भट्टलोल्लट के लिये तो रस अपने तात्विक रूप में उसी प्रकार ह्दयस्थ रागात्मकता का पर्यायवाची है जिस प्रकार वह भरतपूर्व आचार्यों के लिये था। उस...
भट्टलोल्लट के लिये तो रस अपने तात्विक रूप में उसी प्रकार ह्दयस्थ रागात्मकता का पर्यायवाची है जिस प्रकार वह भरतपूर्व आचार्यों के लिये था। उसी रागात्मकता में से समस्त भाव उगते हैं, उसी में वे बढ़ते, फलते-फूलते हैं और उपचित होते हैं। [1]
इस कथन से यह तथ्य तो एक दम सुस्पष्ट है ही कि रागात्मक ही काव्य का वह प्राण तत्व है, जिसमें समस्त भावों का जन्म होता है और इस रागात्मकता के अभाव में कोई भी भाव न तो बढ़, फूल-फूल सकता है और न उपचित हो सकता है।
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सच बात तो यही है कि रागात्मता काव्य की समस्त सत्ता में इस प्रकार समायी रहती हे जिस प्रकार की फल के भीतर मिठास या फूल के भीतर सुगन्ध। रागात्मकता ही काव्य का वह स्नायुतंत्र है जिससे काव्य चेतन ही नहीं, रस, अलंकार, ध्वनि रीति, औचित्य आदि के माध्यम से अपनी जीवंतता का परिचय देता है|
आचार्य वामन यह कहते है कि सौन्दर्य ही अलंकार है और काव्य अलंकार से ही ग्राह्य होता है- ‘सौन्दर्यमलंकार, काव्य ग्राहय मलंकारात्’ |
क्या इन अलंकारों या सौन्दर्य का आलेकमयी स्वरूप बिना रागात्मकता के स्पष्ट किया जा सकता है? काव्य भले ही अलंकारों से ग्राहय होता हो, उसकी ग्राहयता बिना रागात्मक-दृष्टि के अग्राहय रहेगी। इसी कारण तो आस्वादक का सह्दय होना आवश्यक बतलाया गया है।
आचार्य वामन आगे कहते हैं कि रीत ही काव्य की आत्मा है [रीतारात्मा काव्यस्य] और उन्होंने इस रीति को इस प्रकार स्पष्ट किया कि-‘विशिष्ट पद रचना ही रीति है [विशिष्ट पद-रचनाः रीतिः ] | ‘विशिष्ट’ की उन्होंने यूं व्याख्या की कि गुण ही विशिष्टता है [विशेषो गुणात्मा] | उनके लिये रीतियों में भी वैदर्भी गुण श्रेष्ठ है क्योंकि वह समग्र गुण है क्योंकि यह वाणी का स्पर्श पाकर मधु-स्त्रावण करने लगती है | यह रीति ही अर्थ गुण सम्पदा के कारण आस्वाद्या होती है। उसकी गुणमयी रचना से कोई ऐसा पाक उदित होता है जो सद्दय-हृंदयरंजक होता है | उसमें वाणी को इस प्रकार स्पंदित कर देने की शक्ति है जो सारहीन भी सारवान प्रतीत होने लगे। [2]
काव्य की आत्मा रीति या उसका वैदर्भी गुण, जिसके आलोक में सारहीन भी सारवान प्रतीत होने लगता है, जो अर्थ गुण सम्पदा से परिपूर्ण है, को काव्य की आत्मा मानने से पूर्व हमें डॉ. नगेन्द्र के इन तथ्यों को समझना आवश्यक है कि ‘‘-जिस काव्य में रागात्मक आस्वाद प्रदान करने की क्षमता जितनी अधिक होगी, उतना ही उसका मूल्य होगा।--- बुद्धि भी अनुभव की सघनता से पुष्ट होती है इसलिये मानवीय रागात्मक अनुभव की सघनता से पुष्ट होती है इसलिये मानवीय रागात्मक अनुभूति और बौद्धिक चेतना परस्पर विरोधी नहीं हैं।’’
डॉ. नगेन्द का उक्त कथन आचार्य वामन के वैदर्भ गुण की उन सारी विशेषताओं का उत्तर दे देता है जिसके द्वारा सदह्दय-हृदय रंजक होता है, वाणी इस प्रकार स्पन्दित होती है कि सारहीन व सारवान प्रतीत होता है। सारहीन को सारवान बनाने वाला कोई और नहीं, वही आत्म तत्व है जिसको रागात्मक चेतना कहा जाता है | अतः यहां यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि विशिष्ट पद रचना ‘रीति’ का प्राण तत्व रागात्मकता है। इस संदर्भ में डॉ. राकेश गुप्त की यह टिप्प्णी बेहद महत्वपूर्ण है कि -‘‘ रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य वामन ने अलंकारों को उचित महत्व देते हुए भी गुणों पर आश्रित रीति को काव्य की आत्मा घोषित किया। उन्होंने वैदर्भी, गौड़ी और पांचाली ये तीन रीतियां, दश शब्द गुण तथा दशअर्थ गुण माने | वामन के मत से वैदर्भ रीति समग्रगुणा होने से सर्वश्रेष्ठ है | गौड़ी केवल ओज और कांति तथा पांचाली में केवल माधुर्य और सौकुमार्य के गुण होते है | ‘रीति काव्य की आत्मा है’ इस कारण आठ गुणों से रहित गौड़ी और पांचाली रीतियों के काव्य भी वामन के मत से उत्तम श्रेणी के काव्य हैं। इससे स्वतः सिद्ध है कि कोई भी गुण काव्य के लिये अनिवार्य नहीं है। ओज और माधुर्य गुणों से हीन अनेक काव्य रचनाओं के उदाहरण दिये जा सकते हैं। प्रसाद’ की ‘कामायनी’ प्रसाद-गुण से रहित होने पर भी आधुनिक महाकाव्य में सर्वाधिक समादृत है।’’ [3]
आचार्य वामन की वैदर्भी रीति भले ही समग्र गुणा होने से सर्वश्रेष्ठ हो लेकिन आचार्य गौड़ी और पांचाली रीति के अन्तर्गत भी उत्तर श्रेणी के काव्य सृजन स्वीकारते हैं। अतः रीति के अन्तर्गत किसी भी रीति से किया गया काव्य सृजन उनके सिद्धान्त को हर प्रकार व्यापकता ही प्रदान करता है, इससे स्वतः यह सिद्ध नहीं हो जाता कि कोई भी गुण काव्य के लिये अनिवार्य नहीं हैं और न इस प्रकार रीति सिद्धान्त खारिज हो जाता है। इसलिये डॉ. राकेश गुप्त का यह कहना कि ओज और माधुर्यगुणों से हीन अनेक काव्य रचनाओं के उदाहरण दिये जा सकते हैं। प्रसाद की ‘कामायनी’ प्रसाद गुण से रहित होने पर भी आधुनिक महाकाव्यों में सर्वाधिक समाद्र्त है’’ अटपटा और अतार्किक कथन लगता है। प्रसाद की कामायनी ‘प्रसाद’ गुण से भले ही रहित हो लेकिन इसमें माधुर्य का विलक्षण अन्तर्भाव अन्तर्निहित है, जो प्रगाड़ रागात्मकता के द्वारा पुष्पित, पल्लवित और सुवासित हुआ है।
सन्दर्भ-
1.रस सिद्धांत, डॉ. ऋषिकुमार चतुर्वेदी, पृष्ठ-60
2.काव्यालंकार सूत्र वृत्ति 1/1/111, 1/1/20, 1/1/21
3.राकेशगुप्त का रस-विवेचन, पृष्ठ-87
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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