विभिन्न प्रकार की वस्तुओं या विषयों की उद्दीपन क्रियाओं का इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान-संवेदना, प्रत्यक्षीकरण एवं अर्थग्रहण की प्रक्र...
विभिन्न प्रकार की वस्तुओं या विषयों की उद्दीपन क्रियाओं का इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान-संवेदना, प्रत्यक्षीकरण एवं अर्थग्रहण की प्रक्रिया के उपरांत, एक अनुभव के रूप में, प्राणी मस्तिष्क में उपस्थित होता है। प्राणी विषयों या वस्तुओं की तीव्रता, गुण आदि को इस अनुभव के आधार पर चिंतन की एक निश्चित प्रक्रिया से गुजारते हुए कष्टदायक या कष्टनिवारक मूल्यों के रूप में अपनी चेतना का विषय बना लेता है। यह कष्टदायक या कष्टनिवारक निर्णय प्राणी मस्तिष्क में सुखात्मक या दुःखात्मक स्मृति-चिन्हों के रूप में संग्रहीत होना प्रारंभ कर देते हैं। यही सुखात्मक या दुःखात्मक स्मृति-चिन्ह विभिन्न प्रकार की वस्तुओं या विषयों के प्रति एक सामाजिक की ‘अनुभूति’ की विषय बनते हैं। इस तरह हम यह भी कह सकते हैं, किसी भी प्रकार के कष्टदायक या कष्टनिवारक ज्ञान के प्रति ‘अनुभूति’ सिर्फ दुःखात्मक या सुखात्मक दो ही प्रकार की होती है। इस दुखात्मक या सुखात्मक अनुभूति का आधार, चूंकि वह अनुभव होता है, जिसके कारण हमें, अपमान, घात, प्रतिघात, शोषण, यातना, त्रासदी, पीड़ा, प्रेम, सम्मान, व्यभिचार, बलात्कार, भ्रष्टाचार, संकट, समस्या, सुगंध, दुर्गंध, कटुता, शत्रुता, मित्रता, भाईचारा आदि का ज्ञान होता है, अतः जिन उद्दीपकों के प्रति हमारे अनुभव पीड़ादायक, असुरक्षात्मक होते हैं, उनकी दुःखानुभूति, हमारे मन में विरति ही पैदा नहीं करती, बल्कि, क्रोध, घृणा, विरोध, विद्रोह आदि से भी हमारे मानसिक-धरातल को सिक्त किए रहती है। जिन उद्दीपकों के द्वारा हमारे मन को शांति, सुरक्षा, प्रेम, स्नेह आदि की प्राप्ति होती है, उनके प्रति हमारे मन में रति, श्रद्धा, भक्ति, वात्सल्य आदि रसों की निष्पत्ति हुआ करती है। इस प्रकार अनुभव की सारी-की-सारी प्रक्रिया हमारे उन निर्णयों, विचारों आदि की प्रक्रिया है, जिसकी चिंतना सुखात्मक या दुःखात्मक अनुभूतियों के आधार पर हमें विभिन्न प्रकार के रसाद्बोधन की ओर ले जाती है।
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कृष्णादि के बालरूप का अनुभव [ उनके बाल्यावस्था के क्रियाकलापों के आधार पर ] जहाँ यशोदा मैया को वात्सल्य से सिक्त करता है, वहीं कृष्ण की यौवनावस्था राधादि को रिझाने, बाँसुरी बजाने, नृत्यादि करने के कारण] शृंगार रस में डुबा डालती है। जबकि कृष्ण के अर्जुन को दिए गए उपदेशों का अनुभव, अर्जुन में वीरता, रौद्रता आदि का संचार करता है। जैसा कि हमने ‘विचार और भाव’ शीर्षक लेख में भी कहा है कि मात्र आलंबन के आधार पर किसी भी आश्रय में किसी भी प्रकार के भावों का निर्माण नहीं हो सकता, बल्कि भाव और रस का आधार तो आलंबन का धर्म अर्थात् उसके क्रियाकलाप ही बनते हैं। अतः आलंबन के रूप में कृष्ण के तीन अवस्थाओं में, विभिन्न प्रकार के क्रियाकलाप ही माँ में वात्सल्य, राधा में रति और अर्जुन में रौद्रता जागृत करने में सक्षम हुए हैं।
पाठक या श्रोता के आस्वादन का विषय जब यही सामग्री बनती है तो वह भी अपने अनुभव से कृष्ण के क्रियाकलापों को वात्सल्यात्मक, शृंगारिक या रौद्रतापूर्ण बना डालता है। जिसके अंतर्गत शृंगार, वात्सल्य तो सुखानुभूति के विषय बन जाते हैं, लेकिन अर्जुन की रौद्रता सुखानुभूति का विषय तब बनती है, जबकि पाठक या श्रोता यह अनुभव करते हैं, इस रौद्रता के द्वारा ही अनीति, अत्याचार के पथ पर चलने वाले कौरव वंश का विनाश होगा।
एक दूसरे उदाहरण के रूप में यदि हम राम और सीता के आलंबन धर्म अर्थात् उनके क्रियाकलापों को लें तो पाठक या श्रोता को इन क्रियाकलापों के अनुभव [ उनके दाम्पत्य जीवन के कारण ] वह शृंगारिक स्वरूप नहीं प्रदान कर पाते, जैसा अनुभव पाठक, कृष्ण-राधा की रति-क्रियाओं से प्राप्त कर शृंगार से सिक्त होते हैं, क्योंकि सीता के अनुभव हमारे मन में एक आदर्श पत्नी के रूप में उपस्थित रहते हैं, जबकि राधादि के अनुभव एक कामिनी, एक नायिका, एक प्रेमिका के रूप में मन पर आच्छादित होते हैं।
अनुभवों की यह प्रक्रिया मात्र हमारे व्यक्तिगत अनुभवों पर ही आधारित नहीं होती, हमारे अनुभवों के मूल में लोकानुभव भी अपनी भूमिका निभाते हैं। लोकानुभवों को अपना विषय बनाकर निर्धन और निर्बलवर्ग अंधविश्वास के रूप में आज भी [ विभिन्न धार्मिक कथाओं के आधार पर ] यह अनुभव करता है कि उसके कष्टों, उसके दुःखातिरेक का निवारण सिर्फ ईश्वरीय कृपा द्वारा ही संभव है। वह सोचता है कि त्रासदी, यातना, दुराचार, अनैतिकपन और आदमी की आसुरी आदतों का विनाश करने एक-न एक दिन ईश्वर पृथ्वी पर अवतार लेगा और सारे दुष्टों को चुन-चुनकर मार डालेगा, जैसा कि उसने विगत युगों में किया है। देवी-देवताओं, ईश्वरीय शक्तियों के प्रति सामाजिकों के द्वापर, त्रेता, सतयुग आदि के वैदिक एवं पौराणिक अनुभव, उसे सुखानुभूति से सिक्त किए रहते हैं, इसी कारण उसके मन में अलौकिक शक्तियों के प्रति श्रद्धा और भक्ति आदि के रूप में सुखानुभूतियों का स्थायित्व बना रहता है।
लेकिन मनुष्य जब यह अनुभव करता है कि अलौकिक शक्तियों के प्रति किया गया जाप, तप, कीर्तन, भजन आदि उसे किसी भी प्रकार यातना से मुक्त नहीं कर पाता, बल्कि धार्मिकता, अलौकिक शक्तियों के यशोगान से शोषण की तलवारें ज्यादा पैनी-धारदार होकर सबका गला काटती हैं तो उसके इस प्रकार शोषण से युक्त त्रासद अनुभव दुःखानुभूति को जन्म देते हैं। एक तरफ जहाँ यह दुःखानुभूति कबीर के साहित्य में विरोध और विद्रोह का रूप धारण करती है, वहीं मार्क्स जैसा साम्यवादी चिंतक धर्म को अफीम बताते हुए, ईश्वरीय शक्ति का निरंतर विरोध करता है। उसके मन में साम्राज्यवादी वर्ग के अत्याचारों से जन्य दलित वर्ग के हालात की दयनीय और कारुणिक दशा, शोषक वर्ग से लड़ने, संघर्ष करने और शोषणविहीन समाज की स्थापना करने हेतु अभिव्यक्ति विषय बनती है।
ठीक इसी प्रकार नारी की दलित दशा का अनुभव जब द्विवेदी काल के रचनाकारों को दुःखानुभूति से सराबोर करता है तो वह नारी को दलित हालात से मुक्त कराने के लिए ऐसे साहित्य का सृजन करते हैं, जिसके माध्यम से सतीप्रथा, बालविवाह के निर्मूलन पर बल दिया जाता है।
अनुभव और अनुभूति संबंधी उक्त व्याख्या से हम निम्न निष्कर्ष निकाल सकते हैं-
1. अनुभव हमारी वह मानसिक क्रिया है जिसके अंतर्गत हम वह निर्णय लेते हैं कि इंद्रियों के सामने प्रस्तुत हुई सामग्री, हमारी चेतना पर किस प्रकार का प्रभाव छोड़ती है? स्पर्श इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान हमें जलन, घाव, पीड़ा, चोट आदि का अनुभव कराता है। श्रवण इंद्रियों द्वारा हम अपशब्द, अपमान, कटुवचन, मधुर वचन, नेह, स्नेह, प्रेम, तिरस्कार आदि का अनुभव करते हैं। दृष्टि इंद्रियाँ हमें प्रकाश, अंध्कार, प्राणियों, पौधों की दृश्यात्मक उपस्थिति का अनुभव कराती हैं। स्वादेन्द्रियों द्वारा कड़वे, मीठे, खट्टे, चरपरे, चटपटे स्वादों का अनुभव होता है। घ्राणेन्द्रियाँ सुगंध, दुर्गंध आदि का अनुभव कराती हैं।
2. वस्तुधर्म या आलंबनधर्म का अनुभव जब सामाजिक को किसी प्रकार की सुरक्षा या संतुष्टि प्रदान करता है तो इन अनुभवों से प्राप्त सुखानुभूति तत्काल या कुछ समय पश्चात् उन वस्तुओं के धर्म या क्रियाकलाप में रुचि लेने या उनमें रमणने के लिए प्रेरित करती है, ऐसी वस्तुएँ जो हमारे मन में किसी प्रकार की रति जागृत करती हैं, दरअसल, इसके मूल में उन वस्तुओं का वह धर्म ही होता है, जिनके आधार पर हम उन्हें मित्र की संज्ञा प्रदान करते हैं।
लेकिन जिन वस्तुओं का अनुभव असुरक्षात्मक, कष्ट-पीड़ादायक एवं शत्रुतापूर्ण होता है, स्मृति-चिन्हों के रूप में मस्तिष्क में संगृहीत हुई उनकी दुःखानुभूति, उन वस्तुओं के प्रति मनुष्य के मन में तब तक रौद्रता, भयावहता, विरोध, विद्रोह आदि का संचार किए रहती है, जब तक कि मनुष्य उन वस्तुओं को शत्रु-रूप में मानता रहता है।
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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