यहां वहां की मा र्च के महीने में होली से मूर्खोत्सव मनाने का जो सिलसिला आरम्भ होता है, वह एक अप्रैल को अपने अंतिम संस्कार की स्थिति में आ जा...
यहां वहां की
मार्च के महीने में होली से मूर्खोत्सव मनाने का जो सिलसिला आरम्भ होता है, वह एक अप्रैल को अपने अंतिम संस्कार की स्थिति में आ जाता है. एक अप्रैल को वह नये अवतार में आ जाता है. होली पर मूर्ख बनना चाहते हैं ज्ञानी. छटपटाते घूमते हैं कि कोई उन्हें मूर्ख स्वीकार कर ले. मूर्ख के रूप में उन्हें मान्यता प्राप्त हो जाये. जैसे यह छटपटाहट स्वयं में मूर्खता न हो. एक अप्रैल से इस रिकार्ड की पलट लग जाती है. लोग दूसरों को मूर्ख बनाने की टिप्पस भिड़ाने बैठ जाते हैं.
बहुत से लोग दार्शनिक किस्म के होते हैं. उनका मानना होता है कि सभी मूर्ख हैं. सभी मूर्ख हैं तो फिर बनाने की क्या जरूरत है. वे तो पहले से शो रूम कंडीशन में हैं. ऐसों के भी टोटे नहीं हैं जिनका विश्वास होता है कि अप्रैल का पूरा महीना ही मूर्ख बनाने के लिये होता है. जल्दी क्या है. कभी भी बना लेंगे. यही सोचते-सोचते पूरा अप्रैल फिसल लेता है...खुद मूर्ख बन जाते हैं. सच कहा है कि आलसी लोग किसी को बेवकूफ भी नहीं बना पाते हैं.
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केन्द्रीय परिवहन विभाग किसी प्रकार का रिस्क नहीं लेना चाहता था. इसलिये उसने एक अप्रैल से ही लागू कर दिया है कि दो पहियों का ऑटो वाहन चलाने वाले अब, दिन में भी हेड लाइट जला कर चलेंगे. लोग इसे मूर्खता मानें तो वे स्वतंत्र हैं. परिवहन विभाग इसे जनता को बेवकूफ बनाने वाला, बड़ा इंटेलीजेंसी वाला काम मान रहा है. उसकी बातों में आकर अनेक बाइक निर्माताओं ने नये वाहनों को बत्ती जलाने-बुझाने के झंझट से ही मुक्त कर दिया है. केन्द्रीय परिवहन विभाग मान रहा है कि बाइकर्स दिन में हेड लाइट जला कर चलेंगे तो सड़क दुर्घटना कम होंगी. उसके इस कदम ने हमारे इस भ्रम को समाप्त कर दिया है कि रात में होने वाली सड़क दुर्घटनायें सड़कों पर समुचित प्रकाश व्यवस्था नहीं होने के कारण होती हैं. हालांकि इस निर्णय से देश का नौ जवान तबका असंतुष्ट है. उसका मानना है कि यह आदेश उसके अंधेरी रात में, बिना लाइट जलाये, बाइक दौड़ाने के अधिकार का हनन करता है. यह उसकी अंधेरे में वाहन चलाने की आस्था पर ठेस है. अपने पक्ष में वह तर्क रख रख रहा है कि इस प्रकार वाहन चलाने से यह समझने का झंझट नहीं रहता है कि भिड़ंत में कौन शहीद हुआ, कौन डाक्टरों के काम आया. युवकों का यह वर्ग कर्मयोगी होता है. वह वाहन दौड़ाने में विश्वास रखता है. फल की चिंता नहीं करता है. मरने या घायल होने वालों से भी उसे सहानुभूति होती है लेकिन उसका विश्वास होता है कि उनके साथ जो भी दुर्घटना हुई, वह उनके भाग्य से हुई. मारने वाला तो ऊपर वाला है. वह तो निमित्त मात्र हैं.
एक अप्रैल से गुड्स एण्ड सर्विस टैक्स (जी एस टी) का भी (अ)शुभारम्भ हो गया. कम से कम इस आश्वासन को तो अप्रैल फूल बनाना ही माना जा रहा है कि जी एस टी से रोजगार बढ़ जायेगा. बेरोजगारी की लाइन में लगे लोगों का पूछना है कि राज्यों के राजस्व विभागों पर ताला लग जायेगा तो रोजगार बढ़ेगा या घटेगा...छोड़िये भी. यह मूर्खतापूर्ण प्रश्न है.
रेलवे ने बेवकूफ बनने से साफ इंकार कर दिया है. अब तक आम बजट से पहले रेल बजट आता था. एक अप्रैल से वह लागू माना जाता था. लोग चिल्लाने लगते थे...क्या बेवकूफी है. हमारे इलाके में एक भी नयी ट्रेन नहीं आयी. अब के हुक्मरानों रेल-बजट के झंझट से मुक्त हो गये.
उन्होंने वित्त-मंत्रालय से कह दिया...लो मियां, तुम ही सम्हालो. रेलवे को बेचने का मन बना ही लिया है तो बेच डालो...उस दिन की प्रतीक्षा कीजिये, जब जबलपुर से झांसी के बीच, बीस-पच्चीस व्यापारियों की रेलवे से गुजरेंगे. कोई शिकायत करनी है तो मूर्ख बने घूमेंगे कि कहाँ करें. क्या फर्माया, रेलवे रेग्यूलेरिटी अथॉरिटी बनेगी. अमाँ कौन पूछता है अथॉरिटियों को. जो लोग राजनीति को खरीद रहे हैं, उन्हें अथॉरिटियों में अपने न्यौछावर भोगी बैठाने में कितना समय लगेगा. नेता बिक रहे हैं. अफसरशाह बिक रहे हैं. तो, अथॉरिटीज के अथॉराइज्ड लोगों ने न बिकने की शपथ थोड़े ही ग्रहण की है. की भी हो तो क्या अंतर पड़ता है. न्याय-मंदिरों से लेकर संसद के गर्भ तक, शपथों का शील कितना अक्षत है...वो वादा क्या जो जफा हो जाये. वो कसम क्या जो निभ भी जाये. निभ तो नहीं रहे हैं अब सात फेरों के वचन भी. जहाँ रिश्ते निभ रहे हैं, वहाँ किसी वचन की जरूरत नहीं पड़ रही है...रेल, बैंक, बीमा, भेल, सेना प्रतिष्ठान, सभी राष्ट्रीय उद्यम, सबको चमका कर शो रूम्स में रखने जा रही है व्यवस्था. आ जाये, जिसे खरीदना हो। देश की मालिक, जनता के लुटने की इस व्यथा को दुष्यंत कुमार यों लिखते हैं...
‘दुकानदार तो मेले में लुट गये लोगो,
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गये.’
दिमाग में दूरदर्शिता की दूरबीन बैठाइये. पहले पीछे की ओर नजर घुमाइये. करीब ढाई सौ साल पहले एक ईस्ट इंडिया कम्पनी नजर आयेगी. अतीत से निकल कर भविष्य पर दूरबीन फोकस करिये. ऐसा ही रहा तो अधिक दिन नहीं, स्वतंत्रता की ज्वाला भड़कने के दो सौवें साल के आसपास, ग्रुप ऑफ कम्पनीज झलकेगा. नाम कुछ भी हो सकता है...इतिहास खुद को दोहराता नहीं है. दोहराना शुरू कर दिया है, सुपर फास्ट गति से.
बहरहाल, सियासत से अलग, कुदरत अपने ही ढंग से चलती है. ढंग से और ढब से भी. ठीक है कि अप्रैल चैती छठ, राम नवमी, कामदा एकादशी, महावीर जयंती, हनुमान जयंती, बैशाख चतुर्थी, बरूथनी एकादशी, अक्षय तृतीया जैसे तमाम त्यौहार-पर्व समेटे रहता है. दिल में उमंग हो और जेब में नामा हो तो रोज उत्सव मनाइये. इस युग-सत्य को समझ लिया जाये माई-बाप कि दिल में उमंग भी तभी होती है जब जेब में नामा और देह में जान होती है. अन्यथा जिंदगी भगवान और डाक्टरों के हवाले ही रहती है. जब तक चले तब तक डाक्टरों की पौ. अन्यथा पूर्ण विराम के बाद उपसंहार लिखने का भी अवकाश नहीं रहता है.
लेकिन, वैशाखी की अपनी ही उमंग होती है. इसलिये नहीं कि वैशाखी का मौका भंगड़ा-अंगड़ा का होता है. ढोल बजाओ, नाचो-गाओ और क्या. इसलिये कि गेहूँ-चना, दलहन, तिलहन, गन्ना, मटर खेत से कट कर, खलिहानों में संवर कर, घर आ रहे हों तो देह चाहे रबी की फसल तैयार करने के श्रम से पिरा रही हो मगर, दिल में भंगड़ा ही भंगड़ा होता है. रंगारंग समूह नृत्य-गान, भंगड़ा, पंजाब को झुमा कर रख देता है. तो, शेष भारत भी इस फसलोत्सव पर अपने ही अपने ढंग से ठुमकता है. दिलों में उछाह भरता है. पूरब में घर आये पहले झउआ के गेहुँओं में से निकाल कर, गुड़धानी बना कर सबको बांटती है. गेहूँ के दाने भून कर, उसमें ताजी भेली तोड़ कर निकाले गये गुड़ को, भुने हुये गेहुँओं में सूखा गूंधा जाता है. वह होती है गुड़धानी. देवता को अर्पित कर सब में बांट दी जाती है.
कभी टी वी में गाँव देखने से फुर्सत मिले, और गाँव को गाँव की संगत में समझने का मन हो, तो निकल जाइये वैशाखी के मौके पर. आसपास के जिस गांव में चाहें, वहाँ. जहाँ भी जायेंगे, सब जगह फसलोत्सव मनाने के अनूठे ढंग ही पायेंगे. सही अर्थों में, अप्रैल में आने वाला यह फलोत्सव धरती-पुत्रों का नव वर्ष होता है.
अलग है कि खेती करना अब पिछड़ापन माना जा रहा है. घाघ के अनुसार उसके ’उत्तम’ होने की प्रतिष्ठा नहीं रही है. मामूली किसान के हाथ से जमीन फिसल रही है. वह शहरों के फुटपाथों पर फिंक रहा है. बड़ा किसान इसलिये जमीन बेच रहा है कि फसल के बजाये कॉलोनी पैदा करने में अधिक मुनाफा है. कभी कीट-पतंगे, खर पतवार खेती की दुश्मन होते थे. गाजर घास जमीन को बांझ बना देती थी. अब रीयल स्टेट के परजीवी जमीन को खा रहे हैं. विज्ञापनी सभ्यता की चकाचौंध हकीकत को देखने से कर महरूम कर रही है. बावजूद इसके कि इतनी समझ तो है कि लाइट-कैमरा-एक्शन की चमक के पीछे की दुनिया बहुत खुरदरी तथा अंधेरी होती है. महानायक भी वहाँ खुद को महफूज नहीं समझते हैं. उसकी कल्पना से पसीने छूटने लगते हैं.
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