हाइकु-82 जल संरक्षण सुशील शर्मा सूखते खेत जल का अपव्यय प्यासी धरती। बढ़ता ताप सूखते नदी नाले जल का श्राप। बढ़ी आबादी घटते ...
हाइकु-82
जल संरक्षण
सुशील शर्मा सूखते खेत जल का अपव्यय प्यासी धरती। बढ़ता ताप सूखते नदी नाले जल का श्राप। बढ़ी आबादी घटते जल स्त्रोत विकास यात्रा। सीमित करो पानी का उपयोग जल अमूल्य। अगली सदी भोगेगी परिणाम खता हमारी। अगला युद्ध जल का अधिकार विश्व लड़ेगा। जल रक्षण प्रथम है कर्तव्य संभल जाओ। लेलो शपथ जल का संरक्षण प्रथम पथ।
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हाइकु -82
कूप ,कुआँ ,तालाब ,ताल ,तलैया
सुशील शर्मा प्यास का व्यास थरथराता आंसू ताल सा लगा। प्यासी तलैया मरती मछलियां कौन बचैया? लू के थपेड़े प्यासी फिरे गोरैया प्यास घनेरी। अमृत जल सूखे नजर आएं कुओं के तल। कूप मंडूक हमारा अहंकार अज्ञान पथ। कचरा दान बन चुके तालाब कुँए गायब। सब खाली हैं कुँए नदी तालाब उड़ता पानी। कूप मंडूक बनता सर्व ज्ञानी तल में फंसा। डोले रे हिया कहाँ गए तालाब रे मोरे पिया। कुएं तलैया सूखते नदी ताल कहाँ गोरैया ? पपीहा प्यासा सूना है पनघट खाली गागरें। प्रथम वर्षा सौंधी सौंधी महक भरे तालाब। ताल हैं शुष्क टूटती नदी धारा सूखते अश्क।
हाइकु-83
मन
सुशील शर्मा मन मालिक अहं की अनभूति जड़ संस्कार। मन की हार क्रोध घृणा निराशा मनोविकार। मन संकल्प सधते सब काज नहीं विकल्प। बिना आकार सहस्त्र रूप धारी मन साकार। मन पावन सत कर्म विचार जीव आधार।
हाइकु-84
नदी,सरिता,झरना,निर्झर
सुशील शर्मा कंटक पथ गिरी अंतर फूटा झर निर्झर। तटनी तट टकराती लहरें मन हिलोरें। सिंधु मिलन छोड़ गिरी कानन सरिता मन हृदय पीर बन नयन नीर बही निर्झर बहती धारा नव कूल किनारा मन की नदी प्यास बुझाती कल कल बहती नदी हमारी निर्झर बहे तोड़ती तटबंध नदी निर्द्वंद नही दिखती मेरी अपनी नदी रेत ही रेत एक है नदी सिसकती सी सदी कचरा लदी मरती नदी सिसकते सवाल किसने लूटी पर्यावरण लुप्तप्राय झरने सूखती नदी नदी लहर मन को छू छूकर गई उतर।
हाइकु-85
झील सागर समुद्र
सुशील शर्मा आंखे के राज झील कहती फिरे हंसें किनारे। स्मृति की झील लहलहाती यादें तुम्हारा प्रेम। जल दर्पण झील बनी ऐनक तेरी सूरत। धूप का छंद झील की कविताएं पानी का गीत। मन मस्तिष्क झील की गहराई गहरा रिश्ता। विरह पीड़ा दर्द का समंदर खामोश झील। नदी खोजती समंदर का साथ झील अकेली। देह की झील कल्पना का हिरण मारे कुलांचें। झील का मौन अंतस की खामोशी अनंत दर्द। नील दर्पण चांद देखे मुखड़ा मुस्काती झील। मन की झील तैरती परछांई ये तन्हाईयाँ। रेत घरोंदे सागर तट पर जैसा जीवन। झील किनारे गुलमोहर के नीचे हम थे साथ। झील सी धरा सागर सा आकाश मैं हूँ चिड़िया। शिव का वास मानसरोवर में प्रकृति साथ। सूखती झीलें उदास से शहर सड़ते रिश्ते। सुशील शर्मा
हाइकु -86
गरमी ,धूप ,लू ,घाम ,ताप
सुशील शर्मा तपा अम्बर झुलस रही क्यारी प्यासी है दूब। सुलगा रवि गरमी में झुलसे दूब के पांव। काटते गेहूं लथपथ किसान लू की लहरी। रूप की धूप दहकता यौवन मन की प्यास। डूबता वक्त धूप के आईने में उगता लगे। सूरज तपा मुंह पे चुनरिया ओढ़े गोरिया। प्यासे पखेरू भटकते चौपाये जलते दिन। खुली खिड़की चिलचिलाती धूप आलसी दिन। सूखे हैं खेत वीरान पनघट तपती नदी। बिकता पानी बढ़ता तापमान सोती दुनिया। ताप का माप ओजोन की परत हुई क्षरित। जागो दुनिया भयावह गरमी पेड़ लगाओ। सुर्ख सूरज सिसकती नदिया सूखते ओंठ। जलते तृण बरसती तपन झुलसा तन। तपते रिश्ते अंगारों पर मन चलता जाए। दिन बटोरे गरमी की तन्हाई मुस्काई शाम।
हाइकु-87
पानी जल नीर
सुशील शर्मा सिर पे घड़ा चिलचिलाती धूप तलाशे पानी। शीतल नीर अमृत सी सिंचित मन की पीर। जल का कल यदि नहीं रक्षित सब निष्फल। उदास चूल्हे नागफनी का दंश सूखता पानी नदी में नाव बैलगाड़ी की चाप स्वप्न सी बातें। सूखते पौधे गमलों में सिंचित पानी चिंतित पानी की प्यास माफियाओं ने लूटी नदी उदास जल के स्त्रोत हरियाली जंगल संरक्षित हों। जल की बूंदें अमृत के सदृश्य सीपी में मोती जल जंगल मानव का मंगल नूतन धरा। पानी का मोल खर्चना तौल तौल है अनमोल। हाइड्रोजन ऑक्सीजन के अणु बनाते पानी। अमूल्य रत्न बचाने का प्रयत्न सुखी भविष्य।
हाइकु-88
सुशील शर्मा
श्रम दिवस
श्वेद तरल श्रम है अविरल नव निर्माण। दो सूखी रोटी नमक संग प्याज सतत श्रम। विकास पथ श्रम अनवरत मैं हूँ विगत। मेरा निर्माण श्रेष्ठ अट्टालिकाएं टूटी झोपड़ी। श्रम के गीत जो भी गुनगुनाता होता सफल ऊंचे भवन गिरते आचरण श्रम आधार। पहाड़ खोदा समंदर को बांधा मैं हूँ निर्माता। विकास रथ मुझसे गुजरता हूँ अग्नि पथ। फटे कपड़े अवरुद्ध जीवन यही नियति।
हाइकु -89
नींद ,निंदिया ,सपने स्वप्न
सुशील कुमार शर्मा नींद से जगी अलसाई सी कली स्वप्न महका। अमलतास झरते पीले फूल स्वप्न में तुम। न नींद नैना तुम्हारे सपनों में न मन चैना। एक सपना महुए सा टपका मेरी आँखों में। पिघली नींद कल कल बहते मेरे सपने। आ री निंदिया बिटिया की आँखों में सपने सजा चाँद समूचा सपना बनकर नीचे उतरा। जागती नींद सुनहरे सपने आगे बढ़ना। स्वप्न की नाव नींद की नदी पर बहती रही। पलक ओढ़े नींद की दुल्हनियाँ स्वप्न के संग। स्वप्न सा झरा एक लम्हा जीवन नींद से जगा।
हाइकु-90
छाया साया प्रतिबिम्ब दर्पण
सुशील शर्मा तुम्हारी यादें तपी दुपहरी में स्निग्ध छाया सी। जाड़े का सूरज धूप की छाया तले ठिठुरता सा। मन अंतस प्राणों का विचलन ढूढ़ता छाया। शीतल छाया माँ का प्यारा आँचल मन को भाया। अकेला साया जाना पहचाना सा तनहा चला। खामोश रात सन्नाटों की आवाज़ तेरा आना सा। दर्पण बिम्ब मन का प्रतिबिंब सच कहता। मन के भाव धूप और छाया से बदलें रंग। स्वप्न सुरीले तुम्हारी स्निग्ध स्मृति मन के बिम्ब। तेरा सा साया विचारों की धुंध में प्रतिबिम्बित।
हाइकु-91
विविध
स्थिर हो चित्त भटकते सिद्धार्थ बैठे तो बुद्ध तिलमिलाया पाक घबराया है सत्य की जीत नरसिंहम विदीर्ण हिरण्यकं सर्वत्र शुभं। न मैं कल था न मैं कल होऊंगा। मैं सिर्फ आज। सुशील शर्मा
हाइकु-92
माँ पर हाइकु
सुशील शर्मा अम्मा का प्यार झरता है निर्झर अनवरत। बीज सा ऊगा अम्मा तेरे अंदर विशाल वट। तुम्हारी कोख पाया प्रथम स्पर्श प्राण संपर्क। तुम्हारा हृदय विशाल आसमान मैं हूँ चंद्रमा। मेरा जन्मना तुम्हारी ममता का अनन्त स्त्राव। माँ मेरी मित्र गंगा जैसी पवित्र ईश्वर चित्र सुशील शर्मा
इंतजार पर कुछ दोहे
सुशील शर्मा इंतजार उनका किया बीते दिन और रात। नैना रास्ता देख कर अश्रु करें बरसात। एक हतो हरि संग गयो अब बेमन हम लोग। पल पल छिन छिन मर जियें कैसे कटे वियोग। राधा ऐसी बावरी कान्हा प्रीत लगाय वृंदावन के बीच में कान्हा कान्हा गाय। ऊधो कान्हा से कहो क्यों बिसरायो मोय। जन्म जन्म को बावरो जो मन टेरे तोय। जान द्वारका तुम बसे छोड़ बिरज के ग्वाल। अब तो दरस दिखाइयो जो मन करत बबाल।
साहित्य समाज का दर्पण हो
सुशील कुमार शर्मा साहित्य वही उत्तम है जो समाज का दर्पण हो। लोक हितार्थ सृजित होकर मन का पूर्ण समर्पण हो। प्रतिबिंबित करता समाज को और विचार गतिशील करे। परिवर्तन समाज में करके कुरीतियों को कील करे। जो साहित्य समाज की कुरीतियों को बतलाता है। जनमानस के अंतस्थल में वह साहित्य समाता है। शाश्वत नैतिक मानवीय मूल्यों को जो आवाजें देता है। वही साहित्य समाज निर्माण का संकल्पित प्रणेता है। शोषित पीड़ित जन के जो कष्टों को कहता है। अविरल वह साहित्य जन जन के मन बहता है। जिए हमेशा सत्य और सुंदरता की बात करे। शिव जैसा विराट हो दुष्टों की जो घात करे। छुआछूत संघर्षों और वर्ग विभेद प्रतिरोधी हो। आडम्बर और जाति प्रथा का जो घोर विरोधी हो। तत्कालीन समाजों का साहित्य में प्रतिबिम्बन हो। लोकप्रिय संस्कृतियों का जिसमें बेबाक विवेचन हो। भारत की अनमोल धरोहर और संस्कृति का वर्णन हो। ऐसा ही साहित्य हमारे जीवन का अवलम्बन हो।
*ब्रज की रज पर दोहे*
सुशील शर्मा ब्रज रज की महिमाअमर ब्रज रस की है खान। ब्रज रज माथे पर चढ़े,ब्रज है स्वर्ग समान। भोली भाली राधिका भोले कृष्ण कुमार। कुंज गलिन खेलत फिरें ब्रज रज चरण पखार। ब्रज की रज चंदन बनी, माटी बनी अबीर। कृष्ण प्रेम रंग घोल के लिपटे सब ब्रज वीर। ब्रज की रज भक्ति बनी, ब्रज है कान्हा रूप। कण कण में माधव बसे कृष्ण हैं ईश स्वरूप। राधा ऐसी बावरी कृष्ण चरण की आस। छलिया मन ही ले गयो धीरज किसके पास। ब्रज की रज मखमल बनी कृष्ण भक्ति का राग। गिरीराज की परिक्रमा कृष्ण चरण अनुराग वंशीवट यमुना बहें राधा संग ब्रजधाम। राधा कृष्ण की लहरियाँ निकलें आठों याम। गोकुल की गलियां भलीं कृष्ण चरणों की थाप। अपने माथे पर लगा धन्य भाग भईं आप। ब्रज की रज माथे लगा रटे कन्हाई नाम। जब शरीर प्राणन तजे मिले कृष्ण का धाम।
एक बार तो कहते
सुशील शर्मा एक बार तो कहते मत जाओ तुम मेरी हो। एक बार तो कहते आ जाओ तुम मेरी हो। मन की पहली धड़कन तुम्ही थे। तन की पहली सिहरन तुम ही थे। आंखों में तुम प्रथम दृष्टया प्रेमी थे। जीवन का पहला सुमिरन तुम ही थे। एक बार तो कहते रुक जाओ तुम मेरी हो। एक बार तो कहते मत जाओ तुम मेरी हो। जीवन के अनुरागों को तुम से बल था। हृदय के गहरे भावों को तुम से बल था। जीवन की हर खुशी शुरू थी तुमसे। जीने के हर पल को तुम से बल था। एकबार तो कहते फिर आओ तुम मेरी हो। एक बार तो कहते मत जाओ तुम मेरी हो। तुम बिन जीवन सूना सा मन थका थका। तुम बिन आँगन रूठा सा सब रुका रुका। तूफानों में नाव किनारा मुश्किल है। तुम बिन मन ये टूटा सा दिल फटा फटा। एक बार तो कहते दिल दे जाओ तुम मेरी हो। एक बार तो कहते मत जाओ तुम मेरी हो।
कविता तुम ऐसी तो न थीं
सुशील शर्मा कविता तुम ऐसी तो न थीं उत्ताल तरंगित तुम्हारी हंसी लगता था जैसे झरना निर्झर निर्भय बहता हो। शब्दों के सम्प्रेषण इतने कुन्द तो न थे स्थिर सतही। तुम्हारे शब्द फ़िज़ाओं में तैर कर। सीधे हृदय में अंकित होते थे। तुम पास होती थी तो गुलाब की खुश्बू तैरती थी वातावरण में। अचानक सब शून्य कैसे हो गया। क्यों मूक बधिर सी तुम एकाकी हो। क्यों मन से भाव झरना बंद हो गए। क्यों स्थिर किंकर्तव्यविमूढ़ सी तुम बहती रहती हो। कविता और नदी कभी अपना स्वभाव नही बदलती। नदी बहती है कल कल सबके लिए। कविता स्वच्छंद विचरती है सबके मन में उल्लसित भाव लिए सबको खुश करती। कविता तुम मूक मत बनो। कुछ कहो कुछ सुनो उतरो सब के दिलों में निर्मल जल धार बन। मत बदलो अपने स्वभाव को। कविता तुम ऐसी तो न थी।
इग्नोर
सुशील शर्मा हम लोगों की कद्र नही करते। उनके स्नेह को हम तवज्जो नही देते। उनकी बातों का जबाब नही देते। सोचते हैं क्या जरूरत है। क्यों हम किसी की भावना को समझें हमें कौन रिश्ते बनाने हैं। हम किसी और जात के हम किसी और प्रान्त के क्या रिश्तेदारी निभानी है। भाड़ में जाये। क्यों इतने पीछे लगा है क्यों बार बार पोस्ट करता है बड़ा ज्ञान बघार रहा है । इन सबके पीछे उसकी अपनेपन की मासूम भावनाओं को कभी महसूस किया। जब कोई अपने वाला तुम्हे इग्नोर करे तब इस दुराव का दर्द समझ मे आता है। कभी उन से पूछना जो घर मे अकेले बैठे रहते हैं और कोई पूछने वाला नही होता कि तुम कैसे हो। इस लिए अगर कोई तुम्हे तवज्जो दे रहा है। तो कभी उसको इग्नोर मत करो। वर्ना एकदिन तुम खुद इग्नोर हो जाओगे । खुद की नजर से।
प्रेम की अंतिम व्याख्या
सुशील शर्मा मीरा का प्रेम प्रेम की अंतिम व्याख्या है। कृष्ण से शुरू कृष्ण पर समाप्त। मीरा के प्रेम में मीरा कहीं नही हैं सिर्फ कृष्ण ही कृष्ण दृष्टव्य हैं। मीरा के पास प्रेम में देने के अलावा कृष्ण से लेना शेष नही है। मीरा का प्रेम अर्पण समर्पण और तर्पण का संयुक्त संधान है। मीरा को कृष्ण से कुछ नही चाहिए। न प्रेम न स्नेह न सुरक्षा न वैभव न धन न अपेक्षा न उपकार न प्रतिकार। मीरा के प्रेम की न परिधि है न कोई अवधि है। न राजनीति न अभिलाषा। न अतिक्रमण न परिभाषा। मीरा प्यार में न अशिष्ट होती हैं न विशिष्ट। राधा के प्यार में विशिष्टता है कृष्ण के साथ की। सीता के प्रेम में त्याग के साथ राम का सानिध्य है। सावित्री के प्रेम में सत्यवान का अस्तित्व है। रुक्मणी के प्रेम में कृष्ण का व्यक्तित्व है। विश्व के सभी महान प्रेम किसी न किसी धुरी पर अवलंबित हैं। मीरा का प्रेम विशुद्ध क्षेतिज है। किसी पर भी आश्रित नहीं कृष्ण पर भी नही। शुद्ध आध्यात्मिक अनुभूति इसलिए तो कृष्ण मीरा के हमेशा ऋणी हैं।
*युद्ध नही अब रण होगा*
(एक आक्रोश) सुशील शर्मा अब इंतजार नही होगा अब तो होगा समर महान। भारत के शीशों के बदले पाक बनेगा कब्रिस्तान। हम से जन्मा हमसे पनपा हम को ही आंख दिखाता है। चोरी से छुपकर घुस कर वीरों पर घात लगाता है। शत्रु शमन के लिए उठी ये तलवार खून की प्यासी है। दम हो जिस में करे सामना ये रणचंडी अविनाशी है। रावलपिंडी से लाहौर तक हाहाकार मचा होगा। जिस का सिर धड़ पर होगा वो एक न शत्रु बचा होगा। किसी भिखारी से लड़ने में शान हमारी नीची है। लेकिन अब कुत्ते की गर्दन आज जोर से भींची है। सौ पुस्तों तक याद रखोगे कि बाप से लड़ना क्या होता। पूछने वाला भी न मिलेगा भाई तू इतना क्यों रोता। चीनी ताऊ छुप जाएगा जब भारत ललकरेगा। चिल्लाता पैरों पर गिरकर तू दोजख में जायेगा। कितने परमाणु बम हैं देखेंगे तेरी झोली में। नेस्तनाबूत करेंगे तुझ को घुस कर तेरी टोली में। एक एक सैनिक का हिसाब मांगेंगे छाती पर चढ़ कर। चुकता करनी होगी कीमत तुझ को पैरों पर पड़ कर। कुत्ते की तू पूंछ समझना तुझे इतना आसान नही। तुझ से ज्यादा शैतानी तो शायद ये शैतान नही। हम तो शेरों के सवार हैं तुम तो आखिर कुत्ते हो। कब तक खैर मनाओगे तुम बीता भर के जित्ते हो। सहनशीलता की सीमाएं तोड़ चुकी तटबंधों को। कब तक ढोते रहें हम इन कपटी क्रूर संबंधों को। रावलपिंडी से लेकर लाहौर करांची जीतेंगे। सेना और नवाज़ सभी के दिन जेलों में अब बीतेंगे।
*हे नरसिंह तुम आ जाओ*
सुशील शर्मा मगसम-2613/2015 नृसिंहो की बस्ती में दानवता क्यों नाच रही। मानवता डर कर क्यों एक उंगली पर नाच रही। भारत की इस भूमि को क्यों अब शत्रु आंख दिखाते हैं। अपने ही क्यों अब अपनों के पीठ में छुरा घुपाते हैं। नृसिंहो की इस भूमि को क्यों लकवा लग जाता है। क्यों शत्रु शहीद का सिर काट हम को मुंह चिढ़ाता है। क्यों अध्यापक सड़कों पर मारा मारा फिरता है। क्यों अब हर कोई अपने साये से ही डरता है। आरक्षण की बैसाखी पर क्यों सरकारें चलती हैं। क्यों प्रतिभाएं कुंठित होकर पंखें से लटकती हैं। नक्सलियों के पैरोकार कहाँ बंद हो जाते हैं। वीर जवानों की लाशों पर क्यों स्वर मंद हो जाते हैं। क्यों अबलाओं की चीखों को कान तुम्हारे नही सुनते। क्यों मजदूरों की रोटी पर तुम वोटों के सपने बुनते। शिक्षा को व्यवसाय बना कर लूट रहे चौराहों पर। आम आदमी आज खड़ा है दूर विकास की राहों पर। साहित्यों के सम्मानों का आज यहां बाजार बडा। टूटे फूटे मिसरे लिख कर ग़ज़लकार तैयार खड़ा। तीन तलाक की बर्बादी का कौन है जिम्मेदार यहां। मासूमों की इज्जत का कौन है पहरेदार यहां। हे नरसिंह तुम अब आ जाओ इन विपदाओं से मुक्त करो। भारत की इस पुण्यभूमि को अभयदान से युक्त करो।
उड़ान
सुशील शर्मा हौसलों की उड़ान जब है जब मन बैठा हो और आकाश छूने की ठान लो। हौसलों की उड़ान जब है जब असफलता सुनिश्चित हो और फिर भी पूरे प्रयास हों। हौसलों की उड़ान जब है जब चारों ओर गहन निराशा हो और मन आशाओं से अंकुरित हो। हौसलों की उड़ान जब है जब सब दरबाजे बन्द हो और नए दरवाजे का सृजन हो। हौसलों की उड़ान जब है जब मौत भी पास आकर मुस्कुरा कर लौट जाए। अनुकूलता में तो सब उड़ान भरते है। प्रतिकूलताओं में ही सही होंसले की उड़ान होती है।
इंतजार करती माँ
सुशील शर्मा जब भी शहर के आलीशान एयर कंडीशनर मकान में, लेटा होता हूँ अकेला तन्हा। तब माँ का वो चादर गीला कर गांव की तपती दुपहरिया में, स्नेहमयी शीतलन देना बहुत याद आता है। इस शहर के ऊंघते बियावान में ममता के शब्दकोश लिए माँ की वो स्नेहमयी परछाईं झूलती है। मकान की दीवारों पर। समय का पंछी उड़ता गया सालों के कैलेंडर दीवार से उतरते गए पीले पत्तों से। यादों के कोनों में माँ का चेहरा सिमटता गया पानी सा। माँ एक सुंदर कढ़ा सा कपड़ा थी । गोटेदार जिसे पूरा परिवार पहने था अलग अलग रिश्तों में मैं भी लिपटता था उससे उसकी गोदी में चढ़ कर उसके सीने से चिपक कर उसके आँचल को पकड़ कर झूलता था उसकी बाहों में। आज माँ एक उदास सा लिहाफ जो बिछा है पलंग पर निर्विकार मैं सोना चाहता हूं उस लिहाफ को ओढ़ कर उसके साथ खेलना चाहता हूं पहले की तरह लेकिन अब सब बुझता सा लगता है ठहरा सा समय ने बंद कर दिए सब खेल अब माँ ओझल सी कुछ बोझिल सी गांव के पलंग पर अशक्त सी। खाने की मेज पर उसके हाथ की चनों की बनी चूल्हे की रोटी आंसुओं में झिलमिलाती है। गांव का वह खेत जहां उसके कंधे पर बैठ कर घूमता था। स्मृति शेष महकती यादों में माँ आज भी यादों में पिघलती है। किसी बर्फ की तरह और मुझे थपथपा कर निकाल जाती है। उसका आँचल पकड़ने की बहुत कोशिश करता हूँ। लेकिन वो उड़ जाता है किसी कटी पतंग की तरह। माँ की निगाहें आज भी इंतजार करती हैं मेरा पथराई सी। सबसे बचकर उस सड़क की ओर जो जाती है शहर को। उस शहर को जहां मैं मरता हूँ हररोज जिंदा रहने की कोशिश में।
वक्त पर दोहे
सुशील शर्मा वक्त कसौटी पर कसके ,कुंदन देय बनाय। वक्त न किसी को छोड़ता सब को देय नचाय। समय बड़ा बलवान है ,वक्त से बड़ा न कोय। भीलन लूटी गोपिका, अर्जुन बैठा रोय। समय कभी सोता नही ,हरदम है तैयार। कर्म अगर सोता रहे ,पड़े समय की मार। समय कभी खोटा नही, खोटे कर्म हमार। फिरें भाग्य को कोसते, कर्म न करें विचार। अहंकार की धौंस में वक्त को भूले आप। एक दिन ऐसा आएगा बरसेंगे सब पाप। वक्त का न्यायाधीश जब, करे न्याय का मान। का राजा का रंक हों, सब लगें एक समान। वक्त की कीमत जो करे वक्त पर करके काम। जीवन सफल बनाइये भला करेंगे राम। बुरा समय गर पास है धीरज हिय में राख। मन संतोष विचारिये बात टके की लाख।
एक गीत
सुशील शर्मा मेहनत की रोटी खा कर निकलो बड़ा सुकून मिलेगा। सच्चाई अपना कर देखो मन का कमल खिलेगा। जीवन की आपाधापी में खुद को भूल गए हम। अंदर झांक के खुद को देखो तन मन मगन मिलेगा। रिश्तों के पैबंद लगा कर घूम रहा आवारा मन। मन से मन को जोड़ के देखो रिश्ता सगुन मिलेगा। दो पल सुकूँ के ढूंढ के देखे जेब मे नही मिले थे। सच को जब भी जीना चाहो जीवन कठिन मिलेगा। इंतजार में बीता जीवन तुम फिर भी न आये। अपने मन को झांक के देखो ये मन वहीं मिलेगा। जीवन संध्या की बेला में तुम चुपके से आ जाना। डोर सांस की टूट गई तो ये तन नही मिलेगा।
*सरहद पर जान लड़ाना है*
सुशील शर्मा सरहद पर दुश्मन से जान लड़ाने को जी करता है। अब सब्र नही होता है कुछ करने को जी करता है। आतंकों की रागे गाते सुन लो भारत के गद्दारो तुम। जिंदा गाड़ दिए जाओगे पाक की पैदावारों तुम। ऐसे गद्दारों का इस धरती पर कोई काम नही। आतंकों के इन चेहरों का देश मे होना नाम नही। भारत की धरती पर चाह रहे तुम गर रहना। पाक परस्ती छोड़ भारत की जय होगा कहना। भारत माता की रोटी खा कर जो उसको गाली देते हैं। पाक परस्ती की माला जप भारत को धोखा देते हैं। मासूमों के हाथों में पुस्तक से पत्थर थमा दिए तुमने। काश्मीर की सुंदरता को बद से बदतर बना दिया तुमने। भारत के अस्तित्व को जब जब जिसने ललकारा। जिंदा नही बच सका मिट्टी मिला है वो बेचारा। पेंसठ ओर इकहत्तर की पिटाई को कैसे भूल गए। दोजख भेजने वाली सर्जिकल स्ट्राइक क्यों लील गए। पाकी चीनी सरपट भागे जब सेना सन्नाती है। नरमुंडों की बारिश होगी मौत भी फिर घबराती है ख़ौफ़ खा उठे पाकी दुश्मन जब जवान अति वेग चले हाहा कार मचा सरहद पर जब भारत की तेग चले। तुष्टिकरण को दिया बढ़ावा वोटों का सौदा करके। सिंहासन पर तन कर बैठे बाप का माल समझ करके। सिंहासन पर बैठे पहरेदारों सुन लो इस हुंकार को। बच न सकोगे तुम भी गर न सुनी देश की पुकार को। हर एक बूंद शहीद के खूं की चिल्ला कर ये कहती है। घुसकर मारो इन दुष्टों को भारत माता रोती है। आतंकों के मंसूबों को खूं से रंगने को जी करता है। सरहद पर दुश्मन से जान लड़ाने को जी करता है।
*न एक तिल कम न एक तिल ज्यादा*(पद्य)
स्वर्ग ,धर्म और तपस्या पिता के रुप हैं। तीर्थ ,मोक्ष और ईश्वर माता स्वरुप हैं। संतान के भौतिक जगत के अधिष्ठाता पिता हैं। संतान के आतंरिक जगत की स्वामिनी माता है। पिता कुम्हार का मुंगरा जो देता है बाहर से चोट ताकि हमारा व्यक्तित्व चमक कर निखरे। माँ स्नेह का वह अविरल स्त्रोत जो जीवन को स्पंदित करता है ऊर्जा और प्राणशक्ति से। पिता एक सुदृढ़ चट्टान जो खड़ी होती है दुखों और संघर्षों के सामने अविचल हमारी सुरक्षा कवच बन कर। माँ निर्झर कल कल बहती नदी जिसमे संताने धो लेती हैं अपने सारे दुख दर्द संताप। पिता उतुंग शिखर जो रोकता है कठिन तूफानों को हम तक पहुंचने से पहले। माता उपवन की माली की तरह प्रेम की मिट्टी,स्नेह की खाद ममता का पानी देकर। उगाती है हमें पुष्पों की तरह। अनुशासन ,निर्देश ,कवच डर ,व्यक्तित्व ,सहयोग का भौतिक स्वरुप पिता हैं। आंसू ,मुस्कान, प्रेम , मोह सुरक्षा ,स्नेह, श्रृंगार मिलाओ तो माँ की तस्वीर बनती है। माता पिता एक कवच है। जो आंधियों और झंझावातों से झूझकर कठिन पथरीली राह में हमारी उंगली थामे सदृश्य या अदृश्य रूप से हमें ले जाते हैं हमारे लक्ष्य की ओर माता पिता एक अहसास है ईश्वरीय सत्ता का प्रतिभास है माता पिता संकल्प हैं हमारे विकल्पों का। माता पिता संतान की जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिये हैं। दो आंखे हैं दो हाथ है दो पैर हैं किसी एक के न होने से जीवन घिसटता है दौड़ता नहीं इसलिए मेरे लिए दोनों श्रेष्ठ हैं। न एक तिल कम न एक तिल ज्यादा।
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