आ गरा में रहे और लपकों को न जाना? हो ही नहीं सकता, वैसे ये लपका तत्व आगरा का कापीराइट नहीं है. लपके और आत्मा भारत में सर्वव्यापी, अक्षुण्ण औ...
आगरा में रहे और लपकों को न जाना? हो ही नहीं सकता, वैसे ये लपका तत्व आगरा का कापीराइट नहीं है. लपके और आत्मा भारत में सर्वव्यापी, अक्षुण्ण और चिरंतन हैं, आगरा में लपके अधिक हैं ये भी सही है. आत्मा का वजन भी यूनिफॉर्म कहाँ होता है? चपरासी की आत्मा सौ, बाबू की पांच सौ, अफसर की तो मुंह ही नहीं खोलती सिर्फ खुश या नाखुश का इजहार कागज पर करती है. जहाँ सम्भावना होती है वही आत्मा होती है और लपके भी, सम्भावना हर जगह है कहीं कम कहीं ज्यादा. दोनों का वर्गीकरण भी होता है- निर्मल आत्मा, निर्मल लपके, कठोर आत्मा, कठोर लपके, कुलीन आत्मा, कुलीन लपके, शिष्ट आत्मा, शिष्ट लपके, गरीब आत्मा, गरीब लपके, धर्मात्मा, धार्मिक लपके और भी कई, लेकिन इनकी प्रकृति का मूल एक है जो बाबा तुलसीदास बहुत पहले कह गए- ‘पग बिनु चलहिं सुनहि बिनु काना’ यदि भावार्थ निकालें तो निकलता है- जो बिना पैरों के चले, बिना कानों के सुने यानी बेसिर पैर की, यकीनन ये आत्मा के साथ लपकों पर भी चरितार्थ है.
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पट्ठे अंग्रेजों को बाहर से ‘सेंट जोन्स’ कालेज दिखाकर ‘आगरा किले’ का मेहनताना वसूल लें. कभी कोई अंग्रेज उसके ऊपर लगे क्रास को देखकर प्रश्नवाचक चिह्न बनाये तो लपका बड़े ही आत्मविश्वास से कहता है- ‘ओ या या...एक्चुअली वन आफ द वाईव्स आफ एम्परर वाज क्रिस्चियन नेम्ड मरियम’ अंग्रेज को शक भले हो पर वह अपने लार्ड लिनलिथगो का डी.एन.ए. एम्परर में महसूस कर तसल्ली कर लेता है. कौन उस इतिहास को जानने की जहमत उठाये जिसमें अकबर की हिन्दू रानी को ही मरियम की उपाधि मिली थी.
लेकिन जो भी हो ये मनोरंजक होते हैं, बिलकुल आत्मा की तरह, जो शरीर में रहती तो है पर रोक टोक नहीं करती, बताइए आसाराम की आत्मा रोक टोक करती तो मनोरंजन होता आपका? कुछ लोगों का मानना है, लपके वही होते हैं जहाँ पर्यटक आते हैं, लेकिन ये गलत है. अपने डौंड़िया खेड़ा को लीजिये, वहां पर्यटक तो क्या डाकिया भी सूचना के अधिकार के प्रयोग के बाद आता होगा. वहां सड़क नहीं जाती, बिजली नहीं जाती, नेताजी पांच साल में एक बार जाते हैं, पर्यटक क्यों जायेगा भला? लेकिन वहां आत्मा भी है और लपके भी. गजब की आत्माएं, अजब लपके.
वहां बाबाजी को सपने आते हैं, अपनी समझ में नहीं आया बैरागी को सपना कैसे आ सकता है, सपना तो संसारी की बीमारी है, पतंजलि के अनुसार ‘अभ्यास वैराग्यभ्याम तन्निरोधः’ यानी अभ्यास (योग) और वैराग्य उनका (स्वप्न लाने वाली वृत्तियों) का नाश करते हैं. मतलब यदि किसी बैरागी को सपना आये तो उसे या तो योग अभ्यास करना चाहिए या तुरंत गृहस्थ में लौट जाना चाहिए. सपने का विज्ञापन तो नहीं करना चाहिए, लेकिन सर्वव्यापी लपका तत्व का क्या करें? देख लिया सपना, सपना भी न देव का, न दानव का, न मोक्ष का, न बोधि का. क्यों देखें जी?
एक हजार टन सोना एक बार आ जाय. बाकी सब तो पीछे पीछे चले आयेंगे. सोना दिखा तो मंत्री जी को चिट्ठी लिखी- श्री पत्री जोग लिखी डौंड़िया खेड़ा से शोभन सरकार की राम राम भारत सरकार को बांचना जी, उधर हाल ये है कि डालर चढ़ा है, इधर अपने खेड़े में सोना गढ़ा है...मंत्री जी ने आगे नहीं पढ़ा और भले ही ननकू की जमीन पैमाइश की तेरहवीं शिकायत का जवाब मंत्रालय से न गया हो पर मंत्रीजी कूदकर अभीष्ट के सामने पहुँच गए- ‘मैडम डौंड़िया खेड़ा के किले में इतना सोना निकलेगा जितना आपकी सासू माँ जयपुर, अलवर और ग्वालियर की किले से नहीं निकल पाईं.’
गौर तलब ये कि मंत्री जी वही थे जिन्होंने कभी बयान दिया था- ‘मैडम कहें तो मैं पोंछा लगाने को तैयार हूँ.’ मैडम ने उनकी स्वामिभक्ति को मद्देनजर रखते हुए डौंड़िया खेड़ा का गलत उच्चारण चार बार किया और थक हारकर मुंडी हिला दी. खुदाई शुरू, टी.वी., अखबार, पत्रकार सब चालू, ले सोना, दे सोना पर सब जुबानी.
शरद यादव उछल रहे हैं, नितीश जी मचल रहे हैं, मोदी कुढ़ रहे हैं पर बाबाजी के ढपोल शंख हवा में उड़ रहे हैं- ‘एक हजार? टनाटन इक्कीस हजार टन दूंगा?’ बाद में पता चलता है ये ढपोल शंख कांग्रेस के छुटभैये नेताजी रहे हैं. तस्वीर साफ, कुल मिलाकर बाबाओं की क्रेडेबिल्टी दांव पर, नुकसान उसका जो बाबाओं का उपयोग राजनीति में करे, आया मजा?
पर दिक्कत ये कि खबर हिंदुस्तान के बाहर भी गयी. वहां जो गोरे हमारे लपका तत्व से परिचित नहीं वो क्लेमेंट एटली को गाली दे रहे होंगे कि क्यों उसने बिना डौंड़िया खेड़ा को खोदे हिंदुस्तान को आजाद कर दिया. वे नवाज शरीफ को भड़काएंगे- ‘हिस्सा मांग मूरख’ नवाज शरीफ ओबामा की ओर देखेंगे- ‘दस पैसे ही दिला दो माई बाप.’ ओबामा इटली की नागरिकता लेने पर विचार करेंगे, इटली वाले स्विस बैंक के पासवर्ड रीसेट करेंगे. स्विटजर लैंड वाले डौंड़िया खेड़ा की ओर देखकर मुस्करायेंगे- ‘खोदो, खोदो, आना तो यहीं है’ लेकिन वे हमारे लपका तत्व से परिचित नहीं, जो इतनी कवायद करा के शाम को देशी दारू के ठेके में साथी लपके के हाथ पर हाथ मारकर किलक रहा होता है-
‘ये गोरे भी कितने चूतिये होते हैं, स्सालों को दीवानी दिखाके एत्माद्दौला बता दिया, अन्ग्रेजिन तो स्साली इतनी इम्प्रेस थी कि जाते वक्त तीन बार हाथ हिलाकर गई, बाई गाड अगर साथ में खसम नहीं होता तो...ही...ही...ही...’
और ये लपके सिर्फ आगरा में नहीं होते, सर्वव्यापी, अक्षुण्ण और चिरंतन हैं. हर जगह होते हैं, जी हाँ डौंड़िया खेड़ा में भी. इनका उद्देश्य मनोरंजन ही होता है, आपका भी और अपना भी.
ईमेल: shaktiprksh@yahoo.co.in
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