अमरीकी महाद्वीपों में पुरातत्व विज्ञान की कहानी भारत ज्ञान विज्ञान समिति नव जनवाचन आंदोलन इस किताब का प्रकाशन भारत ज्ञान विज्ञान स...
अमरीकी महाद्वीपों में पुरातत्व विज्ञान की कहानी
भारत ज्ञान विज्ञान समिति नव जनवाचन आंदोलन
इस किताब का प्रकाशन भारत ज्ञान विज्ञान समिति ने ‘सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट’ के सहयोग से किया है। इस आंदोलन का मकसद आम जनता में पठन-पाठन संस्कृति विकसित करना है।
पुरातत्व विज्ञान की कहानी - एम. एल्टिंग, एफ. फोल्सम, हिंदी अनुवाद - विनीता सहाय, पुस्तकमाला संपादक तापोश चक्रवर्ती, कॉपी संपादक डॉ. इरफ़ाना, कवर एवं ग्राफिक्स जगमोहन.
प्रथम संस्करण जनवरी, 2008 सहयोग राशि 25 रुपये मुद्रण अवनीत ऑफसेट प्रेस नई दिल्ली - 110 018
(Bharat Gyan Vigyan Samiti से तथा अरविंद गुप्ता टॉय बुक्स से साभार पुनर्प्रकाशित)
1
चोटी पर रहने वालों का रहस्य रिचर्ड वेदरिल पुराने पश्चिमी इलाके में रहने वाला एक चरवाहा था। वह एक जासूस भी था, एक खास किस्म का जासूस। जब वह खोये हुए बछड़ों को ढूंढने निकलता था, तो दूर-दूर उस दक्षिणी कोलराडो के इलाके में वह घूमता था और यहां बछड़ों को ढूंढने के अलावा उसे कुछ अन्य सामान दिख जाता था। इससे उसे लगने लगा कि यहां कहीं शायद प्राचीन मानव रहे होंगे और तभी से उसकी निगाह खोये हुए मनुष्यों पर भी रहती थी। उस जंगली इलाके में अब सिर्फ गाए चराने ही जाया जाता था। परंतु वह लोग जिनका उसे अहसास होता था अब गायब हो चुके थे। बहुत समय से उनका कोई पता न था। शायद रिचर्ड के पैदा होने से पहले ही वे लापता हो चुके थे। मगर उनकी निशानियां बाकी रह गई थी। रिचर्ड का मन उनकी ओर खिंचता था। अक्सर मवेशियों के साथ घूमते घूमते उसे उनकी कुछ चीजें दिखाई दे जाती थीं। इधर-उधर बिखरी हुई। कुछ लोग शायद उन उजड़ी-सी सूखी गुफाओं में रहते होगें। वहां पर रिचर्ड ने कुछ सामान पड़ा देखा था, टूटा फूटा, बहुत पुराना मगर इस्तेमाल किया हुआ। जैसे खाना बनाने के बर्तनों के टूटे-फूटे अवशेष, पत्थर के हथियार, जीर्ण अवस्था में कुछ टोकरियां व कुछ तीर टूटे हुए।
यह तस्वीर उन चरवाहों की है जो कि घोड़े पर बैठकर जंगल में जानवरों को ले जाते थे।
इन चीजों को किसने बनाया? क्या वे युटे इंडियन के पूवर्ज थे?
युटे इंडियंस वहां से कुछ ही दूर पर रहते थे। रिचर्ड ने अपने एक युटे मित्र से पूछा! इंडियंस ने बड़े विश्वास से कहा ‘नहीं’, जो लोग गायब हो चुके हैं वे बहुत पुराने जमाने में रहे होगें, और उनके बारे में कुछ भी पता नहीं है। परंतु मुझे शक है कि अगर कोई उनके रहने के स्थान उनकी गुफाओं से छेड़ा-छाड़ी करेगा तो उनकी आत्माएं उस पर बुरी किस्मत ला सकती हैं।
रिचर्ड इन पुराने स्थानों में घूमता रहा। वह खोये हुए लोग जिनके बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं था, उसके मन में घूमते रहते थे। फिर एक दिन, सन् 1888 की बात है, वह अपने चचेरे भाई चार्ली मेसन के साथ जा रहा था कि उसे एक बहुत ही अदभुत् दृश्य दिखाई दिया। पहाड़ की चोटी के एक किनारे से उन्होंने देखा कि नीचे गहरी खाई के उस पार दूसरे पहाड़ की चोटी की ओर चट्टानी दीवार पर एक तरफ एक गुफा में जैसे पूरा एक गांव समाया हुआ है। उस
गुफा के लंबे, खुले मुख पर पत्थर के बने घर साफ दिखाई दे रहे थे। एक गोल ऊंची-सी मीनार व एक चोखुंटा ऊंचा खंबा तो तकरीबन गुफा की छत तक पहुंच रहे थे। उस ठंडी दोपहर में उन घरों से कोई धुआं नहीं निकल रहा था, न वहां बर्फ पर बच्चे खेल या चिल्ला रहे थे। वहां जरा भी हलचल नहीं थी, कहीं भी कुछ भी नहीं हिल रहा था।
यहां पर क्या हो गया? यहां के सब निवासी कहां चले गए? क्यों
यह सन्नाटा है। क्या वे अपने पीछे कोई खजाना छोड़ गये हैं? दोनो चरवाहों ने तय किया कि वहां जाकर पता किया जाए। सबसे जल्दी पहुंचने का तरीका यही था कि चोटी की कगार से नीचे उतरा जाय। परंतु वह एकदम सीधी थी। रिचर्ड और चार्ली ने एक सीढ़ी बनाई। ऐसी सीढ़ी जैसी शायद उन पुरातन लोगों ने भी कभी प्रयोग की होगी। उन्होंने कुछ गिरे हुए पेड़ों की शाखाएं तोड़ी फिर रस्सी की सहायता से एक पेड़ के तने के ऊपर के हिस्से को दूसरे तने के नीचे वाले भाग से अच्छी तरह बांध दिया। अब दोनों तने मिलकर उनकी लंबाई काफी बढ़ गई थी और वह चोटी के किनारे से काफी नीचे जो थोड़ी-सी सपाट जगह थी वहां तक पहुंच रहे थे। इस अनोखी लड़खड़ाती सीढ़ी के सहारे, उसके ठूठों पर, जो कि शाखाएं काटने से बन गए थे, कभी हाथ से पकड़कर, व कभी पांव रखते हुए दोनों भाई आखिर नीचे पहुंच गए। खाई की गहराई के उधर फिर चढ़ाई चढ़कर वहां वह गुफा थी जो उन्हें दिखाई दी थी
एक ‘भुतहा गुफा शहर’ जो उन्होंने खोजा था। दोनों युवक वहां पहुंच गए, कमरा दर कमरा घूमने लगे। जहां देखते ऐसा लगता, कि वहां कोई काम कर रहा था और अभी-अभी कहीं गया है, वापस आकर काम पूरा करने के ख्याल से। बड़े-बड़े घड़े, जो जरूर पानी रखने के काम आते होगें, जग के आकार के, दरवाजों पर रखे थे, लगता था पानी भरे जाने का इंतजार कर रहे हैं, पास के झरनों का पानी जो कोई जल्दी ही लेकर आएगा। धुएं से काले हुए खाना पकाने के मिटी्ट के बर्तन, अधजली बुझी हुई लकड़ियां। ऐसा दृश्य था मानो किसी भी पल आग जलाकर काम शुरू हो जाएगा।
असल कहानी-
जितना रिचर्ड ने उसे देखा उतनी ही उसकी उत्सुकता बढ़ती गई। इस शहर की असली कहानी क्या थी? और आसपास के इलाके में जरूर अन्य शहर होगें, इसी तरह खाइयों और गुफाओं में छिपे हुए, उन्हें खोजना जरूरी हो गया। किस किस्म के लोग यहां बसते थे? और क्या कारण था कि वे अपने इतने अच्छे, आरामदेह घर छोड़कर चले
गए?
सन् 1888 में कोई भी इन प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता था। वे केवल एक ताज्जुबकारी रहस्य ही था। पर रिचर्ड वहां घूमता रहा और निशानियां, अवशेष ढूंढता रहा, और लोग भी जो वहां चोटी तक आए, व खाई व घाटियों में गए, इस काम की तरफ झुके।
जो पुरातन मानव यहां रहते थे उन्हें अपने घर के सामने एक पत्थर की दीवार बनानी जरूरी थी, क्योंकि उसके दूसरी ओर 700 फीट नीचे सीधे खाई थी।
धीरे-धीरे रहस्य खुलने लगे। पूरी नहीं, मगर काफी जानकारी हासिल हुई, आज अगर तुम चाहो तो खुद वहां जाकर उस भुतहे शहर को देख सकते हो, जिसको रिचर्ड और उसके चचेरे भाई ने एक गुफा में खोजा था। उसने उसका नाम रखा, ‘शिखर राजमहल’ और अब वहां जो बड़ा ‘मेसा वर्द’ राष्ट्रीय उद्यान बन गया है, यह चोटी पर बना शहर भी उसी का एक हिस्सा है।
खंडहर में फिर से जीवन आया-
यह जो तस्वीर है, यह ‘शिखर महल’ का दृश्य है, करीब सात सौ साल पुराने समय का, पतझड़ के मौसम का। वह छोटा लड़का, एक धनुष व कमान उठाकर चल रहा है, उस व्यक्ति के लिए जिसने अभी अभी खरगोश का शिकार किया है। अब यह शिकारी बड़े ध्यान से खरगोश की खाल निकालेगा, और उसे संभाल कर रखेगा, जिससे सर्दी के मौसम में उससे पहनने के गर्म वस्त्र बनाए जा सकें। उसकी पत्नी रसेदार खरगोश का गोश्त बनाने की तैयारी कर रही है। वह
अपने घड़े से पास रखे आग से काले हुए बर्तन में पानी डाल रही है। रसेदार गोश्त के साथ वह मकई की रोटी बनाएगी। यह रोटी उस आटे से बनेगी जिसे स्त्री ने स्वयं अपने हाथों से पीसा है। यहां पर दो स्त्रियां मीनार के पास दिखाई दे रही हैं। वह भुट्टों (मकई) को पत्थरों के बीच दबाकर उसके दाने निकाल रही हैं, व दानों को पीस रहीं हैं। जो सीधे हाथ को खुला बड़ा-सा छेद है, गोलाई में वह चर्च तथा पुरुषों के लिए क्लब है। यह कमरा पूरा जमीन के नीचे हैं, इसकी छत लकड़ी के फट्टों की बनेगी, जिन्हें वह पास खड़ा व्यक्ति पत्थर के कुल्हाड़े से काट रहा है। जो पीरू पक्षी यहां घूम रहे हैं वह किसी बड़े भोज में पकाने के लिए नहीं है। शिखर महल में इस पक्षी को आश्रय दिया जाता है ताकि यह एक लंबी जिंदगी जिए।
यह बिलकुल सच है, मगर यह एक बहुत छोटा-सा हिस्सा है उस बड़ी तस्वीर का जो बनाई जा रही है। पर हमें इसका विश्वास कैसे हो? क्या उन लोगों ने कोई किताबें ये सब लिखकर छोड़ी हैं? नहीं, जब किसी को लिखना नहीं आता था, न किताबें ही थीं तो छोड़ने का सवाल ही नहीं उठता। इन शिखर निवासियों की कहानी बहुत से टुकड़ों को जोड़कर बनाई गई है, ठीक ऐसे ही जैसे कोई जासूस किसी भेद का पता लगाता है। पहले बहुत सारे तथ्य इकट्ठे किए गए। फिर दजर्नों कुशल लोगों ने, जिनमें स्त्री-पुरुष दोनों थे सब जगह संकेत ढूंढे। ये विशेषज्ञ पुरातत्व वैज्ञानिक कहलाते हैं। यहां पर केवल एक विशेषज्ञ नहीं होता, जैसे कि मशहूर जासूस शरलक होम्स था, जो अकेला ही तरह-तरह की हत्याओं इत्यादी के मामले सुलझाता था। परंतु ये पुरातन खोजी कभी-कभी ऐसी चतुराई से खोए हुए तथ्यों को खोज निकालते हैं कि शरलक होम्स भी ताज्जुब में रह जाए।
यह पुरातन वस्तुओं के जानकार जब कुछ प्रमाण व सबूत इकट्ठे कर लेते हैं, तब वह ध्यान से इन सब का मतलब समझने की कोशिश करते हैं, कड़ियों को जोड़ते हैं, उस अनजान भाषा के संदेशों का मतलब निकालने की कोशिश करते हैं, जो उन अनजान लोगों ने अनजान भाषा में दिए थे। यह कुशल व्यक्ति फिर उन लोगों की आवाज बन जाते हैं जो अपनी बात खुद नहीं कह सकते। नियम अनुसार पुरातत्वेत्ता को सिर्फ प्राप्त वस्तुओं के आधार पर उन लोगों के बारे में जानकारी लेनी होती है। वे धूल और गंदगी में खोद-खोद कर, बड़े संभाल कर हर छोटे से छोटा प्रमाण इकट्ठा करते हैं। उस समय का हर साक्ष्य यहां तक कि पुरातन कूड़ा भी बहुत कुछ कह जाता है। कभी-कभी वे फावड़ों से, हल्के-हल्के मिट्टी खोदते है, फिर उसे एक छलनी में से निकालते हैं। इस छलनी में से पतली धूल निकल जाती है, मगर टूटे हुए बतर्नों के टुकड़े, हड्डियां, बीज व कभी-कभी किसी किस्म के मोती या गहने बनाने के लिए उपयोग का सामान छलनी में बचा रहता है। वैज्ञानिकों का काम सरल नहीं होता। यदि गुफा बहुत सूखी हो तो उन्हें धूल से बचने के लिए नकाब पहनना पड़ता है। अक्सर उन्हें छोटी खुरपी लेकर बड़े ध्यान से खुदाई करनी होती है, जिससे कोई
जासूस अपना काम करते हुए।
भी नाजुक चीज टूट न जाए। कभी-कभी उन्हें इससे भी कोमल छोटे औजार काम में लेने होते हैं, जैसे एक चित्रकारी करने वाला मुलायम ब्रश अथवा एक छोटी फूंकनी जिससे धूल को हटाया जा सके। अगर उसे ऐसी हड्डियां मिलती है जो बहुत मुलायम है, या जीर्ण और भुरभुरी हैं, तब वह उन पर एक तरह के तरल प्लास्टिक का आवरण चढ़ाते हैं। यह एक गाढ़ा लेइदार पदार्थ होता है, जो कि सूखने पर कड़ा हो जाता है, और चीजों को मजबूत कर देता है, जिससे वह टूटती नहीं है। कई बार तो इन विशेषज्ञों को दांत के डॉक्टरों द्वारा प्रयोग में लाए गए नाजुक औजारों से भी काम करना पड़ता है, जब किसी छोटी कमजोर जगह को कुरेदना हो अथवा वहां कुछ चुभाकर सफाई करना जरूरी हो। आखिर दांतों का खोखलापन या छिद्र देखने के बढ़िया औजार भी इन पुरातन ज्ञान खोजने वालों की मदद करते हैं। जिन पुरातत्व वैज्ञानिकों ने इन शिखर पर बसने वालों की छानबीन की, जल्दी ही उन्हें वहीं आस-पास के इलाके में अन्य रहस्यमय गांव भी मिल गए, जो वहीं अरिजोना प्रदेश में या न्यू मेक्सिको अथवा युटाह में थे। कभी गुफाओं में, कभी नहीं, मगर वहां के निवासी हमेशा गायब थे। इन सब लोगों का क्या हुआ? पास रहने वाले नवाहो इंडियंस से पुरातत्वेत्ताओं ने मालूम करना चाहा, उन्हें कुछ पता न था। हां उन्होंने कहा कि यह गांव ‘अनासाजी’ लोगों के थे, ‘अनासाज़ी’ का मतलब उनकी भाषा में पुराने लोग था। वैज्ञानिकों को यह शब्द पसंद आया और यह इस्तेमाल में आ गया। रहस्यमय कमरे- एक उजाड़ जगह, जहां ऐसा लगता है कि कुछ भी नहीं है, अनेक अजीब संभावनाएं रखती हैं। शिखर स्थित घरों के कई कमरे बिलकुल छोटे-छोटे दिखे। वहां सिर्फ बहुत ठिगने व्यक्ति ही खड़े हो सकते थे। क्या इससे ये निष्कर्ष निकलता है कि यहां के निवासी कद में बहुत कम थे?
मगर ठहरिए, निष्कर्ष निकालने से बहकने का डर है, और संभावनाओं पर भी गौर करना जरूरी है। यह काम पुरातत्व वैज्ञानिक बड़ी तत्परता से करते हैं, वह दीवारों, छत, दरवाजों फर्श तथा कुछ ऐसे दरवाजे जो सील लगाकर बंद करे हुए हैं सब को पूरी तरह से जाचेंगें ।
समझिए कि आपको एक बंद कमरे में इन शिखर वासियों के गांव में ही गड़ा हुआ एक कंकाल (हड्डियों का ढांचा) मिला। आप उनकी देह की ऊंचाई का अनुमान इस कंकाल की हड्डियों को नाप कर लगा सकते है। पुरातन वैज्ञानिकों ने कई कंकालों को नापा और पाया कि वे थे तो छोटे कद के, मगर इतने छोटे नहीं कि उन नीची छत वाले कमरों में सीधे खड़े हो सकें। बारिश में अगर आप यहां देखें तो पता चलता है कि क्यों इनके कमरे नीची छत के व छोटे हैं। ‘अनासाजी’ कमरे में नहीं बल्कि गुफा की छत के नीचे सब काम, पकाना, खाना, खेलना, कूदना किया करते थे, कमरों में पूरा परिवार नहीं रहता था, दिन भर गुफा की छत उन्हें सूखा रखती थी, कमरे केवल सोने के लिए प्रयोग होते थे, और लेटने पर छत नीची हो या ऊंची, कुछ फर्क नहीं पड़ता।
एक और विचित्र चीज इन मकानों में पाई गई। बहुत से घरों में दरवाजे ऊपर से चौड़े तथा नीचे पतले हो गए थे, जैसे अंग्रेजी का अक्षर ‘टी’ होता है। ऐसा क्यों? काफी सोच विचार किया गया, कुछ प्रयोग किये गए, तब मालूम हुआ कि नीची छत वाले कमरे में घुसने के लिए इस तरह के दरवाजे बहुत अच्छे थे। दरवाजे के दोनों ओर बने किनारे के सहारे से हाथ टिकाकर पैरों को ऊंचा उठायें, उकड़ूं बैठने की तरह, और फिर झूल कर कमरे में अंदर पहुंच जांए, बिना सिर पर चोट लगे आप अंदर उकड़ं या पाल्थी मारे बैठे हुए पहुंच जायेंगे।
जितनी अधिक जानकारी मिलती गई उस के आधार पर इन
ज्ञानियों ने महसूस किया कि रिचर्ड का दिया हुआ नाम ‘शिखर महल’
पुराने लोग कुल्हाड़ी इस तरह बनाते थे, एक मजबूत चिकना पत्थर लेते थे। जो कि नदी तल में मिल जाता था। उसे एक और पत्थर को हथौड़ी की तरह
इस्तेमाल कर अपनी पसंद का आकार
देते थे। फिर उसे एक और पत्थर से
गलत है। महल तो राजाओं या अति अमीर लोगों के होते हैं, साधारण आदमियों के घरों से कहीं बढ़िया। मगर ‘अनासाजी’ लोगों के घर सब एक समान थे। ये खाली पड़े छोटे कमरे बताते हैं कि यहां रहने वाले लोग सब कुछ, जो भी उनके पास था, आपस में बराबर बांटते थे।
प्यालियां, कटोरियां, मर्तबान, अनेक बर्तन, उनके टुकड़े जो कि
ये निवासी छोड़ गए थे, उनके बारे में एक नया अध्याय खोलते हैं। खोजकर्ताओं एवं पुरातत्व ज्ञानियों को कुछ साबुत बर्तन भी मिले पर हजारों छोटे-छोटे टूटे टुकड़े भी उन्होंने इकट्ठे किए। जिन्हें उन्होंने बड़ी
मेहनत से बहुत धीरज के साथ जोड़ कर आकार दिया। इससे उन्हें मालूम हुआ कि उस पुरातन युग के प्याले, मतर्बान आदि देखने में कैसे थे, वह किस काम में लिए जाते थे। एक विशेषज्ञ ने एक ही घर में पाए गए टुकड़े, जिन्हें कतरन कह सकते हैं, क्यों कि वे बहुत छोटे-छोटे थे, को गिना, और पाया कि उनकी संख्या थी, दो हजार सात सौ (2700)। इनमें से उसके सहायकों ने मिलकर आठ बिलकुल पूरे बर्तन ठीक-ठाक बना लिए, और बचे हुए टुकड़ों में से करीबन 400 पहचाने जाने लायक प्यालियां आदि आधी-अधूरी बन सकी थी। एक और विशेषज्ञ ने कूड़े के ढेर से 1,08,305 कतरनें, टुकड़े इकट्ठे किए।
हाथों पर जोर देकर उकंड़ होकर व्यक्ति ‘टी’ आकर के दरवाजे से अंदर जाते हुए।
ज्यादातर पुराने बर्तनों पर सजावट की गई थी। प्यालियां, तश्तरियां,
प्याले, कड़छी, पानी रखने के जग, सब पर कुछ चित्रकारी की हुई थी, यहां तक कि एक काला हुआ खाना पकाने का बर्तन भी किनारों पर सजाया हुआ था, जिससे वह डलिया की तरह लग रहा था। मेसा वर्द में, शिखर महल व अन्य जगहों पर रिचर्ड ने एक खास नमूना देखा जो कई सौ हल्के सलेटी रंग के बतर्नों पर था, यह मखमली काली रेखाएं दर्शाता था। नीचे दिखाई गई तश्तरियां एक अन्य गांव में पाई गई। यह गांव दक्षिण में काफी दूर मिमब्रेस नदी के समीप था। इनका सबका अंतर काफी है और तुम्हें भी जरूर दिखाई दे रहा होगा। प्राचीन काल में लगभग हर गांव का अपना खास सजावट का तरीका होता था। उनके अपने खास रंग व आकार भी होते थे। बर्तनों की इन अलग-अलग शैलियों को अगर ध्यान से समझ लिया जाए तो
बर्तन देखकर बताया जा सकता है कि किस गांव से वह आया है। पर सोचो, अगर तुम मेसा वर्द में खोदकर कोई बर्तन निकालते हो, मगर वह यहां की शैली का नहीं है। ऐसा इन विशेषज्ञों के साथ हुआ और इससे उन्हें एक नई बात पता चली, कि कोई मेसा वर्द का वासी किसी दूसरे गांव से यह बर्तन लेकर आया था। या फिर कोई अजनबी, अन्य ग्रामवासी मेसा वर्द आया और अपने गांव के बर्तन देकर कुछ खाने का सामान अथवा बर्तन मेसा वर्द से ले गया। इससे अनुमान होता है कि यह पुरातन लोग दक्षिण पश्चिम के पूरे प्रदेश में यात्रा करते थे व व्यापार भी करते थे।
पांव में पहनने के फैशन- बर्तनों के अलावा चप्पलें भी कई प्रकार की होती थी। पद्धति के अनुकूल कुछ लोग यूका नामक पौधे की लंबी पतली पत्तियों से सैंडल बनाते थे, कुछ रूई की बनाई रस्सी का प्रयोग करते थे। एक सैंडल जो शायद हर पैर में सही बैठता होगा कुछ चौखूटे आकार का था। एक और प्रकार था, जिसमें साफ अंतर दिखाई दे रहा था सीधे व उल्टे, यानि दांये व बायें पैर का। यह जोड़े से बना था। कहीं पर सैंडल पूरी लंबाई के होते थे, कहीं ऐसे भी थे कि सिर्फ टखने ढंके जाएं व ऐड़ी
खुली रहे। आजकल के विशेषज्ञ उनके पैरों के पहनावे को देखकर बता सकते हैं कि यह पुरातन मानव दक्षिण पश्चिम के किस भाग से आया होगा। सोचो कि तुम एक गुफा में गए जहां सैकड़ों सैंडल बिखरे हुए हैं। उसे देखकर तुम क्या सोचोगे? दो पुरातत्वेत्ता श्री व श्रीमति जी. बीकोसग्रोव एक ऐसी ही गुफा में पहुंच गए। क्या यह किसी पुरातन जूते बनाने वाले का घर था? संभवतः वह जूते बनाता होगा और इनके बदले मकई या कंबल खरीदता होगा। पर ये सब सैंडल पहने हुए, इस्तेमाल हुए लग रहे हैं, कुछ के तलों में तो छेद भी हैं, और इनकी बनावट व डिजाइन बता रही है कि यह एक जगह बने हुए नहीं हैं। यहां पर कोई गोलाईकार पंजे वाला है, कोई चौखूटा। फीते भी, किसी में आड़े-तिरछे फीते हैं, किसी में एक सीध में। कोसग्रोव दंपत्ति ने इस गुफा में बहुत खुदाई करवाई, और आस-पास भी खोदा, फिर इस रहस्य का उन्होंने एक हल निकाला। यह जूते चप्पलों से भरी गुफा कोई धार्मिक उत्सव या अनुष्ठानों की जगह रही होगी, यहां किसी का भी घर नहीं होगा, क्योंकि कहीं भी कोई खाना पकाने के बर्तन या कूड़ा यहां नहीं मिला। बल्कि यहां पर सिर को ढकने के साधन, इस तरह की टोपियां जो धार्मिक नृत्यों में पहनी जाती हैं पाई गई, और छोटे-छोटे डंडे, जिन पर किनारों पर सुंदर फुंदने लगे मिले। ये नाजुक लकड़िया, छोटी छड़ियां थी, जो कि अभी भी कुछ इंडियंस पूजा की छड़ी के रूप में व्यवहार करते हैं।
शायद यह गुफा एक धार्मिक स्थान के रूप में मशहूर होगी। बहुत से तीर्थ यात्री अनेक गावों से यहां धार्मिक क्रियाओं व उत्सवों पर एकत्रित होते होगें। शायद फिर वे अपने जूते चढ़ावे के रूप में छोड़
जाते होगें।
यह गुफाएं अनासाजी शहर से बहुत मीलों दूर थीं। यहां अनासाज़ी से मिलती-जुलती चप्पलें भी नहीं पाई गईं। शायद अनासाजी अपनी चप्पलें कहीं और छोड़ते थे।
खूबसूरत शहर-
इन पुराने शहरों में लोग अपने व्यापार के सिलसिले में भी जाया करते थे। केलिर्फोनिया के निवासी अपने समुद्र के शंख, सीपिया लेकर न्यू मेक्सिको आते व उनके बदले में वहां से फिरोजे ले कर आते, जहां इन सुंदर नीले हरे रत्नों को पसंद किया जाता था। पाले हुए तोते लेकर मेक्सिको से दूर-दूर से लोग इन पुरातन नगरों में जाते व इनके बदले अच्छा सामान लेकर आते थे। उनके सबसे बड़े शहर प्यूबलो बोनिटो में एक पूरा कमरा था, जिसे पिंजरे की तरह प्रयोग किया जाता था।
प्यूबलो बोनिटो एक आधुनिक नाम है। स्पेनिश भाषा में इस शब्द का अर्थ है सुंदर शहर। एक जमाने में यह वाकई बहुत सुंदर जगह थी। मगर यह सब करीब 100 साल पहले था, जबकि युनाइटेड स्टेटस की
धार्मिक अनुष्ठानों वाली गुफा मे पाई गई पूजा की छड़ियां, लकड़ी या फूलों
के डंठल से बनी हुई थी, ऐसी मान्यता थी कि अगर इन छड़ों को पवित्र स्थान पर रखा जाए तो यह प्रार्थना भगवान तक पंहुचा देती थीं।
सेना वहां नहीं पहुंची थी। उसके बाद तो यह एक विशाल मिट्टी का ढेर बन गया। जिसके ऊपर टूटी-फूटी पत्थर की दीवारों के टुकड़े दिखाई देते थे। वैज्ञानिकों ने जब इस मिटी्ट, पत्थरों के पहाड़ का अन्वेषण शुरू किया तब यह एक बहुत बड़ा काम था। कई सदियों से यहां हवाएं धूल उड़ाती फिर रही थीं। खुदाई करने वालों को कई हजार टन मिटी्ट यहां से खोद कर हटानी पड़ी जिससे पहले कि यहां बने हुए कमरे दिखाई दिए। वैज्ञानिकों ने जूनी व नवाहो इंडियनंस को अपनी मदद के लिए बुलाया और आखिर उन्हें वह अदभुत शहर मिला। अनेक कमरों का मिला हुआ एक पूरे शहर का घर, कहीं-कहीं उसमें चार मंजिलें थीं और 1200 रहने वालों के लिए घरों का इंतजाम था। कुछ पत्थर की दीवारों पर सुंदर डिजाइन बने थे, बहुत सुंदर बारीकी का काम था, जैसा किसी भी पड़ौस के शहरों अथवा शिखर के मकानों में नहीं देखा गया था। बहुत से मकानों में कच्ची इटों की मिट्टी को प्लास्टर व सीमेंट की तरह इस्तेमाल किया गया था। नील जूड, पुरातत्वेत्ता, जो कि यहां पर खुदाई का काम करवा रहे थे, को एक बात बड़ी आश्चर्य की लगी। पुराने कारीगरों ने अपने हाथों की छाप, खासकर उंगलियों के काफी निशान मिट्टी पर लगे छोड़ दिए थे। यह सारे उगंलियों के निशान बहुत छोटे हाथ का संकेत देते थे।
क्या प्यूबलो बोनिटो के मनुष्य बहुत छोटे थे?
एक अनसाजी गुफा में हाथों के ठप्पेया चित्रकारी पाई गई। यह चित्रकारी थी न कि रंग कर हाथ की छाप लगाई थी। तुम्हें ताज्जुब होगा कि कुछ हाथों में छह व कुछ में सिर्फ चार अंगुलियां दर्शायी गई हैं। पुरातत्वेत्ता भी इस बात पर ताज्जुब में हैं।
"नहीं" बताया उन वैज्ञानिकों ने जिन्होंने अस्थि-पंजरों को नापा था। वह कोई खास छोटे नहीं थे। उनके हाथ मिट्टी पर बने निशानों में नहीं संमा सकते थे। फिर क्या? मालूम हुआ कि ये हाथों की छाप वहां की औरतों के हाथों के एकदम बराबर थीं। इसका मतलब प्राचीन समय में, औरतें, कारीगरों का काम करती थीं न कि मर्द।
डाकुओं से क्या छूट गया-
एक दिन जूड प्यूबलो बोनिटो के एक कमरे में बड़ी बारीकी से कुछ खुदाई कर रहा था। उसके पास एक छोटी तेज धार वाली खुरपी थी, जिससे वह मिट्टी की पतली पतली तहें धीरे-धीरे निकाल रहा था। तभी उसे कुछ नीली चीज चमकती हुई दिखाई दी। यह अवश्य ही वह सुंदर नीला-हरा पत्थर ‘फिरोजा’ होगा, ‘टरकोइस’, जिसको कि पुराने लोग बहुत कीमती मानते थे। दक्षिण-पश्चिमी प्रदेश के इंडियंस आज भी इसे उतना ही मूल्यवान मानते हैं, जितना अन्य लोग हीरे को। बहुत-सी कब्रें चोर डाकुओं ने खोद दी थीं, इन्हीं मूल्यवान पत्थरों की खोज में। मगर यह एक कब्र थी जो बची रह गई थी।
जैसे-जैसे जूड हल्के हाथ से मिट्टी हटाता जाता नीली झलक बढ़ती जा रही थी। फिर उसने देखे बहुत से फिरोजे के मोती जो अभी तक एक धागे में पिरोए हुए थे। इतना सुंदर नीला फिरोजा उसने पहले कहीं नहीं देखा था। सारे खंडहरों में जादू की तरह खबर फैल गई। बड़े साहब को खजाना मिल गया है। जूनी व नवाहो इंडियंस ने अपने औजार छोड़े और चारों तरफ से उस कमजोर पुरानी दीवार के पास
खड़े होकर चुपचाप देखने लगे। जूड ने अब ब्रश उठाया, धीरे-धीरे हल्के हाथ से ब्रश के द्वारा उन मोतियों पर से वह मिटी्ट की परत साफ करने लगा। अब वह साफ दिखाई दे रही थी। एक नहीं बल्कि चार फिरोजों की लड़ियां थी और ये फिरोजे के मोतियों का बना एक अति सुंदर गले का चौकोर नेकलेस था। कुल मिलाकर 2500 छोटे मोतियों से ये चार मालाएं बनी थी। किसी प्राचीन सुनार ने बहुत समय लगाया होगा इन फिरोजों को एकसार करने में, हरेक को धार करने वाले पत्थर पर रगड़कर आकार देना और प्रत्येक में धागा डालने के लिए छेद बनाना। और सबसे बड़ी बात कि उन सब को एक समान बनाना। जरा अंदाज करो, इन चार मालाओं के मोती बनाने में कितना समय लगा होगा?
चोर का पीछा करना-
जूड के एक और पुरातत्वेत्ती दोस्त को भी, जिनका नाम अर्ल मौरिस था, एक बार एक अन्य कब्र में फिरोजे का एक अति सुंदर गहना मिला था। यह एक लोलक अलंकरण था। जिसे किसी मनुष्य ने एक धागे में लटका कर गले में पहना होगा। इसमें पच्चीकारी का काम था, एक नक्काशी किए हुए लकड़ी के सुंदर लॉकेट पर पॉलिश किए हुए चमकीले नीले नग सीमेंट की सहायता से, जो कि जोड़ने का काम करती है, जड़ दिए गए थे। मौरिस ने एक ऊंट के बालों से बने बहुत ही नरम ब्रश से इसे साफ किया, तभी उसने पाया कि तीन नग निकले हुए थे। उसे विश्वास था कि यह नग उसकी सफाई करने में नहीं निकले हैं। यह भी पता था कि कब्र में जाने वाले के साथ पुरातन लोग सबसे अच्छे गहने ही रखते थे और यदि किसी कब्र-चोर ने इसे पाया होता तो वह सारा ही ले जाता, न कि सिर्फ तीन नग!
आखिर कहां गए वह नग? मोरिस ने सावधानी से सब तरफ देखना शुरू किया, कोई सुराग मिलने की उम्मीद में। उसने देखा कि एक चूहे का बिल वहां पास ही था, जहां उसे यह जेवर मिला था। उसने चूहे के बिल को खुदवाया और हर चम्मच-भर मिट्टी को जो वहां से निकली अच्छी तरह छनवाया। और आखिर वह तीन नग निकल आए। इस बार कब्र की चोरी करने वाला एक चूहा था।
मक्की का दिया सुराग-
पच्चीकारी का लॉकेट बनाने में या फिर फिरोजे के मोतियों की माला बनाने में कई दिन, बल्कि कई हफ्ते लग जाते होंगे। स्त्रियों को भी बतर्नों पर सुंदर, कठिन नमूने बनाने में कई घंटे लग जाते होंगे। इन तथ्यों से पुरातत्वेत्ता क्या जानकारी हासिल करते हैं? इसका मतलब है कि ये आदिम मनुष्य सुंदर, सजी हुई चीजों को पसंद करते थे। इसके अलावा इनमें इतने कुशल कलाकार व चित्रकार भी होते थे। मगर इससे उस युग की एक बात और भी जाहिर होती है। सुंदर मोती, पच्चीकारी का काम तथा चित्रकारी व नक्काशी का सामान यह साबित करता है कि उन लोगों को अपना सारा समय खाना ढूंढने में नहीं गुजारना पड़ता थे। कम-से-कम कुछ लोग ऐसा काम करते थे, जो कला को दर्शाता है और मात्र पेट भरने से चार कदम आगे था।
ये लोग अच्छी तरह खाते-पीते और फिर इनके पास समय बचता इन कलाओं को विकसित करने का! यह कैसे संभव था? पुरातन विज्ञान के ज्ञाताओं ने इस प्रश्न के कई उत्तर, सुरागों व कब्रों के सामान आदि के आधार पर ढूंढे। इस युग के लोग मरने वाले के साथ उसकी कब्र में उसकी जरूरत की चीजें भी गाढ़ देते थे। इसका कारण साफ था। बहुत से लोग, अनेक कबीले आदि मानते हैं कि मरने के बाद जो दूसरी जिंदगी उन्हें मिलेगी, उसमें इन सब चीजों की जरूरत पड़ेगी। यही प्रचलन था।
एक अन्य चीज ऐसी निकली, जिसने उनके जीवन पर, रहन-सहन पर प्रकाश डाला। एक स्त्री की कब्र में एक ऐसी डलिया मिली जो कि औरतें अपनी पीठ पर बोझा ढोने के काम लाती है, और इस बड़ी सी टोकरी में साबुत दानों की मकई भरी हुई थी। इस इकट्ठे किए गए मकई से हम यह धारणा बना सकते हैं कि शिखर निवासी किसान थे पर क्या यही पक्की बात है? हो सकता है वे जंगली भुट्टे इकट्ठे करते हों।
कई बार पुरातत्वेत्ता सीधे नीचे एक खास जगह की तस्वीर लेना चाहते हैं। जैसे उदाहरण के तौर पर वह एक पूरे घर की चारदीवारी दिखाते हुए तस्वीर लेना चाहता है। अगर वह जमीन पर उसके पास खड़ा है तो उसे वह पूरा नहीं देख सकता। यह चलित मीनार बखूबी ये काम करती है। लड़के व लड़कियां तारों को खींचकर इसे ठीक जगह पर रखे हैं और वह ऊपर दूर से किसी भी चीज को संपूर्णता से देख सकता है।
मगर, जंगली मकई तो होती ही नहीं, अगर भुट्टा खाना है तो उसे उगाना पड़ेगा।
यह मकई उनके सामाजिक जीवन के नए तथ्य बयान करती है। ये खाद्य वस्तुए ढूंढते ही नहीं थे, बल्कि उन्हें उगाते थे। गर्मी में वह जरूरत के अनुसार पूरे साल के खाने का इंतजाम कर लिया करते थे। इस तरह मक्का वह तत्व था जिसकी वजह से पुराने लोगों को फुरसत मिलती थी और वे गहने बनाने चित्रकारी करने या अन्य सुंदर वस्तुएं बनाने का समय पाते थे।
बेशकीमती कूड़ा-
क्या यह ताज्जुब की बात नहीं है कि पुरातन वैज्ञानिकों को मकई
ऐसी हालत में मिल गई, जबकि वह सैकड़ों साल पुरानी थी? कैसे व क्यों? वह सड़ या सूख क्यों नहीं गई? दक्षिण पश्चिम में हवांए बिल्कुल शुष्क, जलहीन होती हैं, इसलिए यदि बारिश व बर्फ से बच जाएं तो वे न तो सड़ती हैं न उनमें फंगस, काई इत्यादि लगती है। खाने का सामान, कपड़े व फर (लोम चर्म) सालों साल अच्छी हालत में रहते हैं यदि उन्हें बंद डिब्बे में या अच्छे आश्रय में, जैसे गुफाओं में रखा जाए। बचा-खुचा खाना, फटे कपड़े, टूटे खिलौने व लकड़ी या हड्डियों के बने औजार, सबके ढेर पड़े थे शिखर वासियों के घरों के सामने, यहां तक कि जो कूड़ा वे लोग फेंकते थे वह भी सदियों तक पहचानने लायक रहा। यह उन गुफाओं में था जिनके ऊपर छत का हिस्सा काफी बाहर तक निकला हुआ था, जिससे बारिश का पानी अंदर न पहुंचे। तुम्हें लगेगा यह कूड़ा करकट बेकार है, मगर यह बहुत कीमती है उनके लिए जो पुरातन मनुष्य के विषय में जानकारी हासिल कर रहे हैं। टूटे बर्तन व अधजली लकड़ियां तक इन विज्ञानवेत्ताओं को जरूरी व काम की जानकारी दे देते हैं। फिर भी सब ढेर कूड़े या अन्य सामान के सूखे नहीं होते, कभी-कभी गुफा की छत के नीचे के भी ढेर गल जाते हैं, जानकारों को काफी जासूसी पूर्ण भेदिया तरीके प्रयोग में लाने पड़ते हैं यह पता लगाने को कि पड़े हुए ढेर की हालत क्या है। अगर उस पर घास या अन्य पौधे उग गए हैं तो खुदाई पर जाहिर है गीलेपन का असर लिए सामान मिलेगा और गीले होने से सामान सड़ना शुरू हो जाता है। जहां घास या वनस्पति नहीं उगी हो ऐसे सूखे ढेर पुराने सामान की अच्छी रक्षा करते हैं।
बोलने वाली हड्डियाँ-
एक कूड़े का ढेर हड्डियों का! क्या कहता है वो? इससे पता चलता है किस तरह का मांस पुराने लोग खाते थे, खरगोश की हड्डियों का मतलब खरगोश का मांस, हिरण की हड्डी हिरण का मांस। मगर यह तो शुरुआत है। अगर एक जानकार कुछ ज्ञान बढ़ाने के लिए कई घरों में मिली हिरण की हड्डियां इकट्ठी करके उन्हें जोड़ कर ढांचा तैयार करता है, जिससे सब टुकड़े एक-दूसरे से बिलकुल ठीक जुड़ जाते हैं। यह एक पूरे हिरण का ढांचा बन गया। इसका मतलब कई घरों ने मिलकर एक ही हिरण का स्वादिष्ट मांस मिल-बांटकर
खाया था।
यह एक वजनदार तथ्य बताता है, न सिर्फ उन सबको यह मांस पसंद था बल्कि किस तरह के नियम उस गांव पर लागू थे। हड्डियां कहती है "जन साधारण मिल बांटकर खाते थे, अगर एक ने खाया, तो सबने भी खाया!"
ऐरिजोना में एक हजार वर्ष पहले रहने वाले आदमी की खोपड़ी, मगर यह उसकी जिंदगी की कहानी कहती है-
1.
जब वह बच्चा था इसकी मां इसे फैशन परस्त बनाना चाहती थी।
2. जब यह बड़ा हुआ इसने मकई की रोटी बहुत खाई, हालांकि उसे चबाना इसके लिए मुश्किल होता, क्योंकि दांत दर्द करते थे।
3. यह जब घात लगाए बैठा था, मारा गया।
4. जब यह मारा गया, तब करीब 35 साल का था।
(1) फैशनपरस्त लोगों के सिर पीछे से चपटे होते थे। बच्चे के सिर को चपटा आकार देने के लिए मां उसे अच्छी तरह दबा कर एक चौखटे से बांध देती थी, जिसे वह अपनी पीठ पर लिए घूमती थी। बच्चे के सिर की मुलायम हड्डियां जल्दी ही चपटी हो जाती थीं और फिर उसी आकर में कड़ी हो जाती थीं।
(4) यह खापे ड़ी आदमी की है या औरत की? बूढे की या जवान की? कितनी पुरानी है? पुरातत्वेत्ताओं ने इतने सारे कंकालों को जांचा और नामा है कि वे हमें इन प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं। पुरातनवेत्ता कहते हैं कि कमरे गांव में सब समान थे, राजा-महाराजा का कुछ अलग न था। इस सबसे लगता है पुराने लोग जनतंत्र प्रणाली को शहर चलाने में प्रयोग करते थे। हड्डियों से यह भी पता चलता है कि जीव का हश्र कैसे हुआ था। इन गंदगी के ढेरों में टर्की (एक पक्षी) की हड्डियां बहुत कम मिली। जो कि चबाई या खाई हुई हो, इसके विपरीत कई पक्षी कंकाल मिले जो कि पूरे के पूरे मिट्टी में दबे हुए थे। इससे जाहिर है कि टर्की को खाने के लिए नहीं मारा जाता था।
टर्की को वे लोग उनके परों के लिए रखते थे। उनके पंख जब बढ़ जाते तब उन्हें काटकर गर्म कंबल बनाए जाते, और कुछ दिन में टर्की के नए पंख आते व बढ़ने लगते। मारकर खाने के लिए वह नहीं होती थी, उसका ज्यादा अच्छा काम था।
कहानियां जो मृत लोग सुनाते हैं-
टर्की का कंबल इस जन्म में ही बहुत काम का था, मगर पुराने लोग अगले जन्म में भी उसे जरूरी समझते थे, इसलिए वह कब्रों में भी रखा जाता था। खुदाई में कई कब्रों में मृत शरीर पाए गऐ, कुछ कुम्हला कर सूख गए थे, और ‘ममी’ यानि ‘परिरक्षित शव’ बन गए थे। एक पंखों के कंबल में लिपटी हुई ममी, जिसके चारों ओर उसका सामान रखा हो, बहुत कुछ कहती है। नर कंकाल व हड्डियां भी बहुत कुछ बताती हैं।
यह दूसरी कब्र एक महत्वपूर्ण आदमी की है उसके आस-पास खाने व पीने के काफी बर्तन हैं, जो उसके अगले जन्म में काम आने को रखे गए हैं। कई गले के हार तथा एक बांसुरी भी है। उत्सव के समय यह (चित्र- ।ए ठ )व्यक्ति बांसुरी बजाता होगा, तथा वह चिलम पीता होगा, जो कि एक नली जो वहां रखी है, बताती है।
कब्र (।) के कंकाल को व दूसरी कब्र (ठ) को देखिए हमें ये करीब एक से लगते हैं, मगर पुरातत्वशास्त्री इनकी दो बिलकुल अलग कहानियां बताते हैं।
इस कूड़े की तहों को देखकर वैज्ञानिक यह अंदाज लगा सकते हैं कि क्रम अनुसार कौन-सी चीज पहले हुई, जैसे कि उन्होंने अध्ययन से जाना कि बरछों का प्रयोग पहले शुरू हो गया था और तीर कमान बाद में बनाए गए। टोकरियां पहले बनाई गई, उसके बाद बर्तन बनाने का चलन हुआ। मनुष्य पहले जंगली जानवरों के शिकार, जंगली
इनकी हड्डियां, पास रखा हुआ बाल काढ़ने का ब्रश और पॉलिश करने वाला पत्थर ये बताते हैं कि यह एक स्त्री की कब्र है और सब अनासाजी स्त्रियों की तरह ये भी बर्तन बनाती थीं। बर्तन जब तैयार हो जाता तो उसे चमकाने वाले पत्थर की सहायता से कुछ आकार ठीक किया जाता व उसको पूरा समतल किया जात। फिर उसे सुंदर सजावट करके गर्म आग में सेंका जाता।
यह तस्वीर एक छोटी लड़की की है, जिसका कि पैर टूट गया था, उस जगह पर खप्पचियों (चपटी लकड़ी के टुकड़ों) की सहायता से उसे बांध दिया गया था। पुरातत्वेत्ता उस जड़ी हुई हड्डी को देखकर यह बता सकते हैं कि किस उम्र पर उसकी हड्डी थी। पुराने कूड़े के ढेर से मिली खप्पचियां एवं बैसाखियां और भी बहुत कुछ बताती हैं।
अन्य अनासाजी लोगों की तरह वह खेत में काम करता था, ओर मकई के बीज अपनी लकड़ी से गहरे गढ़े बनाकर उसमें बोता था।
फल या जड़े इत्यादि खाकर जीते थे, धीरे-धीरे बाद में उन्हें मकई बोने का ज्ञान हुआ। सिलसिलावार चीजों का क्रम जान लेने पर भी ये किस सदी में, कब हुआ, इसकी जानकारी सही तौर पर मिलनी मुश्किल हो रही है। अंडे के आकार की कब्रें कब खोदी गई? किस साल में, अथवा किस सदी में ही सही, पुरातन लोगों ने चोटी पर महल बनाना शुरू किया। कब वह इस चोटी स्थित महल को छोड़कर चले गए?
पुरातत्वेत्ता सही समय और तारीखों को ढूंढने का प्रयत्न करते रहे, मगर कैसे यह समझ नहीं पा रहे थे। अभी तक पाई जानेवाली चीजों के अलावा जो सुराग था वह सही था कि जो चीजें बिल्कुल न पाई गई हों, जैसे न घोड़े की, न गाय की कोई हड्डियां इन कूड़े के ढेरों में नहीं मिली। गाय व घोड़े यहां स्पेनिश लोगों के साथ ही लाए गए
सन् 1540 के करीब। इस समय तक यानि 1540 से पहले ही यह पुरातन मानव यहां से जा चुके थे।
2
प्राचीन से भी प्राचीनतम- जब रिचर्ड वेदरिल ने कोलराडो में ‘शिखर महल’ खोज लिया तब उसने कई और गुफाओं की छानबीन ‘अरिजोना’ में की। यहां पर ही पहली बार उसने अंडे के आकार की कब्रें पाई जिनमें कि शवों को बैठी हुई अवस्था में दफनाया गया था। इन कब्रों के लिए खुदाई बहुत गहरी करनी पड़ी, इससे रिचर्ड को लगा कि शायद पुरातन
मानवों को भी इन अति प्राचीन इंसानों के बारे में कोई ज्ञान नहीं था और उसी स्थान पर उन्होंने अपने भवनों का निर्माण कर लिया था।
एक और अजीब चीज यह थी कि ये अंडाकार शव रखने वाली कब्रों में न तो कोई बर्तन, न ही तीर कमान पाए गए। हालांकि और चीजें, खाना, कपड़े, खूबसूरत टोकरियां, और बरछे के नुकीले हिस्से पाए गए। यहां पर चप्पलें जो मिली वे भी फर्क बनी हुई थी। शिखर महल में पाई चप्पलों में अँगूठों की पकड़ थी, जो इन चप्पलों में नहीं थीं।
धनुष कमान से पहले बरछे फेंककर इस्तेमाल किए जाते थे। बरछा फेंकने के लिए एक तरह का प्रक्षेपक प्रयोग होता था जिसे ऐटाल्ट कहा गया। इसको पहचानने में दिक्कत नहीं हुई क्यों कि अभी भी ऐसे प्रक्षेपक ऐस्किमो व कई अन्य लोग प्रयोग करते हैं।
इसी तरह कूड़े के ढेरों में भी पहले परत में अंगूठे वाली चप्पलें व तीर मिले और गहरा खोदने पर साधारण पैर डालने वाली चप्पलों व बरछे के नोंक के अवशेष पाए गए। रिचर्ड ने इससे अनुमान लगाया कि पुरातन मानव से पहले एक सदी ऐसी रही होगी जब यहां अति पुरातन मानव रहा होगा। सारी दुनिया में जहां भी मनुष्य रहते हैं कूड़ा इकट्ठा हो जाता है
और अगर लंबे समय तक एक जगह रहे तो ढेर तह दर तह ऊंचा होता जाता है, जहां सबसे नया सबसे ऊपर व सबसे पुराना सबसे नीचे रह जाता है। इस नए पुराने के अतिरिक्त सही समय आंकने का कोई तरीका पुरातन वैज्ञानिक नहीं खोज पाए। फिर उन्हें एक नया ज्ञान मिला, कि समय की सही छाप पेड़ों के रूप में, चीड़ व देवदार के तनों पर अंकित हैं।
पेड़ों में बने केलेंडर- प्रति वर्ष पेड़ का तना मोटा होता जाता है। हर वर्ष लकड़ी की एक नई तह पेड़ की छाल व पुरानी तह के बीच में बन जाती है। कुछ पेड़ों में, खास तौर पर चीड़ व देवदार में यह बड़ी साफ नजर आती है। अगर लकड़ी के एक टुकड़े को ध्यान से देखा जाए तो यह तहें एक तरह से गोलाई दर गोलाई घेरा बनाती हैं। यदि इन घेरों को गिना
जाए तो पता लगता है कि जब वृक्ष मर गया उस समय वह कितने साल पुराना था। बीच का घेरा वृक्ष की जिंदगी का पहला वर्ष दर्शाता है, और आखिरी बाहर की तरफ वाला घेरा उसका अन्तिम वर्ष बताता है। कुछ घेरे ज्यादा व कुछ कम चौड़े होते हैं, इसका अर्थ है किन्हीं वर्षों में पेड़ ज्यादा बढ़ा, बनिस्बत और वर्षों के। वह इसलिए, क्योंकि अलग-अलग सालों में मौसम में भी फर्क रहा होगा।
यदि किसी एक वर्ष एक वृक्ष का घेरा ज्यादा फैला है तो सभी वृक्षों के उस वर्ष के घेरे चौड़े होंगे, क्योंकि मौसम का असर सब पर पडेग़ा।
यह पेड़ों पर बने घेरे, एक तरह की पट्टियां-सी किस प्रकार केलेंडर की तरह इस्तेमाल में आई इसकी भी एक अलग कहानी है।
ए.ई. डगलस नामक एक वैज्ञानिक थे, जो कि आकाश स्थित तारों के ज्ञान में बहुत शौक रखते थे। उन्हें पेड़ों या खंडहरों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। डगलस ने अपनी जांच के दौरान पाया कि कुछ रहस्यमय से दाग सूरज पर हर 10-11 साल में एक बार दिखाई पड़ते हैं। वे जानना चाहते थे कि इन दागों की वजह से पृथ्वी के मौसम पर कोई असर होता है या नहीं। उन्होंने बहुत-सी मौसम संबंधी रिपोर्टस व विवरण देखे। उस समय में मौसम की जानकारी बहुत कम अंकित की जाती थी, इस कारण रिकार्ड किया हुआ भी कुछ खास नहीं था। कुछ साबित करने के लिए डगलस को कई सौ साल की जानकारी हासिल करनी जरूरी थी।
एक दिन अचानक उसे एक ऐसा ख्याल आया, जिससे वह बहुत
उत्साहित हो गया। उसने सोचा पेड़ों के तनों पर हर साल मोटे होने पर निशान स्वरूप लकड़ी की जो नई परतं घेरों के रूप में पड़ती हैं, चीड़ व देवदार के वृक्षों में वे काफी साफ नजर आती हैं और उनमें बहुत पुराने रिकार्ड विवरण मिल जाएंगे। अब उन्हें बहुत पुरानी लकड़ियों के नमूनों को ढूंढना था। ऐसी प्राचीन लकड़ी कहां मिलेगी? वहीं जहां प्राचीन खंडहरों की खुदाई हो रही होगी। पुरातत्वेत्ता जो कि प्राचीन मानक व सभ्यता की खोज में खुदाई करवा रहे थे, तुरंत ही इस नए काम में सहयोग करने लगे। उन्होंने प्राचीन नगरों, कूड़े व जली लकड़ी
के टुकड़े डगलस को दिए, और डगलस ने अपनी विद्या से उन लकड़ियों को जांच परख कर वह कब की हैं, कितने वर्ष पुरानी यह उन्हें बताया, जो उन्हें एक पुरस्कार की तरह लगा। जिन खंडहरों को वे खोद रहे थे, वे किस सदी के थे, इसका अब उन्हें सही ज्ञान, वैज्ञानिक तरीके पर आधारित मिल गया था। पेड़ों में प्रश्नों के उत्तर दिए-
डगलस ने इस दक्षिण पश्चिम इलाके में होने वाले बहुत से पेड़ों के तनों को परखा और उनके चौड़े व पतले घेरों के आधार पर एक चार्ट उनके विकसित होने का बनाया। उस चार्ट में वर्तमान में लगे हुए
पेड़ों के तनों पर चौड़े व पतले घेरे देखे गए, फिर कुछ पुराने पेड़ों के तने व फिर और भी पुराने पेड़ों का निरीक्षण किया गया। पृष्ठ 30 पर जो तस्वीर है उसे देखकर मालूम होता है कि इन घेरों के आधार पर पिछले 80 सालों का केलेंडर बन सकता है।
शिखर के एक मकान में इस प्रकार का बना हुआ (मकई के बालों से) एक छोटा-सा गोल आकार का ढांचा पाया गया।
इसका क्या इस्तेमाल था, यह हमें आगे पता चलेगा।
धीरे-धीरे डगलस व पुरातत्वेत्ताओं ने एक चार्ट पेड़ों के बढ़ते घेरों के सहारे उनके तने को जांच कर ऐसा बनाया जो पिछले 2000 साल तक जाता था। इस से अब वहां पर जो खंडहर है, व खुदाई में निकले सामान से यदि उसमें कोई काष्ठ के टुकड़े मिले तो उनके समय का अंकन किया जा सकता है।
यहां तक कि जली हुई लकड़ी, कोयला बनने पर भी इन घेरों का नमूना बनाया जा सकता है। फिर इस चार्ट को आप उस 2000 वर्ष के घेरों वाले चार्ट से मिलाकर देखें। जब आपको बड़े चार्ट के किसी हिस्से में उसी डिजाइन के घेरे दिखें जैसे आपके बनाए छोटे चार्ट में हैं, तब आप सफल हो गए। बड़े चार्ट में पड़ी तारीखों के हिसाब से आप को पता चल जाएगा कि जो लकड़ी आप के पास है वह कौन से साल में काटी गई थी। जाहिर है कि अगर वह किसी घर बनाने के काम में ली गई थी, तो मकान भी उन्हीं वर्षों का, उसी समय का रहा होगा। पुरातत्वेत्ता समय की पहेलियां सुलझाने में, व अन्य अनेक तथ्यों को जानने में बहुत दिलचस्पी रखते हैं। यह दृश्य एक टूटे-फूटे पुराने अवशेषों को उन्हें एक फटी हुई किताब-सा लगता है जिसे वह यदि पन्ना दर पन्ना जोड़ सकें तो एक पूरी कहानी शुरू से अंत तक पढ़ी जा सकती है। तारीखें किताब के पन्नों की तरह, उन्हें पुराने लोगों के जीवन के क्रम का ज्ञान देती है। शुरू में क्या था, बीच में क्या रहा और अंत कैसा हुआ? रिचर्ड के मेसा वर्द की खोज के बाद के बहुत से प्रश्न जिनके
जिस मालपुए के आकार की वस्तु को हमने पिछली तस्वीर में देखा वह स्त्रियां सिर पर रखकर, उसके ऊपर घड़ा टिकाकर पानी भरकर लाती थीं।
उत्तर पहले नहीं मिले थे धीरे-धीरे सुलझने लगे, अब पुरातत्व ज्ञानियों के साथ एक खगोलशास्त्री भी मिल गया था। वृक्षों के घेरों के हिसाब से पता चलता है कि 1063 में शिखर महल में लोगों ने घर बनाने शुरू किए थे। दो सौ साल तक यहां नए घर बनते रहे। जो सबसे नया शहतीर शिखर महल में मिला, उसके पेड़ को सन् 1273 में काटा गया।
परंतु पुरातन लोगों ने घर बनाने क्यों बंद करे, वे वहां से क्यों चले
गए, इसका जवाब क्या पेड़ों से जाना जा सकता है? सन् 1276 से 1299 तक बने घेरे बहुत ही पतले-पतले हैं,इन 23 सालों में मौसम के साथ न देने से पेड़ बहुत कम बढ़े। शायद मकई, कद्दू, सेम उगाने में भी उस मौसम में दिक्कत आई होंगी। हो सकता है खाने की या पानी की तलाश में वह लोग यह जगह छोड़कर चले गए हों। मगर पेड़ों के कलेंडर के हिसाब से खराब मौसम शुरू होने के तीन साल पहले ही वह अपने घर छोड़ चुके थे, क्योंकि आखिरी लकड़ी की बीम तीन साल पहले काटी गई थी।
वृक्ष रेखाएं दिखाती हैं कि बहुत से गांवों में, यहां तक कि बड़े शहर प्यूब्लो बोनिटो में भी लोगों ने नए घर बनाने बंद कर दिए थे, खराब मौसम आने से पहले ही। प्यूब्लो बोनिटों के रहने वालो ने तो शिखर महल निवासियों से भी पहले घर, शहर छोड़ दिए थे।
ऐसा क्यों?
शायद घर देखने से कोई उत्तर मिले।
बिना दरवाजों की दीवारें-
घर देखने से हम उन लोगों के बारे में बहुत कुछ जान सकते हैं,
क्या औजार, क्या घर बनाने का सामान उनके पास था, लोग बाग रईस थे कि गरीब, मालिक या गुलाम जनता खुश व मस्त थी या घबराई व डरी हुई।
प्यूब्लों बोनिटो, वह सुंदर शहर जहां हजार लोग रहते थे, इसकी तस्वीर में एक अजब चीज है कि बाहर की दीवार में कही भी दरवाजा नहीं है। खंडहरों में निशानों से लगता है कि दरवाजे थे मगर उन्हें सील बंद कर दिया गया था। इस तरह दरवाजे मजबूती से बंद करने का अर्थ है कि लोग डरे हुए थे। एक किस्म का डर जिसके कारण दरवाजे बंद किए जाते हैं, चोर डाकुओं का होता है। प्यूब्लो बोनिटो में बहुत सामान था जो लुटेरे ले जाना चाहते, जैसे सुनारों के बनाए सुंदर फिरोजे के मोती, गोदामों में भरी मक्की की उपज, जो खेतों से आई थी। तो क्या पड़ौसी गांव वालों ने चिढ़कर उनको लूटना चाहा? ऐसा दुनिया में बहुत होता है, मगर पुरातत्वेत्ताओं को इसका कोई सबूत नहीं मिला, और पुराने लोग शांतिप्रिय किसान थे। मगर सबूत मिले हैं कि अजनबी इन इलाकों में घूमने लगे थे। वे किसान नहीं शिकारी थे, उन्हें मकई उगानी नहीं आती थी, मगर उसका स्वाद उन्हें पसंद आ गया जब उन्होंने कुछ औरतों को पकड़कर वह बनवाकर खाया। जब भी, बल्कि अक्सर ही शिकार मुश्किल से मिलता था, तभी
प्यूब्लो बोनिटो मॉडल
इन भूखे घुम्मकड़ों को प्यूब्लो बेनिटो के अनाज की जरूरत लगती, वहां के फिरोजे भी बेशकीमती थे, इसी वजह से उन्होंने इस समृद्ध शहर पर बार-बार आक्रमण किया होगा। सभी दरवाजे बंद करके, यहां के निवासी बचना चाहते थे, सीढ़ी से बाहर निकलते व फिर सीढ़ी हटा देते, मगर फिर भी ये शांत भले लोग जब खेतों में काम करते तो लुटेरे उन्हें मार डालते थे।
शायद किसानों ने हार मान ली और जो बच गए थे वे सुंदर शहर छोड़कर चले गए ओर नई जगह बस गए, इस उम्मीद से कि डाकू उन्हें पीछा करके ढूंढ नहीं सकेंगे। सभी गांवों में सही समस्या थी, खुले में रहने वाले लोग गुफाओं में, घाटियों में छिपी जगहों पर गऐ, मगर आखिर में सारे किसानों को इन शिकारियों ने मार भगाया, डर से कहीं बचाव न मिलने के कारण।
छिपे हुए कमरे तहखानों में-
ये लोग कहां गए?
एक नहीं बल्कि अनेक सुराग उन तहखानेनुमा कमरों की ओर इशारा करते हैं जो कि आज भी प्यूब्लो इंडियंस के गांवों में पाए जाते हैं। ये लोग इन्हें गुप्त सभाओं या धार्मिक क्रियाओं के लिए प्रयोग में लाते हैं ओर इन्हें ‘किवाह’ कहा जाता है। पूजा करने की छड़ियां यहां रखी जाती है। पुरातन नगर में भी अजीब से बड़े-बड़े छेद दिखे थे, जिन पर पत्थर लगे थे। इनमें अंदर कमरे थे जिनकी छत ऊपर जमीन से समतल थी, उसके ऊपर चल-फिर सकते थे। शुरू में वैज्ञानिक समझ नहीं पाए कि ये क्यों ऐसे बनाए गए हैं, पर वर्तमान प्यूब्लो गांवों को देखकर उन्होंने समझा, और वाकई उन खंडहर तहखानों में भी पूजा की छड़ियां व अन्य धार्मिक सामग्री पाई गई।
प्यूब्लो इंडियंस कभी-कभी बुनने का काम ‘किवाह’ में बैठकर करते हैं। पुरातन लोगों के तहखानों में भी चरखे, कपड़ा बुनने के लगे हुए मिलेंगे ऐसी उम्मीद थी, और वहां पर ऐसे लंगर मिल गए जो बुनाई के समय चरखे को स्थिर रखने में इस्तेमाल किए जाते हैं। क्या आधुनिक प्यूब्लो इंडियंस ने ‘किवाह’ का प्रयोग पुराने लोगों को देखकर किया? या फिर ये ही उन पुराने लोगों के उत्तराधिकारी हैं? पुरातन ज्ञानियों ने सब तरह के सबूत देखकर यही कहा कि दोनों प्रश्नों के उत्तर ‘हां’ में दिए जा सकते हैं। पुरातन लोग कहां गायब हो गए? रिचर्ड वेदरिल के प्रश्न का उत्तर मिल गया। वे गायब नहीं हुए, कुछ लुटेरों से लुटे, कुछ उपज कम होने पर शायद भुखमरी से मरे होंगे, मगर कुछ जो इन दोनों विपत्तियों से बच निकले वे दक्षिण पश्चिम के अन्य शहरों में चले गए, जहां उनका स्वागत किया गया, क्यों कि वे खेती में मददगार थे। अतः हम जान गए कि पुरातन लोग अपने छोड़े हुए नगरों से कुछ दूर पर ही बस गए।
पुरातत्वेत्ताओं ने सैकड़ों गांवों को छाना, अनेक तथ्य इकट्ठे किए, और बहुत ज्ञान बढ़ाया उन गुजरे जमाने के इंसानों के बारे में
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जंगलों में खोये हुए शहर-
कोई ढाई सौ साल पहले की बात है एक व्यक्ति ग्वाटेमाला के जंगलों में फटे पुराने कपड़ों में घूम रहा था ग्वाटेमाला के जंगलों में। अचानक वह रुका और एक पेड़ के खोखले में घुसकर सीधा पेड़ की ऊंचाई की तरफ जाने लगा, जैसे वह किसी स्वप्न देखने की अवस्था में हो।
सूरज की रोशनी में दमकती हुई्र एक बहुत बड़ी इमारत नजर आ गई!
यह व्यक्ति स्पेन का एक प्रचारक था जिसका नाम था फादर अवेनडानो एक महीने से वह इन जंगलों में रास्ता भटक कर खोया हुआ था। उसका खाना खत्म हो गया था और भूख व थकावट से परेशान वह कुछ बदहवास-सा हो रहा था। जब उसे वह ऊंची इमारत दिखी तो उसने सोचा यह उसका सपना है जो उसे बुखार की बैचेनी में दिख रहा है। परंतु और सपनों की तरह यह खत्म नहीं हो रहा था। आखिर जिज्ञासावश वह उसे आसमान की ऊंचाई तक दिखनेवाली इमारत की ओर चला। कहीं से उसमें इतनी ताकत भी आ गई कि वह पहाड़ की चढ़ाई पर चढ़ गया जो उस इमारत की ओर ले जा रही थी।
चढ़ाई दुर्गम, बिलकुल सीधी खड़ी हुई थी, उसे पेड़ों व जड़ों को पकड़ते हुए, जंगली बेलों को हाथ से हटाकर, बड़ी मेहनत व कठिनाई पूर्वक ऊपर चढ़ना पड़ रहा था। जंगली बेलें मकड़ी के जाले की तरह फैली हुई थी और उनके कांटे चाकू की तरह चुभने वाले थे। किसी शक्तिशाली व स्वस्थ्य मनुष्य के लिए भी ये मुश्किल काम था, मगर फिर भी अवेनडानो आखिर शिखर तक जा पहुंचा। वहां पहुंचकर वह आश्चर्य चकित रह गया। वह पत्थर की इमारत असल थी, सचमुच वहां खड़ी थी। जितना उसने सोचा था, उससे भी बड़ी थी और उसके आसपास उसके जैसी ही, जंगल के सब पेड़ों से ऊंची कई इमारतें खड़ी थीं। वाकई बड़े ताज्जुब की बात थी। अवेनडानो अंदर चला, इमारत के कमरे छोटे थे, व खाली थे। सिर्फ बंदर वहां रहने लगे थे न कि आदमी। इस सब का क्या मतलब? उसने सोचा। मगर वह बीमार व भूखा था, इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने से ज्यादा जरूरी था नीचे उतर कर किसी प्रकार कोई रास्ता जंगल से बाहर निकलने को खोजा जाए। आखिर अधमरी हालत में वह धर्म प्रचारक जंगलों से निकलकर सभ्यता में आ गया। परंतु उसने दुबारा उन जंगलों में छिपी ऊंची इमारतों को नहीं देखा, मगर उसने उनका सुंदर विवरण लिखा। यह विवरण किसी के भी ध्यान को आकर्षित नहीं कर सका। किसी ने यह न सोचा, फादर अवेनडानो ने भी नहीं, कि वह इत्तफाक से एक अति प्राचीन शहर की इमारतें देख आए थे। प्राचीन धार्मिक अनुष्ठान इस जगह होते हुए भी उस समय उन्हें यह ख्याल नहीं आया कि किसी अन्य धर्म के पुजारी यहां धार्मिक कर्म करते होगें, इसाई धर्म के आने से पहले। इन मूर्ति पूजा करने वाले पादरियों ने खगोल शास्त्र का अध्ययन करा व किताबें लिखी, जिनमें भविष्यवाणियां की गई, नियम दिए गए। धामिर्क क्रियाओं के तथा बड़ी सही जानकारी सूर्य, चंद्रमा व तारों के विषय में दी गई। उन्होंने अपनी विद्या से इतना सही यथार्थवादी केलेंड़र बनाया, जैसा इस नए जमाने में अवेनडानो प्रयोग करते थे। मगर तकरीबन डेढ़ सौ साल तक यह अचभिंत करने वाली नगरी, व अन्य ऐसे ही शहर जिन्हें अवेनडानो ने नहीं देखा था, दुनियां की नजरों से छिपे रहे। फिर खोजकर्ता जंगलों में घूमने लगे। यह उष्ण प्रदेशीय इलाका जंगल में पेड़ों व लताओं से भरा हुआ था। यहां एक अस्पष्ट-सी पगडंडी जो बनी थी, वह लताओं को काट कर एक घने जंगल में जा रही गुफा के समान थी। पुरातत्वेत्ता भी वहां पहुंचने लगे। इन पगडंडियों को किसने बनाया, यह तुम सोच भी नहीं सकते हो। वास्तव में इसका कारण थी चुइंगम। वही जो बच्चे बड़े शौक से चबाते रहते हैं। चुइंगम एक गाढ़े रस से बनती है, जिसे चिकिल कहते हैं। यह रस ‘सपोडिला’ नामक पेड़ के तने पर काटे जाने से उसमें से निकलता है। जब चिकिल के खरीदने वाले बढ़े तो बहुत से लोग जंगलों में ‘सपोडिला’ पेड़ों को ढूंढने पहुंचने लगे। इन्हीं
वज्ञैानिकों के लिए इंडियंस ने एक आरक्षित स्थान बनाया। एक ढांचा डंडों में मजबतू बेलों की सहायता से बाधं कर खडा़ किया। उस पर ताड़ के पत्तों की छत बनाई। टिकाल के किसान व कार्य करने वाले इसी तरह के घरों में रहते थे।
जंगलों में कई जगह उन्हें विशाल मंदिरों के अवशेष व खंडहर मिले, जमीन में अधगढ़े पत्थर जिन पर खोद कर अजीब तरह की-सी मनुष्य आकृतियां बनी हुई थीं।
यह चिकिल इकट्ठा करने वाले केवल बरसात में ही काम कर सकते, क्यूंकि इसी समय इन पेड़ों में से यह गाढ़ा रस निकलता था। गर्मी के मौसम में वे वैज्ञानिकों को लेकर अपने खच्चरों के साथ उन जगहों को दिखाते जहां उन घने शांत स्थानों पर खंडहर उन्हें मिले थे, जहां अब रहने वाला कोई न था। अवेडानो के खोजे हुए इस भुतहा शहर में जिसे अब टिकाल कहा जाने लगा था, अब बहुत लोगों को दिलचस्पी हो गई। उसके रहस्य को पाने के उत्सुक ज्ञानियों ने वहां खुदाई करने का निश्चय किया। बरसाती मौसम के बाद, जब पानी सूखने लगा, तब औजार, खाना पीना लेकर खच्चरों की पीठ पर लाद कर इस अभियान पर काम करने वाले वहां पहुंचे। कठिन रास्ता था। टिकाल में बने पुराने कुंड व जलाशयों की सफाई व मरम्मत की गई। एक के बाद एक कई पुरातत्वेत्ता इन कठिनाइयों का सामना करते हुए वहां पहुंचे, कुछ खुदाई करवाई, पर अंत में कुछ हाथ न लगने पर निराश लौट आए। जब चुइंगम की मांग बढ़ गई तब यह महसूस किया गया कि उसे लाने ले जाने के लिए यातायात सही करना होगा। यह काम कम समय में, अधिक मात्रा में किया जा सके, इस ख्याल से गुआटेमाला की सरकार ने वहां पर हवाई पट्टियां बनवा दी। 1955 में टिकाल में हवाई जहाज द्वारा उतरना संभव हो गया। पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के कुछ वैज्ञानिक अब एक दल बनाकर वहां रहने पहुंचे व खुदाई का काम, जो उनकी बहुत दिनों की तमन्ना थी, शुरू करवाया। साल में कई महीने अब कर्मचारी आधुनिक मशीनों की सहायता से उन खंडहरों के पास के जंगलों को साफ करने लगे। पुरातन शास्त्री नगर को फिर से बनाने व समझने में लग गए। इसमें बहुत समय लगेगा। मगर तैयार होने पर टिकाल में यह एक बड़ा व बढ़िया उद्यान जन-साधारण के लिए बन जाएगा। यहां कोई भी घूमने जा सकेगा।
दीवार का रहस्य
प्राचीन काल में टिकाल में क्या कुछ होता था, इसे हम कैसे जान सकते हैं? टिकाल व उस जैसे अन्य कई शहर मध्य अमरीका में बसने वाले माया इंडियंस ने बनाए थे। इन्होंने दर्जनों मंदिर बनाए व कुछ दीवारों पर इनके कालाकारों ने मायानी रहन-सहन के तरीकों का बड़ी सुंदरता व बारीकी से, सभी तथ्य दिखाते हुए चित्रण किया है। इन चित्रकलाओं में से कुछ, किस्मत के चमत्कार से जंगल की गर्मी व सीलन के बावजूद पूरी तरह खराब नहीं हुई, और कई सौ साल बाद उस समय की कला का बयान करती है।
माया इंडियंस ने ऊंचे पत्थर के खंबे भी बनाए व इनमें खुदाई करके नमूने बनाए व सजावट की है। कई डिजाइन तो इतने ज्यादा जटिल व भरे हुए है कि उन्हें देखकर लोग भौचक्के रह जाते है। कुछ खंबों पर कुछ आकृतियां तराशी हुई हैं जिनमें कि भगवान का रूप एक अजीब जानवर की तरह दिखाया है। कुछ रूप चित्र हैं, जिनमें उस समय के व्यक्तियों को, राजाओं, पुरोहितों एंव सिपाहियों
पुरातत्वेत्ता उस प्राचीन काल के लोगों का रहन-सहन जानने के लिए सब तरह की चींजों का, जो भी उन्हें कब्रों में से मिलती, अध्ययन करते हैं।
कुछ थोड़े बहुत तथ्य माया इंडियंस के बारे में उन किताबों में भी मिलते हैं जो कि स्पेन के आक्रमणकारियों ने लिखी थी। मगर सबसे अधिक जानकारी खोजकर्ता खंडहरों में जाकर ही प्राप्त करते हैं। एक बड़ी ही भव्य व शानदार जगह मिली है जिसका नाम है चिचेन इटजा। कई मशहूर पुरातत्व ज्ञानियों ने यह खुदाई का काम करवाया। हर्बट टोमसन, एक ऐसे वैज्ञानिक थे जिन्होंने एक प्राचीन नीति कथा, जिसे सब केवल कहानी मानते थे, पर विश्वास किया और उसी के सहारे एक सनसनीखेज खोज कर डाली।
यह कथा एक कुएं के विषय में थी जिसे मायानी पवित्र मानते थे। यह बहुत चौड़ा व बहुत गहरा था, मगर इसमें से कोई पानी नहीं निकालता था। इसको पुरोहित एक धार्मिक चढ़ावे अथवा बलि के लिए पवित्र स्थान मानते थे। मायानी सोचते थे कि यदि भगवान् नाराज हो जाते हैं तो बारिश नहीं भेजते, उससे मकई की फसल नहीं हो पाती। भगवान् के क्रोध से बचने अथवा उसे शांत करने के लिए पुजारी कई तरह की बहुमूलय चीजें इस कुंए में चढ़ाते थे, जैसे बर्तन, गहने, स्वर्ण आभूषण आदि और यदि यह काफी नहीं होता तो इंसानों की बलि दी जाती, यह सबसे महान चढ़ावा होता। युद्ध में पकड़े गए कैदी, अथवा सुंदर युवतियों को एक किनारे से नीचे गहरे पानी में फैंक दिया जाता।
टोमसन ने यह सब बातें, नर बलि के विषय में उस पुरानी स्पेनिश किताब में पढ़ीं। जब वह चिचन इटजा पहुंचा तो किताब का लिखा विवरण उसे बहुत सही मालूम पड़ा। वह कुआं एक बहुत गहराई में नीचे को धंसा हुआ एक तालाब था करीब 200 फीट चौड़ाई का। एक बिलकुल सीधी लंब के रूप में चटा्टनी दीवार उसे घेरे हुए थी, एक जगह पर जहां यह दीवार सतह से कुछ नीचे चली गई थी, एक चबूतरा-सा बना दिया गया था। वहां चबूतरे के किनारे पर खड़े होकर पुरोहित चढ़ावे, प्रसाद को कुएं में डाल देते थे। नीचे पानी बहुत गहरा था, करीब 80 फीट गहरा। उस पानी की तलहटी में शायद कुछ पुराना सामान मिल सकता था। मगर टोमसन भी जानता था कि यह एक बहुत ही मुश्किल काम है।
यह छोटी मिटी्ट की बनी मूर्ति एक मायानी ईश्वर की है जो अंदर से खोखली है। इसका मुख एक चिमनी की तरह अंदर धूप या सुगंधी जलाने पर धुआं बाहर निकालता है। इसकी चौकी के पैर मनुष्य की हड्डियों से बने हैं।
टोमसन इस कठिन, तकरीबन असंभव काम को करना चाहता था। उसने एक डोल, जाल और कीचड़ निकालने वाला यंत्र मंगवाया। इसे तार व रस्सी की सहायता से चट्टान पर लगाया गया। चार मनुष्य मिलकर उस डोल को नीचे उतारते जाते जब तक कि वह पानी के अंदर तलहटी तक नहीं पहुंचता। फिर वहां से वह मिट्टी का एक बड़ा ढेर या टुकड़ा उठा लेता। जिसे बाहर लाकर सूखी जमीन पर डाला जाता। जब इस कुएं के तल की मिट्टी का पहला ढेर आया, तो छानबीन करने पर उसमें कुछ भी नहीं पाया गया। फिर एक, दो, तीन कई ढेर निकल आए, पर पुस्तक में वर्णित मायानी लोगों के चढ़ावों का कोई निशान न मिला। आदमी उस मशीन को ऊपर नीचे करते रहे और टोमसन उस गंदी गीली मिटी्ट के ढेरों को खोजते रहे, पर सफलता हाथ न लगी। मगर फिर एक दिन उस तलहटी के मिट्टी की छानबीन करते हुए
मायानी तीसरे अक्सर मृत्यु के देवता को स्वर्ण की घंटियाँ पहने दिखाती हैं। शायद इसी वजह से बहतु -सी सोने की घंटियाँ इस कुएं नुमा तालाब से निकली।
पुरातत्वेत्ता कई बार पुरानी इमारतों को दुबारा बनवाते। यहां कर्मचारी एक बहुत भारी। जापोट लकड़ी के टुकड़े को उठाकर ले जा रहे हैं इसे भीमकाय जागुआर (अमरीकी पशु) के मंदिर के दरवाजे के लिए प्रयोग किया जाएगा टिकाल में।
टोमसन ने कुछ गोल छोटी-छोटी गोलियां-सी खोज निकाली। ये वह गोलियां थीं जो पुरोहित उत्सवों पर सुगंधी के लिए जलाते थे। इससे जाहिर था कि कम-से-कम सुगंधी तो यहां चढ़ाई गई थी। फिर और मिट्टी निकाली गई। बार-बार की निराशा के बाद आखिर टोमसन को अपने धैर्य का फल मिल ही गया। इस बार उस कीचड़ में से सोने के बने आभूषण निकले, कुछ सुंदर सजावट वाली तश्तरियां, व फूलदान निकले। खूबसूरती से बनी प्यालियां, कुछ तीर की नोकें, एक हरे पत्थर से बनी प्यालियां, नफासत की चीजें, स्वर्ण घंटियां, और फिर लड़कियों व आदमियों के अस्थि पंजर भी निकल आए।
टोमसन ने सिद्धकर दिया कि जो कहानी उसने पुरानी स्पेनिश किताब में पढ़ी थी वह एक सच्चाई थी। पुरातत्वेत्ताओं को तो उसके पाए हुए सामान में जानकारी हासिल करने के लिए एक खजाना मिल गया और अनेक तथ्य मायानी इंडियन के बारे में जाने गए।
इस फूलदान पर एक पुरोहित की तस्वीर बनी है। कुछ पुरोहित एक काले वस्त्र से अपना शरीर ढंकते थे। इस व्यक्ति का सिर चपटा है, क्यों कि इसकी मां ने इसके सिर को काठ के पट्टे पर बांधा होगा, जब यह छोटा होगा। इस फूलदान पर एक पुरोहित की तस्वीर बनी है। कुछ पुरोहित एक काले वस्त्र से अपना शरीर ढंकते थे। इस व्यक्ति का सिर चपटा है, क्योंकि इसकी मां ने इसके सिर को काठ के पटे्ट पर बांधा होगा, जब यह छोटा होगा।
एक पूर्वाभास का सच होना-
इसके बाद अर्ल मौरिस ने, जिन्होंने दक्षिण पश्चिम अमेरिका में भी अनासाजी लोगों की खुदाई में बहुत काम किया था, यहां पर आकर काम किया। मौरिस जब मायानी व अनासाजी पुरातन मानकों की समानताओं को देख रहे थे तब उन्हें लगा कि मायानी चिचन इटजा नगरी का भी उन्हें अध्ययन वहां जाकर ही करना चहिए। इन दोनों में कई अंतर थे, तो कई समानताएं थीं। उन्हें याद था कि किवाज में दक्षिण पश्चिम में गढ़े हुए शंखों के व फिरोजे के अमूल्य आभूषण पाए गए थे। उनका विचार था कि ये चढ़ावे का सामान था जो किवाह में रखा था। क्या मायानी भी ऐसा कुछ करते थे? कहीं इसके बारे में कुछ लिखा नहीं था। मगर जितना ही मौरिस इस विषय पर सोचते उन्हें प्रतीत होता था कि अवश्य ही मायानी मंदिरों में भी ईश्वर के चढ़ावे की वस्तुएं कहीं न कहीं छिपी हुई पाई जाएंगी। जो बर्तन कब्र में शवों के साथ रखे जाते थे, उनमें छेद करा हुआ होता। यह तरीका था उस बर्तन को मार डालने का जिससे वह दूसरी दुनियां में पहुंचने का लंबा सफर कर सके। सीधे हाथ को जो मरी हुई तश्तरी है एक मायान कब्र से निकली थी, तथा उल्टे हाथ की तरफ वाली प्लेट न्यू मेक्सिको की एक कब्र में पाई गई। चिचन इटजा में एक विशाल जगह पर एक मंदिर बना था। इसका नाम था योद्धाओं का मंदिर। मौरिस ने इस जगह को साफ करना, व खुदाई तथा मरम्मत करके फिर से बनाने का जिम्मा लिया। कुछ खुदाई
जो बर्तन कब्र में शवों के साथ रखे जाते थे। उनमें छेद किया हुआ होता था। यह तरीका था उस
बर्तन को मार डालने का जिससे वह दूसरी दुनिया में पहुंचने का लंबा सफर कर सके। चित्र (।) में जो मरी हई तश्तरी है एक मायानी कब्र से निकली थी, तथा चित्र (ठ) वाली तश्तरी न्यू मेक्सिको की एक कब्र में पाई गई।
योद्धाओं का मंदिर कुछ इस तरह का रहा होगा, जिसे मौरिस ने एक पेड़ों, घास फूस से ढंके ढेर के नीचे से खुदवाकर पाया।
करने पर पता चला कि वहां इस मंदिर के ठीक नीचे और गहराई में धंसा हुआ एक और भी मंदिर था, जो जरूर ही इससे भी प्राचीन रहा होगा।
मौरिस ने दोनों मंदिरों का काम पूरा करवाया, फिर उसने अपने विचार पर भी कार्य करने का निश्चय किया। उसे गढ़े हुए चढ़ावों की तलाश करनी थी। उसने अंदाज लगाया, मायानी लोगों ने अपने चढ़ावे कहां छिपाए होगे, वेदी में अथवा उसके आस-पास। योद्धाओं के मंदिर में कई वेदियां बनी थी। एक वेदी का निरीक्षण करने पर मौरिस ने देखा कि एक स्थान पर लाल पलस्तर हटा हुआ है और उस स्थान पर सफेद पलस्तर लगा दिया गया है। उसने इस वेदी को खुदवाया, पर सिर्फ एक टूटा बर्तन ही निकला, शायद चोर यहां पहले पहुंच चुके थे। मगर शायद चोरों को उस प्लास्तर को लाल रंग से पूरा ठीक करने का समय नहीं मिला, पर यह साबित था कि वेदियों में सामान था।
मौरिस उत्साहित हो गया, निरीक्षण करने पर उसने देखा अन्य दोनों वेदियों में भी छेद बनाए जा चुके थे। किसी न किसी वजह से ऊपर वाले मंदिर से चढ़ावें जा चुके थे।
मायानी इंडियन धार्मिक उत्सव व
क्रियाओं में भी बहुत समय लगाते थे। जाहिर है कि जब वे इस सब में इतना समय लगाते थे तो उन्हें खाना बनाने की चीजें अनाज वगैरह शायद नहीं उगानी पड़ती थी। फिर ये खाने का क्या इंतजाम करते थे?
अब उसके नीचे वाले मंदिर के फर्श की जांच शुरू की गई। एक छोटी कुदाली से हरेक पत्थर की सिल्ली पर चोट करके उसकी आवाज ध्यान से सुनी जाती। सभी जगह तकरीबन एक-सी आवाज, सिवा एक शिला के, और अब कुदाली से उस पर कई हल्के प्रहार किए गए तो वहां एक छिद्र दिखाई दिया। फर्श के पत्थर के नीचे एक घड़ा रखा था। जिसमें से मौरिस को एक बहुत बढ़िया गोला, चमकता हुआ मिला, जिस पर अच्छी तरह पॉलिश की गई होगी। शायद पुरातन जमाने के पुजारी इस गोल गेंद का इस्तेमाल भविष्य बताने को करते होंगे, जैसे कि आज के समय में दिव्यदर्शी स्फटिक की सहायता से भविष्य ज्ञान देते हैं। उस पर पत्थर के घड़े में इस चमकती बॉल के पास कुछ मोती व जेवरात रखे थे और तली में एक सुंदर नीले रंग की प्लेट रखी थी। यह प्लेट 3,000 छोटे-छोटे फिरोजों को एक साथ जमाकर बनाई गई थी, ऐसी अदभुत् व सुंदर चीज अभी तक मायानी मंदिरों में नहीं मिली थी। मौरिस का अंदाजा, जो कि उसने इंडियंस के तौर-तरीके के हिसाब से लगाया था, बिलकुल सही रहा और एक अचंभित करने वाली खोज हो गई।
मनुष्य द्वारा बनाए गए पहाड़-
वह छोटा मंदिर जो मायानी लोगों के योद्धाओं के मंदिर के नीचे पाया गया, अपने किस्म का अकेला नहीं था। पुरातत्वेत्ताओं को ऐसी जगह बार-बार मिली। पूरी बड़ी इमारत एक साथ बनाने की उनकी रीति अनोखी थी, पर इससे भी अनोखी चीज थी उन पहाड़ों का निर्माण जहां ये मंदिर बने थे। इंसानों ने हाथों से उठाकर ये ऊंची मिट्टी इकट्ठी की थी। बिना किसी गाड़ी या जानवरों की सहायता के आदमी, औरतें, बच्चे ढोकर, खेंचकर यह विपुल हजारों टन मिट्टी व पत्थर ऊपर ले गए होंगे। जब यह मनुष्य निर्मित पहाड़ बनकर तैयार हुआ तो यह पिरामिड-सा दिखता था, जिस पर बहुत बड़े आकार की सीढ़िंया बनी होती तथा चोटी का हिस्सा समतल रखा जाता। फिर पलस्तर या लेप लगाकर एकसार करा जाता, फिर वास्तु शिल्पी, तथा कारीगर इसके समतल शिखर पर चूना-पत्थर के ब्लॉक, यानि भू-खंड काटकर तैयार करते व मंदिर का निर्माण कार्य होता। तुम खुद ही सोच सकते हो इसमें कितना समय लगा होगा। हर साल हजारों मायानी महीनों यह काम करते, तब एक मंदिर की पूर्ण इमारत तैयार होती। मायानी इंडियन धार्मिक उत्सव व क्रियाओं में भी बहुत समय लगाते थे। जाहिर है कि जब वे इस सब में इतना समय लगाते थे तो उन्हें खाना बनाने की चीजें, अनाज वगैरह शायद नहीं उगानी पड़ती थी। फिर ये खाने का क्या इंतजाम करते थे? सिर्फ तीन महीने मेहनत करने पर मकई इनको आसानी से उपलब्ध हो जाती थी। अगर कुछ ज्यादा मकई बोई जाती तो अपने कुनबे के अलावा पुजारियों को भी ये लोग आसानी से खिला-पिला सकते थे। उष्ण-प्रदेशीय मौसम उपज के लिए बहुत अच्छा था। अगर
यह बड़ा भारी पत्थर का चक्र समान गोला क्या है, आगे देखो- माान गेद का खेल-एक कठोर रबर
की गेंद को इस गोले में से पार करनी होती थी, सिर्फ कोहनियों, घुटनों या पैरों से मारकर, बिना हाथ लाए।
बीज सही समय पर डाल दिए जाते तो अच्छी फसल आराम से तैयार हो जाती और जनता के पास अन्य कार्य करने को बहुत समय बचा रहता। वे पुरोहितों के बताए अनुसार धार्मिक क्रियाओं को करते। खूब समय लगाकर बहुत से मंदिर बने क्योंकि बहुत से देवता थे। उन्होंने बड़ी अच्छी चौड़ी सड़कें भी बनाई थी जिन पर तीर्थयात्री एक शहर से दूसरे शहर जाते थे। उन्होंने पुरोहितों व अन्य कुलीन, प्रभावशाली लोगों के लिए भी घर बनाए, और ऊंची दीवारों वाले प्रांगण बनाए जहां वह बास्केट बॉल की तरह का गेंद का खेल धार्मिक उत्सवों पर खेलते थे।
किसी अनजान वजह से मायानी लोग कुछ समय तक एक शहर में रहते थे, फिर घर मंदिर सब खंडहर हो जाते। एक के बाद एक यह विशाल, सुंदर इमारतें खाली रह जाती। जंगली वनस्पति, पेड़ों व बेलों के नीचे टिकाल, जहां बहुत लोग रहते थे बिलकुल दब गया था। ऐसा क्यों?
पुरातत्वेत्ता अभी इसका उत्तर नहीं ढूंढ पाए हैं। कुछ का विचार है कि शुरू में किसान एक शहर के बाहर पेड़ व जंगल साफ करके अपने कुनबे के लायक खेत तैयार कर लेते थे। कभी-कभी सूखे
घास-पात जला देते थे। फिर इन खेतों में हर साल फसल उग जाती थी, धीरे-धीरे भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण होती जाती। खाद न मिलने से फसल कम होती, पर मायानी लोगों को खाद का ज्ञान नहीं था। वे यहीं जानते थे कि नई साफ की हुई जगह पर फसल अच्छी उगती है। जब शहर के पास के खेत पुराने हो जाते वे, और दूर के नए जंगल साफ करते और फिर वहां कई साल काम करते। ऐसा करते-करते उनके खेत घरों से बहुत दूर हो जाते और अन्ततः पुरोहित खेतों के पास नए मंदिर बनवाते। कुछ पुरातत्वेत्ताओं का विचार इससे भिन्न है। वे सोचते हैं कि शहर खंडहर होने का कारण वहां की जनता का विद्रोह रहा होगा। जनता ने अत्याधिक काम से तंग होकर पुजारियों का तख्ता पलट दिया होगा, और मंदिरों को छोड़कर चले गए होंगे। तब यहां इन विशाल खाली इमारतों में जंगल, पेड़, लताए उग आए होंगे। अवश्यक ही जनसाधारण का जिम्मा होगा कि पुरोहितों की जरूरतें व आराम के सामान का इंतजाम किया जाए। उन्हें इसके लिए कठिन श्रम भी करना पड़ता था। हो सकता है उन्होंने आपस में बातचीत की हो और सोचा हो कि यह ऊंचा स्थान व सुविधाएं पुरोहितों को देने की कोई तुक नहीं बनती। मायानी शहर के शासक ने स्पेन के वैज्ञानिकों को बताया कि वह अपनी प्रजा को सदैव बहुत अधिक काम करने को देता रहता है जिससे कि उन्हें सोचने, समझने या विद्रोह करने के लिए कोई योजना बनाने का समय न मिले। इस विचार से मायानी लोगों के रहन-सहन पर प्रकाश पड़ता है। शायद उन्हें व्यस्त रखना ही इन मंदिरों के उपर मंदिर बनाने का कारण रहा होगा क्योंकि नीचे के मंदिर की हालत भी अच्छी ही थी। जो भी हो, यह बात पक्की है कि मायानी धर्म बहुत जटिल था। पुरोहित बहुत ज्ञानी भी थे और बहुत शक्तिशाली शासक थे। वह दिन महीनों, व वर्षों का हिसाब रखते थे। इसकी खास वजह यह थी कि मकई के बीज सही समय पर डालने से फसल अच्छी होती थी और वर्षा ऋतु का पूरा लाभ उठाया जा सकता था। उन्होंने सूर्य व तारों का भी अध्ययन किया और प्रति वर्ष बरसात कब शुरू होगी इसका वह अनुमान लगा लेते थे। इसी खोज के आधार पर उन्होंने केलेंडर बनाया था। समय का महत्व उन्हें समझ आता जा रहा था। उन्होंने समय को प्रति 20 वर्ष के हिसाब से गिनना शुरू किया। यह मायानी धर्म का एक अंग बन गया कि हर 20 वर्ष बाद पत्थर के सुंदर खुदाई का काम करे हुए निशान चिह्न बनाए जाएं। ये कभी-कभी हर दस या पांच वर्ष पर भी लगाए जाते थे। मायानी लोग समय की पूजा करते थे, तथा उसका बीतना उन्हें बुरा लगता था।
सांकेतिक भाषा को समझना-
धीरे-धीरे विशेषज्ञों ने मयानी लोगों के आकारों, नमूनों को समझना व इनके अर्थ निकालने शुरू किए। ये नमूने ग्लिफस कहलाते हैं, प्रत्येक ग्लिफ एक चित्र होता है जो एक संख्या, शब्द या एक अक्षर बताता है (चीनी लोग इसी प्रकार के शब्द के लिए एक नमूना बनाते हैं) पुरातत्वेत्ता इनकी संख्या के चित्र समझ गए हैं। वे मायानी तारीखें पढ़ कर इन खंबों पर जो निशान चिह्न है उनके अनुसार उनका क्रम बना सकते हैं। टिकाल एक सबसे शुरू में बसा शहर या, अति प्राचीन, व चिचन इटजा आखिरी था, सबसे ‘नया’। वे कब कहां कितने साल या दिन रहे, अब समझा जा सकता है। लेकिन विशेषज्ञों में अब भी मतभेद है कि मयानी सभ्यता किस समय की थी।
गोताखोरों को क्या मिला- आज भी माया इंडियंस की जमीन में नए अचंभे मिलते रहते हैं जैसे अवेनडानो को 1955 में अनोखी इमारत मिली थी।
एक गोताखोर अमाटीटलान नामक झील के तली तक पहुंचा अच्छी मछली पकड़ने के स्थान की खोज में, और इस गुनगुने पानी की झील से वह एक मायानी पानी भरने का जार, निकाल कर लाया।
सबसे बड़ा जो मायानी नंबर मिला है वह हमारी संख्या में है 400,000,000
वर्ष है।
जैसे कि हम लोग अंकों को दो तरह से लिख सकते हैं, ऐसे ही मायानी लोग कभी बुंदियों व
रेखाओं से संख्या लिखते थे, कभी ‘सिर’ के नंबरों द्वारा अंक बताये जाते थे। उनके 19 अलग-अलग ‘सिर’ थे नंबर बताने वाले और एक सिर जीरो, शून्य का चिह्न था।
उसे व उसके दोस्तों को अच्छा लगा व आश्चर्य हुआ। उन्होंने और तलहटी तक चक्कर लगाए और 500 जार, कई आकृतियां एवं कई सुगंधी जलाने के उपकरण बाहर निकाले। इस नए खजाने ने पुरातत्वेत्ताओं को फिर से नई मीमांसा व खोज करने को उत्साहित किया। ताज्जुब था कि प्यालियां अच्छी तरह से एक के अंदर एक करके रखी मिली। सुगंधी पानी में नहीं जल सकती फिर उसे जलाने वाले स्टेंड या उपकरण वहां पर क्यों थे? इस झील पर अभी काम जारी है। इस झील तक शायद वे लोग आए होंगे, जैसे कि वे पवित्र कुएं चीचन इटजा पर गए थे और भगवान को चढ़ावे अर्पण करे होगें। यह वाकई एक खास जगह रही होगी। इसके किनारे के पास गर्म पानी के फव्वारे से उठते हैं, कभी-कभी पानी इतना तेज गर्म होता है कि उसमें डाल कर अंडा उबला जा सकता है। इस झील के पास ही एक जीवित ज्वालामुखी खड़ा है, पिछले पांच सौ सालों में यह कई बार फूटा है। ऐसी जगह पर हो सकता है कि झील का जल स्तर घटता बढ़ता रहता हो। हो सकता है जब झील का पानी नीचा हो तो उसके किनारे प्यालियां रखी गई हो, धूपबत्ती जलाई गई हो, इस रहस्यमई जगह के भगवान् को प्रसन्न करने के
इस तरीके से मायानी वर्ष के 19 महीनों के नाम लिखते थे।
लिए। बाद में पानी बढ़ जाने पर ये सब चीजें झील के अंदर चली गई होंगी।
अमाटीटलान (Amatitlan) तथा आस-पास की झीलें व कुएं अभी भी अपने में बहुत से रहस्य समेटे हुए हैं। चिचन इटजा से करीब 75 मील एक जगह है, जिसका नाम जिब इल चल टून (DiZbilchaltun) है। यहां के एक कुंऐ से जो खजाना गोताखोरों ने निकाला है उसमें स्वर्ण तो नहीं है, मगर इससे बहुत-सी जानकारी उस शहर के बारे में मिल रही है जो किसी जमाने में इस कुएं के चारों ओर बसा हुआ था। यह एक बहुत बड़ा शहर था, और लगता है कि ये मायानियों के शुरू में बसाए शहरों में से एक था। मगर पुरातत्वेत्ता आश्चर्य में हैं कि यह इतना पुराना शहर यहां कैसे निकल आया, क्योंकि यहां अधिकतर बाद के बसे हुए नगर हैं।
ऐसा लगता है कि मायानी इंडियंस की जानकारी के लिए अभी बहुत से पुरातन वैज्ञानिकों को बहुत और काम करना होगा, तभी रहस्य पूरे खुलेंगे, व प्रश्नों के सही उत्तर मिलेंगे।
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पुरातत्व ज्ञान व तुम-
फ्रैंक कुशिंग जब नौ साल का था तो मजदूरों के साथ अपने पिता के खेत में चला गया। जहां गुड़ाई की जा रही थी। इन मजदूरों ने फ्रेंक को एक चीज दिखाई जो जमीन खोदते, उलटते-पलटते उन्हें मिली थी। "यह तो तीर का नुकीला भाग है, इसे इंडियंस ने बनाया होगा, फ्रैंक ने कहा।"
फ्रैंक के मन को वह चमकीला, ठंडा व तेज नोक वाला चकमक पत्थर का तराशा हुआ टुकड़ा भा गया। उसी समय से उसे जब भी समय मिलता वह इंडियन द्वारा छोड़े गए पुराने अवशेषों की खोज में रहता। पश्चिमी न्यूयौर्क में जहां वह रहता था, ऐसे भग्नावशेषों की कमी न थी। जब तक वह चौदह साल का हुआ उसके पास इन पुराने स्मृति चिह्नों का एक अच्छा, कई सौ चीजों का खजाना इकट्ठा हो गया था। जब गर्मियां आई तब उसने एक तंबू लगाया जहां उसका अनुमान था खुदाई में कुछ और सामान निकलेगा। जब फ्रैंक खुदाई कर रहा था तब वह सोच रहा था कि इंडियंस ने ये कठोर चकमक पत्थर के और लावा कांच के तीर शीर्ष कैसे बनाए होंगे? उस समय न तो न्यूयौर्क के उस भाग में, बल्कि सारी दुनिया में फ्रैंक के सवालों का जवाब किसी के पास नहीं था। यह 1871 की की गर्मियों की बात है। वह समझ गया कि अपने मन में उठे प्रश्नों के उत्तर उसे स्वयं ही ढूंढने होगे और उसने यह काम करने की ठान ली।
क्योंकि मामूली शीशा भी लावा-कांच या चकमक पत्थर की तरह ही होता है इसलिए उसने प्रथम प्रयोग टूटी बोतलों व टूटी प्लेटों के टुकड़ों से किया। उसने हथौड़ी से मारकर व धीरे-धीरे उन्हें आकार देना शुरू किया और काफी प्रयत्न के बाद उसने तीर शीर्ष जैसा उपकरण बना डाला, मगर उसके शीशे के नुकीले तीरों के सिरे इतने अच्छे नहीं थे जैसे इंडियंस के बनाए हुए थे। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इसका कारण क्या है। फ्रैंक ने सोचा कि कुछ और बनाकर देखना चाहिए। उसे एक कांटेदार बर्छी (हारपून) मिला जो हड्डी का बना था और उसने उसकी नकल बनाने की कोशिश की। क्योंकि हड्डी मिलनी मुश्किल थी उसने अपने टूथ ब्रश के हेंडल का प्रयोग किया। वह उन्हीं औजारों का इस्तेमाल करना चाहता था जिनका इंडियंस करते थे, अतः उसने वह कड़ा चकमक पत्थर लिया। इसने अच्छा काम किया जब उसने इसे आगे पीछे इस प्रकार चलाया जैसे आरे से लकड़ी काटने में करते हैं। मगर जब पत्थर से खुरचने की चेष्टा की तो बेकार रहा। बल्कि पत्थर के हल्के छोटे टुकड़े ही टूटने लगे। यह ताज्जुब की बात थी कि मुलायम टुथ ब्रश उस कड़े पत्थर तो तोड़ रहा था। फ्रैंक को इससे प्रेरणा मिली और उसने टूथ ब्रश से कठोर चकमक पत्थर को पतले टुकड़े निकालकर आकार दिया। हथौड़े की बनिस्बत इससे काम बेहतर हो रहा था। शायद इंडियंस का एक राज उसने समझ लिया था। अब उसकी रुचि इस काम में बहुत बढ़ गई थी और धीरे-धीरे वह इंडियंस की जानकारी रखने वाला विशेषज्ञ बन गया। उसकी यह मंशा जो सिर्फ नौ साल की उम्र में शुरू हुई थी, जब पहले तीर शीर्ष उसने देखे थे, उसे इस क्षेत्र में बहुत आगे ले गई और इसी में उसने अपना जीवन अर्पित किया। इसी तरह की चीजों और लड़के व लड़कियों के साथ भी हुई। जब जूलियों टैलो दस वर्ष का था तब इत्तफाक से उसे कुछ असाधारण खोपड़ियां देखने का मौका मिला जो कि पेरु देश की पुरानी कब्रों से आई थीं। इन खोपड़ियों में बड़ी सफाई से छेद बने हुए थे, जैसे किसी ने जानबूझकर हड्डी को काटा हो। और फिर मालूम हुआ कि सचमुच ही इंडियन शल्य चिकित्सक उस पुरातन समय में भी, धारदार पत्थर के औजारों की मदद से शल्य क्रिया (औपरेशन) किया करते थे। क्या वे कोई बेहोश करने की दवा भी जानते थे? कम-से-कम दर्द कम करने की दवा तो वे जानते ही थे।
शायद वे सम्मोहन विद्या जानते थे और मरीजों को सम्मोहन की अवस्था में ले जाते थे, जिससे उन्हें दर्द महसूस न हो। जूलियों ने इन खोपड़ियों को बड़े ताज्जुब, जोश व गर्व से देखा, वह स्वयं भी एक पेरुवियन इंडियन था, क्या यह होशियार डॉक्टर उसके पूर्वज होगें? उसने सोच लिया कि यहां रहने वाले पूर्व निवासियों के बारे में वह जानकारी हासिल करेगा, और वह सफल भी हुआ। वह एक मशहूर पुरातत्वेत्ता बना जिसने पेरु में रहने वाले आदिवासियों के बारे में बहुत-सी खोजें की।
सबसे छोटा पुरातत्व ज्ञानी- अर्ल मौरिस केवल साड़े तीन साल का था जब उसने एक प्रागैतिहासिक काल की कब्र की खुदाई की। हुआ यूं कि अर्ल का परिवार एक लकड़ी के बने घर में खंडहरों के समीप ही न्यू मेक्सिको में रहता था। उसके पिता अक्सर खोद कर कभी बर्तन, कभी कुछ औजार निकालते थे जो गायब हो गए लोग वहां छोड़ गए थे। अर्ल, किसी भी छोटे बच्चे की तरह पिता का हाथ बटाना चाहता था। अतः उसे भी एक छोटी-सी खुरपी दे दी गई। जोश के साथ अर्ल ने एक जोरदार प्रहार किया और तुंरत ही एक सुंदर सफेद व काला कड़छुल नजर आ गया। उसकी खुशी भरी किलकारी सुनकर तुंरत उसकी मां चौके का काम छोड़कर भागी हुई आई, उनके हाथ में अभी भी चौके का चाकू था, जिसे जल्दी में वे हाथ में ही लिए चली आई थीं। फिर मां व बेटे ने मिलकर धीरे-धीरे उस कड़छुल के चारों ओर की मिट्टी ढीली की, खुरपी व चाकू की सहायता से, और फिर वहां पर एक अस्थि-पंजर भी निकला, जिसके साथ वह कड़छुल गाढ़ा गया था। उसी दिन से अर्ल मौरिस जान गया कि जीवन में वह क्या करना चाहता है। जब वह 63 वर्ष का एक मशहूर विशेषज्ञ था इंडियंन अमेरिकनस की खोज करने वाला, उस समय वह बड़े गौरव से कहा करता था कि मैं 60 साल से एक पुरातत्वेत्ता हूं।
(1) चकमक पत्थर से चाकू या तीर शीर्ष बनाने के लिए इंडियंस पहले इस कठोर मगर झुरमुरे पत्थर पर सधे हुए वार करते जिससे इसके टुकड़े टूट जाते।
(2) इन टुकड़ों को वे हथौड़े से हल्के-हल्के मारकर किनारों को सुव्यवस्थित करते।
(3) कभी-कभी वह हिरण की हड्डियों अथवा उसके सींगों से बनाई हुई बेधनी का भी प्रयोग करते थे। इस पत्थर का आकार सही करने के लिए।
(4) अंतिम चरण में आकार व धार देने के लिए जोर-जोर से दबा कर ही काम किया जाता था न कि हथोड़े या बेधनी की मार से। एक हाथ में, नीचे कोई गद्दीदार तह रखकर उसके उपर वह पत्थर का टुकड़ा रखा जाता जिस पर काम करना है। इससे हथेली पर घाव नहीं होता था। दूसरे हाथ में हिरण की हड्डी या सींग का बना औजार होता था। इस औजार को वह सही जगह पर बार-बार दबाता था, पूरे हिस्से में जहां धार बनाने की जरूरत होती थी। इस क्रिया से कुछ भुरभुरे पत्थर के कण धीरे-धीरे निकलते जाते और वह किनारा धारदार बनता जाता।
एक होशियार व अभ्यस्त कारीगर एक तीर शीर्ष इस क्रिया द्वारा केवल 15 मिनट में तैयार कर लेता था। चेतावनी- अगर तुम यह प्रयोग करना चाहो तो आंखों पर बचाव करने वाले काले चश्में पहनों, एक छोटा-सा कण भी यदि भुरभुरे पत्थर का आंख में चला जाए तो भारी नुकसान कर, तकलीफ दे सकता है।
जल्दी-जल्दी करो-
जब फ्रैंक कुशिंग एक बालक था उस समय तक कोई भी कहीं भी खुदाई कर सकता था। और जितनी चाहे खंडहरों में से प्राचीन वस्तुएं निकाल कर रख सकता था। उस समय तक पुरातत्व विज्ञान नाम की कोई शाखा पढ़ाई में नहीं थी, किसी पुरातन सामान की कोई कीमत या महत्व नहीं था। कुशिंग के समान लोगों ने ही इस प्राचीन खजाने की महत्ता को उबारा, उन्हें स्वयं भी बाद में इस बात का बहुत अफसोस रहा कि शुरू-शुरू में कितनी लापरवाही से उन्होंने खुदाई की, व वस्तुओं को रखा। बहुत-सा सामान तो उन्होंने फैंक दिया, जो बहुत कुछ ज्ञान बढ़ा सकता था। जैसे कि जले हुए कोयले के टुकड़े। कौन सोच सकता था किये कोयला भी एक अदभुत साधन है, और इसमें परमाणवीय घड़ी समय बता रही है? अब अमेरिका में खुदाई करने को बहुत कम स्थान बचे हैं। वैज्ञानिक इन जगहों के बारे में पूरी जानकारी चाहते हैं और इसीलिए अब बिना विशेषज्ञ को साथ लिए कोई भी खुदाई नहीं कर सकता। इसका मतलब यह नहीं कि जिन लोगों को इस कार्य में रुचि है वे भी न करे, वैज्ञानिकों को सबकी सहायता चाहिए, परंतु चौकस होकर काम करें। अगर यह अभी नहीं किया गया तो फिर देर हो जाएगी।
यह बड़े ताज्जुब की बात है कि खंडहर व मिश्रित गड़ा हुआ सामान जो सैकड़ों सालों से ऐसे ही पड़ा था अब अचानक हमारी आंखों के सामने गायब हो रहा है। अमरीका में ऐसा ही हो रहा है। इंडियंस ने अपने घर या पड़ाव ज्यादातर पानी के पास बनाए थे, नदियों या नहरों के पास। आजकल ज्यादातर नदियों पर बांध बनाए जाते हैं, और प्रत्येक मनुष्य के बनाए बांध के पास एक झील बन जाती है।
यह नदियों पर बांध बनाने की योजना अमरीका में सन् 1945 से शुरू हुई, जब पुरातत्वेत्ताओं को इसका पता चला तो वे बहुत दुखी हुए, क्योंकि 80% तक इंडियंस के जो पुराने वास थे उनपर इसका असर पड़ेगा और फिर यहां खुदाई संभव नहीं होगी। खुदाई करने वाले अपने फावड़े व कुदालें लेकर जल्दी-जल्दी काम कर रहे हैं, क्योंकि उधर बांध बनाने वाले बड़ी-बड़ी मशीनें लेकर निर्माण कार्य करने में
केलिफोर्निया के समुद्र तट पर गोताखोरों को, जिनमें बहुत से जवान लड़के भी थे, दजर्नों पत्थर की प्यालियां मिली, जिनके बारे में अभी तक विशेषज्ञ कुछ भी पता नहीं लगा सके है। लगे हुए हैं। खुशकिस्मती से इंजीनियरों ने सारे बांध एक साथ बनाने शुरू नहीं किये हैं। यदि पुरातन शोधकर्ता जल्दी-जल्दी अपना काम करें तो वे कम-से-कम महत्वपूर्ण स्थानों का कार्य तो पूर्ण कर सकते हैं।
पुरातत्वेत्ताओं ने बिल में रहने वाले जंतुओं की तरह खुदाई की और इस कठिन श्रम के फलस्वरूप उन्होंने करीबन चार करोड़ अवशेष बचा लिए, केवल 5 वर्ष के समय में, जो कि अन्यथा गुम हो जाते।
इस तरह की खुदाई को "अभी या कभी नहीं" नाम से जाना जाता है और इसमें केवल पुरातत्वेत्ता ही नहीं बल्कि अनेक लोग शौकिया तौर पर भी काम करते हैं। उदाहरण के तौर पर साऊथ डकोटा के शहर के मेयर (प्रमुख) जो अब अपनी कार्य अवधि समाप्त कर चुके हैं, को इस कार्य में दिलचस्पी हुई और उन्होंने अन्य वृद्ध लोगों को जो कार्यकाल पूर्ण होने पर अवकाशरत हैं इकट्ठा करके एक समूह बनाया। एक ठेकेदार, एक रेस्टोरेंट चलाने वाला, एक तेल कुंओं की खुदाई करनेवाला, और कई अन्य लोगों ने मिलकर मिसोरी नदी के तट पर खुदाई व खोज कार्य किया। यहां करीब 250 वर्ष पुराना इंडियंस का बसाया हुआ एक गांव मिला। इसे अरिकारा इंडियनंस ने बसाया था। इस सफलता से ये वृद्धजन बहुत ही प्रसन्न व उत्साहित हुए, उन्होंने खुदाई जारी रखी और उन्हें इस गांव के नीचे ही एक और गांव मिला जो कि चार सौ वर्ष पुराना था। सभी विशेषज्ञों ने इन अव्यावसायी शौकिया काम करने वालों की खोज व लगन को बहुत सराहा। बहुत-सी खोजें मध्य अमरीका के मैदानों में दूर-दूर बहती कई नदियों के पास भी हुई। इन मैदानी इलाकों में रहने वाले प्राचीन मानवों के विषय में कई नई खबरें आने लगी। वो इंडियंस जो कि किसान थे, न कि शिकारी।
ये मैदान में रहने वाले लोग घर पर ही रहा करते थे, इनके घर आधे जमीन के अंदर धंसे हुए होते थे और ऊपर मिट्टी पत्थरों से ढंके होते थे। फिर यहां स्पेन के लोग अपने घोड़ों सहित आए। घोड़ों के आने से यहां का रहने का ढंग बदलने लगा। ये लोग अब अपने जमीन के मजबूत घर छोड़कर घुम्मकड़ प्रवृति के हो गए। यह अब खाल के टीपीज, टेंट की तरह के आवासों में रहते जिन्हें आसानी से इधर-उधर ले जाया जा सकता था। पुरातत्वेत्ता अब इन नदियों के बारे में, निवासियों की जानकारी हासिल कर रहे हैं, झीलों के बनने से पहले खुदाई जारी है। कुदालों से नाजुक खुदाई वहां भी हो रही हे जहां गैस कंपनियों द्वारा लंबी-लंबी पाइप लाइनें डाली जा रही है। एक जगह जब गड्ढे खोदने वाली मशीनों द्वारा काम शुरू होने वाला था। चार समूहों में पुरातत्वेत्ता पैदल न्यू मेक्सिको से वाशिंगटन तक खोजते व तथ्य ढूंढते हुए गए। उन्हें एक नहीं दो चक्कर लगाए। उन्होंने 1500 किलोमीटर का रास्ता मुख्य पाइप के साथ का व 1500 किलोमीटर पाइप की शाखाओं के फैलाव के हिस्से का बारीकी से मुआयना किया। उन्हें बहुत कीमती जानकारी मिली। महत्वपूर्ण स्थानों पर कार्यकर्ताओं की मदद से उन्होंने जगह-जगह खुदाई करवाई और अपने 3000 किलोमीटर के दूसरे चक्कर में उन्होंने हर खुदाई किये गये स्थान की दीवारों का निरीक्षण किया। इन जगहों पर पुरातन मानव के विषय में उन्होंने पृथ्वी क नीचे छिपी जानकारी को हासिल करने की कोशिश की।
इस लंबे सफर में, पद यात्रा में उन्हें 122 ऐसे स्थान मिल जो कि पुरातत्व ज्ञान के लिए महत्वपूर्ण थे, ये पहले किसी ने नहीं देखे थे और अब आगे भी कोई देख नहीं पाएगा, क्योंकि अब इन ऐतिहासिक स्थानों में बांध बन गए हैं और पाइप लाइनें बिछ गईं हैं।
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