सुनील संवेदी सारे सपने कहां खो गये... ------------------- हे प्रिये- पृष्ठ पलट-पलट कर खोज रही हो हमें। जब- दरपन ने चटककर टुकड़ा-टुकड़ा बिख...
सुनील संवेदी
सारे सपने कहां खो गये...
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हे प्रिये-
पृष्ठ पलट-पलट कर
खोज रही हो हमें।
जब-
दरपन ने चटककर
टुकड़ा-टुकड़ा बिखरकर
मुंह चिढ़ा दिया, तो
कैसे एकत्र करता सूरत?
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जब-
लहरों ने ही इस बार डूबकर
इनकार कर दिया ऊपर आने से,
तो कैसे निकालता
अस्तित्व की कश्ती?
जब-
उतर ही आये हैं जीवन की बिसात पर
आशाओं और नसीब के मोहरे
आमने-सामने
तो-सांसों का गिड़गिड़ाना भी क्या?
सपनों का तिरस्कृत
सपनों का मित्र कब बना
तुम्हें याद है?
हृदय के दरवाजे की झिरी से झांककर
दस्तक-दर-दस्तक
खाली घरौंदे में
दीपक किसने जलाया
तुम्हें याद है?
सूखे दरख्त की
मलीन पत्तियों पर टपका तो दीं
प्रीतयुक्त ओस की बूंदें।
परंतु-
कहां पढ़ लिया था
कि, पतझड़ को
रहम करना आता है।
सपनों के-
स्पर्श से महरूम करवटों के नीचे दबकर
सिसक पड़ती हैं बिस्तर की सिलवटें
अब तो।
आंखों के-
आगोश में तड़पकर
चौंचिया उठती है, नींद
अब तो।
गुमता रहा अस्तित्व
एक-एक करके
तुम्हें कैसे मिलूं।
-सुनील संवेदी
Mo. 9897459072
Email: suneelsamvedi@gmail.com
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आशी रे
क्यों अभी से खुद को यूँ संजीदा किया जाये
क्यूँ न फिर से अपने बचपन को जिया जाये,,
चलो आज फिर एक गुड़िया का घर बनाये
और सजाएँ उसे फिर नन्हे सपनों के साथ
फिर से कराये वो गुड़िया की शादी,
वो नकली घोड़े वो नकली हाथी,,
वो नकली दूल्हा वो नकली बाराती,,
उन गुज़रे हुए कीमती लम्हों को आज फिर से याद किया जाये
क्यों ना आज फिर से बचपन को जिया जाये,,
क्यों न बनाये फिर एक कागज की कश्ती,
और छोड़े उसे ठहरे से पानी में,
माना दौड़ रही है ज़िन्दगी ,
पर मोड़ कर इसे गुजरी यादों का पीछा किया जाये ,
क्यों न फिर से बचपन को जिया जाये,
क्यों न आज लेकर उमंग भरी मिट्टी ,
बनायें खिलौने कुछ मासूम ख्वाहिशों के,,
यूँ तो फ़िज़ूल है भागना ख्वाहिशों के पीछे पर,
क्यों ना ज़िन्दगी को एक और मौका दिया जाये,,
क्यों ना फिर से अपने बचपन को जिया जाये,
वो बारिश में भीगना ,वो दौड़ना नंगे पैर रास्तों पे ,
वो नहाना खुली सड़क पे ,वो महसूस करना बारिश की हर एक बूँद को,,
माना बहुत बंदिशें हैं आज ज़िन्दगी में ,
पर क्यों ना कुछ पल के लिए खुद को आज़ाद किया जाये,
क्यों ना अपने बचपन को जिया जाये,,
बड़ी भीड़ है ज़िन्दगी में कुछ उम्मीदें,
कुछ ख्वाहिशें,और कुछ हसरतें ,,
सोचती हूँ आज ज़िन्दगी को कुछ खाली किया जाये,,
तो आओ आज ही से अपने बचपन को जिया जाये,,।
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महेन्द्र देवांगन "माटी"
हाइकु
(1) पेड़ लगाओ
फल फूल भी खाओ
मौज मनाओ ।
(2) चलते राही
छांव मिले न कहीं
कटते पेड़ ।
(3) जंगल साफ
माफियाओं का राज
आते न बाज ।
(4) टूटी है डाली
कैसे बचाये माली
क्यों देते गाली ।
(5) जल बचाओ
गली में न बहाओ
प्यास बुझाओ ।
रचना
महेन्द्र देवांगन "माटी"
गोपीबंद पारा पंडरिया
जिला -- कबीरधाम (छ ग )
पिन - 491559
मो नं -- 8602407353
Email - mahendradewanganmati@gmail.com
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बृजमोहन स्वामी 'बैरागी'
ऐश्वर्या राय का कमरा (1)
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चला जाता हूँ/उस सड़क पर
जहां लिखा होता है-
आगे जाना मना है।
मुझे खुद के अंदर घुटन होती है
मैं
समझता हूँ लूई पास्चर को,
जिसने बताया की
करोड़ों बैक्टीरिया हमें अंदर ही अंदर खाते हैं
पर वो लाभदायक निकलते है
इसलिए वो मेरी घुटन के जिम्मेदार नहीं हैं
कुछ और ही है
जो मुझे खाता है/चबा-चबा कर।
आपको भी खाता होगा कभी
शायद नींद में/जागते हुए/
या
रोटी को तड़फते झुग्गी झोंपड़ियों के बच्चों को निहारती आपकी आँखों को।
...धूप ,
नहीं आयगी उस दिन
दीवारें गिर चुकी होंगी
या काली हो जाएँगी/
आपके बालों की तरह
आप उन पर गार्नियर या कोई महंगा शम्पू नहीं रगड़ पाओगे
आपकी वो काली हुई दीवार
इंसान के अन्य ग्रह पर रहने के सपने को और भी ज्यादा/ आसान कर देगी।
अगर आपको भी है पैर हिलाने की आदत,
तो हो जाएं सावधान..
सूरज कभी भी फट सकता है
दो रुपये के पटाके की तरह
और चाँद हंसेगा उस पर
तब हम,
गुनगुनाएंगे हिमेश रेशमिया का कोई नया गाना।
तीन साल की उम्र तक आपका बच्चा नहीं चल रहा होगा तो...
आप कुछ करने की बजाए
कोसेंगे बाइबिल और गीता को
तब तक
आपका बैडरूम बदल चुका होगा एक तहखाने में
आप कुछ नहीं कर पाओगे
आपकी तरह मेरा दिमाग या मेरा आलिंद-निलय का जोड़ा,
सैकड़ों वर्षों से कोशिश करता रहा है कि जब मृत्यु घटित होती है,
तो शरीर से कोई चीज बाहर जाती है या नहीं?
आपके शरीर पर कोई नुकीला पदार्थ खरोंचेगा..
और अगर धर्म; पदार्थ को पकड़ ले,
तो विज्ञान की फिर कोई भी जरूरत नहीं है।
मैं मानता हूँ कि
हम सब बौने होते जा रहे है/कल तक हम सिकुड़ जायेंगे/
तब दीवार पर लटकी
आइंस्टीन की एक अंगुली हम पर हंसेगी।
और आप सोचते होंगे कि
मैं कहाँ जाऊंगा?
मैं सपना लूंगा एक लंबा सा/
उसमें कोई "वास्को_डी गामा" फिर से/कलकत्ता क़ी छाती पर कदम
रखेगा और आवाज़ सुनकर मैं उठ खड़ा हो जाऊंगा
एक भूखा बच्चा,
वियतनाम की खून से सनी गली में /अपनी माँ को खोज लेता है/
उस वक़्त ऐश्वर्या राय अपने कमरे (मंगल ग्रह वाला) में सो रही है
और दुबई वाला उसका फ्लैट खाली पड़ा है।
मेरे घर में चीनी खत्म हो गयी है..
मुझे उधार लानी होगी..
इसलिये बाक़ी कविता कभी नहीं लिख पाउँगा।
(हालांकि आपका सोचना गलत है)
- बृजमोहन स्वामी 'बैरागी'
हिंदी लेखक
सम्पर्क- birjosyami@gmail.com
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बृजेन्द्र श्रीवास्तव "उत्कर्ष"
ओ माँ !
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ओ माँ!,
हूँ दूर तुमसे जरूर,
किन्तु, ऐसी कोई रात नहीं,
जब, तेरी ममतामयी गोद की कमी,
मेरी नम आँखों ने महसूस न की हो||
ओ माँ!,
पता ही नहीं चला,
कब तेरी गोद से उतरा,
कब बड़ा हुआ, और कब,
तेरे ममतामयी आँचल से दूर,
जिन्दगी की इन पथरीलीं राहों पर,
दौड़ते-दौड़ते,
एक मंजिल की तलाश में,
बचपन का वह मीठा अहसास,
जीवन का वह सुखद आनंद,
कहीं पीछे छूट सा गया है ||
ओ माँ!,
तू ही तो मेरा पहला प्यार है,
तुझसे ही जीवन है, और,
तू ही इसका आधार है,
फिर तुझसे कैसी दूरी,
लेकिन, है कोई ऐसी मज़बूरी,
ऐसी जरूरत,ऐसा प्रण, ऐसा लक्ष्य,
जिसे पाए बिना, तुझ तक पहुंचना,
बेमानी सा लगता है ||
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मात्-पिता, मातृ-भूमि, मातृ-भाषा, जीवन नैया की मेरी खेवन हार है,
इनके चरणों में जीवन निछावर मेरा, यही उत्कर्ष का पहला प्यार है।
इनके आँचल में ही मै फूला-फला, मेरा जीवन तो इनका कर्जदार है,
इनकी सेवा जीवन भर करता रहूं, ये ही चाहत मेरी बारम्बार है॥
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ऐ मेरे देश की माटी, तुझे मैं प्यार करता हूँ,
तेरी इज्जत हिफाजत को, सदा सर माथे धरता हूँ |
लगाकर जान की बाजी, करूँ रक्षा तेरी हरदम,
शहीदों की शहादत को, नमन सौ बार करता हूँ ||
******************* बृजेन्द्र श्रीवास्तव "उत्कर्ष"
बृजेन्द्र श्रीवास्तव "उत्कर्ष"
6/97, डी.डी.ए. फ्लैट्स,
मदनगीर, नई दिल्ली|
मो.-9956171230,9873747215
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