श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग मदान्ध रावण को मन्दोदरी की सीख मानसश्री डॉ .नरेन्द्रकुमार मेहता ''मानस शिरोमणि एवं विद...
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
मदान्ध रावण को मन्दोदरी की सीख
मानसश्री डॉ.नरेन्द्रकुमार मेहता
''मानस शिरोमणि एवं विद्यावाचस्पति''
मन्दोदरी राक्षसराज मय की पुत्री थी। उसकी माता का नाम हेमा था। हेमा अप्सरा थी। अप्सरा हेमा के लिये दानवपुरी मे जीवनभर रहना सम्भव नहीं था। अतः वह मन्दोदरी को बाल्यावस्था में छोड़कर देवलोक चली गई। मय ने अपनी पुत्री का नाम मन्दोदरी रख दिया। मन्दोदरी अत्यन्त ही सुन्दरी, सुशीला, सरल तथा गुणवती थी । मय दानवराज की ममता-स्नेह का केन्द्र मंदोदरी थी । वे मंदोदरी को सदैव अपनी आँखों के सामने रखते थे ।
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धीरे-धीरे मन्दोदरी ने यौवन में प्रवेश किया।एक दिन दानवराज अपनी प्यारी पुत्री के साथ गहन वन में भ्रमण करने निकले उसी समय उनकी भेंट लंकापति रावण से हो गई। रावण उस समय अविवाहित था। रावण की दृष्टि मन्दोदरी पर पड़ी तथा वह उसके सौन्दर्य पर मोहित हो गया। उसने दानवराज मय को अपने पितामह ब्रह्मा तथा उच्चवंश का होने का बताकर मन्दोदरी से विवाह करने की इच्छा प्रगट की। दानवराज ने भी रावण की इच्छानुसार मन्दोदरी के साथ विवाह कर दिया। श्रीरामचरितमानस में भी मन्दोदरी के संबंध में कहा गया है -
तिन्हि देई बर ब्रह्म सिधाए । हरषित ते अपने गृह आए।।
मय तनुजा मंदोदरी नामा। परम सुन्दरी नारि ललामा।।
सोई मयँ दीन्ही रावनहि आनी । होइहि जातुधानपति जानी।।
हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई ।।
गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी । विधि निर्मित दुर्गम अति भारी ।।
सोई मय दानवँ बहुरि सँवारा । कनक रचित मनिभवन अपारा ।।
भोगावति जसि अहिकुल बासा अमरावति जसि सक्रनिवासा।।
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका । जग विख्यात नाम तेहि लंका ।।
दोहा - खाई सिंधु गंभीर अति चरिहूँ दिसि फिरि आव ।।
कनक कोट मनि खचित दृढ़ वरनि न जाइ बनाव ।।
श्रीरामचरितमानस-177 : 1 से 4
ब्रह्माजी तीनों भाई रावण , कुम्भकरण और विभीषण को वर देकर चले गये तथा तीनों भाई प्रसन्नता पूर्वक अपने घर लौट आये। मय दानव मन्दोदरी नाम की कन्या अत्यन्त ही सुन्दरी और स्त्रियों में शिरोमणि थी। मय ने उसे लाकर रावण को दिया। उसने यह जान लिया कि रावण राक्षसों का राजा होगा । अच्छी स्त्री पाकर रावण प्रसन्न हुआ फिर उसके बाद उसने अपने दोनों भाईयों का विवाह कर दिया । समुद्र के मध्य में त्रिकूट नामक पर्वत पर ब्रह्मा के द्वारा निर्मित एक विशाल किला था । मय दानव एक निपुण कारीगर था उसने अत्यन्त ही परिश्रम से मणियों से जड़े हुए स्वर्ण के अनेक महल भी निर्मित कर दिये । नागकुल में रहने की नगरी जो कि पाताल में है उसे भोगावतीपुरी कहते है ,तथा इन्द्र के रहने की स्वर्गलोक की नगरी को अमरावती कहते है उससे भी अधिक सुन्दर और बाँका दुर्ग वाली पुरी का नाम लंका पुरी के नाम से विख्यात हुआ । उसने कुबेर से पुष्पक भी छीन लिया था । रावण को अपनी धन सम्पदा ,पुत्रों बल और राक्षसों के कारण अत्यधिक घमण्डी हो गया था ।
रावण ने देव , गंधर्व और नागों की अनेक कन्याओं से विवाह किया था किन्तु उसका सर्वाधिक प्रेम मंदोदरी पर ही था । मंदोदरी भी रावण को ह्नदय से चाहती थी और उसे हमेशा सत्यपथ पर चलने के लिये यथा समय निवेदन करती थी । इसका प्रभाव रावण पर यह पड़ा कि वह मंदोदरी की बात को ध्यान से सुनता था । मंदोदरी एक पतिव्रता नारी थी । उसे ज्ञात हो गया था कि भगवान् विष्णु ने संसार के कल्याण हेतु अयोध्या में श्रीराम के रूप में जन्म ले लिया है और पिता की आज्ञा से वन में गमन करते करते राक्षसों से रहित पृथ्वी को करने वाले है ।
लंका को हनुमानजी भस्म करके गये तब से राक्षस भयभीत रहने लगे। वे अपने -अपने घरों में बैठकर विचार विमर्श करने लगे कि अब राक्षस कुल की रक्षा कैसे की जाय। जिसके दूत का वर्णन नहीं किया जा सकता है यदि उसके स्वामी लंका में आवेगें तो क्या होगा ? अर्थात लंका के राक्षसों की दयनीय दशा हो जावेगी। इस बात की मन्दोदरी की दूतियों ने उन्हें बतायी । तब मन्दोदरी ने इस प्रकार रावण से कहा -
रहसि जोरि कर पति पग लागी । बोली बचन नीति रस पागी ।
कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहू ।।
श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्डः 35-3
मन्दोदरी विवेकशील महारानी थी उसे पूर्वाभास हो गया था कि श्रीराम से बैर करना ठीक नहीं है । अतः एकान्त में रावण के हाथ जोडकर चरणों में सिर रखकर अत्यन्त ही नीति रस से भरी हुई वाणी से बोली - हे प्रियतम! श्रीहरि से विरोध छोड़ दीजिये । मेरे कहने को अत्यन्त ही हितकर समझकर ह्नदय में धारण कीजिये अर्थात मेरी बात मान लीजिये । आप अपने मंत्री को बुलाकर उसके साथ सीताजी को श्रीराम के पास भेज दीजिये क्योंकि -
तव कुल कमल बिपिन दुःखदायी । सीता सीत निसा सम आई ।।
सनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें । हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ।।
श्रीरामचरितसुन्दरकाण्ड 35-5
सीता अपने कुलरूपी कमलों के वन को दुःख देने वाली ठंड (जाड़े) की रात्रि के समान आयी है । हे नाथ ! सीता को दिये अर्थात लौटाये बिना शम्भु (शंकरजी) , ब्रह्माजी भी आपका भला नहीं कर सकते। इसी तरह आपकी कोई भी देवता रक्षा नहीं कर सकता है । श्रीराम के बाण सर्पों के समूह हैं जो राक्षस रूपी मेढ़कों को निगल जावेगें तात्पर्य यह है कि राक्षसों का वंश ही नष्ट हो जावेगा । रावण मंदोदरी की सीख को स्त्री के डरपोक स्वभाव की संज्ञा देकर सभा से चला गया तब मन्दोदरी ने कहा -
मन्दोदरी ह्नदयँ कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता।।
श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड : 36-3
मन्दोदरी ह्नदय में चिन्ता करने लगी कि पति पर विधाता प्रतिकूल हो गये हैं । इसके पश्चात् दूसरी बार जब मन्दोदरी ने सुना कि प्रभु (श्रीराम) आये हैं और खेल-खेल ही में उन्होंने समुद्र को बाँध लिया अर्थात सेतुबन्ध बना लिया है तब वह रावण का हाथ पकडकर उसे अपने महल में लाकर अत्यन्त ही मधुर वाणी से कहा -
चरन नाई सिरू अंचल रोपा । सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा ।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकण्ड - 5-4
मन्दोदरी ने रावण के चरणों में ऑचल पसारा और कहा हे प्राणप्रिय । कृपया क्रोध छोड़ मेरा वचन सुनिये । हे नाथ ! बैर उसी से करना चाहिये जिससे बुद्धि और बल से जीत हो सकती हो । आप में और श्रीराम में वैसा ही अंतर है जैसे कि जुगनू और सूर्य में अंतर है । मन्दोदरी रावण को श्रीराम के बारे में कहती है - जिन्होंने अत्यन्त बलवान मधु और केटभ राक्षसों को मारा है और शक्तिशाली वीर दितिपुत्रों हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु का नाश किया जिन्होंने दैत्यराज बालि को बाधा और सहस्त्रबाहु को मारा वे ही पृथ्वी का भार हरने के लिये अवतार लेकर आये है । इन सब का उदाहरण देकर मन्दोदरी रावण को यह समझाना चाहती थी कि क्या तुम इन सबसे अधिक शक्तिशाली हो ? अर्थात इनके सामने तुम कुछ भी नहीं हो । अंत में मन्दोदरी रावण से कहती है -
दोहा- रामहि सौंपि जानकी नाई कमलपद माथ ।
सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ ।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकाण्ड-दोहा 6
हे नाथ (रावण) श्रीरामचन्द्रजी के चरण कमलों में माथा टेककर(नवाकर) उनको श्रीजानकीजी सौंपकर अपने पुत्र (मेघनाथ) को राज्य देकर स्वयं वन में जाकर और श्रीरघुनाथजी का भजन करें । हे नाथ संत ऐसी नीति कहते है कि राजा चौथपन में वन में चला जाय ।
अंत में नेत्रों में जल भरकर रावण के चरण पकड़कर काँपते शरीर से कहा हे नाथ ! श्री रधुनाथजी को भजो जिससे मेरा सुहाग अचल हो जाय। इतने पर भी रावण न माना ।
श्रीराम द्वारा लंका में अंगद के द्वारा रावण को समझाने हेतु भेजकर कहा कि अंगद शत्रु (रावण) से वही बात करना जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो ।अंगद एवं रावण संवाद हुआ अंगद ने रावण की सभा में जाने के पूर्व एक पुत्र को मार डाला तथा अंगद के चरण को हटाना तो दूर हिला भी नहीं सका तब वह सन्ध्या के समय महल में उदास होकर गया तब मन्दोदरी ने रावण को समझाया और कहा -
चौपाई - कंत समुझि मन तजहु कुमतिही । सोह न समर तुम्हहिरघुपतिही।।
रामानुज लधु रेख खचाई । साउनहिं नाधेउ असि मनुसाई ।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकाण्ड -35 (ख)-1
हे कंत (स्वामी) मन में समझकर कुबुद्धि त्याग दो । आप श्रीरधुनाथजी से युद्ध शोभा नहीं देता । उनके छोटे भाई (लक्ष्मण) ने जरा सी रेखा खींच दी थी उसे भी आप का लाँघ नहीं सके ऐसा तो आपका पुरूषत्व है । इस तरह मन्दोदरी ने अंत में श्रीराम से युद्ध न करने की फटकार लगा दी। रावण पर इन सब बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा ।
रावण ने विभीषण का अपमान किया किन्तु मन्दोदरी का अपमान कहीं नहीं किया क्योंकि मन्दोदरी की बात विवेकपूर्ण , नीतिसंगत हमेशा ही रही । अनेक बार रावण को मन्दोदरी ने समझाया पर रावण को अपने धन-बल का अहंकार था अतः वह मन्दोदरी की बात को समझ नहीं सका । तब मंदोदरी ने यहाँ तक रावण को कहा -
तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू । मुधा मान ममता मद बहहू ।।
अहह कंत कृत राम बिरोधा । काल बिबस मन उपज न बोधा।।
काल दंड गहि काहु न मारा । हरई धर्म बल बुद्धि बिचारा ।।
निकट काल जेहि आवत सोईं । तेहि भ्रम होई तुम्हारिहि नाई ।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकाण्ड 36-3-4
हे स्वामी ! उन्हें (श्रीरामको) आप बार-बार मनुष्य कहते हैं आप व्यर्थ ही मान, ममता और मद का बोझा ढो रहे हो । हाँ प्रियतम ! आपने श्रीराम का विरोध कर लिया और काल (मृत्यु) के विशेष वश होने से आपके मन में अब भी ज्ञान अंकुरित क्यों नहीं हो रहा है ।
काल दण्ड (लाठी) लेकर किसी को नहीं मारता है। वह घर्म, बल,बुद्धि और विचार को हर लेता है। हे स्वामी! जिसका काल (मृत्यु का समय) निकट आ जाता है उसे आपके समान ही भ्रम हो जाता है ।
दोहा - दुई सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु ।
कृपासिन्धु रधूनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु ।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकाण्ड 37
हे स्वामी आपके दो पुत्र मृत्यु को प्राप्त हुए और नगरी (लंका) भस्म हो गई जो हुआ सो हुआ हे प्रियतम! अब भी इस भूल की पूर्ति (समाप्ति)कर दीजिये । श्रीरामजी से बैर त्याग दीजिये । हे नाथ ! कृपा के समूद्र श्रीरधूनाथजी को भजकर निर्मल यश लीजिये ।
अंत में रावण श्रीराम के द्वारा मारा गया उसको उसके दुष्कर्म का फल प्राप्त हुआ । मन्दोदरी इस दुःखद धटना के समय रावण के समीप जाकर विलाप करने लगी। उस समय भी उसको श्रीराम पर पूर्ण विश्वास था कि दयामय श्रीराम उसके पति को दुर्लभ धाम भेजकर उसका हित ही करेंगे।
दोहा - अहह नाथ रधुनाथ सम कृपासिंन्धु नहिं आन ।
जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान् ।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकाण्ड 104
अहह! नाथ ! श्रीरधुनाथजी के समान कृपा का समुद्र दूसरा कोई नहीं है जिन भगवान् ने तुमको (रावण को) वह गति जो जोगी समाज को दुर्लभ है ।
मन्दोदरी भले ही राक्षसजाति की थी किन्तु एक आदर्श -विवेकशील, न्यायप्रिय, राजा की रानी के साथ ही साथ पतिव्रता भी थी । रावण की गति मति तथा शक्ति का धमण्ड अंत तक काल के वश होने के कारण सुधार नहीं सकी इस । धटना से प्रमाणित होता है कि -
सो न टरई जो रचई बिधाता
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मानसश्री डॉ.नरेन्द्रकुमार मेहता
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