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कहते हैं हर पुरुष की सफलता के पीछे एक नारी का हाथ होता है. एक तरफ वह घर की जिम्मेदारियां उठाकर पुरुष को छोटी-छोटी बातों से मुक्त रखती है, वहीं वह एक निष्पक्ष सलाहकार के साथ-साथ हर गतिविधि को संबल देती है. महात्मा गाँधी के नाम से भला कौन अपरिचित होगा. पर जिस महिला ने उन्हें जीवन भर संबल दिया और यहाँ तक पहुँचाने में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, वह गाँधी जी की धर्मपत्नी कस्तूरबा गाँधी बा थीं.
गुजरात में 11 अप्रैल, 1869 को जन्मीं कस्तूरबा बा का 14 साल की आयु में ही मोहनदास करमचंद गाँधी जी के साथ बाल विवाह हो गया था. वे आयु में गांधी जी से 6 मास बड़ी थीं. वास्तव में 7 साल की अवस्था में 6 साल के मोहनदास के साथ उनकी सगाई कर दी गई और 13 साल की आयु में उन दोनों का विवाह हो गया. जिस उम्र में बच्चे शरारतें करते और दूसरों पर निर्भर रहते हैं, उस उम्र में कस्तूरबा बा ने पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन आरंभ कर दिया. वह गाँधी जी के धार्मिक एवं देशसेवा के महाव्रतों में सदैव उनके साथ रहीं. यही उनके सारे जीवन का सार है. गाँधी जी के अनेक उपवासों में बा प्रायः उनके साथ रहीं और उनकी जिम्मेदारियों का निर्वाह करती रहीं. गाँधी जी के उपवास के समय कस्तूरबा गाँधी बा भी एक समय का ही भोजन करती थीं. आजादी की जंग में जब भी गाँधी जी गिरफ्तार हुए, सारा दारोमदार कस्तूरबा बा के कन्धों पर ही पड़ा. यदि इतने सब के बीच गाँधी जी स्वस्थ रहे और नियमित दिनचर्या का पालन करते रहे तो इसके पीछे कस्तूरबा बा थीं, जो उनकी हर छोटी-छोटी बात का ध्यान रखतीं और हर तकलीफ अपने ऊपर लेतीं. तभी तो गाँधी जी ने कस्तूरबा बा को अपनी मां समान बताया था, जो उनका बच्चों जैसा ख्याल रखतीं.
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विवाह के बाद कस्तूरबा बा और मोहनदास 1888 ई. तक लगभग साथ-साथ ही रहे किंतु गाँधी जी के इंग्लैंड प्रवास के बाद से लगभग अगले 12 वर्ष तक दोनों प्रायः अलग-अलग से रहे. इंग्लैंड प्रवास से लौटने के बाद शीघ्र ही गाँधी जी को अफ्रीका चला जाना पड़ा. जब 1896 में वे भारत आए तब कस्तूरबा को अपने साथ ले गए. तब से गाँधी जी के पद का अनुगमन करती रहीं. उन्होंने उनकी तरह ही अपने जीवन को सादा बना लिया था. 1904-1911 तक वह डरबन स्थित गाँधी जी के फिनिक्स आश्रम में काफी सक्रिय रहीं.
दक्षिण अफ्रीका में एक वाकया कस्तूरबा बा की जीवटता और संस्कारों का परिचायक है. दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की दयनीय स्थिति के खिलाफ प्रदर्शन आयोजित करने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया व 3 महीने कैद की सजा सुनाई गई. वस्तुतः दक्षिण अफ्रीका में 1913 में एक ऐसा कानून पास हुआ जिसके अनुसार ईसाई मत के अनुसार किए गए और विवाह विभाग के अधिकारी के यहाँ दर्ज किए गए विवाह के अतिरिक्त अन्य विवाहों की मान्यता अग्राह्य की गई थी. गाँधी जी ने इस कानून को रद्द कराने का बहुत प्रयास किया पर जब वे सफल न हुए तब उन्होंने सत्याग्रह करने का निश्चय किया और उसमें सम्मिलित होने के लिये स्त्रियों का भी आह्वान किया. पर इस बात की चर्चा उन्होंने अन्य स्त्रियों से तो की किंतु से नहीं की. वे नहीं चाहते थे कि बा उनके कहने से सत्याग्रहियों में जायँ और फिर बाद में कठिनाइयों में पड़कर विषम परिस्थिति उपस्थित करें. जब कस्तूरबा बा ने देखा कि गाँधी जी ने उनसे सत्याग्रह में भाग लेने की कोई चर्चा नहीं की तो बड़ी दुरूखी हुई और फिर स्वेच्छया सत्याग्रह में सम्मिलित हुई और तीन अन्य महिलाओं के साथ जेल गईं. जेल में जो भोजन मिला वह अखाद्य था. धर्म के संस्कार बा में गहरे पैठे हुए थे. वे किसी भी अवस्था में मांस और शराब लेकर मानुस देह भ्रष्ट करने को तैयार न थीं. कठिन बीमारी की अवस्था में भी उन्होंने मांस का शोरबा पीना अस्वीकार कर दिया और आजीवन इस बात पर दृढ़ रहीं. जेल में उन्होंने फलाहार करने का निश्चय किया. किंतु जब उनके इस अनुरोध पर कोई ध्यान नहीं दिया गया तो उन्होंने उपवास करना आरंभ कर दिया. अंततः पाँचवें दिन अधिकारियों को झुकना पड़ा. किंतु जो फल दिए गए वह पूरे भोजन के लिये पर्याप्त न थे. अतः कस्तूरबा बा को तीन महीने जेल में आधे पेट भोजन पर रहना पड़ा. जब वे जेल से छूटीं तो उनका शरीर ढांचा मात्र रह गया था, पर उनके हौसले में कोई कमी नहीं थी.
भारत लौटने के बाद भी वे गाँधी जी के साथ काफी सक्रिय रहीं. चंपारन के सत्याग्रह के समय बा तिहरवा ग्राम में रहकर गाँवों में घूमती और दवा वितरण करती रहीं. उनके इस काम में निलहे गोरों को राजनीति की बू आई. उन्होंने बा की अनुपस्थिति में उनकी झोपड़ी जलवा दी. बा की उस झोपड़ी में बच्चे पढ़ते थे. अपनी यह पाठशाला एक दिन के लिए भी बंद करना उन्हें पसंद न था अतः उन्होंने सारी रात जागकर घास का एक दूसरा झोंपड़ा खड़ा किया. इसी प्रकार खेड़ा सत्याग्रह के समय बा स्त्रियों में घूम घूमकर उन्हें उत्साहित करती रहीं. 1922 में जब गाँधी जी को गिरफ्तार कर छह साल की सजा हुई, उस समय कस्तूरबा गाँधी ने महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में विदेशी कपड़ों के त्याग के लिए लोगों का आह्वान किया. गाँधी जी का संदेश लोगों तक पहुँचाने के लिए वे गुजरात के गाँवों में दिन भर घूमती फिरीं. 1930 में दांडी कूच और धरासणा के धावे के दिनों में गाँधी जी के जेल जाने पर कस्तूरबा बा एक प्रकार से उनके अभाव की पूर्ति करती रहीं. वे पुलिस के अत्याचारों से पीड़ित जनता की सहायता करती, धैर्य बँधाती फिरीं. 1932 और 1933 का अधिकांश समय तो उनका जेल में ही बीता. इसी प्रकार जब 1932 में हरिजनों के प्रश्न को लेकर बापू ने यरवदा जेल में आमरण उपवास आरंभ किया उस समय बा साबरमती जेल में थीं. उस समय वे बहुत बेचैन हो उठीं और उन्हें तभी चैन मिला जब वे यरवदा जेल भेजी गईं.
गाँधी जी के अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान 9 अगस्त, 1942 को गाँधी जी के गिरफ्तार हो जाने पर बा ने, शिवाजी पार्क (बंबई) में, जहाँ स्वयं गाँधी जी भाषण देने वाले थे, सभा में भाषण करने का निश्चय किया किंतु पार्क के द्वार पर ही अंग्रेजी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. दो दिन बाद वे पूना के आगा खाँ महल में भेज दी गईं, जहाँ गाँधी जी पहले से गिरफ्तार कर भेजे चुके थे. उस समय वे अस्वस्थ थीं. 15 अगस्त को जब यकायक गाँधी जी के निजी सचिव महादेव देसाई ने महाप्रयाण किया तो वे बार बार यही कहती रहीं महादेव क्यों गया, मैं क्यों नहीं? बाद में महादेव देसाई का चितास्थान उनके लिए शंकर-महादेव का मंदिर सा बन गया. वे नित्य वहाँ जाती, समाधि की प्रदक्षिणा कर उसे नमस्कार करतीं. वे उसपर दीप भी जलवातीं. यह उनके लिए सिर्फ दीया नहीं था, बल्कि इसमें वह आने वाली आजादी की लौ भी देख रही थीं. कस्तूरबा बा की दिली तमन्ना देश को आजाद देखने की थी, पर उनका गिरफ्तारी के बाद उनका जो स्वास्थ्य बिगड़ा वह फिर अंततः उन्हें मौत की तरफ ले गया और 22 फरवरी, 1944 को वे सदा के लिए सो गयीं.
संपर्क : टाइप 5 निदेशक बंगला, पोस्टल ऑफिसर्स कॉलोनी, जेडीए सर्किल के निकट, जोधपुर,
राजस्थान- 342001
ई-मेल : akankshay1982@gmail.com
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