सर्वजीत कुमार सिंह की कविता डेली की भागदौड़ थी, बस का सफर था. मौसम सुहाना था, बस अफसोस था कि खिड़की वाली सीट किसी और के पास थी. फोन म...
सर्वजीत कुमार सिंह की कविता
डेली की भागदौड़ थी,
बस का सफर था.
मौसम सुहाना था,
बस अफसोस था कि खिड़की वाली सीट
किसी और के पास थी.
फोन में गाना था,
दिल को रिझाना था,
बगल वाले से छिपाना था,
मौसम सुहाना था.
[ads-post]
मेरे बगल में बैठे
बीती उम्र के एक आदमी ने बोलना शुरू किया,
‘‘भीड़ बढ़ती ही जा रही है,
जाने क्या होगा देश का आने वाले सालों में.’’
मैंने आज के फेमस शब्द का इस्तेमाल किया,
और ‘हम्म’ में जवाब दिया.
फिर सिलसिला कुछ यूँ शुरू हुआ,
‘‘तुम यूथ हो इस देश का, तुम्हें कुछ तो करना होगा.
बदल कर कुछ नीतियों को,
लोकतंत्र को साबित करना होगा.’’
‘‘कैसे?’’
‘‘मैं राजनीति नहीं जानता.’’
‘‘पर आपको भी तो साथ चलना होगा,
वरना हम क्या कर पाएंगे..’’
‘‘नहीं, मैं भी तो देखूं आखिर,
कब तक देश संभालता है.’’
‘‘ये देखो सड़कों पर कितने कचरे दिखाई देते हैं,
स्वच्छ भारत के अधिकारी जाने कहाँ पर रहते हैं.
एक बार की बात है,
मैं कचरे के आगे से गुजरने वाला था.
सोचा आज मैं कुछ करके रहूँगा.
वहां पर रोजाना ऐसा होता था.
लेकिन फिर दिल न किया
और कल पर छोड़ कर आगे बढ़ गया.
‘‘आपने कुछ किया क्यों नहीं,
एमसीडी में शिकायत करवाते.’’
‘‘मेरा काम था वोट देना, दे दिया,
अब देखूं आखिर,
कब तक देश संभालता है.’’
‘‘वैसे तुम यूथ हो, कुछ करो.’’
‘‘दिल्ली की सड़कों का बुरा हाल है,
ट्रैफिक ने सबकी जान खा रखी है.
ऑड-इवन तो फेल हुआ,
तुम्हारे पास कोई आइडिया है क्या?’’
‘‘फिलहाल तो कुछ नहीं,
आप ही कुछ बता दीजिये.’’
‘‘बेटा समय ही नहीं मिलता,
काम के अलावा कुछ और सोच सकें.”
‘‘आप करते क्या हैं?’’
‘‘सरकारी मुलाजिम हूँ.’’
डेली की भागदौड़ थी,
बस का सफर था.
मौसम सुहाना था,
बस अफसोस था कि खिड़की वाली सीट...
-----------
व्यंग्य कवितायें
डॉ. हरेश्वर राय
1.
मेरे गाँव का पप्पू
असरदार हो गया
मेरे गाँव का पप्पू.
मुश्किल से इंटर किया
बी.ए. हो गया फेल
रमकलिया के रेप केस में
चला गया फिर जेल
रंगदार हो गया
मेरे गाँव का पप्पू.
नेताकट कुर्ता पाजामा
माथे पगड़ी लाल
मुँह में मीठा पान दबाये
चले गजब की चाल
ठेकेदार हो गया
मेरे गाँव का पप्पू.
पंचायत चुनाव में
काम हो गया टंच
जोड़ तोड़ का माहिर पप्पू
चुना गया सरपंच
सरकार हो गया
मेरे गाँव का पप्पू.
2.
फागुन में आया चुनाव
फागुन में आया चुनाव
भजो रे मन हरे हरे
कौए करें काँव काँव
भजो रे मन हरे हरे.
पाँच साल पर साजन आये
गेंद फूल गले लटकाये
इनके गजब हावभाव
भजो रे मन हरे हरे.
मुंह उठाये भटक रहे हैं
हर दर माथा पटक रहे हैं
सूज गए मुंह पाँव
भजो रे मन हरे हरे.
बालम वादे बाँट रहे हैं
थूक रहे हैं, चाट रहे हैं
पउवा बँटाये हर गाँव
भजो रे मन हरे हरे.
अबकी हम पहचान करेंगे
सोच समझ मतदान करेंगे
मारेंगे ठाँव कुठाँव
भजो रे मन हरे हरे.
संप्रतिः प्राध्यापक (अंग्रेजी) शासकीय पी.जी. महाविद्यालय सतना, मध्यप्रदेश.
पत्राचारः पांचजन्य, बी-37, सिटी होम्स कॉलोनी, जवाहर नगर, सतना, मध्यप्रदेश-485001
मो. 09425887079, 07672296198
ईमेल royhareshwarroy@gmail.com
------
आधुनिक नेता
जयप्रकाश विलक्षण
मेहनत की रोटी खाते हैं.
अपने हाथों से काटकर,
जनता की बोटी खाते हैं..
नल में पानी साफ नहीं है,
मिनरल वाटर मंहगा है.
इसलिए,
जनता का खून पीते हैं,
बेचारे बड़ी मुश्किल में जीते हैं.
रोटी से कब्ज हो जाती है,
दूध से दस्त लग जाते हैं,
बस यही मजबूरी है,
कि रिश्वत खाते हैं.
किसी का खून करवाते हैं,
भतीजे को नौकरी लगवाते हैं.
तो क्या बुरा करते हैं?
अरे इस तरह तो वे,
बेकारी और आबादी की समस्या
हल करते हैं?.
--------
व्यंग्य कविता
जाँच के आदेश
रामकिशोर उपाध्याय
कौन
खड़े हो क्यों मौन
हुजूर मैं एक मजदूर
पैसे से हूँ मजबूर
कभी किसी की बाई
कभी किसी की रसोई की सफाई
बेटा और कभी बेटी बीमार
कभी बूढ़ी माँ को पैसे की दरकार
बहुत महंगाई है
दाल भी सौ रुपये में एक किलो आई है
प्याज का दाम न पूछो
किसकी कुर्सी का बाप है, न पूछो
किस-किस का भाव बताऊँ
कौन-कौन सा दुखड़ा सुनाऊं
नौकरी से भी आपने निकाल दिया...
सरकार कुछ मदद हो जाये
दूंगा दुआ
मिलेगी अगर बीमार को दवा
साहब खैरात नहीं
उधार चाहिए
हर महीने की मजदूरी से कटना चाहिए
अब यह कैसे कहूँ...
न जाने कहाँ से आ जाते हैं
खुद को खुद्दार बताते हैं
पर मजदूर
और मजबूर
होने का नाटक दिखाते हैं
कहाँ से दें तुम्हें?
पिछले साल साढ़े चार फीसदी बढ़ा व्यापार
घाटे ने किया चौपट है और लाचार
पेट्रोल और डीजल के दाम में आग लगी
तो मजदूरों की छटनी करनी पड़ी
बीबी और बच्चों का जेबखर्च
नहीं कर सकते कम
वे तो कर देते हैं नाक में दम
होटल में जाना कर दिया कम
रोज नहीं, बस तीसरे दिन में गए थम
सुनकर
मजदूर पत्रकार की ओर मुड़ा
पत्रकार भी भूख से रहा था लड़खड़ा
बोला मजदूर...
मित्र, तुम तो हमारे सच्चे हितैषी हो
यहीं के और देशी हो
कैसे चलेगा जीवन...
कुछ तो लिख डालो, चलो दो कलम
और कुछ लोन ही दिला दो
साहेब ने पत्रकार को देखा
और कहा यह मेरा छटनी किया मजदूर है
फिर उसे कागज का टुकड़ा दिया थमा
मजदूर समझा नहीं
पत्रकार बोला...
मजदूर मित्र तुम्हारे विषय में ही लिखूंगा
अगले दिन खबर छपी
छटनी किये मजदूर ने
उधार न देने पर
मालिक से बदसलूकी की
और बाद में खुदकुशी कर ली...
मजदूरों का एक धड़ा
इसे साजिश मानने पर अड़ा
सरकार ने जाँच के आदेश दे दिए हैं...
-----------
काव्य जगत
डॉ. राजकुमार ‘सुमित्र’
दोहे
अवमूल्यन नेतृत्व का, बौने सब श्रीमान.
निहित स्वार्थ की भट्ठियां, जलता हिन्दुस्तान.
इंसानी कमजोरियां, सहज और स्वीकार.
लेकिन वो तो खड़े हैं, सीमाओं के पार.
तिरियाओं के ‘चरित’ का, काफी हुआ बखान.
नेताओं के चरित्तर, काटें उनके कान.
प्रतिपल मन पर घन चलें, चलें पीर पर तीर.
गधे पंजीरी खा रहे, सांड़ों को जागीर.
नियम-धरम सब ढह गया, राजनीति तूफान.
बुद्धि न्याय सहमे डरे, टुच्चों का सम्मान.
मेहनतकश भूखा मरे, अवमूल्यित विद्वान.
हर लठैत ने खोल ली, भैंसों की दुकान.
नेता अंधी भेड़ है, सत्ता है दीवार.
राजनीति अब हो गई, वेश्या का व्यवहार.
सम्पर्कः 112, सराफा, जबलपुर (म.प्र.)
मोः 9300121702
बुन्देली गीत
आचार्य भगवत दुबे
सैंया न जइयो कलारी
सैंया न जइयो कलारी, बिनती है हमारी.
मिट गई गिरस्ती सारी, जइयो न कलारी.
ये दारू ने घर फुंकवा दओ
गहना-गुरिया सब बिकवा दओ
बिक गये हैं घर-बाड़ी, जइयो न कलारी.
खाबे के लाले पड़ गये हैं
अंग-अंग पीरे पर गये हैं
कर दओ हमें भिखारी, जइयो न कलारी.
बच्चों के भी छूटे मदरसा
आबारा घमूत हैं लरका
कर रये चोरी-चपारी, जइयो न कलारी.
हो रइ गली-गली बदनामी
अनब्याही है बिटिया स्यानी
नइया कछू तैयारी, जइयो न कलारी,
सैंया न जइयो कलारी, बिनती है हमारी.
सम्पर्कः पिसनहारी मढ़िया के पास,
जबलपुर-482003 (म.प्र.)
मोः 9300613975
रघुबीर ‘अम्बर’
ग़ज़ल
दवा हूं गम की खुशी बेमिसाल देता हूं.
मैं कर के नेकियां दरिया में डाल देता हूं.
डरा नहीं मैं किसी दौर में सितमगर से,
जो बात सच है वो मुंह पर उछाल देता हूं.
खुदा अगर है तू मेरा निज़ाम भी सुन ले,
जरा हो शक़ तो समुन्दर खंगाल देता हूं.
नहीं कुबूलते बच्चे हराम की दौलत,
उन्हें हमेशा मैं रिज्के-हलाल देता हूं.
मैं अपने घर की फजा खुशगवार करने को,
अहम से लड़ता हूं रिश्ते सम्हाल देता हूं.
नहीं जवाब मिला मुझको जिन सवालों का,
उन्हें मैं मजहबी सांचों में ढाल देता हूं.
वो अपनी सोच को ‘अम्बर’ जुबां न दे पाये,
मैं अपने शेर लहू में उबाल देता हूं.
सम्पर्कः इयू. नं. 7, कचनार सिटी,
विजय नगर, जबलपुर-482002 (म.प्र.)
मोः 8349855808
श्रीश पारिक
बदलाव
किसी झूले को सिसकते हुए देखा
उस अंधेरे में चांद की रोशनी में
झांक रहा था चर मर की आवाजों के बीच
सिसकियां दब रही थीं जब बच्चे आ जाते थे पार्क में
खेला करते थे धूल उड़ जाती थी
और घाव भर जाते थे झट से किलकारी के बीच
जब सब होते थे उसके चारों ओर
शहंशाह सा महसूस करता था वो
और सबके जाते ही लगता था
गरीबी का दौर चालू हो जाता था
ना आटा ना दाल ना चावल
सब होते हुए भी बिरयानी बनती नहीं थी
बना लेते थे कभी बेमन से तो भी
हलक से निवाला नहीं उतरता था अकेलेपन में
लगता था मानो रूह निकल गई हो शरीर से
क्यों खुशियां हर पल साथ नहीं होती
सब वहीं होते हुए भी वक्त क्यों करवट लेता है
कातर आंखें आज भी सिसकी सुनती हैं
जब जब उस झूले में चर चर की आवाज होती है.
सम्पर्कः सुनार मोहल्ला, बदनौर,
भीलवाड़ा (राजस्थान)
एम. पी. मेहता
हम इंसान हैं
सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ हैं हम,
क्योंकि इंसान हैं हम
स्वच्छंद भ्रमण हमारी आदत है,
दूसरों को गुलाम बनाना हमारी ताकत है.
झूठ बोलना हमारी मजबूरी है
दूसरों का मुंह बंद करना हमारी कमजोरी है.
दोषी को निर्दोष साबित करना
निर्दोष को फांसी पर चढ़ा देना,
हमारे बाएं हाथ का खेल है
क्योंकि हम रखते सबसे मेल हैं.
नर-पशु में फर्क समझता नहीं
पशु पक्षी और सर्प, मछली
सबकुछ खा सकता हूं मैं
तभी तो सर्वभक्षी कहलाता हूं मैं.
मांस-मांस में फर्क करता नहीं
इंसानी रिश्तों को जानता नहीं
क्या बहु और क्या बेटी,
क्या छोटी और क्या बड़ी
सभी को शिकार बनाता हूं मैं.
मेरा पेट कभी भरता नहीं
खुद को भूखा रख सकता नहीं
भूखे को खाना देता नहीं
दूसरे को खाते देख सकता नहीं
नंगे को कपड़ा पहनाता नहीं,
दूसरे का खाना छीन सकता हूं मैं
पशुओं का चारा खा सकता हूं मैं
गरीबों को हक मारकर धन का ढेर लगाता हूं मैं
अपनों का खून बहाकर, अपनी संपत्ति बढ़ाता हूं मैं
मां-बाप की सेवा भाता नहीं
मेरा अपमान करे, सुहाता नहीं
मां-बाप का सहारा बनूं अच्छा लगता नहीं
औरत का सम्मान बर्दाश्त होता नहीं
मैं हूं ऐसा मदारी,
नाचते मेरे इशारे पर सभी
दारोगा, पेशकार और पटवारी
सरकार हो या सरकारी कर्मचारी
मैं हूं एक बलात्कारी,
करता हूं मैं रोज बलात्कार
मुझे नहीं कोई सरोकार,
अपने घर की हो या परायी नारी.
जिस्म का धंधा है मेरा कारोबार
करता हूं मानव अंग का व्यापार
मैं हूं ऐसा भिखारी
मुझे ही टैक्स देते सभी भिखारी
क्या मंदिर और क्या मजार
हर जगह करता मैं सख्त निगरानी
बच नहीं सकता मुझसे कोई,
लेता हूं मैं सबसे रंगदारी
हर घृणित काम करता हूं
घृणा और नफरत फैलाता हूं
धर्म के नाम पर दंगा फैलाता हूं
फिर भी रामनाम का जाप करता हूं
समाज को बांटने का काम करता हूं
भाइयों को आपस में लड़ाता हूं.
देशद्रोहियों से हाथ मिलाता हूं,
फिर भी देशभक्त कहलाता हूं.
हम हैं मौत के सौदागर
सस्ते दामों में करते हैं
चोरी, डकैती, अपहरण और बलात्कार
हर किस्म की मौत देते हैं
ग्राहक हो यदि खरीदने को तैयार.
हम हैं सृष्टि के घृणित प्राणी
हम करते हैं हर वो काम
मानवता होती है जिससे बदनाम
शर्म आती नहीं हमें
मुर्दों का कफ़न छीनने में
लाज लगती नहीं हमें
दूध मुंहे बच्चे का दूध पीने में.
सम्पर्कः मुख्य वाणिज्य प्रबंधक (या. से.)
पश्चिम मध्य रेल, जबलपुर
मोः 9752415951
COMMENTS