कहानी 'क' और कहानी 'ख' (धीर मेरा बहुत अच्छा दोस्त था। वह हमारी कालोनी में ही रहता था।यह कहानी उसकी और मेरी है।यह कहानी दो...
कहानी 'क' और कहानी 'ख'
(धीर मेरा बहुत अच्छा दोस्त था। वह हमारी कालोनी में ही रहता था।यह कहानी उसकी और मेरी है।यह कहानी दो अलग-अलग भागों में बंटी हुई है।कहानी 'क' मेरी है।कहानी 'ख' धीर की है।कहानी 'ख' पहले लिखी गई थी। मेरी कहानी उसमें बाद में आ कर जुड़ी।या यूं कहिए कि कहानी 'ख' ने ही कहानी 'क' मुझसे लिखवा ली क्योंकि कहानी पढ़ते हुए मुझे बार-बार यह अहसास होता रहता था कि इसमें काफी बातें छूट रही हैं।इसलिए कहानी 'ख' के अधूरेपन को दूर करने के लिए मैंने कहानी 'क' लिखना शुरू किया।किन्तु,ज्यों-ज्यों मैं कथा में आगे बढ़ता गया,त्यों-त्यों मैं यह महसूसता चला गया कि कहानी 'क' की भाषा-शैली-ट्रीटमेंट कहानी 'ख' से बिल्कुल अलग है।अगर मैं गलती से इन्हें एक कर डालता हूं,तो सुधिजन फौरन मेरी 'इसकी टोपी,उसके सिर' जैसी क्षुद्र हरकत को पकड़ लेंगे और फिर मेरे लिए ज़वाब देना भारी पड़ जाएगा।इसलिए,मैंने पाठकों के सामने सच रखना मुनासिब समझा।अब वह स्वयं यह निर्णय कर लें कि असली स्थिति क्या है?)
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कहानी 'क'
ब्रह्मबेला में घड़ी की सुइयों के चार बजाते ही भक-भक-भक--खट-खट-खट--करता हुआ कूलर का पंखा, पैडों की घास से उलझ कर रूक जाता है जिससे मेरी आंखें खुल जाती हैं क्योंकि रोज़ बिजली की कटौती सुबह चार बजे से शुरू हो कर छह-सवा छह बजे तक चलती रहती है।पूरी रात बिजली की जो आंखमिचौनी चलती है और मच्छरों की जिस भिनभिनाहट से लोहा लिया जाता रहता है, वह लिया जाता रहना बिना नाग़ा बदस्तूर जारी रहता है।बिजली जाते ही मेरी नन्हीं परी का कसमसाना शुरू हो जाता है,हालांकि मैं उसे पंखा झलता रहता हूं और उस तक हवा पहुंचाता रहता हूं।हवा भी उसके खरगोश के बालों सरीखे मरमरी गालों को छूती रहती है।पर न जाने कैसे उसे पता चल जाता है कि बिजली रानी रूठ चली है और फिर उसका रूदन शुरू हो जाता है--ऊं-ऊं-ऊंsssऊंsssऊं-ऊं....।मेरी पत्नी कुनमुनाती रहती है।कविता के नथुने फड़फड़ाते रहते हैं।इसके बाद उसके अंतस से शब्द निकलने लगते हैं-"हाय राम!"फिर अपना अपाहिज क्रोध मिट्ठी पर फेंकते हुए कविता बोल पड़ती है-"मिट्ठी चुप हो जा।बाहर राक्षस है!वह तुझे खा जाएगा।अभी सब बच्चे सो रहे हैं।वैष्णवी भी सो रही है।दीपू भी सो रहा है।गोलू भी सो रहा है।मोनू भी सो रहा है।फिर तू क्यों जाग रही है।"पर मिट्ठी, खट्ठी ही बनी रहती है।पत्नी का सूजा मुंह मेरी लाचारी का मखौल उड़ाता रहता है।अपनी हताशा-निराशा मैं बयान नहीं कर पाता हूं।मैं मिट्टी को गोद में उठा कर धीमे-धीमे स्वर में गाने लगता हूं। मैं क़ोशिश करता रहता हूं कि पड़ोसियों की दीवार के उस तरफ मेरी आवाज़ नहीं पहुंचे।मैं टहलने लगता हूं।गाने लगता हूं।गुनगुनाने लगता हूं---नन्हीं परी सोने चली,हवा धीरे आना...। फिर दूसरा बालगीत गाना शुरू कर देता हूं मैं-मेरे घर आई एक नन्हीं परी।इसके बाद चंदा मामा दूर का नम्बर आता है।
मिट्ठी मेरी गोद में है।अंधेरे में मैं यह देख नहीं पा रहा हूं कि वह सो गई है कि नहीं।कमरे में मोमबती जल रही है।मोमबती की रोशनी में ड्रेसिंग टेबल के शीशे में उसे ऊंघते हुए देखता हूं मैं।अपने बिस्तर पर चढ़ता हूं मैं।घुटनों के बल झुकता हूं मैं।उसे लिटाने की कोशिश करता हूं मैं।किन्तु,पलंग की चूं-चां शुरू हो जाती है।मिट्ठी मैडम की बड़ी-बड़ी बिल्लौरी आंखें खुल जाती हैं।मेरी मेहनत बेकार चली जाती है।उसकी आंखों पर लटक रहे घुंघराले बालों को हटा देता हूं मैं ।वह पुन: मेरी गोद में है।पत्नी की नींद पूरी तरह से खुल चुकी है।उसके बॉब्ड हेयर बेतरतीब हो रखे हैं।अपने उलझे हुए बालों को पत्नी दांई हथेली से सुलझा रही है।अभी उसे ड्रेसिंग टेबल के सामने जा कर कंघी से अपने बाल बनाने हैं।थोड़ी देर पहले कविता के माथे पर पसीने की बूंदें पड़ी हुई थीं।अब उन्होंने धार का रूप ले लिया है।धार गालों पर होती हुई छाती में घुस रही है।कविता के बाजू भी पसीने से लिचपिच हो रखे हैं।कविता अपनी दिव्य मुस्कान नहीं बिखेर रही है।उसकी दाढ़ में दर्द हो रहा है।वह परेशान है।चिंतित है।वह पलंग पर बैठ कर इष्टदेवों का स्मरण करने लगती है।उसके हाथ में मोमबती है।मोमबती जल रही है।उसने लाल रंग की नाइटी पहनी हुई है।वह रसोईघर में घुस रही है।(हो सकता है कि आपको फिल्म बीस साल बाद याद आ रही हो।)रसोईघर में कोई रोशनदान नहीं है।उधर से हवा बाहर नहीं निकल पाती है।दीवार पर लगी टयूबलाइट काली हो गई है।छत भी काली-पीली हो चुकी है।रसोई में घुसते ही बिजली आ जाती है।कविता ने खाना बनाना शुरू कर दिया है।गैस के चूल्हे पर रखे प्रैशर कुक्कर से निकल रही भाप,चूल्हे के ताप और मसालों की महक से कविता का दम घुट रहा है..वह सांस लेने के लिए किचन के अंदर-बाहर आती रहती है।
मिट्ठी मेरी गोद में ही रहती है।मैं तुरंत पानी की मोटर चलाने के लिए दौड़ पड़ता हूं।किचन में पिछली रात के झूठे बर्तन पड़े हुए हैं।वह पत्नी को चिढ़ा रहे हैं।ताना मार रहे हैं।फ़िकरे कस रहे हैं।मिट्ठी जग गई है।मैंने उसे प्रैम में लिटा दिया है।मोटर पानी नहीं खींच रही है।मैं उसकी इनलेट खोल कर पानी की धार डालता हूं-जलाभिषेक की तरह।नल फक-फक-फक....करने लग पड़ता है। टोटी से हवा निकल रही है। प्रैशर नहीं बन रहा है। मैं टोटी को अंगुली से बंद कर देता हूं।दबाव बन रहा है।उसके कारण मेरी अंगुली हट जाती है।खाली बाल्टी में पानी गिरने लग पड़ता है-तड़-तड़......।पड़ोस की दीवार के पार से भी मोटर चलने का शोर आने लगता है-घअ-घअ-घअ-घर्र-घर्र..।तभी पत्नी की आवाज सुनाई पड़ती है-"महाराज!क्या गुनने-बुनने लग गए?नहाना-धोना शुरू कीजिए।मेरा काम खत्म होनेवाला है।"इसे सुन कर मैं स्नानघर में चला जाता हूं और स्नानघर का नल खोल देता हूं ।देह पर पानी की बूंदें पड़ते ही, चिरमिराहट से बेचैन हो उठता हूं मैं ।नल का पानी चाय बनाने के लायक हो रखा है।रात गुज़रने के बाद भी जल ठंडा नहीं हुआ है।स्नानघर समेत घर की छह इंची दीवारों की ईंटें दिन भर तपती रहती हैं और सुबह होने तक ही भट्ठी की आंच ठंडी हो पाती है...तब तक हमारा मांस पकता रहता है..घर की चहारदीवारी में..ग़लती से फर्श पर नंगे पांव रख देने पर,पांव जल उठते हैं।
मिट्ठी बेहद समझदार है।उम्र से ज्यादा परिपक्व है वह। उसकी आयु भी है ही कितनी?सिर्फ़ एक साल।पर वह अपनी मम्मी को बिल्कुल भी परेशान नहीं करती है।मम्मी उसे नहलाती है,धुलाती है,खिलाती है,पिलाती है,सजाती है,संवारती है और अपने साथ बालवाड़ी ले जाती है।किन्तु,वह उफ्फ तक नहीं करती है । पत्नी ने उसकी कंडीशनिंग जन्म लेते ही शुरू कर डाली थी।मुझे याद है और बहुत अच्छी तरह से याद है कि मिट्ठी हुई ही थी।नर्स डिलीवरी रूम से मिट्ठी को पत्नी के पास ले आई थी-मां का दूध पिलाने के लिए।उसकी क्षुधा तृप्त करने के लिए।तब पत्नी ने मिट्ठी को अपना दूध पिलाने के बजाए,नर्म गुदगुदे तकिए पर लिटा कर और फिर उसे तौलिए से बांध कर तिरछा लिटा दिया था।इस प्रयत्न में कि पेट के अंदर और बाहर के महौल में बच्ची फ़र्क़ न कर सके।वह अपनी मां की देहगंध महसूस न कर सके।इस तरह मिट्ठी का जीवन का पहला स्पर्श तक़िया-तौलिया था,न कि उसकी मां की ममतामयी छुअन।शुरू-शुरू में मिट्ठी बहुत रोई थी।लेकिन लेक्टोजन-I को पचाना शुरू करने पर पत्नी की परेशानी दूर होती चली गई थी।मेरा काम ज़रूर बढ़ गया था।मुझे नियमित रूप से फीडिंग बोतल को उबालना पड़ता था।मिट्ठी का दूध बनाना पड़ता था।लेकिन हमारी छह माह की तपस्या रंग ले आई थी।मिट्ठी को बचपन से ही अकेले रहने की आदत पड़ गई।नतीज़तन, तैयार होते समय ज़िद करने की आदत मिट्ठी की पड़ी ही नहीं।पत्नी ने बड़ी होशियारी से उसे अपनी ज़रूरतों के मुताबिक़ ढाल दिया था।
अब हम चौथे माले से नीचे उतर चुके हैं।कालोनी के बीच से हम गुज़र रहे हैं।मकानों की दीवारों का बाहरी प्लास्टर उखड़ रहा है।दीवारों पर काई जमी हुई है।भूमि तल पर लोगों ने दुकानें खोल रखी हैं।रोज़ की तरह लाला हमें देख रहा है।मैं आगे हूं।पत्नी पीछे है।उसकी गोद में मिट्ठी है।प्रेसवाली को मैंने कपड़े दे दिए हैं।उसे पता है कि हमारे प्रेस किए हुए कपड़े शाम को नेगी जी के घर पर रखने हैं।नेगी जी का घर बंद मिलने पर सिसौदिया के घर में भी कपड़े रखे जा सकते हैं।
गंदे नाले पर बनी पुलिया पर रिक्शेवाले खड़े हो रखे हैं।बिहारी मुसलमानों और बिहारियों के बूते पर रिक्शातंत्र बड़ी मज़बूती से खड़ा हो रखा है।स्थानीय टेम्पोचालक बिहार ब्रिगेड की पिटाई करते रहते हैं।रिक्शाचालकों की वज़ह से उनकी गुज़र-बसर मुश्किल हो गई है।सभी रिक्शाचालकों को मालूम है कि हम ज़ाफर के रिक्शे पर बैठते हैं।अन्य रिक्शाचालक हमसे 15रुपये मांगते हैं।लेकिन ज़ाफर हमसे केवल 10रुपये ही लेता है।वह अपनी बोली-बानी में ज़ाफर को गालियां देते रहते हैं।ज़ाफर उन्हे सुना-अनसुना करता चलता है।रिक्शे पर बैठे हुए मैं मिट्ठी को आस-पास के पशुओं को दिखा-दिखा कर बताता रहता हूं-"बी फार बुफैलो,सी फार काउ,डी फार डॉग,जी फार गोट..।"
अंतरराज्यीय बस अड्डा आ चुका है।पटरी पर मुझे चींटियां चलती हुई दिखाई देती हैं।चींटियां उत्कंठित हो कर बसों की राह तक रही हैं।नहीं,नहीं वे चींटियां नहीं हैं।आदमज़ाद हैं।अगर वे चींटियां होते,तो उनकी एक लीक होती।वह अपनी क़तार पर चल रहे होते।लेकिन उधर पर ऐसा कुछ भी न था।बस आते ही अफ़रातफ़री मच जाती है।बस कंडक्टर गेट पर ज़ोर-ज़ोर से थाप दे रहा है--"मंडी-मंडी..।"एक दूसरा कंडक्टर जोर-जोर से बोलने लग जाता है--"डायरेक्ट मंडी-मंडी..।"एक अन्य चालक सड़क के बीचों-बीच बस रोक देता है।सारा यातायात ठप हो जाता है।पौं-पौं--पीं-पीं--टीं-टीं...ग़ाली-ग़लौज़ शुरू हो जाती है।अज़ब तमाशा है।अज़ायबघर सड़क पर उतर आया है।एक क्षण में बस भर जाती है।मैं ज़नाना सीट क़ब्जा नहीं पाता हूं।हमें सीट नहीं मिल पाती है।मैं बस से उतरना चाहता हूं।पर पत्नी कुछ नहीं बोलती है।उसका मुंह सूज जाता है।नौ बज चुके हैं।कोई और चारा नहीं है।पत्नी ने मिट्ठी को गोद में पकड़ा हुआ है।कोई सीट खाली नहीं है।बस में पसीने की बदबू है।कपड़ों की बदबू है।नज़रों की बदबू है।आत्मा की बदबूहै।आते-जाते यात्री पत्नी की देह को छू रहे हैं।मैं अपनी आंखें तरेर रहा हूं।पर कोई महिला सीट शेयर नहीं कर रही है।मैं रो रहा हूं।पर मेरे आंसू नहीं गिर रहे हैं।कितनी विकट स्थिति है?एक वृद्ध को हमारी स्थिति पर दया आ जाती है।वह हमारे लिए अपनी सीट छोड़ देता है।मैं उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं।पत्नी को कल पड़ता है।वह खिड़की की तरफ बैठ जाती है। वह मिट्ठी को आने-जाने वाले स्थानों के बारे में बताती रहती है...।पुल आने वाला है।पुल पार करने में आधा घंटा लग जाता है।नदी पर दूसरा पुल बनाया जा रहा है।तब तक कच्छप गति से ही चलना होगा।नदी में हाथी नहा रहे हैं।रोज़ की तरह पत्नी मिट्ठी को हाथी दिखा रही है....।
हम मंडी पर उतर जाते हैं।हमारी क़दमताल जारी है--लैफ्ट राइट..लैफ्ट राइट...।बालवाड़ी पर हम हॉल्ट करते हैं।मिट्ठी को हम बालवाड़ी में छोड़ आते हैं।मैं पत्नी का चेहरा पढ़ने की क़ोशिश करता हूं।वह ठोस है।उसमें कसावट है।उसमें चिंता है।विवशता है।काम की ज़िम्मेवारी का अहसास है।किन्तु,मिट्ठी का चेहरा निर्विकार बना रहता है।वह हमसे बिछुड़ते वक्त रोती-बिलखती नहीं है।हमें तंग नहीं करती है। मेरे मन में विचार आ रहे हैं।हमारी आधी ज़िंदगी तो बस स्टॉपों में ही गुज़र गई है।आधी का न जाने क्या होगा।पत्नी की बस नहीं आ रही है।मैं अपनी बस में बैठ नहीं पा रहा हूं।मंडी से 1 कि.मी. की दूरी पर मेरा दफ़्तर है।मैं उधर पैदल जा सकता हूं।किन्तु,पत्नी को अभी 15कि.मी. की दूरी और तय करनी है।इस दौरान पत्नी बस में अपना नाशता भी करेगी।अगर सीट ठीक से न मिल पाई,तो वह दफ़्तर में ही नेवाला अपने पेट में डाल पाएगी।मैं यह सब जानता हूं।पहले-पहले मुझे यह बातें कचोटती थीं।अब मैं अभ्यस्त हो चुका हूं।मां-पिताजी की छांव तले हमने जितनी मौज़-मस्ती करनी थी,सो कर ली।अब तो कुंदन की तरह हमें खुद ही तपना है...।
दफ़्तर में बेचैनी बनी रहती है।हड़बड़ी में मैं जीता रहता हूं।शाम को नया काम आने पर पत्नी की सांसें फूलने लगती हैं।उसका मार्मिक-ह्रदयस्पर्शी चित्र मेरी आंखों के सामने घूमने लगता है।उसे घर पहुंचने की जल्दी है।मंडी पहुंचने की जल्दी है।मिट्ठी से मिलने की जल्दी है।खाना पकाने की जल्दी है।पानी भरने की जल्दी है।सोने की जल्दी है।अगले दिन की तैयारी करके रख देने की जल्दी है।उसका स्वभाव ऐसा ही हो चला है।यह समय ही उसका सबसे बड़ा दुश्मन है।अगर सूरज देर से डूबने लग जाए या फिर चांद देर तक आकाश में रहने लग जाए,तो उसकी परेशानी दूर हो जाएगी।लेकिन,ऐसा हो नहीं सकता था।इसलिए पत्नी के चेहरे पर चिंता की रेखाएं स्थाई रूप से चिपकी रहती हैं...।
शाम हो चली है।सूरज डूब चला है।हमारा परिवार बस स्टॉप पर एकत्र हो चुका है।हमारे बीच यह तय हो रखा है कि बस स्टॉप की सीमा रेखा को पहले छूनेवाला व्यक्ति मिट्ठी को क्रेच से ले कर आ जाएगा।इससे समय की बचत होगी।अक्सर पत्नी ही मिट्टी को बालवाड़ी से ले कर आ जाती है--भागते हुए कदमों से रोबोट की मेमोरी में फीड किए गए प्रोग्राम की तरह....।कभी-कभी भाग्य हमारा साथ दे जाता है।हमारे साथ सब कुछ अच्छा होता रहता है।हमें समय से खाली बस मिल जाती है।हम तीनों एक साथ बैठ जाते हैं।पत्नी खिड़की के पास बैठ जाती है।मिट्ठी को वह कुछ-न-कुछ खिलाती रहती है।पत्नी को भी भूख लग रही होती है।वह भी कुछ-कुछ चरती रहती है।थकी होने के कारण पत्नी अपना सिर मेरे कांधे पर टिका देती है।दस किलोमीटर के शेष सफर में उसकी नींद पूरी हो जाती है..।
हम घर लौट रहे हैं।मैं अन्तरराज्यीय बस अड्डे पर रिक्शचालकों से मोल-भाव कर रहा हूं।हमेशा की तरह मैं विक्रम को अवाइड करता हूं।ज्यों-ज्यों घर नज़दीक आता जाता है,त्यों-त्यों पत्नी के मन की धुकधुकी बढ़ती जाती है।हमने मुख्य सड़क पार कर ली है।अब हम साइड लेन में हैं।इधर से हमारी कालोनी दिखाई देने लग जाती है।...रात के साढ़े आठ-पौने नौ बजे हैं।कालोनी में अंधकार पसरा हुआ है।मैं जान-बूझ कर पत्नी से आंखें नहीं मिला रहा हूं।उसकी खामोश आंखों के सवाल मेरे ह्रदय को छलनी कर रहे हैं।उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ है।मिट्ठी की ज़द्दोज़हद से उसका सिर घूम रहा है।हमारे कर्मों की सज़ा मिट्ठी को मिल रही है।मैं गूंगा-बहरा बन रहा हूं-पर पत्नी के सवाल हैं कि चीख मार-मार कर मुझ तक पहुच रहे हैं...टंकी का पानी सुबह तक चल भी पाएगा कि नहीं...तपती हुई भट्टी जैसी छत के नीचे हम सो भी पाएंगे कि नहीं...पूरी रात अगर बिजली नहीं आई,तो अगले दिन का क्या होगा...कहीं रात मिट्ठी को पंखा करते हुए ही तो नहीं गुज़र जाएगी।मगर मेरा मन मिट्ठी पर टिका हुआ है।मुझे घर पहुंचने से पहले कुछ काम करने हैं....बीकानेर भुजियावाले से मुझे एक फुल प्लेट चाऊमीन लेनी है...उससे एक पाव जलेबी भी खरीदनी है...लाला से स्टैंडवाली मोमबत्ती का एक पैकेट खरीदना है...नेगी जी का दरवाजा खटखटा कर उनसे चाबी-प्रेस के कपड़े और दूध लेना है...मोमबत्ती जलानी है..दूध उबालना है...दूध गर्म करना है...मिट्ठी को पलंग पर बिठा कर खिलाना है...उसे छत पर रात भर पसीने से स्नान कराना है...।
कहानी 'ख'
दरअसल,ज्येष्ठ माह की उस रात को चौथे माले के ई.डब्ल्यू. एस. (आर्थिक रूप से दुर्बल वर्ग) फ्लैट की भभकती छत पर धीर का जो बिजूका उपहास हुआ था, उसका सिला उसे क्या मिला था? सुनीता के गौर वर्ण की विवर्णता से बस धीर के चेहरे पर तनाव की कीलें ठुक गई थीं। उसकी बादामी आंखों में ओस की बूंदे ढरकने लग पड़ी थीं और उसका चेहरा केले के पेड़ के तने को छील-खुरच कर छोड़ दिए जाने के बाद जैसा श्वेत-श्याम हो चला था। घंटों पसीने से नहाने के बाद श्रमकणों को मानो बुरी नज़र से बचाने के लिए बिसलरी की बोतल में भर कर मुखद्वार के ऊपर काले धागे से बांध कर लटका दिया गया था। इस पर धर्मपत्नी के मन की यह ठसक - "पसीने की धार क्यों बहाते रहते हो? छत पर क्यों नहीं चलते? वहां पर कुछ और नहीं.....कम से कम खुला आसमान तो मिलेगा। वहां पर गर्मी के मारे दम तो नहीं घुटेगा।",मानो पंखे की चर्र-चर्र और दहेज में मिले कूलर की भक-भक के साथ हाथ मिला कर तपती दुपहरी में बस की खुली खिड़की से आती लू के थपेड़ों सी लगती थी या फिर ऐसे लगती थी कि मानो किसी ने रिसते हुए घावों में नमक का गर्म पानी छिड़क दिया हो जिससे माथे-पीठ-छाती पर हवा के शोले पड़ते जा रहे थे।
फिर क्या वो छत पर अपनी अंतरंगता को मसखरों की दांत काटी रोटी बनने से रोक सकता था? नहीं न! हुआ भी वही।चौक के यातायात पुलिस के सिपाही के सामने से जानेवाले वाहनों की तरह छतवासियों के चेहरे धीर के पास से रोज़-रोज़ गुज़रते थे। उन चेहरों में कहीं कोई अज़नबियत न थी,पर उसे मन ही मन बेहद बेग़ानेपन का अहसास होता जा रहा था। उसे ऐसा लग रहा था जैसे कि उसके भीतर के आदमी का यूटोपिया रूपी चमकता-दमकता कांचमहल टूट-टूट कर बिखरने लग पड़ा है। इस ख़ामोश टूटन को केवल वही देख-सुन-महसूस पा रहा था।अरे नहीं भाई उसमें कोई ज़ादुई शक्ति नहीं आ गई थी। वह साधारण इंसान ही था। अगर वह भगवान होता, तो क्या वह अपनी साल भर की बेटी की गूंगी बेचैनी और बातूनी रूलाई को कलेजे पर पत्थर रख कर सहता रहता?
धीर की आंखें छत का मुआयना करने लगी थीं। मैटल डिटेक्टर से सामान गुज़ार चुका है। सामान का ढेर पड़ा हुआ है। गली का कुत्ता शेरू सामान को सूंघ-सूंघ कर जांच रहा है। रवि कुमार अपनी दूसरी बीवी के साथ छत पर सोने आ चुका है। उनकी शैय्या बिछ रही है। बाबूजी फोल्डिंग बैड पर पसर चुके हैं। अग्रवाल जी ने एक कोने में चटाई बिछा दी है। उनकी बच्चियां अंताक्षरी खेलने में व्यस्त हैं। नेगी जी पंखा झल रहे हैं। उनके बच्चे सोने लगे हैं। सिसौदिया भी सुराही का पानी गटक कर सोने की तैयारी करने लगा है। बंगाली दादा का ट्रांजिस्टर ज़ोर-शोर से बजने लगा है। झा दंपत्ति का मुंह हमेश की तरह सूजा हुआ है। धीर सवाल दागता है-
"आज क्या हो गया?सुबह से बिजली बहुत जा रही है।"
"जा रही है!बिजली आई कब थी?"नेगी जी टिप्पणी करते हैं।
"मेरा मतलब था कि यह धमाका कैसा था?"
" कालोनी का बिजली का ट्रांसफार्मर फुंक गया है।"
"क्या कहा?धत, अपन की लाइफ भी क्या लाइफ है साली !"
" दो दिन तक ऐसे ही रात काटनी पड़ेगी।"
नेगी जी ने जोर देकर यह बात कही थी जिसका सीधा-सा अर्थ यह था कि जब शर्म का पर्दा उठा ही दिया है,तो बेशर्म बनने से हिचकिचाना नहीं चाहिए। उसकी कश्मकश भांपते हुए बाबूजी बोले-
"धीर!शर्माओ मत।कोने में दरी-चादर लगा लो! यह भी अपना ही परिवार है!हम कोई ग़ैर नहीं हैं।"
"नहीं बाबू जी इसमें शर्माने की कोई बात नहीं है।" वह खिसिया कर बोला था।वस्तुत:,उसकी मन:स्थिति चोर की भांति पकड़ ली गई थी। मरता क्या न करता छत के एक खाली हिस्से में वह पहुँच गया।उस हिस्से में सिनटेक्स की टंकियां रखी हुई थीं। मच्छर वहां पर भिनभिना रहे थे।पीछे तबेले में गाय-भैंसे रंभा रही थीं।गोबर की बदबू ने वहां पर टिकना और अधिक सड़ांधकारक बना दिया था।गंदा नाला भी वहां रह-रह कर बास मार रहा था।गंदगी की वज़ह से वहां पर कीड़े-मकौड़े भी चलते हुए दिखाई दे रहे थे।सुनीता ने समस्या का समाधान निकालते हुए उससे कहा-"पहले तो ज़गह को साफ कर दो।दरी लगा लो। मच्छरदानी लगा दो। फिर बारी-बारी से जाग-जाग कर रात काट लेंगे।"
यह कोई आदर्श स्थिति नहीं थी।मगर इस तरह से रात काटना मुमक़िन था। उसने सुनीता को बेटी के साथ लेटने के लिए कह दिया। छत पर लेटते ही सुनीता अपनी दांई कोहनी को टिका कर अपनी आंखों की नूर पर लाल रंग का घूमनेवाला प्लास्टिक का पंखा झलने लगी। शुरू-शुरू में सुनीता के हाथ पर पंखा ऐसा लग रहा था मानो वह कुम्हार का चाक हो। समय बीतने के साथ-साथ पंखा चाक का स्लो मोशन और फिर अल्ट्रा स्लो मोशन शॉट दिखाई देने लगा। कुछ और वक़्त गुज़रने के बाद स्थिति ऐसी आ गई कि सुनीता के हाथ में पंखा रेलवे गार्ड का झंडा लगने लगा जिसे दाएं-बाएं करके वह रेलगाडियों की आवाजाही को नियंत्रित करता है।
धीर की चौक़ीदारी अज़ीब थी। यहां पर उसे चोर-उचक्कों से लोहा नहीं लेना था। छत पर जो भी मौज़ूद था, वह उसे भलीभांति जानता था।बाबू जी को वह पितृतुल्य मानता था।नेगी जी और सिसौदिया उसके हमउम्र थे।वह उसके घनिष्ठ मित्र थे।बंगाली दादा और झा बाबू उसके बड़े भैया जैसे थे।अम्मा जी और पड़ोसियों के बच्चे उसके लिए अपरिचित नहीं थे।फिर भी उसे पड़ोसियों और पड़ोसिनियों की आंखें कुछ तलाशती हुई दिखाई पड़ती थीं। इन्हीं घूरती-ताड़ती गिद्धी-उल्लू सरीखी नज़रों से उसे अपनी पत्नी और बच्ची को बचाना था।
घर में सांस लेना दूभर हो रहा था।छत पर भी उमस थी। वह अभी ठंडी नहीं हुई थी।उस जगह पर सुविधा केवल खुले आसमान की थी जो मन को दिलासा देता रहता था।अन्यथा अंदर-बाहर की गर्मी में कोई इतना बड़ा फर्क नहीं था।धीर को उसके मंथन से बाहर निकालते हुए सिसौदिया बोला-
"यार, कब तक यों ही जागते रहोगे? इधर ही आ जाओ।"
धीर वहां पर आना नहीं चाहता था।पर उसके पास कोई ठोस बहाना भी न था। उसने देखा कि सिसौदिया के नंगे बदन पर पसीने की पगडंडी सी बनी हुई थी जो हाफ-पेंट के झुरमुट को छोड़ कर जांघों-घुटनों से नीचे की ओर निकलती जा रही थी। नेगी जी की बनियान भी पीठ से चिपकी होने और पसीने की बू मारने के कारण भुरभुरी दरकती मिट्टी के ढेले सी लग रही थी जिस पर धीर का सफेद कुर्ता-पाजामा ऐसा लग रहा था मानो हब्शियों के बीच में कोई भटका हुआ गोरा आ गया हो। सतही परत पर क़दमों के निशान छोड़ते हुए धीर कहने लगा-
"आज तो तापमान 45 डिग्री को पार कर गया होगा !"
"नहीं,पार तो कल ही कर गया था।आज तो उससे 2 डिग्री अधिक है!सिसौदिया ने उसकी जानकारी को अद्यतन करते हुए कहा।
"घर तो ज्वालामुखी की तरह धधक रहा है!"नेगी जी ने धीर के सुस्पष्ट और स्वत:-संपूर्ण कथन पर प्रतिक्रिया प्रकट करने से पहले उसे इस तरह से देखा जैसे वह कहना चाह रहे हों कि अंधे हो क्या,दिखाई नहीं पडता। पर शिष्टता के तक़ाज़े के कारण वह सिर्फ"हां" ही कह सके।
"अच्छा क्या सामने ईश्वर का घर है?"
"कौन?"सिसौदिया धीर के प्रश्न से भ्रमित हो कर एक पल के लिए अपनी जान-पहचानवालों में ईश्वर नाम के व्यक्ति की पड़ताल करने लगा। पर अगले ही क्षण उसे धीर का व्यंग्य समझ आ गया। वह हंसते हुए बोला-
"सही कहा आपने! उधर भगवान जी का ही घर है।"
"हां! सचमुच भगवान जी उस अपार्टमेंट में ही रहते हैं। देखो वहां पर बिजली-पानी की कोई दिक्क्त नहीं है। सभी लोग अपने-अपने घरों में सोए पड़े हैं--हमारी तरह छत पर आ कर अपने निजी जीवन के वस्त्र नहीं उघाड़ रहे हैं....!"
सिसौदिया, नेगी और धीर की समाजशास्त्रीय चौधराहट से काया हाथ खड़े कर के ऊंघने लग पड़ी और नींद का पल्लू पकड़ने लग गई। 'जागते रहो, जागते रहो! का कठोर स्वर समीप से समीपतर आता जा रहा था। धीर की बेटी सो-सो कर जग रही थी और जग-जग कर सो रही थी। उसने सुनीता को उठाने का प्रयास किया। उनींदी सुनीता ने अपनी बेटी को कलेज़े से लगा लिया। वह धीरे-धीरे कदम रख कर सीढियों से उतरने लगा। सामने राजमार्ग पर वाहनों की कतारों से निकलती हुई चौंधियाती रोशनी में धीर को अपने घर का अंधेरा शहराती समृद्धि और विकास के चमरौधे जूते में चुभ रही कील सा लग रहा था।
शेरू सुनीता के पांवों के पास आ कर बैठ गया और उसके पांव चाटने लगा। बीच-बीच में वह अपनी दुम भी हिलाता रहा। ताला खोल कर धीर अंदर घुसा। उसने मोमबती जला कर मेज़ पर रखी। मेज़ पर फूलदान पड़ा हुआ था। उसमें से उसने गुलाब का एक फूल निकाला और गुलाब की एक-एक पंखुडी को मोमबती की लौ पर रख -रख कर जलाने लग गया। पंखुड़ी के जलने से चिर-चिर की ध्वनि आती जा रही थी और वह काली हो-हो कर राख बनती चली जा रही थी..।
गुलाब की आहूति देने के बावजूद धीर का संकल्प-विकल्प था कि थमने का नाम नहीं ले रहा था। अगर वह सुनीता को नहीं उठाता, तो बिटिया यों ही कुनमुनाती-सुकबुकाती रहती। सुनीता भी गडमड पड़ी रहती। शेरू सुनीता के साथ है ही, उसे दूध बनाने के लिए छत से उतर कर नीचे आना ही पड़ता। फिर उसे ऐसा लगने लगा जैसे कि नेगी जी और सिसौदिया आदमी नहीं हैं। वह भेड़िए हैं। थोड़ी देर बाद धीर को उनकी आंखें गिद्ध जैसी लगने लगीं। ज़हन में ख़्याल आया कि राधा -सुधा-नीमा- सभी के साथ ग़लत बात उनके सगे-संबंधियों और निकट मित्रजनों ने ही तो की थी। बेचारी छुटकी आशा को तो उसका सौतेला बाप ही निगलता-भकोसता-उघाड़ता-छीलता रहा था न जाने कितने समय तक। नेगी जी और सिसौदिया पर कब भूत सवार हो जाए,इसकी गारंटी थोड़े ही है...। सिसौदिया कैसे दीदे फाड़-फाड़ कर सुनीता को देखा करता है और उससे कैसे मीठे-मीठ स्वर में बातें किया करता है। वह दूध में चीनी घोलने लगा,पर उसके कान शेरू की गुर्राहट पर लगे रहे। वापस ऊपर जाते हुए उसने अपने साथ एक मोटा सा डंडा भी रख लिया।
अब तक बाबू जी छत पर खर्राटे लेने लग गए थे। अम्मा जी को उससे नींद नहीं आ पा रही थी। बाबू जी के बहू-बेटे चादर तान कर सो चुके थे। सिसौदिया की पत्नी अपने बेटे को छाती से लगा कर पड़ी हुई थी। नेगी जी के बच्चे भी बेसुध पड़े थे। रवि कुमार और उसकी दूसरी पत्नी के पैर.. चादर के नीचे अठखेलियां कर रहे थे। बंगाली दादा और उसकी पत्नी अस्त-व्यस्त हालत में निद्रामग्न थे। झा और उसके परिवार के लोग रह-रह कर ऊपर- नीचे आ-जा रहे थे।उनके घर में भी उठापठक मच रही थी।नेगी-सिसौदिया गप्पों में मशग़ूल थे।केवल धीर ही वहां पर ऐसा था जिसे यह सब कितना असामान्य लग रहा था।वह हालत बदल नहीं पा रहा था और उससे समझौता भी नहीं कर पा रहा था।वह अपनी मानसिकता को क्यों नहीं बदल पा रहा था?उसके व्यवहार में सहजता क्यों नहीं आ पा रही थी?क्यों वह अपने पसीने से नहाते हुए वर्तमान को अन्य लोगों की तरह स्वीकार नहीं कर पा रहा था? इसी उधेड़बुन में उसने अपनी बिटिया के मुंह में बोतल लगा दी। शायद सुनीता को पारी बदलने के समय का अहसास हो चला था और इसलिए उसकी नींद पूरी तरह से खुल गई-
"अरे आप और बोतल से दूध!"वह सुनीता से कह दिया करता था कि "हम अपनी नन्हीं परी को कुछ और नहीं, कम से कम मां का असली दूध तो दे ही सकते हैं।"कई बार सुनीता थकी-हारी होने के कारण बोतल से दूध देने की बात धीर से किया करती थी,किन्तु वह टस से मस नहीं होता था। इसलिए सुनीता का चकित होना स्वाभाविक था। धीर ने अपनी स्थिति स्पष्ट करने के इरादे से उससे कहा-
"मैंने सोचा कि सबके सामने बिटिया को दूध पिलाने में तुम्हें शर्म आएगी इसलिए मैं...।"
"वह मेरी परेशानी थी,तुम्हारी नहीं। मैं अपना इंतजाम कर लेती।खैर, छोड़ो इस बात को। अच्छा, चलो अब आप सो जाओ।सुबह से खट रहे हो।कल काम पर भी जाना है आपको।"
"नहीं रहने दो।अब क्या सोना? सुबह होने ही वाली है।" सुनीता ने आकाशमार्ग की ओर सरसरी नज़र दौड़ाई। चन्द्रकिरणें यथावत अलसा रही थीं। तारों की टिमटिमाहट बुझ रही थी। रात गहराती जा रही थी। सुबह होने की सूरत कहीं से भी दिखाई नहीं दे रही थी। शायद सिसौदिया-नेगी की ताड़ती हुई नज़रों के भंवर में सुनीता को छोड़कर धीर खुद किनारे पर नहीं आना चाहता था।
"ठीक है,जैसा तुम चाहो।"धीर के असामान्य व्यवहार पर विचार न करते हुए सुनीता सोने का उपक्रम करने लगी। मगर एक बार नींद उचट जाने पर वह सो नहीं पा रही थी। थोड़ी देर तक सुनीता ने यूं ही आंखें बंद करके रखीं।फिर जब उसने अपनी आंखें खोलीं, तब उसने देखा कि धीर नींद में ग़ाफिल हो गया है। धीर की इस दारुणिक स्थिति पर सुनीता को दया आ गई। हालांकि इससे सुनीता के भरे हुए मन का ग़ुबार और सूजी हुई आंखों का रोष रत्ती भर भी कम नहीं हुआ था,लेकिन धीर के निढाल शरीर के चेहरे पर छाई निस्सहाय मासूमियत की आभा से अनायास ही सुनीता के मन में धीर के प्रति ममत्व जग पड़ा और वह उस पर भी पंखा झलने लगी।अब छत पर सुनीता जाग रही थी और धीर सो रहा था। सुनीता के साथ उसकी बिटिया और एक बड़ा बेटा सोया पड़ा हुआ था।
सुबह होने पर धीर के पड़ोसी वापस घर जाने लगे।सुनीता भी दरी-चादर समेटने लग गई।धीर की आंखें उनींदी हो रखी थीं। वह बीच-बीच में
झपकियां ले रहा था। उसकी आंखें सूजी हुई थीं और बनियान पसीने से भीगी हुई थी।
सुनीता ने अपनी बिटिया को छाती से लगा लिया था। वह शेरू को पुचकारते-दुलारते हुए घर लौटने लगी थी....।
(नया ज्ञानोदय, संपादक-स्व. रवीन्द्र कालिया)
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परिचय
जन्म : 26.06.1969 (नई दिल्ली)
भाषा: हिन्दी
मुख्य कृतियां : दीया बनाम तूफान ('हाशिये पर भविष्य' विशेषांक नया ज्ञानोदय); कहानी 'क' और कहानी 'ख' (नया ज्ञानोदय); नाटक जारी है (हंस); मैं पावेल नहीं हूं (पाखी); एक्वेरियम (कथाक्रम); जाननिसारी (परिकथा,जनवरी-मार्च 2017)।
संप्रति : संयुक्त-निदेशक, राज्य सभा सचिवालय ।
संपर्क : फ्लैट नं: सी-39, राज्य सभा आवास, आई.एन.ए. कालोनी, नई दिल्ली-110023
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