काका चक्करसिंह जरा सनकी मिजाज के आदमी है। उसके दिमाग पर कब, कौन-सी सनक सवार हो जाय कुछ नहीं कहा जा सकता। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा-‘‘बेटा। ...
काका चक्करसिंह जरा सनकी मिजाज के आदमी है। उसके दिमाग पर कब, कौन-सी सनक सवार हो जाय कुछ नहीं कहा जा सकता। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा-‘‘बेटा। अब जीवन की अंतिम बेला है। पचहत्तर बरस की अपनी उम्र में मैंने जीवन में बहुत कुछ देखा पर आज तक किसी अस्पताल का दर्शन नहीं कर पाया। बस यही अंतिम इच्छा कि अस्पताल दर्शन के पुण्य लाभ लेकर ही मोक्ष प्राप्त करूँ।‘‘ मैंने कहा-‘‘काका आपका दिमाग तो ठीक है? आज आप कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं। आपसे ये किसने कह दिया कि अस्पताल दर्शन से पुण्य लाभ मिलता है, अस्पताल क्या कोई तीर्थ स्थान है जो आप तीर्थाटन करके मोक्ष पायेंगे? काका ने कहा-‘‘बेटा तुम मेरी बात समझ नहीं रहे हो। मैं उस आदमी के दर्शन करना चाहता हूँ जो मुझे चंदरसिंह से चक्करसिंह बनाकर रफूचक्कर हो गया और मैं अपने नये नाम को सार्थक करते हुए आज तक चक्कर ही काट रहा हूँ।‘‘
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मैंने कहा-‘‘काका! पहेलियां मत बुझाइये बल्कि साफ-साफ बताइये कि आखिर बात क्या है? हम तो आपको बचपन से ही चक्करसिंह काका के नाम से जानते हैं। पहले आपका नाम चंदरसिंह था तो फिर आप चक्करसिंह कैसे हो गये?‘‘
काका ने गहरी साँस लेते हुए कहा-‘‘सब मतदाता परिचय-पत्र का कमाल है बेटा। पहले मतदान के लिए इसकी आवश्यकता नहीं होती थी जब इसकी आवश्यकता हुई तो कुछ लोग हमारे गाँव में इसे बनाने के लिए आये। मैंने उन्हे अपना नाम चंदरसिंह बताया पर उन्होंने चक्करसिंह लिख दिया। बाद में आधार कार्ड बना इसमें अपने परिचय के लिए मतदाता परिचय-पत्र को दिया तो उसमें भी चक्करसिंह ही लिखा गया। फिर पेनकार्ड के साथ-साथ और जितने भी कार्ड बने उन सब में भी यही नाम लिखा गया। बहुत दिनों के बाद जब कर्ज लेने की आवश्यकता पड़ गई तब मैं अपने नजदीकी बैंक में किसान क्रेडिट कार्ड बनवाने के लिए गया, जब मेरे जमीन के पट्टे पर लिखे नाम और आधार कार्ड में लिखे नाम में मेल नहीं हुआ तब बैंक अधिकारी ने बताया कि आपका के सी सी नहीं बन सकता। पहले अपना नाम सुधार कराओ तभी ऋ़ण मिल सकता है। तब मुझे पता चला कि मैं चंदरसिंह से चक्कर सिंह हो गया हूँ और अब तो इसे सुधरवाने के चक्कर में प्रमोशन पाकर घनचक्करसिंह हो गया हूँ। कभी-कभी लगता है कि मैं आदमी नहीं बल्कि कार्ड बनकर ही रह गया हूँ। गलती कोई और करे पर सजा कोई और भुगते यह इसी देश में संभव है, अब समझ में आई मेरी बात?‘‘
मैंने कहा-‘‘काका! आप जिस स्कूल में पढ़े होंगे वहाँ का दाखिला प्रमाण-पत्र लेकर अपना रिकार्ड सुधार क्यों नहीं करवा लेते?‘‘ काका ने मुझे घूरते हुए कहा-‘‘उस समय इतने स्कूल होते कहाँ थे जो मैं स्कूल जाता। दो-जून की रोटी के लाले पड़े थे बेटे। तुम आज के हिसाब से सोच रहो हो। आज तो हर घर के सामने एक-दो कमरे का इंटरनेशल पब्लिक स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह उग गया है। लघु उद्योग की तरह कोचिंग सेन्टर संचालित है और कुटीर उद्योग की तरह विश्वविद्यालय हो गये है। जिसके पास पैसा है उसके पास ऊँची डिग्री है। अब तो डिग्री के लिए घर पहुँच सेवा भी उपलब्ध हो गई है। बस पैसा फेंको तमाशा देखो। गाँव-गाँव में मुन्ना भाई एम बी बी एस और फर्जी लायर मिल जायेंगे। ये इन्हीं फर्जी विश्वविद्यालयों का कमाल है। सब व्यवसाय हो गया है बेटा। गोरखधंधा का मकड़जाल सब तरफ फैला हुआ है। मैं तो जन्म से कबीर का अनुयायी रहा हूँ। ‘‘मसि कागद को छुयो नहीं कलम गह्यों नहीं हाथ।‘‘ ‘‘तू कहता कागज की लेखी मैं कहता हूँ आँखन देखी‘‘ जो भी कह रहा तजुर्बे के आधार पर कह रहा हूँ। तुम रिकार्ड सुधारवाने की बात करते हो। अरे! जिनके खुद के रिकार्ड खराब हैं वे दूसरों का क्या सुधारेंगे? मेरी तो बस अस्पताल दर्शन की अंतिम इच्छा है। चाहो तो किसी बड़े शहर में ले जाकर दर्शन करा दो नहीं तो अपने घर चले जाओ।‘‘
मैंने काका को समझाने की बहुत कोशिश कर पर वे अपनी जिद पर अड़े रहे। हारकर मैंने कहा-‘‘काका! जिसने आपको चंदरसिंह से चक्करसिंह बना दिया वह अस्पताल में ही मिलेगा, इस बात की क्या गारंटी है?‘‘
काका ने कहा-‘‘तुम तो बिल्कुल मूरख हो। जरा-सी बात भी नहीं समझ पाते। बेटा! अस्पताल में भगवान रहते है। जो अच्छे भले आदमी में भी बीमारी ढूँढ लेते है वे क्या महामारी को नहीं ढूँढ पायेंगे?‘‘ अब काका से तर्क करने की मेरी हिम्मत जवाब दे गई। उनका मन रखने के लिए मैं उन्हें अस्पताल दर्शन कराने का निश्चय किया।
दूसरे ही दिन उन्हें अपनी बाइक में बिठाकर शहर के एक बड़े अस्पताल में ले आया और प्रवेशद्वार पर पहुँचकर कहा-‘‘लो काका! जी-भरकर अस्पताल दर्शन कर लो।‘‘ काका मंत्रमुग्ध होकर अस्पताल को निहारने लगे। तभी एक आदमी आकर नजदीक आकर बोला-‘‘क्या बात है भाई, किस डॉक्टर को दिखाना है।‘‘ मैं कुछ कह पाता उससे पहले ही वह काका को अपने साथ ले जाने लगा। पीछे-पीछे चलना मेरी मजबूरी थी। वह आदमी काका को एक डॉक्टर के कक्ष में ले जाकर डॉक्टर के सामने बिठाते हुए बोला-‘‘सर! स्मार्ट मरीज लाया हूँ।‘‘ यह सुनकर मेरा दिमाग चकरा गया। मैं सोचने लगा-‘‘काका को तो कोई बीमारी नहीं है। ये अचानक स्मार्ट मरीज कैसे हो गये? क्या स्मार्ट सिटी के तर्ज पर किसी भी आदमी को पकड़कर स्मार्ट मरीज बनाने का कोई अभियान चल रहा है? इसी बीच डॉक्टर ने काका को गौर से देखते हुए कहा-स्मार्ट कार्ड है?‘‘ काका कुछ कहते उससे पहले ही उस आदमी ने खुशी से उछलते हुए जवाब दिया-हाँ-हाँ। स्मार्ट कार्ड है।‘‘ डर के मारे काका ने कातर नजरों से मुझे देखते हुए पूछा-‘‘ये कौन-सी भयानक बीमारी है बेटा?‘‘ जी चाह रहा था, कह दूँ कि यह मरीज की नहीं बल्कि डॉक्टरों को होने वाली बीमारी है। स्मार्ट कार्ड देखकर इनकी नजरों में वैसे ही चमक आ जाती है जैसे मरे हुए जानवर के गोश्त देख गिद्धों की आँखों में आती है। पर मैं मन मसोस कर रह गया। दरअसल गलती काका ने भी की थी। भूलवश ए टी एम कार्ड की जगह वे कमीज की ऊपरी जेब पर स्मार्ट कार्ड रखे हुए थे। जिस पर उस आदमी की नजर पड़ गई थी और हम इस जंजाल में फँस गये थे। डॉक्टर ने बहुत सारी जाँच के लिए एक पर्ची लिखकर उस आदमी को देते हुए कहा-‘‘बुड्ढे को ले जाओ और ये सब जाँच कराके लाओ।‘‘ डॉक्टर ने मुझे काका के साथ जाने से मना कर दिया। मैं डाक्टर के कक्ष के सामने बैठकर काका के लौटने का इंतजार करने लगा।
लगभग सात-आठ घंटे के बाद काका थके-हारे लौटे। मैं उत्सुकतावश जाँच रिपोर्ट देखने लगा। थूक, खून, पेशाब के साथ-साथ बहुत सारी जाँच की गई थी और अंत में काका के जीवित होने का भी परीक्षण कराया गया था। हम रिपोर्ट लेकर डॉक्टर के पास पहुँचे। मैं गुस्से से उबलते हुए बोला-‘‘ एक अच्छे-भले आदमी की इतनी सारी जांच के बाद जीवित होने का परीक्षण कराया आपने, ये क्या तमाशा है? ये जीवित है ये आप भी देख रहे हैं और मै भी तथा काका भी स्वयं जानते हैं कि वे जीवित है।‘‘
डॉक्टर साहब ने मुझे डाँटते हुए कहा-‘‘ये मिस्टर! ज्यादा होशियारी मत झाड़ो। डॉक्टरी आपने पढ़ी है कि हमने। हम बिना-जाँच पड़ताल के इलाज ‘शुरू नहीं करते, चाहे वह आवश्यक हो या अनावश्यक। ये जिन्दा हैं या मर गये है। इसका फैसला आप नहीं बल्कि हम करेंगे क्योंकि डाक्टर हम हैं आप नहीं, समझे? भगवान का ‘शुक्र है जो तुम अपना स्मार्ट कार्ड लेकर नहीं आये हो वरना अब तक तुम भी लेब के ही चक्कर काट रहे होते समझ गये?‘‘ धमकी सुनकर मेरे होश उड़ गये। मैंने अपना मुँह बंद रखना ही उचित समझा, क्योंकि काका अभी उसी डॉक्टर के कब्जे में थे।
कुछ समय बाद वह आदमी काका का स्मार्ट कार्ड लेकर आया जिसे देखकर डॉक्टर ने पूछा-‘‘स्मार्ट कार्ड का काम-तमाम हो गया?‘‘ उस आदमी ने सहमति में सिर हिलाया। फिर डॉक्टर ने काका के लिए कुछ मामूली दवाइयाँ लिखकर दी और मुझसे मुखातिब होते हुए बोले-‘‘अब आप बुड्ढे को घर ले जा सकते हैं। दो-चार दिन में ये महाशय ठीक हो जायेंगे।‘‘
काका ने हाँफते हुए मुझे वहाँ से तुरन्त निकल भागने का संकेत किया। हम दोनों ने एक-दूसरे से तेज दौड़ने की प्रतियोगिता करते हुए अस्पताल परिसर से बाहर निकल आये। हमें ऐसा लग रहा था मानो डाकुओं के चंगुल से बड़ी मुश्किल से जान बची हो।
बाहर निकलते ही मैंने फटाफट बाइक स्टार्ट की। काका जान बची तो लाखों पाये के अंदाज में कूदकर बाइक की पिछली सीट पर सवार हुए और हम सरपट बाइक दौड़ाने लगे। हमारे दिलों की धड़कन बाइक के रफ्तार से ज्यादा तेज चल रही थी। घर पहुँचकर भी दहशत में ही रात बीती। नींद आँखों से कोसों दूर थी।
सुबह मैंने काका से पूछा-‘‘कैसा अनुभव रहा काका अस्पताल दर्शन का। अस्पताल का नाम सुनकर काका का ब्लडप्रेशर बढ़ गया। उन्होंने ठंड रख के अंदाज में इशारा किया। फिर कुछ समय बाद बोले-‘‘अब और कहीं भ्रमण करने की इच्छा नहीं रही। अस्पताल दर्शन से ही पूरा भारत भ्रमण हो गया बेटा। अब पता चला मुझे किसी गरीब की लाश को भी बंधक बनाकर ये कितनी निर्ममता से परिजनों से पैसे वसूलते है। लाश को भी गहन चिकित्सा कक्ष में रखकर अपना बिल कितना बढ़ा लेते है। स्मार्ट कार्ड जिसके पास हो उस स्वस्थ आदमी को भी ये जबरदस्ती बड़ी बीमारी से ग्रस्त बता देते हैं और जिसके पास ये कार्ड या जेब में रूपये नहीं होते उस बीमार आदमी को भी अपनी चौखट से बैरंग लौटा देते है। मैं तो मोक्ष पाने से बच गया पर मेरे स्मार्ट कार्ड के सारे रूपये अवश्य मोक्षगति को प्राप्त हो गये। पैसा, पैसा, पैसा--। आखिर कितनी दौलत चाहिए इन धनपिपासुओं को? दौलत के ढेर पर सोते हैं फिर भी अतृप्त आत्माओं की तरह गरीबों का गला दबोच रहे है। इनकी इंसानियत मर चुकी है। ये इतने संवेदनहीन हो चुके है कि इनके मन में कभी यह विचार भी नहीं आता, इस देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें भरपेट खाना तक नसीब नहीं होता। सिर पर छत भी मयस्सर नहीं है। चिथड़ों में लिपटकर जीने को अभिशप्त है करोड़ों की आबादी। लोग जिन्हें भगवान समझते हैं, लोभ ने उन्हें भी शैतान बना दिया है। स्वास्थ्य बीमा योजना के अन्तर्गत जारी स्मार्ट कार्ड के रूपयों को लूटने की इतनी कुटिल साजिश? मानवता की हत्या का ऐसा षडयंत्र? आखिर कौन अंकुश लगायेगा इस लूट पर?‘‘ यह सब कहते हुए काका जोर-जोर से हाँफते हुए धड़ाम से जमीन पर गिर गये। उनकी धड़कन बंद हो गई। उनकी खुली हुई पथराई आँखें आसमान पर शून्य को निहार रही थी। ऐसा लग रहा था मानो काका की आत्मा मानवीयता से परिपूर्ण विश्वगुरू भारत की खोज में निकल पड़ी हो।
वीरेन्द्र ‘सरल‘
बोड़रा (मगरलोड़)
जिला-धमतरी (छत्तीसगढ़)
मो-07828243377
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