योग एक अति प्राचीन और रहस्यमय विद्या है। इसके अनुसंधान में भारतीय ऋषि-मुनियों का एक बड़ा योगदान रहा है। भारतीय संस्कृति की यह एक परम्परागत व...
योग एक अति प्राचीन और रहस्यमय विद्या है। इसके अनुसंधान में भारतीय ऋषि-मुनियों का एक बड़ा योगदान रहा है। भारतीय संस्कृति की यह एक परम्परागत विशेषता रही है कि उसने वाह्य जगत पर (जिसमें प्रकृति और सामाजिक परिवेश दोनों ही सम्मिलित हैं) नियंत्रण की बजाय सदैव ही आत्म-नियंत्रण पर बल दिया है। जहां एक ओर आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति दूसरों के मन पर अपना प्रभाव डालने के लिए प्रचार और विज्ञापन के नए नए तरीके खोजती है, वहीं दूसरी ओर भारत में उन पद्धतियों का अन्वेषण किया गया है जिनसे व्यक्ति स्वयं अपने ही मन और शरीर पर नियंत्रण प्राप्त कर सके। इस प्रकार का नियंत्रण, भारतीय मनीषा के अनुसार, तभी संभव है जब हम अपने अवधान को वाह्य विषयों से स्थानांतरित कर आंतरिक जगत की ओर उन्मुख कर सकें। सामान्यत: मनुष्य केवल वाह्य विषयों पर ध्यान केन्द्रित करने का अभ्यासी रहा है। वह स्वयं अपने मन के भीतर उतर पाने में लगभग असमर्थ रहता है। योग वह पद्धति है जो व्यक्ति को उसकी आंतरिक अवस्थाओं को भी पहचान पाने और उन्हें नियंत्रित करने की सामर्थ्य प्रदान करती है। योग इस प्रकार हमारे ध्यान का वाह्य से आंतरिक क्षेत्र में विस्तार और स्थानान्तरण है।
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योग विद्या को प्राय: हिन्दू जीवन-पद्धति और दर्शन से जोड़ा जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि हिन्दू षठ-दर्शनों में योग भी एक महत्वपूर्ण दार्शनिक सम्प्रदाय है किन्तु बौद्ध और जैन दर्शनों में भी योग विद्या को एक महत्त्व पूर्ण स्थान प्राप्त है। बौद्धों के ‘ज़ेन-सम्प्रदाय’ ने जो मुख्यत: जापान में विकसित हुआ, अनेक ‘ज़ेन’ योगियों को जन्म दिया है। वस्तुत: शब्द, ‘ज़ेन’ संस्कृत शब्द, ‘ध्यान’ से निकला है – ध्यान> ज्यान> ज़ेन। इसी प्रकार ‘ज़ेन’ साधु भी योग क्रियाओं का सतत अभ्यास करते हैं। बौद्ध ही नहीं, जैन विपश्यना भी योग का ही एक रूप है। योग, इस प्रकार किसी एक मत या सम्प्रदाय या धर्म की धरोहर नहीं है। यहाँ तक कि मुस्लिम समाज में नवाज़ की क्रियाएं तक बहुत कुछ योगिक क्रियाओं से मिलती-जुलतीं हैं। सच तो यह है कि योग एक धर्म-निरपेक्ष ध्यान- पद्धति है जो सभी व्यक्तियों को लिंग और जाति के भेद-भाव के बगैर, अभ्यास द्वारा उपलब्ध हो सकती है। आधुनिक काल में तो योग देश और राष्ट्र की सारी सीमाएं तोड़ कर एक वैश्विक संपत्ति बन गया है। यूरोप और विशेषकर, अमेरिका, में तो योग बहुत-कुछ एक फैशन के रूप में, “योगा” नाम से प्रचलित हो गया है।
‘योग’ शब्द ‘युज’ धातु से बना है। इसका अर्थ जुड़ने या युक्त होने से है। योग करना जोड़ना है। किसी भी वस्तु का योग किसी अन्य वस्तु से हो सकता है। संख्याओं का योग, ग्रहों का योग, व्यक्तियों का योग (मिलन), इत्यादि। गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन को विषाद से युक्त दिखाया गया है इसलिए इस अध्याय को विषाद-योग कहा गया है। विभूतियों से युक्त होना ‘विभूति-योग’ है और पुरुषोत्तम से युक्त होना ‘पुरुषोत्तम-योग’ है। इसी प्रकार ज्ञान, भक्ति अथवा कर्म से युक्त होना क्रमश: ज्ञान-योग, भक्ति-योग और कर्म-योग है। किन्तु वास्तविक प्रश्न तो यह है कि युक्त (किसी भी वाह्य या आंतरिक विषय से) हुआ कैसे जाय ? उक्त होने की इसी युक्ति को पतंजलि ने राज-योग में उद्घाटित किया है। पारिभाषिक अर्थ में यही योग है। पतंजलि के अनुसार योग की यह विधि, एक शब्द में “चित्त-वृत्ति-निरोध” है। अर्थात, चित्त की वृत्तियों का नियंत्रण ही योग है। इसी को हम आत्म-संयम कह सकते हैं। गीता में योग को “वश्वात्मा” कहा गया है। अर्थात, योग वह है जो आत्मा को ‘वश’ में करता है। स्पष्ट ही आत्मा से यहाँ तात्पर्य समस्त शारीरिक और मानसिक प्रक्रियाओं से है। आत्मा को वश में करने के लिए आठ साधन, योग के ‘अष्टांग’, बताए गए हैं। ये हैं – नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्यहार, धारणा और समाधि।
जब हम अपनी मानसिक वृत्तियों को नियंत्रित करने में सफल हो जाते हैं तो संज्ञानात्मक धरातल पर हमारी बुद्धि निश्चय हो जाती है और हम अपनी मानसिक क्षमताओं का समन्वय करने में सक्षम हो सकते हैं। यही कारण है कि योग हमें ‘समत्व-बुद्धि’ प्रदान करता है। योग को समत्व बुद्धि कहकर उसके इसी संज्ञानात्मक पक्ष पर बल दिया गया है।
भावात्मक या संवेगात्मक धरातल पर योग ‘दुःखहा’ है। यह दुःख का हरण करने वाला है। गीता में योग को ‘दुःख संयोग वियोगम’ कहकर परिभाषित किया गया है। योग वह युक्ति है जिससे मानव स्थिति में जो दुःख का संयोग है उसको विच्छेदित किया जा सकता है। दुःख रहित स्थिति शान्तावस्था है। योग इस प्रकार शान्ति प्रदान करने वाली एक सावधान अवस्था है जो हमारे संवेगों को नियंत्रण में रखती है। संवेगों को नियंत्रण में रखना ही अनासक्ति प्राप्त करना है। अत: योग व्यक्ति को विषयों की आसक्ति से बचाता है और इस प्रकार भावात्मक रूप से एक अविचलित अवस्था प्रदान करता है। गांधी जी ने तो योग के इसी पक्ष को ध्यान में रखते हुए उसे ‘अनासक्त-योग’ की संज्ञा प्रदान की थी।
यदि योग द्वारा बुद्धि और भावना से व्यक्ति निश्छल और अविचलित बने रहने में समर्थ हो जाता है तो वह सहज ही किसी भी कर्म में कौशल प्राप्त कर सकता है। प्राय: कार्य करते समय हमारा ध्यान उस कार्य के अच्छे या बुरे परिणामों की ओर जाने-अनजाने केन्द्रित हो जाता है और इसीलिए पूरे मनोयोग से हम अपने कार्यों को संपन्न नहीं कर पाते। अपने कार्य में कौशल हम तभी प्राप्त कर सकते हैं जब हमारा पूरा ध्यान केवल कार्य पर रहे। इसीलिए क्रियात्मक धरातल पर योग “कर्मसु कौशलम” कहा गया है। यदि पूरे मनोयोग से कर्म किया जाए तो उसका परिणाम (फल) तो असंदिग्ध है ही। फल के बारे में पहले से चिंता क्या करना ? इस प्रकार की चिंता तो स्वयं परिणाम के लिए ही अहितकर होगी क्योंकि तब हमारा ध्यान कर्म से विचलित हो जाएगा। इसीलिए फलाशा रहित निष्काम-कर्म ही यह एकमात्र उपाय है जिससे कर्म का अपना वांच्छित फल सुनिश्चित किया जा सकता है।
भारतीय मनोविज्ञान व्यक्तियों की मानसिक बुनावट में अंतर स्वीकार करता हैं। सभी व्यक्तियों की आध्यात्मिक पृष्ठ-भूमि जो उन्हें अपने पिछले जन्मों से प्राप्त है, एक सी नहीं होती। जन्म के समय से ही प्रत्येक व्यक्ति में भावनात्मक और बौद्धिक स्तर पर फर्क होता है। यूँ तो साधना की विभिन्न प्रणालियों के रूप में योग के अनेक प्रकार हैं, किन्तु इनमें से चार प्रमुख हैं। कर्म-योग, भक्ति-योग और ज्ञान-योग तथा कर्म-योग। योग के यह प्रमुख चार प्रकार मनुष्य की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति पर आधारित हैं। कुछ लोग दुखी मानवता के लिए अधिक संवेदन- शील होते हैं और उनकी सेवा करना आवश्यक मानते हैं; कुछ दूसरे लोग भावुक अधिक होते हैं तथा संसार के पीछे जो रहस्यमय शक्ति काम कर रही है , उसे न केवल जानना चाहते हैं वरन उसके साथ अपना तादात्म्य भी स्थापित करना चाहते हैं; कुछ अन्य लोग अपने विवेक और अपनी बुद्धि के प्रति आग्रहशील होते हैं। इन सभी लोगों को एक ही प्रकार की साधनापद्धति अनुकूल नहीं हो सकती।
पहले प्रकार के लोगों के लिए कर्म-योग का प्रावधान है। वे दूसरों की सेवा से अपना आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। जो विश्व को संचालित करने वाली शक्ति को आश्चर्य और भय से देखते हैं, उन भाव-प्रवण लोगों के लिए भक्ति-योग है। वे जो स्वयं प्रकृति के रहस्य का अनुसंधान करना चाहते हैं वे राज-योग की साधना कर सकते हैं। इसी प्रकार वे जो शुद्ध विचार और बुद्धि द्वारा अपना आध्यात्मिक विकास करना चाहते हैं, उनके लिए ज्ञान-योग निर्धारित किया गया है। किन्तु हम किसी भी साधना से क्यों न आगे बढ़ें अंतत: सभी साधनाओं का लक्ष्य एक ही है। योग का शाब्दिक अर्थ ‘संयुक्त करना’ है और मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि सभी योग पद्धतियाँ मनुष्य को उसकी दिव्यता के साथ संयुक्त करती हैं।
भक्ति-योग एक सहज और स्वाभाविक साधन का मार्ग है। अधिकाँश लोग ब्रह्म के निर्गुण और अमूर्त स्वरूप पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते। अत: भक्ति ही एक सरल मार्ग है। भगवद-प्रेम के कारण विश्व-बंधुत्व और विश्व-प्रेम जाग्रत हो जाता है। भक्त यद्यपि आरम्भ में स्वयं अपने में और भगवान में एक अंतर बनाए रखता है किन्तु परमार्थ अवस्था में पहुँच कर प्रेम, भक्त और भगवान में कोई अंतर नहीं रहता और इस प्रकार भक्ति से भी अभेद प्राप्ति संभव हो जाती है। भावुकता से शून्य व्यक्तियों के लिए ज्ञान-योग का विधान है। ज्ञान-योग में ज्ञान का अर्थ इन्द्रियजन्य ज्ञान अथवा बौद्धिक ज्ञान से नहीं है। यह आत्मानुभूति है; “अहं ब्रह्मास्मि” का अपरोक्ष ज्ञान है। जिस प्रकार भक्ति योग में पारमार्थिक स्तर पर प्रेम, भक्त और भगवान में कोई अंतर नहीं रहता, उसी प्रकार ज्ञान योग में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुटी का अतिक्रमण हो जाता है तथा ज्ञानी अपरोक्षानुभूति प्राप्त कर लेता है। कर्म-योग का अर्थ कुशलता के साथ कार्य करना है इस विधि में जहां एक ओर स्वार्थयुक्त कर्मों को त्याग देने का विधान है तथा फलाशा और आसक्ति से रहित हो जाने का उपदेश है, वहीं दूसरी ओर लोकसंग्रह की दृष्टि रखते हुए निस्वार्थ कर्म के लिए आग्रह है। अहंभाव को समाप्त कर कर्म करना ही कर्म-योग है। कर्म-योगी की एकाग्रता केवल कर्म पर होती है, उसके फल पर नहीं, अत: कर्म-योग की सफलता के लिए एकाग्रता की आवश्यकता है और यह चित्त की वृत्तियों का निरोध करके प्राप्त की जा सकती है।
कहा गया है कि साधक रूपी पक्षी के उड़ने के लिए ज्ञान और भक्ति यदि उसके दो पंख हैं तो योग (राज-योग) सामंजस्य बनाए रखने वाली पूंछ है। राज-योग ही वह मार्ग है जिससे हम एकाग्रता अथवा अविचल ध्यान अर्जित करते हैं। इसकी आवश्यकता कमोबेश प्रत्येक साधना-प्रणाली में पड़ती है। इसी प्रकार राज-योग में वर्णित यमनियामादि सद्गुण सार्वभौमिक हैं और बिना किसी भेद-भाव के सभी प्रकार के योगियों को स्वीकार करने आवश्यक होते हैं। ये साधक को एक नैतिक आधार देते हैं। बिना इनका पालन किए मुमुक्ष किसी भी प्रकार के साधना-मार्ग पर नहीं चल सकता।
ध्यान और नैतिक सद्गुणों के अतिरिक्त एक तीसरा तत्व जो सभी साधनाओं में समान रूप से परिलक्षित है वह है, “अहंनाश”। सभी प्रणालियों में मूलत: अहंनाश द्वारा ही अंतिम लक्ष्य की सिद्धि संभव है। कर्म-योग में कर्म की फलाकांक्षा से रहित होने के लिए कर्मों को ईश्वरार्पण कर देना ज़रूरी है। भक्ति योग में भक्त का अहं भगवान के अहं में विलय हो जाता है, राजयोग में साधक का अहं समाधि में विलीन हो जाता है और ज्ञान-योग में ज्ञानी का अहंकार ब्रह्म में एकाकार होकर विश्वेक की स्थिति में आ जाता है। अत:, कहा जा सकता है की अहं-त्याग के बिना कोई साधना पूरी नहीं होती।
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डा. सुत्रेन्द्र वर्मा (मो. ९६२१२२२७७८)
१०, एच आई जी / १, सर्कुलर रोड
इलाहाबाद -२११००१
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