प्राची-अप्रैल 2017–हास्य-व्यंग्य विशेषांक : शोध लेख / आधुनिक हिन्दी कविता और गाँधी

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शोध लेख आधुनिक हिन्दी कविता और गाँधी भारत यायावर प्रोफेसर, हिंदी विभाग, विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग (झारखण्ड) सरिता कुमारी शोध-छात...

शोध लेख

आधुनिक हिन्दी कविता और गाँधी

भारत यायावर

प्रोफेसर, हिंदी विभाग, विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग (झारखण्ड)


सरिता कुमारी

शोध-छात्रा, हिन्दी विभाग, विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग (झारखण्ड)

हात्मा गाँधी तिलक के बाद सबसे प्रभावशाली व्यक्तित्व थे, जो स्वाधीनता- संघर्ष में केन्द्रीयता ग्रहण करते हुए लगातार सक्रिय और गतिशील रहे. उन्होंने निष्क्रिय प्रतिरोध का एक ऐसा राजनीतिक शस्त्र इस्तेमाल किया था, जिससे ब्रिटिश सत्ता की जड़ें हिल गई थीं. सत्य और अहिंसा पर आधारित गाँधी का जीवन और दर्शन इतना प्रेरक और प्रभावशाली था कि भारत में जन-जागरण की एक आँधी-सी चल पड़ी थी. गाँधीवाद का प्रभाव समाज के हर क्षेत्र पर पड़ा था, खासकर हिन्दी साहित्य पर उनका अद्भुत असर था. हिन्दी कथा-सम्राट प्रेमचंद गाँधीवाद से प्रभावित सबसे प्रखर कथाकार थे. आधुनिक हिन्दी कविता में मैथिलीशरण गुप्त, सियाराम शरण गुप्त, हरिऔध, रामनरेश त्रिपाठी, जयशंकर प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, दिनकर, बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, नागार्जुन, मुक्तिबोध आदि ने गाँधी के दर्शन से प्रभावित होकर कई कविताएँ लिखी हैं. सियाराम शरण गुप्त ने गाँधी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर लिखा है- “पद-पूजन का भी क्या उपाय! तू गौरव गिरि, उतुंग काय!”

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सोहनलाल द्विवेदी ने लिखा है- “चल पड़े जिधर दो डग-मग में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर/पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि, मुड़ गए कोटि दृग उसी ओर.”

गाँधी और उनके दर्शन के प्रति भारतीय जनता और हिन्दी के आधुनिक कवियों का यह अद्भुत आकर्षण किसी दूसरे व्यक्तित्व के प्रति नहीं था. इसका कारण था, उनका व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर सम्पूर्ण रूप में जन-रूपान्तरण कर लेना. गाँधीवादी का मतलब था और है- लगातार जनसंघर्ष चलाना, अपने अधिकारों और सामाजिक, आर्थिक स्वाधीनता के लिए लड़ना. गाँधीवाद का मतलब है- अन्याय, अत्याचार और तानाशाही का प्रतिरोध. गाँधीवाद का मतलब है- अपने-आप को बदलना और स्वावलंबी बनना. गाँधीवाद का मतलब है- कायरता की जगह निर्भीकता, रूढ़िवादिता की जगह परिवर्तन, साम्प्रदायिक विद्वेष की जगह प्रेम और जातिवाद की जगह समरसता, साथ ही साथ सादगी, सच्चाई, प्रेम और मानवता, विदेशी की जगह स्वदेशी. गाँधी होने के निहितार्थ को आधुनिक हिन्दी कवियों ने जितना बखूबी समझा है और अपनी कविताओं में चित्रित किया है, वह अद्भुत है.

हिन्दी के महान् आलोचक नन्ददुलारे वाजपेयी ने गाँधी और उनके विचारों का आधुनिक हिन्दी कवियों पर पड़े प्रभाव को स्पष्ट करते हुए लिखा है- “सन् 1918-19 में समाप्त होने वाला प्रथम महायुद्ध और सन् 1920 के आसपास भारतीय राजनीति में गाँधीजी का प्रवेश, दो ऐसे स्मरण हैं जिनके
आधार पर इन्हीं वर्षों को नये साहित्यिक उन्मेष का प्रवर्तक तिथि मान लेने में किसी प्रकार की शंका नहीं होती. गाँधीजी के रूप में एक महान् व्यक्तित्व भारतीय रंगमंच पर अवतरित हुआ और देश के राजनीतिक और सामाजिक आन्दोलन की पहली हलचल में सियारामशरण जी के भावुकतापूर्ण आख्यान गीत और श्री रामनरेश त्रिपाठी की ‘सुमन’, ‘पथिक’ और ‘मिलन’ जैसी रचनाएँ प्रकाषित हुई. ठाकुर गोपाल शरण सिंह की रचनाओं में एक नया प्रभाव देखा गया और श्री गया प्रसाद स्नेही जी अत्यन्त सीधी और प्रभावपूर्ण राजनीतिक कविता करने लगे. राष्ट्रीय आन्दोलन की इस पहली बहार में ही हिन्दी-साहित्य को इन नये कवियों और लेखकों का उपहार मिला.” (नन्ददुलारे वाजपेयी रचनावली, खण्ड-4, पृष्ठ-453-54, संपादक : विजय बहादुर सिंह)

नन्ददुलारे वाजपेयी ने जिस राष्ट्रीय आन्दोलन की पहली बहार की ओर संकेत किया है, उसका आशय निस्संदेह महात्मा गाँधी के नेतृत्व में राष्ट्रव्यापी स्तर पर चलाये गये असहयोग आन्दोलन से है. इस आन्दोलन ने वाजपेयी जी द्वारा उल्लेखित रचनाकारों के भाव-बोध को तो प्रभावित किया ही, उसी समय आधुनिक हिन्दी कविता में प्रारंभ हुए ‘छायावाद’ को भी गहराई से प्रभावित किया. जिस तरह प्रथम असहयोग आन्दोलन से प्रभावित होकर प्रेमचन्द ने सरकारी नौकरी छोड़ दी, उसी प्रकार सुमित्रानन्दन पंत जैसे कवि ने कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी.
गाँधी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर कवियों ने प्रकृति और ग्रामीण जीवन को अपने चित्रण का विषय बनाया. निराला ने भारतीय किसान का मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया- चूस लिया है सारा सार

हाड़-मांस ही है आधार

यह गाँधी का ही प्रभाव था कि उस समय के हिन्दी के साहित्यकारों ने खादी का वस्त्र पहनना शुरू कर दिया था. यहाँ तक कि सुभद्राकुमारी चौहान और महादेवी वर्मा जैसी प्रबुद्ध कवयित्रियों ने असहयोग आन्दोलन में सक्रिय भाग लेती थीं. वे जेल गयीं, लाठियाँ खायीं, विदेशी वस्त्रों की होली जलाई, आभूषणों एवं कीमती वस्त्रों का परित्याग कर खादी की मोटी साड़ियों को अपनाया, शराबबन्दी के लिए पिकेटिंग जैसे साहसी कार्यक्रम में डटकर भाग लिया. अपनी मृत्यु (1987) के पूर्व एक साक्षात्कार में महादेवी वर्मा ने कहा था- “उनकी जैसी स्त्रियाँ जब सड़कों पर पिकेटिंग के लिए उतरती थीं, तो उसके प्रभाव स्वरूप शराब पीने वाले शराब पीना छोड़ देते थे, लेकिन आजकल की औरतें यह काम करने चलें, तो जो शराब नहीं पीता, वह भी शराब पीने लगेगा.”

गाँधीजी का चरखा कार्यक्रम भारतवासियों के स्वावलंबन का एक अचूक अस्त्र था. इसका प्रभाव इतना व्यापक था कि उस समय के दो प्रसिद्ध महाकाव्यों ‘साकेत’ और ‘कामायनी’ में भी कलात्मक संयम के साथ इस प्रसंग को पिरोया गया है. ‘साकेत’ के अष्टम सर्ग में सीता एक गीत गाती है- ‘मेरी कुटिया में राजभवन मन भाया.’ सादगी में जीने की कला, जहाँ सूत कातते और कपड़े बुनते हुए लयबद्ध स्वर में गीत गाना, गाँधीवाद की प्रमुख देन है. मैथिलीशरण गुप्त गाँधी से प्रभावित महत्त्वपूर्ण कवि थे. स्वाभाविक है, उनकी कविताओं में गाँधी का अत्यधिक प्रभाव होना. वे लिखते हैं-

सब ओर लाभ-ही-लाभ बोध विनिमय में

उत्साह मुझे है विविध वृत्त संचय में.

तुम अर्द्धनग्न क्यों अशेष समय में,

आओ, हम कातें-बुनें गान की लय में

निकले फूलों का रंग, ढंग से ताया

मेरी कुटिया में राजभवन मन भाया.

जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ जैसी कालजयी काव्यकृति पौराणिक आख्यान से सम्बद्ध होने के बावजूद कातने-बुनने जैसे गाँधीवादी कार्य से अछूती नहीं. ‘ईर्ष्या’ सर्ग में श्रद्धा अपने खाली समय का सदुपयोग तकली चलाकर सूत कातने से करती है-

तुम दूर चले जाते हो जब

तब लेकर तकली यहाँ बैठ

मैं उसे फिराते रहती हूँ

अपनी निर्जनता बीच पैठ.

मैं बैठी गाती हूँ तकली के

प्रतिवर्तन में स्वर विभोर-

चल रही तकली धीरे-धीरे

प्रिय गये खेलने को अहेर

गाँधीजी को तुलसीदास का यह दोहा बहुत पसंद था-

दया धरम को मूल है, देह मूल अभिमान.

तुलसी दया न छोड़िए, जब लग घट में प्रान.

गाँधी के चिंतन में ‘दया’ का सर्वाधिक महत्त्व था. वे लिखते हैं- “दया और अहिंसा अलग चीजें नहीं हैं. दया अहिंसा की विरोधी नहीं है और यह विरोधी हो तो वह दया नहीं है. दया को अहिंसा का मूर्तस्वरूप मान सकते हैं.” (संपूर्ण गाँधी वांग्मय, खण्ड-39, पृष्ठ-415) यही दया मनुष्य के भीतर करुणा के रूप में विद्यमान होता है. मानव समाज से इसकी विलुप्ति भीषण हिंसक घटनाओं में परिलक्षित होती है. द्वितीय विश्वयुद्ध के परिप्रेक्ष्य में हुए भीषण नरसंहार को ध्यान में रखते हुए इसीलिए दिनकर ने ‘कुरुक्षेत्र’ में लिखा है- “धर्म का दीपक, दया का दीप/कब जलेगा, कब जलेगा विश्व में भगवान.” अनेक कवियों ने असहाय और कमजोर के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करते हुए अनेक कविताएँ लिखी हैं, उसके मूल में दया, करुणा, अहिंसा की भाव-संवेदना ही है. इन तमाम स्थलों में गाँधीवाद के प्रभाव को देखा जा सकता है.

गाँधीजी मानते थे कि भारत गुलाम है, सदियों से पद-दलित है. अतः यहाँ के नागरिक भी दलित हैं. इस दलित भारत में अस्पृश्य जातियों, स्त्रियों की दशा अति दलित की है. निराला ने इसीलिए ‘भारत की विधवा’ शीर्षक कविता के अंत में लिखा- “वह दलित भारत की विधवा है.” निराला की कई कविताओं में दीन-दुखियों के प्रति करुणा और दबी हुई जातियों के उन्नयन का प्रयास है. मसलन, उनकी यह कविता देखी जा सकती है जो अस्पृश्य जातियों को लक्ष्य करके लिखी गई है-

जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाओ, आओ-आओ!

आज अमीरों की हवेली किसानों की होगी पाठशाला

धोबी, पासी, चमार, तेली खोलेंगे अन्धेरे का ताला!

उपर्युक्त शब्दों में अछूत या निम्न वर्ण की जातियों को लेकर निराला उसी चेतना का प्रसार कर रहे थे जो स्वाधीनता-संघर्ष के दौरान अछूतोद्धार आन्दोलन के रूप में गाँधीजी कर रहे थे. इसी चेतना को लेकर सुभद्राकुमारी चौहान ने एक ओजस्वी कविता लिखी थी. अछूतों के मन्दिर में प्रवेश पर प्रतिबंध पर एक अछूत की तरह से वकालत करती हुई वह कहती हैं-

कह देता है किन्तु पुजारी, यह तेरा भगवान नहीं है

दूर नहीं मन्दिर अछूत का और दूर भगवान कहीं है

मैं सुनती हूँ, जल उठती है मन में यह विद्रोही ज्वाला

यह कठोरता ईश्वर को भी जिसने टूक-टूक कर डाला

यह निर्मम समाज का बन्धन और अधिक अब सह न सकूंगी.

यह झूठा विश्वास, प्रतिष्ठा झूठी, इसमें रह न सकूंगी

ईश्वर भी दो हैं, यह मानूँ, मन मेरा तैयार नहीं है

किन्तु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं ह

अस्पृश्यता-उन्मूलन के लिए गाँधी द्वारा किए जा रहे सतत प्रयासों और आन्दोलनों से विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर अत्यधिक प्रभावित हुए और उन्होंने इसे “युग-युग से चली आ रही दासता के बोझ से मुक्त कराने वाले दिव्य कार्य के रूप में देखा.” प्रेमचन्द ने लिखा- “वह ईश्वर के दरबार से हमारे उद्धार का बीड़ा लेकर आया है जो स्वाधीनता का वरदान लाकर जीर्ण और निराश माता को भेंट करेगा.”

30 जनवरी, 1948 को जब गाँधी की हत्या की गई, तब हिन्दी के कवि बिलख पड़े और अनेक कवियों ने गाँधी पर कविताएँ लिखीं. दिनकर ने लिखा-

यह लाश मनुज का नहीं,

मनुजता के सौभाग्य विधाता की,

बापू की अर्थी नहीं,

यह अर्थी भारत-माता की.

जनकवि नागार्जुन ने ‘शपथ’ नामक एक लम्बी कविता लिखी है, जिसकी कुछ पंक्तियों को यहाँ उद्धृत किया जा रहा है और जिससे पता चलता है कि उस वक्त के कवियों का कितना गहरा लगाव गाँधी से था-

तीन-तीन गोलियाँ, बाप रे

मुंह से कितना खून बहा है

महामौन यह पिता, तुम्हारा

रह-रह मुझे कुरेद रहा है

इसे न कोई कविता समझे

यह तो पितृ-वियोग-व्यथा है

श्राद्ध समय में बहे न आँसू

यह तो बड़ी विचित्र प्रथा है

पर न आज रोके रुक पातीं

आँखें मेरी भर-भर आतीं

रोता हूँ, लिखता जाता हूँ

कवि को बेकाबू पाता हूँ

जो स्थिति नागार्जुन की थी, वह अन्य कवियों की भी थी. हरिवंश राय बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, भवानी प्रसाद मिश्र आदि ने तब विपुल संख्या में गाँधी के व्यक्तित्व पर कविताएँ लिखीं, यहाँ तक कि प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने भी ‘आदित्य-पुरुष गाँधी’ शीर्षक लम्बी कविता लिखी, जिसमें गाँधी की महत्ता को युग-पुरुष के रूप में व्यक्त किया. गाँधी उनके लिए एक सूर्य के समान थे-

वह सूर्य, कि जिसकी किरण-किरण में मुखरित जन-जन की वाणी

वह सूर्य, कि जिसका ज्योतिर्मय स्वर पी जीवित प्राणी-प्राणी

वह सूर्य, कि जिसकी भुजा-भुजा हर दीन-दुखी की थी संबल

वह सूर्य, कि जिसका अमित प्रेम दलितों के लिए अभय का बल

आजादी के बाद देश में लूट, भ्रष्टाचार, विषमता, लोलुपता बढ़ती गई. उसी दौर को धर्मवीर भारती ने ‘अन्धायुग’ कहा और मुक्तिबोध ने ‘अन्धेरे में’ जैसी पतनशील दौर में कूड़े के ढेर पर बिठा दिए गए अर्थात् उपेक्षित कर दिए गए गाँधी का अद्भुत चित्र खींचा-

सर्दी में बोरे को ओढ़कर/

कोई एक अपने/

हाथ-पैर समेटे/

काँप रहा, हिल रहा- वह मर जाएगा!/

इतने में वह सिर खोलता है सहसा/

बाल बिखरते/

दीखते हैं कान कि/

फिर मुँह खोलता है, वह कुछ/

बुदबुदा रहा है,/

किन्तु, मैं सुनता ही नहीं हूँ./

ध्यान से देखता हूँ- वह कोई परिचित/

जिसे खूब देखा था, निरखा था कई बार/

पर, पाया नहीं था।/अरे हाँ, वह तो.../

विचार उठते ही दब गए,/

सोचने का साहस सब चला गया है./

वह मुख- अरे, वह मुख, वे गाँधीजी!!/

इस तरह पंगु!! आश्चर्य!!”

मुक्तिबोध दरअसल यह प्रश्न उठा रहे हैं कि गाँधीवाद आजादी के बाद पंगु क्यों हो गया? क्यों उन्हें हाशिए पर डाल दिया गया? उनके साथ सत्य, अहिंसा, दया और करुणा
आधारित धर्म क्यों समाज से लुप्त हो गया ? आजादी के बाद भारत की जनता स्वार्थ के अवगुंठनों में फंस कर फिर असहाय हो गई, उसके मानवीय गुण ही लुप्त हो गए. ‘अन्धेरे में’ कविता एक बार फिर गाँधी के महत्त्व को प्रतिष्ठित करती है. मुक्तिबोध के शब्द गाँधी का एक सशक्त रेखाचित्र बनाते हैं-

एकाएक उठ पड़ा आत्मा का पिंजर

मूर्ति की ठठरी

नाक पर चश्मा, हाथ में डंडा

कन्धे पर बोरा, बाँह में बच्चा

मुक्तिबोध ने गाँधी को यहाँ ‘द्युति-पुरुष’ कहा है, जो उनका वास्तविक मूल्यांकन है.

दुष्यंत कुमार ने एक शेर कहा है-

कल नुमाइश में मिला जो चीथड़े पहने हुआ

मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है.

दुष्यंत कुमार के हिन्दुस्तान और मुक्तिबोध के गाँधी के चित्र को मिलाकर देखिए, तो उनमें समानता नजर आएगी.

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रचनाकार: प्राची-अप्रैल 2017–हास्य-व्यंग्य विशेषांक : शोध लेख / आधुनिक हिन्दी कविता और गाँधी
प्राची-अप्रैल 2017–हास्य-व्यंग्य विशेषांक : शोध लेख / आधुनिक हिन्दी कविता और गाँधी
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रचनाकार
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