमीं पर।
किंचित अभिमान न रहे मन में।
स्वाभिमान जिंदा रहे इस तन में।
अंतिम समय ये मुख तेरा ही नाम
रटता रहे रटता रहे।
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*रमे रामे मनोरमे*
सुशील शर्मा
विनम्रता
संस्कार
समर्पण
स्नेह
समाधि
के अविरल स्त्रोत राम हैं
त्याग
तपश्चर्य
संस्कृति
संस्कारों
के संवाहक राम हैं
कौशल
बुद्धि
विवेक
साधना
के धारक राम हैं
न्याय
सुशासन
नियम
यम
के पालक राम हैं
वीरता
रणधीरता
काल
महाकाल
की प्रतिमूर्ति राम हैं
राम का ऐश्वर्य
राम का चरित्र
राम के गुण
राम का राज्य
राम सा त्याग
राम सी वीरता
राम सा व्यक्तित्व
सोया है हमारे अंदर
कोई उसे नही जगाना चाहता
क्योंकि इसके लिए
बहुत कुछ खोना पड़ता है
सब कुछ त्याग कर ही
राम सा ऊंचा उठा जा सकता है
अविरल राम हर हृदय
में बहता गुण है।
जो आज की मनुष्यता की
बौनी पहुंच से परे है।
राम बनना बहुत कठिन है
भरत बनना असंभव है
लक्ष्मण की सेवा
कौसिल्या का वात्सल्य
सीता सा समर्पण
हनुमान सी भक्ति
उर्मिला सा विरह
मनुष्यता की श्रेष्ठतम संवेदनाएं हैं
दशरथ सा मोह
कैकई सी कठोरता
रावण सा अहंकार
मंथरा सी दुर्बुद्धि
मनुष्यता की निम्नतम विचारणायें हैं
रामायण का यह सार है
राम के गुणों को अपनाना ही
राम राज्य का विस्तार है।
रामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएं
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माँ -3
सुशील शर्मा
मन हरणी घनाक्षरी
8887 पदांत लघु गुरु
माँ मस्तक का चन्दन
माँ फूलों की है बगिया
माँ धरा सी विस्तारित
माँ ही मेरी दुनिया।
माँ चाँद जैसी शीतल
माँ मखमल सी नर्म
माँ सृष्टि का सरोकार
सबसे बड़ा धर्म।
सीता सी सहनशील
माँ दुर्गा अवतरणी
माता के श्री चरणों में
मेरी है वैतरणी।
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परिवर्तन
सुशील कुमार शर्मा
परिवर्तन की निश्चित धारा में।
जब एक नहीं बहेगा हमारा 'मैं '
तब तक सदा परिवर्तनशील समय।
जकड़ा रहेगा उम्रकैदी की मानिंद।
अहंकार की काल कोठरी में।
जलवायु का परिवर्तन कष्टकारी है।
कठिन है किन्तु स्वीकार्य है।
प्राकृतिक परिवर्तन भी देते हैं आनंद।
हर वर्ष नवपल्लव ऊग कर।
देतें हैं धरा को नवजीवन।
प्रकृति का हर रूप परिवर्तन के प्रति
सजग और संवेदनशील है।
परिवर्तन मनुष्य भी चाहता हैं
लेकिन स्वयं में नहीं।
हम हमेशा दूसरों में चाहते हैं परिवर्तन।
स्वयं के जड़ संस्कारों और गंदलेपन को।
तरजीह देतें हैं हमेशा दूसरों पर।
उछालते हैं कीचड़ अपनी जमी हुई काई की।
हम नहीं बदलना चाहते अपनी त्वरा को।
हम संतुष्ट हैं अपनी कूपमंडूकता से।
हमारा शरीर यात्रा कर लेता है।
जन्म से अंत्येष्टि तक की।
किन्तु हमारा मैं अपरिवर्तनीय है
जन्म से मृत्यु तक एक ठूंठ की तरह।
परिवर्तन की निश्चित धारा में।
बहा आओ अपना अहंकार।
परिष्कृत होंगे तुम्हारे विचार।
जन्मेगा प्रगति का नव पल्लव।
प्रशस्त होंगे विकास पथ।
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*बहारें फिर भी आएँगी*
सुशील शर्मा
बहारें फिर भी आएँगी
ज़माने में भले ही तुम न रहोगे।
फिजायें गुल खिलाएंगी
ज़माने में भले ही तुम न रहोगे।
तोड़ कर दिल यूँ जाने का
सबब तो बता देते।
खुशियां अब भी मुस्कुरायेंगीं
ज़माने में भले तुम न रहोगे।
कभी किसी के जाने से
कोई मर नहीं जाता।
कलियां फिर खिलेंगी
ज़माने में भले ही तुम न रहोगे।
कभी निकलो इस गली से
तो एक नजर देख लेना।
बहारें गुनगुनाएंगी इस
ज़माने में भले ही तुम न रहोगे।
वो कोई और होते है
जो गम से टूट जाते हैं।
ये आँखे मुस्कुरायेंगीं
ज़माने में भले ही तुम न रहोगे
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मेरा देश मेरी पहचान
(त्रिशब्दीय रचना)
नव स्वतंत्र गान।
स्वच्छ शास्त्रीय परिधान।
दैवीय संस्कृति संपन्न।
विविध प्राकृतिक रंग।
विभिन्न धार्मिक उत्सव।
राष्ट्रीयता के महोत्सव।
संस्कृति की विविधता।
अविच्छिन्न धार्मिक समरसता।
कन्याकुमारी से कश्मीर।
अरुणांचल से कच्छतीर।
होली की हुड़दंग।
ईद की तरंग।
दीपावली के दीप।
श्रद्धा समन्वय समीप।
हिन्दसागर का तीर।
हिमालय धीर गंभीर।
शादी ढोल तमाशे।
गोल बर्फ बताशे।
हिन्दू सिख ईसाई।
पारसी मुस्लिम भाई।
प्रगति के सोपान।
अंतरिक्ष में मंगलयान।
सुरक्षा स्वास्थ्य शिक्षा।
नारियों की अभिरक्षा।
समता ममता युक्त।
द्वेष पाखंड विमुक्त।
आगे बढ़ता देश।
उन्नत सब प्रदेश।
सबका हो विकास।
करें सम्मलित प्रयास।
भारत भाग्य विधान।
भारत मेरी पहचान।
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सेदोका
बहता वक्त
कैलेंडर में दर्ज
कितनी ही तारीखें
प्रतीक्षारत
सुनहरे सपने
आशा भरा आकाश।
वेदना नहीं
संवेदना थी कहीं
लंबी सी जिंदगी में
दूरियां बढ़ी
बोलने लगीं अब
हमारी खामोशियाँ।
मन दर्पण
नया बिम्ब उभरा
खुद को तलाशता
ढूंढता फिरे
खुद की परछाईं
अंतस अँधेरे में।
सुशील शर्मा
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माहिया
हर साल सूली चढ़ा
सच लटकता हुआ
फोटो फ्रेम मढ़ा।
छलकती शुभकामना
मासूम निगाहें
प्रेम की अभिव्यंजना।
संसार अनुबंध है
रिश्ते भुनाने का
व्यवहारिक सम्बन्ध है।
तारीख लहूलुहान
कैलेंडर में दर्ज
गुजरे वक्त के निशान।
सुशील शर्मा
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नए संवत्सर पर दोहे
सुशील कुमार शर्मा
'साधारण" के नाम का, नव संवत्सर है वर्ष।
चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा ,नूतन नवल सहर्ष।
राजा मंगल जानिए,मंत्री गुरु का साल।
समरसता जग में बढ़े ,होंगे नहीं बवाल।
विश्व गुरु बनने चला भारत फिर एक बार।
सुख समृद्धि आगे बढ़े ,हो सब का बेड़ा पार।
प्रगतिशील हर क्षेत्र में भारत ज्ञान सुजान।
डंका पिटेगा विश्व में मिले अमित सम्मान।
मंगल को हनु जयंती मंगल नवमी राम।
मंगल संवत्सर शुरू मंगल हों सब काम।
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आईने पर दो कविताएं
आइना
दिल गम से टूटा है।
चलो हम मना लें उसे।
टूटा है आइना किरचों में।
करीने से सजा लें उसे।
आइना है कविता मेरी
तेरे उन सवालों का।
जो उलझे है बेतरतीब
जेहन में गर्द जालों का।
हर अक्स आईने में
अजनबी सा लगता है।
दिल को बचा कर रखना।
वो टूट भी सकता है।
आइनों में मैंने
देखी थी अपनी सूरत।
आइना झूठ नहीं कहता
क्या वो थी इंसान की मूरत?
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सुशील शर्मा
*मैं आइना हूँ*
सुशील शर्मा
मैं आइना हूँ।
न मेरा कोई रूप है ,न कोई रंग है।
न मेरा दिल है न कोई उमंग है।
दर्द और दुखों से व्यथित नहीं हूँ मैं।
छुद्र पूर्वाग्रहों से ग्रसित नहीं हूँ मैं।
जो मेरे समक्ष जिस भाव में आता है।
खुद को मूल स्वरुप में चित्रित पाता है।
तुम्हारे सारे आवरण ढंकना मुझे नहीं आता।
तुम्हारे अवगुणों को छुपाना मुझे नहीं भाता।
मुझे सच के सिवा कुछ बताना नहीं आता।
मैं अँधेरे उजाले को नहीं पहचान पाता।
मैं सत्य असत्य को नहीं जानता हूँ।
सौंदर्य और कुरूप मानकों को नहीं मानता हूँ।
शब्द और भावनाओं से मैं बेअसर हूँ।
प्रेम और घृणा से मैं बेखबर हूँ।
मुझे मालूम है तुम्हारे अंदर कुछ मरता है।
तुम्हारा अहं मेरा सामना करने से डरता है।
मैं तुम्हारे अंतर्मन का सामान्तर हूँ।
मैं तुम्हारे मन का अभ्यांतर हूँ।
जब भी मेरे सामने आओगे।
खुद को खुद जैसा ही पाओगे।
मैं आइना हूँ।
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अश्व घोडा
सुशील शर्मा
अश्व की शक्ति
अपरिमित तेज
अदम्य वेग
रण का वीर
चेतक रणधीर
राणा का मान।
मन का घोडा
सरपट दौड़ता
बुद्धि लगाम ।
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माहिया-3
(तीन पदी 12,10,12 मात्राएँ)
सुशील शर्मा
सरल सहज सुन्दर सरस
सुखद सहस सानंद
फूल सा बीता बरस।
दूर रह कर भी पास
अद्भुत है ये प्यार
तुम्हारा ही अहसास।
मन का तुमसे नाता
जब देखो तब ही
तुम्हारा साथ भाता।
तुम पर स्नेह लुटाऊँ
तेरी यादों में
आंसू न रोक पाऊं।
दूर न मैं कर पाया
तुमको इस मन से
तुमने बहुत सताया।
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हाइकु-81
पाषाण पाहन पत्थर
सुशील शर्मा
पाषाण होना
नहीं होता आसान
दर्द को पीना।
ह्रदय पीड़ा
पत्थर की चट्टान
टूटती नहीं।
बसता नहीं
ईश्वर पाषाण में
मन टटोलो।
निष्ठुर सही
पाषाण सा कठोर
नहीं था कभी।
पत्थर बनी
निर्दोष अहिल्याएं
मुक्ति की आस।
युगों की पीर
पत्थर बन बैठी
ह्रदय तीर
शिल्पी के भाव
मुखर हो उभरे
पाषाण पर।
पाषाण शिला
अहिल्या सी निस्तब्ध
राम की आस।
आज का दौर
पुजते हैं पत्थर
कहाँ ईश्वर?
पाषाण युग
सभ्यताओं के दौर
सतत क्रम
चेतना शून्य
कुटिल सा कुंठित
पाषाण मन
पाषाण अहं
पराजित करता
स्वयं जीवन।
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