लेखन के आरम्भिक दौर की इक्कीस रचनाएं : - मां भारती क्यों कराह उठी शशांक मिश्र भारती आज है देश पुकार उठा शान्ति -एकता मांग उठा चारों ओर क...
लेखन के आरम्भिक दौर की इक्कीस रचनाएं :-
मां भारती क्यों कराह उठी
शशांक मिश्र भारती
आज है देश पुकार उठा
शान्ति -एकता मांग उठा
चारों ओर की आग देखकर
हृदय मां का चीत्कार उठा।
क्षेत्रवाद की आग कहीं
भाषावाद बहकता कहीं
तांडव करता आतंकवाद
अलगाव की नींव कहीं
भारतभूमि है जाग उठी
राणा शिवा को मांग उठी
क्लीवता से देश न बचता
कृष्ण नीति सी आग उठी
धरा यहां की है बिलखती
सर- सरिताएं दूषित बहतीं
चर-अचर विकास पर बलि
बात करुणगात हो कहती
हरिचंदन अब यहां न बनता
कलरव चिड़ियों का न होता
चहुं ओर एक ही आह उठी
मां भारती क्यों कराह उठी॥
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फहराये चहुं ओर तिरंगा
आज देखकर देश की हालत
आ जाता है रोना
सत्ता स्वार्थ में डूबी जोंकों का
देख रहा हूं सोना
एक नहीं असंख्य ही देखो
विसंगतियां आ पड़ी हैं
भ्रष्टाचार अलगाव महंगाई की
श्रंखलाएं नित नयी खड़ी हैं
चाहता हूं समय की धारा
स्वपौरुष से जोड़ दूं
उत्साह भी सत्साहस में
शै;या स्वार्थ की तोड़ दूं
मैं रहूं या न रहूं जग में
पर बहे स्वतंत्रता की गंगा
उन्नत हो सिर हिमालय का
फहराये चहुं ओर तिरंगा
हिंसा की अग्नि
जो
अभी-अभी खिले हैं
जिन्होंने कुछ क्षण पूर्व ही
अपने दृग खोले हैं
नूतन अंगड़ाइयां ली हैं
नया सबेरा पाया है
क्या-
वे मुरझा जायेंगे
अपने होठों पर
मुस्कान लाये बिना
खुशहाली उपजाये बिना
इस -
व्याप्त हिंसा की अग्नि में।
दु ःख की कथा
कुछ अपरिचित सी
राहों के पथिक
गुजरे हुए क्षणों के साथी
कहां जा रहे हो
सुनो-
मुझ पर कुछ विचार करो
तुम्हारे जाने पर
क्या गुजरेगी
तब -
क्या होगी मेरी स्थिति
तुम्हारे साथ बीते क्षणों की कथा
मेरे लिए रह जाएगी
एक दुख की कथा
जिसको-
न भुला सकूंगा
और
न ही सहन कर सकूंगा।
मंजिल
उत्साहित हूं मैं
कई निराशाओं के बाद भी
जीवित है
मेरे अन्दर आशा की एक किरण
जिसके
सहारे पहुंचना है मुझे
मंजिल तक अपनी
भले ही वह दूर है
लेकिन अधिक दूर नहीं।
झूठी प्रशंसा
मैं -
खिलता हूं इठलाता हूं और
मुरझाता हूं
फिर नयी उमंग से भर जाता हूं
लंकिन
अपने पथ से विमुख नहीं होता हूं
और -
न ही किसी के द्वारा
अपनी झूठी प्रशंसा
सहन कर पाता हूं।
कर्त्तव्य
वह
मुझे देखती है
मैं उसे देख रहा हूं
लेकिन-
सोच रहा हूं
मैं
वर्षों से स्वप्नों में डूबा
न वह मुझसे परिचित और
न हम उससे,
बिल्कुल अपरिचित हूं
किन्तु-
जुड़ा हुआ है
किसी कर्त्तव्य से।
व्यथा
मैं उठाता हूं कलम
चाहता हूं
उतार दूं कागज पर
मन की समस्त व्यथायें
जो रही हैं मेरी
अब तक कथा
पर समक्ष आ जाती हैं
कुछ ऐसी परिस्थितियां
जिनसे व्यथित हो
मैं उतार नहीं पाता हूं
उस -
व्यथा की कथा को।
क्षमा
वह
सभी को डराते हैं
धमकाते हैं,
अपना कार्य कराते हैं
लेकिन-
क्षमाशब्द आते ही
विमुख हो जाते हैं।
स्पर्श
नन्हें कोमल से
पल्लवों ने -
था घेर लिया
उसे
चारों ओर कह रहे थे
क्या हो गया है तुझे
जो लिपटी रहती है इसी में
उसने -
जब मुड़कर के देखा
स्पर्श सा हुआ
वायु का एक झोंका ।
अलगाव की चिन्गारी
अलगाव की चिन्गारी देकर
सद्भाव का सोचो कैसे होगा
हिंसा को अपना करके
अहिंसा का पथ कब सच होगा
अपनी एकता को तिलांजलि देकर
धर्म पे लड़ना ठीक नहीं
आपस में लड़कर के अपनी
संस्कृति की हंसी उड़ाना ठीक नहीं
अलगाव की चिन्गारी का परिणाम
विचारो आगे क्या होगा
हिंसा को अपना करके अहिंसा
का पथ कब सच होगा
हे देश भक्त नवयुवकों
शान्ति पथ चाहने वाले वीरों
दूर रहो उनसे जो फैला रहे हैं
आग देश की खुशहाली में
देशवासियों सम्प्रदायवाद
आतंकवाद से क्या होगा
हिंसा को अपना करके
अहिंसा का पथ कब सच होगा
हिंसा से आ पहुंची है आज यह
जटिल स्थिति हमारे देश की
पथभ्रष्टकों तुमने हिंसा लूटपाट से
कब भलाई की है देश की
इन कठिन समस्याओं से जूझते
देश का नव दिन कब होगा
हिंसा को अपना करके
अहिंसा का पथ कब सच होगा।
जनसंख्या अधिक न बढ़ाओ जी
संयम को अपना करके अब
जनसंख्या अधिक न बढ़ाओ जी
यदि सामर्थ्य नहीं हैं संयम की
तेा फिर नसबन्दी करवाओ जी
देश की जनसंख्या वैसे भी ज्यादा
छोटा ही परिवार बनाओ जी
बच्चों की खुशहाली के लिए
दो से ऊपर न जाओ जी
बेटियों को भी समझ कर बेटा
सुशिक्षा संस्कार दिलाओ जी
संयम को अपनाकर के अब
जनसंख्या अधिक न बढ़ाओ जी।
राष्ट्र प्रगति का दीप जलाओ
मन में दृढ़ विश्वास जगाकर
गांव-गांव में वृक्ष लगाओ
उठ रही धूल भरी आंधियों को
हरियाली लाकर दूर भगाओ
रेगिस्तान में नहरें निकालकर
हरे-भरे खेत लह-लहाओ
उपजाकर अन्न ढेर सा
अपना राष्ट्र आत्मनिर्भर बनाओ
कभी न आपस में झगड़ाकर
राष्ट्र प्रगति का दीप जलाओ
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम
फैला जाति-पांति का भेद मिटाओ॥
अपनी बात
मैं
अपनी बात कहता हूं
हिन्दी में
वह अपनी कहते हैं अंग्रेजी में
तो दूसरे कहते हैं गुजराती और
मराठी में;
सभी कहने में लगे हुए हैं
अपनी-अपनी बात
न वह हमारी सुनते
और-
न हम उनकी सुनते बात
शायद-
कोई समझाने वाला भी नहीं
अरे! मूर्खों-
एक सम्पर्क भाषा है
सभी का समाधान।
भंवर
मैंने देखा
नदिया के उस पार
उठ रहा धुंआ
जो बुझ़कर आ रहा था
मेरी ओर
अपने में सभी कुछ समेटे
आंधी सा आया
और-
मुझे ढक लिया
अपने आगोश में
मैंने
कई प्रयत्न किये
लेकिन-
मुक्त न हो सका
जितना बचना चाहा
उतना ही और
फंसता गया
धुंए के उस भंवर में।
सुख के क्षण
मैंने
जिनको आलिंगन में लेना चाहा
वह उतने ही
दूर भागते रहे
लेकिन मैं -
निरन्तर अथक सा
प्रयत्न करता रहा
आखिरकार
मुझे मिली सफलता
उन-
जन्म और मृत्यु से परे
कुछ सुख के अनमोल क्षणों के
मोहक स्पर्श की।
पवन
कैसा है
मौसम सुहावना
बहती है शनैः शनैः
शीतल धवल अमल
मधुर गीत गाती हुई
बगीचों में
फूलों की सुगन्ध लेकर
पवन।
उमड़-उमड़ कर
सर-सराती हुई
कंप-कंपाती हुई
निरन्तर
अस्थिर अथक पवन।
एक सन्देश
आज
तुमने दिया है मुझे
एक बड़ा सा धोखा
सिर्फ
अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए
समय का लाभ उठाकर
दूसरों को बदनाम करने के लिए
लेकिन
इतना समझ लो
जो आज तुमने किया है
कल वही तुम्हारे साथ भी हो सकता है
एक बार जिसने खाया है धोखा
वही -
कल वही तुम्हारी जिन्दगी बर्बाद कर सकता है
तुम्हारे खुशहाल जीवन को
नर्क कर सकता है
इसीलिए संभलो
अपने स्वार्थवश दूसरों का
अहित करना त्यागो
अनैतिक कार्यों की ओर न मोड़ो
यदि मोड़ना है तो
उन्हें सद्कार्यों से जोड़ो।
रोज नया एक वृक्ष लगाओ
आज पुनः व्याप्त देखो
कुहासा अपरम्पार है
खग’विहग व्याकुल भए
संत्रस्त समस्त संसार है
समय की अच्छी दौड़ लगी
पर्यावरण की न चिन्ता है
पृथ्वी का रक्षक जो था
विनाशी वही नियन्ता है
चहुंओर घट रही वनस्पति
नित वृक्ष कटते जाते हैं
वादे हो रहे रोज अनेक
पर लगना कहीं पर पाते हैं
स्वार्थ लिप्सा बढ़ गयी इतनी
स्व ? ही सब कुछ सार है,
त्याग का कहीं पता नहीं है
भोगवाद साकार है
इसीलिए यह प्रश्न जगा है
पर्यावरण क्यों दूर भगा है
उसको जीवन का अधिकार
जो प्रकृति की गोद में उगा है
यदि नहीं लगा सकते तुम हो
काटते क्यों फिर जाते हो,
नित घटा रहे वनस्पति
धरा से नमी भगाते हो
तुम्हारा कर्त्तव्य यही है
रोज नया एक वृक्ष लगाओ
चहुं ओर आये हरियाली
प्रकृति-धरा खुशहाल बनाओ।
चिन्गारी
हालातों की एक है
करूण कहानी
रोते थे बच्चे और नारियां
जल रहे थे नगर
दहकते थे लोगों के दिल
रो रही थीं गलियां
और सुनसान राहें
जल रही थी आग,
सारे देश में
फैली थी जब
साम्पदायिकता की चिन्गारी।
सेंक रहे थे रोटियां
राजनैतिक दल अपने हित की
दे रही थीं हवा
विभिन्न साम्प्रदायिकता पार्टियां
रो रहे थे जनता के विभिन्न वर्ग
मर रहे थे वृद्ध ,युवा
देश की साम्प्रदायिकता की आग में
लहू से रंग गयी थीं
गलियां
भर गये थे नाले
जब -
फैली थी साम्प्रदायिकता की
चिन्गारी देश में।
इन्कार किया है
मैं -
उस श्रद्धा का अनमोल दीप हूं
जिसने आंधी से जूझने
का वादा किया है
जूझकर भी बुझने से
इन्कार किया है,
जलता रहा निसिदिन
सर्वत्र जलने से
इन्कार किया है
दोषों को त्याग
असत्य को छोड़ने का
इरादा किया है
जो कष्ट पहुंचे
उनको स्वीकारने का
वचन लिया है
इस जग के लिए
जलने का पथ खोज लिया
सच के कारण ही
मैंने
सुख में जलने से
इन्कार किया है।
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22.05.2017
शशांक मिश्र भारती
संपादक - देवसुधा, हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर - 242401 उ.प्र.
दूरवाणी ः-09410985048/09634624150
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