प्राची-अप्रैल 2017–हास्य-व्यंग्य विशेषांक : समीक्षा / ‘सब मिले हुये हैं’ एक खुरपेंचिया दोस्त की नजर में / अनूप शुक्ल

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ग ये साल संतोष त्रिवेदी का पहला व्यंग्य संग्रह ‘सब मिले हुये हैं’ आया था. पुस्तक मेले के अवसर पर. छपते ही लेखक को मिलने वाली प्रतियों में से...


ये साल संतोष त्रिवेदी का पहला व्यंग्य संग्रह ‘सब मिले हुये हैं’ आया था. पुस्तक मेले के अवसर पर. छपते ही लेखक को मिलने वाली प्रतियों में से एक मास्टर जी ने भेजी थी. उसके बाद पुस्तक मेले में और किताबों के अलावा सुशील सिद्धार्थ जी की ‘मालिश महापुराण’ भी खरीदी थी. कुछ दिनों दोनों किताबें मेज पर, यात्रा में, बैग में साथ-साथ रहीं- जैसे उन दिनों दोनों गुरु-चेला (मित्र-मित्र पढ़ें अगर गुरु चेले पर एतराज हो). एक बार जबलपुर से वाया दिल्ली कलकत्ता जाते हुये दोनों किताबें बाकायदे पेंसिल से निशान लगाते हुये पढ़ीं भी गयीं. सोचा था इनके बारे में विस्तार से लिखेंगे. लेकिन लिख न पाये. मालिश महापुराण पर इसलिये कि उसके बारे में छपी समीक्षाओं का ‘गिनीज बुक रिकार्ड’ टाइप बन गया होगा. हमको संकोच हुआ कि सूरज को क्या 20 वाट का बल्ब दिखायें.

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संतोष त्रिवेदी के ‘सब मिले हुये हैं’ के बारे में लिखने की बात भी आई-गई हो गयी. पूरी किताब एक बार पढ़कर भी लिखना न हो पाया. बाद में स्थगित होते-होते एकदम टल गया. दोनों किताबें भी दोनों मित्रों की तरह की बदली स्थितियों के अनुसार अलग-अलग कमरों में अलग-अलग अलमारियों में पहुंच गयीं.

‘सब मिले हुये हैं’ के अधिकतर लेख अखबारों में छपे हुये हैं. छपने की जल्दी में फौरन फाइनल करके भेजे लेख. अखबार में छप जाने के बाद लेख ऐसे भी किताब में छपने की पात्रता हासिल कर लेता है. उसी पात्रता के तहत किताब में शामिल हुये लेखों में समसामयिक घटनाओं पर अपने विचार व्यक्त किये हैं. ज्यादातर लेख सरकार के किसी काम या बयान पर जनता के नुमाइन्दे की तीखी प्रतिक्रिया के रूप में हैं. सरोकार के भरपूर. जिधर देखो उधर सरोकार ही सरोकार.

संतोष त्रिवेदी के लेखन का श्रेय केन्द्र की वर्तमान सरकार को भी जाता है. जिस समय उन्होंने अखबार में छपना शुरू किया संयोग से उसी समय वैचारिक रूप से उनके विपरीत मिजाज वाली सरकार सत्ता में आई. लेखन ने जब ‘सरकार मुकाबिल हो तो अखबार में लेख निकालो’ पर अमल किया और दनादन लेख लिखे. एक बार जब लेखन और छपने का चस्का लगा और सरकार कोई मुद्दा हासिल नहीं करा पाई तो सामान्य बातों पर भी की बोर्ड खटखटा दिया.

संतोष त्रिवेदी की किताब की भूमिका लिखते हुये सुशील सिद्धार्थ जी ने लिखा है- ‘समकालीन व्यंग्य-लेखन के युवा परिदृष्य में संतोष त्रिवेदी एक महत्त्वपूर्ण उपस्थिति हैं.’ हालिया समय की सबसे लोकप्रिय वनलाइनर लिखने वाली रंजना रावत जी ने लिखा- ‘संतोष जी के व्यंग्यों की विशेषता यह है कि वह हास्य और व्यंग्य का समानुपात रखते हैं.’

हमने आज इस किताब को पंच के लिहाज से दोबारा देखा, पढ़ा. कुल जमा इकतीस पंच मिले 127 पेज में छपे 55 लेखों में. मतलब फी लेख लगभग आधा पंच. हो सकता है कोई फड़कता हुआ पंच निगाह से चूक गया हो. दुबारा देखने पर नजर आये.

हम आलोचक नहीं हैं. संतोष त्रिवेदी हमारे मित्र हैं. मित्र की किताब को मित्र नजरिये से ही देखा जाता है. गुस्सा है तो कह देंगे- कूड़ा है. मन खुश तो कह देंगे- कलम तोड़ दी यार तुमने तो.

होली के मौके पर लिखने का फायदा ये भी है कि आइंदा कोई बुरी लगने वाली बात भी धड़ल्ले से कही जा सकती है.

इसी बात पर याद आया कि पिछले साल जब हम यह किताब पढ़ रहे थे और लखीमपुर से कानपुर आते हुये कुछ देर एक कोल्हू पर रुके थे. वहां देखा कि गन्ना पेरने पर सबसे ऊपर की मैल सरीखी परत को बहाने के बाद तब बाकी का गुड़ बनाते हैं. उस समय सोचा था कि जब संतोष की किताब पर लिखेंगे तब यही लिखेंगे कि लेखन की गुड़ की भेली बनने के पहले बहाये शीरे सरीखी है यह किताब. अब यह निकल गयी अब शानदार गुड़ बनाओ. लेकिन अब सोचते हैं तो यह बड़ी हल्की बात लगती है. एक मुकम्मल किताब को खारिज करने का इससे घटिया संवाद और क्या होगा?

संतोष के लेख चूंकि तात्कालिक परिस्थितियों पर लिखे गये. जब छपे उसी समय लोग उसको समझ गये होंगे लेकिन समय के साथ प्रसंग भूल जाते हैं. ‘काले चश्मे का गुनाह’ ‘उनकी कैंटीन और हमारी कटिंग चाय’, ‘खटिया के नीचे जासूस’, ‘गायब होते देश में’, ‘गिरता हुआ रुपय्या’ आदि इसी तरह के लेख हैं. इन लेखों की खासियत है कि लेख विषय पर ही जमा रहता है. लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है कि लेख घूम-घूमकर वहीं ‘कदमताल’ करता रहता है. मतलब कहने का लेख इकहरा टाइप बना रहा रहता है.

संतोष और हमारे समेत तमाम साथी जो तकनीक की सुविधाओं के विस्फोट एक मंच पाये अपने को अभिव्यक्त करने का उनके सामने फौरन छपने की सुविधा तो है लेकिन साथ ही खतरा भी है कि हम लोग छपने से ही खुश हो जाने की आदत की गिरफ्त में आ सकते हैं. संतोष तो खैर उमर से भले ही युवा हैं लेकिन समझ में सिद्ध लेखकों को भी हिदायतें देने की हैसियत रखते हैं. देते भी रहते हैं। लेकिन आज ‘सब मिले हुये हैं’ पढ़ते हुये अपने लेखन की तमाम कमियां समझ में आ रही हैं.

आजकल हम पंच संकलन के काम में लगे हुये हैं. इसलिये हर व्यंग्य लेख को पंच के पैमाने से देखते हैं. यहां पंच मेरी समझ में ऐसे वाक्य से है जो लेख से एकदम अलग करके स्वतंत्र रूप में अपने में एक धांसू डायलाग के रूप में प्रयोग किया जा सके. पंच की औकात
गठबंधन सरकार में निर्दलीय की तरह होती है. होता भले अकेले हो लेकिन मिलता मंत्री पद है.

पंच के लिहाज से ‘हम सब मिले हुये हैं’ में और बेहतरी की गुंजाइश थी. भूमिका लिखने वाले दोनों लेखक सुशील सिद्धार्थ और रंजना रावत दोनों पंच मास्टर हैं. उनसे सीखना चाहिये हम लोगों को. संतोष, सुशील के दीगर व्यवहार पर नजर रखने की बजाय यह देखते कि गुरु जी पंच कैसे लगाते हैं तो पंच दुगुने तो हो ही जाते. कई जगह कोई पंच बनते-बनते रह गया और वाक्य बनकर पैरे से जुड़ा रहा.

संतोष त्रिवेदी का जब यह व्यंग्य संकलन आया था, तब से उनकी समझ बहुत परिपक्व हुई है. अध्ययन भी बढ़ा है. अब आगे उनका अगला व्यंग्य संकलन जो आयेगा उसमें आशा है कि और शानदार रचनायें होंगी.

यह लिखना इसलिये कि संतोष त्रिवेदी की भेजी किताब एक जिम्मेदारी के रूप में थी और मन में था कि इसके बारे में लिखना है. यह इस किताब के बारे में अंतिम बयान नहीं है. आज की सोच है मेरी. कल को इसके किसी और पहलू पर भी लिखा जा सकता है. किताबों और लेखक के बारे में विचार तो बदलते रहते हैं.

संतोष त्रिवेदी को उनके पहले व्यंग्य संकलन के लिये पन्द्रह महीने बाद बधाई. होली की शुभकामनायें बधाई के साथ मुफ्त में.


किताब : सब मिले हुये हैं

लेखक   : संतोष त्रिवेदी

प्रकाशक : अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली

पेज 127

कीमत   : 250 रुपये

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर 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