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राज परम्परा का निर्वाह   आज हाबूलाल बड़ी तेजी से हड़बड़ाता हुआ आया और आते ही अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। हाबूलाल को मैंने आज तक इस प्रकार ...

राज परम्परा का निर्वाह

 

आज हाबूलाल बड़ी तेजी से हड़बड़ाता हुआ आया और आते ही अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। हाबूलाल को मैंने आज तक इस प्रकार हड़बड़ाते हुए नहीं देखा। मैंने पूछा, ‘हाबूलाल बात क्या है? इस प्रकार क्यों हड़बड़ा रहे हो? दरवाजा क्यों बंद कर लिया?’ बोला, ‘बात ही कुछ ऐसी है, तुमने मुझे मरवा दिया, तुम्हारे चक्कर में आकर मेरा बेड़ा गर्क हो गया।’

‘कुछ बताओगे भी या इधर-उधर की ही बातें करते रहोगे। साफ-साफ बोलो, बात क्या है?’

हाबूलाल बोला, ‘तुमने मेरे मंत्री बनने पर कहा था कि लोकतंत्र में मंत्री का पद राजा से कम नहीं होता। इसलिए मंत्री पद का ठीक ढंग से निर्वाह करने के लिए आवश्यक है, मैं राज परम्पराओं का अच्छी तरह अध्ययन करूं और उसके अनुसार ही आचरण करूं। तुम्हारी बात मानते हुए मैंने हमारे सभी पूर्वज राजा-महाराजाओं द्वारा किए गए कार्यों का अच्छी तरह अध्ययन कर उसके अनुसार ही आचरण करना शुरू कर दिया।’

मैंने कहा, ‘यह तो अच्छी बात है, इसमें तुमने गलत क्या किया है?’ हाबूलाल बोला, ‘यहीं से तो गड़बड़ हुई है। मैंने पढ़ा था कि राजा-महाराजा अपने रनिवास (हरम) में बहुत सी स्त्रियां रखते थे। जब जिसके साथ जी बहलाने की इच्छा होती उसे अपने पास बुलाकर मनोरंजन कर लिया करते थे। कभी किसी को आपत्ति नहीं होती थी। जिसके पास जितना बड़ा हरम होता था उसका स्टेटस उतना ही बड़ा माना जाता था। राजा का सानिध्य पाने वाली स्त्रियां अपने आप को भाग्यशाली समझती थी।’

‘बिल्कुल ठीक पढ़ा है तुमने। इससे तुम्हारे हड़बड़ाने का क्या सम्बन्ध है?’ मैं बात काटता हुआ बोला। मुझे बीच में बोलता देख हाबूलाल चिढ़ गया। बोला, ‘तुम चुपचाप मेरी बात सुनते जाओ। अगर मैं तुम्हारी कही हुई बातों पर नहीं चलता तो मेरा यह हश्र नहीं होता, जो आज मेरा हुआ है। मैंने तुम्हारे कहे अनुसार राजा-महाराजाओं के साथ ऋषि तपस्वियों की कहानियां भी पढ़ी हैं। पाराशर ऋषि का मत्स्योदर (सत्यवती) पर रीझ कर उसके साथ सत्संग करने के लिए अपने तप बल से सूर्य को ढकना और नीचे नदी में काई पैदा कर देना। ऋषि महिमा को बताता है। वहीं गौत्तम ऋषि की पत्नी अहिल्या पर इंद्र के रीझ जाने पर छल द्वारा गौत्तम ऋषि को कुटिया से बाहर भिजवाकर अहिल्या के साथ इंद्र के समागम की कहानी भी मैंने पढ़ी थी। पाराशर ऋषि के केस में सत्यवती कुंवारी माँ बन गई और उन्होंने वेदव्यास को जन्म दिया। वहीं अहिल्या को अपने पति द्वारा श्राप दिए जाने पर वह शिला बन गई। दोनों ही परिस्थितियों में पाराशर ऋषि और इंद्र का बाल भी बांका नहीं हुआ। इस सबसे सबक लेकर मैंने भी मंत्री पद की गरिमा बढ़ाने का काम किया। आपने मुझसे कहा ही था कि मुझे ‘राज परम्परा’ का निर्वाह करना है।

आजकल समय बदल गया है। रनिवास रखने का प्रचलन खत्म हो गया है। जिस पर मन आ जाता है उसे कुछ ले-देकर, सौदेबाजी करके अपने यहां बुलाकर या उसके यहां जाकर अथवा अन्य किसी तीसरे स्थान होटल वगैरह में ले जाकर परम्परा का निर्वाह किया जाता है।

मैं भी राज परम्परा का निर्वाह करता रहा हूं। उस महिला को पता नहीं किसने भड़का दिया कि उसने मेरे ही खिलाफ केस कर दिया। उसका कहना है कि मैंने उसके साथ दुष्कर्म किया है। भला उसका कौन समझाए, जो काम हमारे पूर्वज राजा-महाराजा, ऋषि-तपस्वी करते आए हैं वह भला दुष्कर्म कैसे हो सकता है। उसने यह सब मीडिया में प्रचारित भी कर दिया। मैंने उसे बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन उसने समझने से इनकार कर दिया।

मेरे द्वारा ‘राज परम्परा’ के निर्वहन की मीडिया में खबर आने से हाई कमान नाराज हो गए और मुझसे इस्तीफा मांग लिया। उनका कहना है कि मैं मंत्री बनने लायक नहीं हूँ। जब मैं राज परम्परा को राज नहीं रख सकता तो भला अन्य राजों को राज कैसे रख पाऊंगा? दबाव में आकर मुझे इस्तीफा देना पड़ा। मैं इस्तीफा देकर पुलिस को चकमा देकर तुम्हारे पास आया हूँ। मैंने घर पर कह दिया है कि मैं धार्मिक यात्रा पर जा रहा हूँ। कोई मेरा पीछा नहीं करे। मोबाइल भी मैं साथ नहीं लाया जिससे मेरी पोजिशन ट्रेस नहीं की जा सके। अब तुम ही बताओ इस सबका जिम्मेदार तुम हो या मैं?

यदि तुम्हारी सीख में नहीं आता तो ना ही मेरा मंत्री पद जाता और ना ही पुलिस मेरे पीछे पड़ती। अब कैसे भी मुझे भंवर जाल से निकालो। नहीं तो मैं आत्म हत्या कर लूंगा।’

हाबूलाल को इस प्रकार की बेवकूफाना बात करते देख मैं बोला, ‘हाबूलाल, तुम बेवकूफ हो गए हो, जो इस प्रकार आत्म हत्या की बात करते हो। कभी किसी मंत्री को इल्जाम लगने पर आत्म हत्या करते सुना है? यह मंत्री पद की परम्परा के बिल्कुल खिलाफ है। इससे तुम अपना ही नहीं आगे आने वाली पीढ़ियों तक में मंत्री पद पर दाग लगा दोगे।

राजा-महाराजा, ऋषि-महात्मा, मंत्री-संतरियों पर इस प्रकार के इल्जाम लगते ही रहते हैं। ऐसे इल्जाम उनकी गरिमा को बढ़ाते हैं। ये इस बात के परिचायक हैं कि वे लोग हमारी वर्षों से चली आ रही परम्परा को अक्षुण्य रखे हुए हैं। वे ही हमारी भारतीय संस्कृति और परम्परा के सच्चे वाहक हैं। इसलिए इसमें इतना परेशान होने की कोई बात नहीं है।

आत्महत्या के बारे में तुमने मुझसे तो कह दिया। अगर अन्य किसी के सामने कह दोगे तो तुम्हारे संगी-साथी तुम्हारा एन्कांउटर कर उसे आत्महत्या करार दे देंगे। तुमने जो कुछ किया है वह किसी भी स्थिति में गलत नहीं है। तुम्हारी गलती सिर्फ यह है कि जब तुम्हें लग रहा था कि वह स्त्री राज परम्परा के निर्वहन में बाधा बन रही है तो तुम्हें उसे मैनेज करना चाहिए था। और जब वह मैनेज नहीं हो पाई तो मीडिया को मैनेज करना चाहिए था।

मेरी इस प्रकार की बातों से हाबूलाल ही हड़बड़ाहट कुछ कम हुई। अब वह आराम से सोफे पर बैठ गया। टेबिल पर रखे पानी के गिलास को वह एक ही बार में पूरा गटक गया। अब उसको कुछ सुकुन मिला था। बोला, ‘तुम्हारी बात बिल्कुल ठीक है, मुझसे गलती यहीं हुई है। राज परम्परा का निर्वाह तो सभी करते हैं। अब बताओ मुझे क्या करना है?’

मैं बोला, ‘हाबूलाल करना क्या है? अपनी पिछली गलतियां सुधारनी है। जिसे मैनेज नहीं कर पाए उन्हें मैनेज करना है।’

हाबूलाल मेरा मतलब समझ गया था और अब वह मीडिया को मैनेज करने व महिलाओं के साथ नया सत्संग करने वहां से निकल गया।

 

भ्रमित

मेरा स्थानान्तरण दूसरे शहर हो गया। लोग मेरी जाति, कुल से परिचित नहीं थे। मैं भी उन्हें परिचित कराना नहीं चाहता था। मेरे नाम के पीछे लगा सरनेम मुक्त मेरी जाति का बोध कराने में असमर्थ था।

एक दिन पिछड़ी जातियों के आरक्षण समर्थक आंदोलन के एक नेता वर्मा जी मेरे पास आए। वे आरक्षण के लिए मेरा समर्थन चाहते थे। मैं समझ गया कि इन्हें मेरे नाम के पीछे लगे उपनाम ने भ्रमित कर दिया है या मेरे साथ मेलजोल रखने वाले लोगों से ये भ्रमित हो गए हैं। वरना ऊँची जाति के व्यक्ति के पास कोई भी निचली जाति का व्यक्ति आरक्षण के समर्थन के लिए भला क्यों आएगा। हर कोई जानता है कि कोई भी ऊँची जाति का व्यक्ति अपनी जाति को नहीं छिपाता। जाति को छिपाने का काम तो नीची जाति वालों को करना पड़ता है, जिससे लोग उन्हें हेय दृष्टि से नहीं देखें, उनसे बात करने से पहले ही उनके बारे में नकारात्मक भाव नहीं लाएं। उन्हें हीन नहीं समझें।

वैसे भी ज्यादातर जाति सूचक सरनेम नहीं लगाने के मामले में देखा गया है कि नीची जाति के लोग ही अपने नाम के पीछे जाति सूचक सरनेम नहीं लगाते और लगाते हैं तो ऐसा सरनेम लगाते हैं जिससे सामान्य व्यक्ति उनकी जाति का सहज ही अनुमान नहीं लगा सके।

वे चाहते हैं कि लोग उनके रूप को देखकर, उनकी योग्यता को देखकर उनके बारे में कोई मानसिकता बनाए। उनकी जाति को देखकर नहीं। भारतीय विद्वानों ने इस पर पर्याप्त विचार किया है कि रूप बड़ा है या जाति। रूप व्यक्ति-सत्य है, जाति समाज-सत्य। जाति उस पद का द्योतक है जिस पर समाज ने मुहर लगा रखी है। ऐसे लोग समाज-सत्य की सड़ी-गली धारणाओं को तोड़ना चाहते हैं वे व्यक्ति सत्य को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं।

मुझे भी वे ऐसा ही मान रहे थे। उनकी बातों को सुनकर मैं मन ही मन प्रफुल्लित हो रहा था कि चलो गलत फहमी में ही सही ये लोग मुझे अपना हितैषी तो मान रहे हैं, यदि इनको मेरी जाति के बारे में पता होता तो किसी भी स्थिति में मुझसे आरक्षण के समर्थन में बात करने नहीं आते।

मैंने उनका उनके रूप के अनुसार सत्कार किया। वे बोले, ‘आजकल ऊँची जाति के लोग हमारे आरक्षण के खिलाफ लामबन्द हो रहे हैं। यदि हम सब एकसाथ उनके खिलाफ लामबन्द नहीं हुए तो वह दिन दूर नहीं जब हमें आरक्षण से वंचित होना पड़ेगा। आप तो लेखक टाइप व्यक्ति हो, कुछ ऐसा लिखो जिससे हमारी जाति के लोग इस आरक्षण के समर्थन में एक साथ खड़े हो जाएं और ऊँची जाति के लोग चुप हो जाएं।’

मैं बोला, ‘वर्मा जी! ऐसी कोई बात नहीं है। हमें आरक्षण मिलना सामाजिक न्याय की बात है। हमसे इसे कोई भी नहीं छीन सकता। जब तक हमारी जाति के लोग, सामान्य जाति के लोगों के बराबर नहीं आ जाते, आप चिन्ता मत करो।’

वर्मा जी मेरी बात से संतुष्ट नहीं हुए। वे चाहते थे कि मैं आरक्षण का विरोध करने वाले ऊँची जाति के लोगों को अच्छी-अच्छी गालियाँ दूं, अच्छे-अच्छे अकाट्य तर्क आरक्षण के समर्थन में दूं। मेरी बात से वे थोड़े निराश हो गए लेकिन तुरन्त ही हिम्मत जुटाकर बोले, ‘मुक्त जी, ऐसा कब तक चलता रहेगा। हम कब तक अन्याय सहते रहेंगे। आरक्षण का विरोध करने वालों को जेल में डाल दिया जाना चाहिए।’

मैं वर्मा जी की मन स्थिति समझ रहा था। इनके दोनों लड़के बड़े अफसर थे। स्वयं के पास भी करोड़ो रुपयांे का कारोबार था। नेताजी ही उनका साइड जॉब थे।

मैंने कहा, ‘वर्माजी आप जैसे लोग आरक्षण लेना खत्म कर दो तो जाति का भला हो सकता है, ऐसे लोग जिन्हें दो समय की रोटी नसीब नहीं है। वे तुम्हारे साथ रेस में आगे कैसे निकल सकते हैं। भला चिमनी और बिजली के लैम्प में मुकाबला कैसे हो सकता है? मुझे तो ऐसा लग रहा है कि तुम ही अपनी जाति के लोगों का हक छीन रहे हो। क्यों ना पिछड़ी जाति के लोगों की एक बैठक बुलाकर यह निर्णय लिया जाए कि धनाढ्य लोग आरक्षण का लाभ नहीं लेंगे। यदि सभी ने ऐसा सोच लिया तो निश्चित रूप से हम इस जाति के लोगों का भला कर सकते हैं।’

मेरी बात अपने ही प्रतिकूल पड़ते देख वर्माजी ने रंग बदला। वे बोले, ये सब तो अपनी घरेलू बाते हैं। इन पर फैसला तो हम सब बाद में मिल बैठकर कर लेंगे, लेकिन फिलहाल आरक्षण विरोधियों का मुकाबला कैसे करें। यह सब बाताओ।

मैं बोला, ‘जो लोग आरक्षण का विरोध कर रहे हैं, उनके तर्कों को कुतरना शुरू कर दो। अच्छा सा वकील हायर करके अपना पक्ष न्यायालय में प्रस्तुत करो।’

‘इसी पर डिसकस करने तो मैं तुम्हारे पास आया हूँ। अपने दिमाग में दौड़ाओ और कोई अच्छी सी काट बताओ लेकिन अभी जो तुम धनाढ्य लोगों के आरक्षण नहीं लेने की बात कर रहे थे, उस बात को दुबारा किसी से मत कहना। तुम समझते नहीं यदि हम ही ऐसा करने लग जाएंगे तो हम-तुम इतनी भाग-दौड़ क्या भाड़ झौंकने के लिए कर रहे हैं। हर कोई अपने बच्चों के लिए, आने वाली संतति के सुखद भविष्य के लिए काम करता है।’

हम-तुम शब्द के बार-बार उच्चारण को सुनकर मेरे चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई। मैंने कहा, ‘वर्माजी तुम सिर्फ अपनी बात करो। मुझे अपने में शामिल में मत करो। मैं आरक्षित जाति का व्यक्ति नहीं हूं।’

मेरे मुंह से इस अप्रत्याशित रहस्योद्घाटन को सुनते ही वर्माजी भौचक्के रह गए, लेकिन तुरन्त संभलकर बोले, ‘तभी मैं सोच रहा था कि तुम अब तक ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों कर रहे थे। अपने ही खिलाफ तुम हमको सलाह कैसे दे सकते हैं। मैं अभी जाकर सबको बताता हूँ कि तुम आरक्षण विरोधियों के भेदिये हो और हमें बेवकूफ बनाने के लिए अपने नाम के आगे अपनी जाति सूचक सरनेम नहीं लगा रहे हो।’

यह कहते हुए वर्मा जी उठ खड़े हुए और मन ही मन गाली बकते हुए अपनी जाति के आरक्षण समर्थकों के पास अपनी भड़ास निकालने निकल पड़े।

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हनुमान मुक्त की 2 रचनाएँ
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