प्राची - फरवरी 2017 / कहानी / कलह / ललन तिवारी

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कहानी कलह ललन तिवारी परिचय जन्म : 1 जुलाई, 1954 को बिहार प्रांत के रोहतास जिलान्तर्गत सदोखर गांव में. 1972 से बोकारो इस्पात संय...

कहानी

कलह

ललन तिवारी

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परिचय

जन्म : 1 जुलाई, 1954 को बिहार प्रांत के रोहतास जिलान्तर्गत सदोखर गांव में. 1972 से बोकारो इस्पात संयंत्र में कार्यरत. 2014 में सेवानिवृत्त.

प्रकाशन : तीन कहानी संग्रह, पांच कविता संग्रह, तीन नाटक प्रकाशित. दो नाटक और दो कहानी संग्रह प्रकाश्य.

अन्य : हंस, वर्तमान साहित्य, कथाक्रम, अक्षर पर्व, आजकल, नया पथ, परिकथा, उद्भावना, कतार, विपक्ष, उत्तरा, साहित्य अमृत, संवेद वाराणसी, पल प्रतिपल, विपाशा, निशांत, आदि पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित.

पता : विमर्श,6 , बी-ब्लॉक, ए-बी रोड, रामनगर कॉलोनी, चास, बोकारो-827013 (झारखंड)

मो. 9470972093 ई-मेलः l.tiwari.bokaro@gmail.com

‘‘बचाओ-बचाओ...प्लीज हेल्प मी. दरवाजा खोलो प्लीज...बेबी! साधना! स्वीटी! यह मुझे जान से मार डालेगा...बचाओ-बचाओ.’’

रात के चार बजे एक नारी की आर्त्त-पुकार ने मुझे सोते से जगा दिया.

यह कौन हो सकती है? यह तो पढ़ी-लिखी महिला का आर्त्तकंठ है. वह भी बिल्कुल पास का. मैं यहाँ किसी को जानता नहीं. मैं खुद बेटा-बहू का मेहमान था एक सप्ताह से. इस बिल्डिंग के सारे फ्लैट्स बंगाली-उड़िया, मद्रासी छोकरों से भरे हैं. स्त्री-दर्शन तो किसी-किसी में. बाकी में ताले.

‘‘हेल्प मी....’’ का स्वर अभी भी आ रहा था. दरवाजा पीटा जा रहा था.

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मैं आंदोलित हुआ. दरवाजा खोलकर बाहर आया. पूरा बरामदा लोगों से भरा था. साधना, बेबी, स्वीटी निरपेक्ष भाव से खड़ी दिखीं.

‘‘पकड़ो-पकड़ो भागने नहीं पाए.’’ मैंने ललकारा. मुझे चोरी की शंका हुई. उसके माल-असबाब को चोर उठा ले गये होंगे. चोरी के दौरान महिला की नींद खुली होगी. चोरों से उलझ गयी होगी. उसका पीछा किया होगा. उसे पकड़ने में असमर्थ, मदद के लिए पुकार रही है. मैं ही कौन जवान था जो चोर को पकड़ लेता दौड़कर. वह घटना बिल्डिंग के तीसरे और अंतिम माले की थी. पास पहुँचा तो एक पुरुष को उस महिला से उलझा हुआ पाया.

‘‘पकड़ो-पकड़ो भागने नहीं पाए.’’ पुनः ललकारा. पर, दर्शकों में न कोई हलचल देखी न ही गरमी.

‘‘मैं चोर को पकड़ने के लिए कह रहा हूँ और आपलोग तमाशा देख रहे हैं?’’

किसी में सुगबुगाहट नहीं. खटका हुआ, ‘लगता है यह ‘चोर-छिनार’ की बात नहीं है. मामला कुछ दूसरा है. पुरुष-महिला के बीच हाथापायी के बावजूद वे मूर्तिवत् तमाशा देख रहे हैं.’

‘‘अंकल हेल्प मी, यह मुझे पीट रहा है.’’ महिला ने मुझे उकसाया.

मैं उसका कॉलर पकड़ने ही वाला था कि पुरुष मेरी तरफ पलटा-

‘‘अंकल प्लीज, इस विवाद में मत पड़िए. यह आपस का मामला है।’’

‘‘आपस का...?’’ मैं ठिठक गया, ‘इसीलिए साले पड़ोसी नहीं छुड़ा रहे हैं.’ मैंने मन में कहा.

मैंने दोनों को ध्यान से देखा. दोनों पढ़े-लिखे संभ्रांत. चेहरा-मोहरा सुंदर. गोरा-नाजुक-सौम्य. उम्र पैंतीस-चालीस के आस-पास. पुरुष शर्ट-पैंट, जूते में. महिला स्लीपिंग ड्रेस में. बिना बाँह वाली बंडी. घुटने तक ढीली पैंट. बाल बिखरा-बिखरा. यानी अस्त-व्यस्त चेहरा. किन्तु, दोनों की लड़ाई देख, मन स्थिर नहीं हो पा रहा था, न ही धारणा स्पष्ट.

सबसे पहले मैंने पुरुष को उसकी बाँह पकड़ कर अलग किया.

‘‘आपको जो भी कहना हो महिला की बाँह छोड़कर. इतने लोगों के बीच इनका हाथ पकड़ना शोभा नहीं देती.’’ मैंने उसे झिड़कते हुए कहा. वह मान गया.

दोनों पसीना-पसीना. गले सूख गए थे. मुख आरक्त. महिला बार-बार पुरुष पर पीटने का आरोप लगाती. शरीर पर उभरे नख-चिह्नों को दिखाती. स्त्री-बदन की ताक-झाँक कितना करता सो सरसरी दृष्टि से ही देखा.

‘‘प्लीज अंकल! आप चले जाइए. सी इज माई वाइफ.’’

मुझे गुस्सा आ गया, ‘‘आप पति-पत्नी हैं और सरेआम मारपीट? चलिए घर के अन्दर. आपस का मामला घर में निपटाया जाता है न कि रोड पर?...और, झगड़ने के लिए रात ही मिली थी? वह भी तीन बजे? दिन भर क्या कर रहे थे? सबकी नींद हराम करके रखी है. अपनी उम्र भी देखिए.’’

मैंने दोनों को घर के अन्दर ठेला. वहाँ भी झाँव-झाँव. झगड़ने का सूत्र पकड़ में नहीं आ रहा था. जैसे कोई तबला-झाल बेमेल बज रहा हो अथवा खाली टीन में कंकड़ डाल कर हिलाया जा रहा हो.

‘‘देखिए, आपलोग इस तरह लड़िएगा तो कोई व्यक्ति पास नहीं बैठेगा. झगड़ने के लिए छोड़ देगा. दोनों के हाथ में लाठी-डंडा थमा देगा.’’

दोनों चुप होकर बिल्ली-बिलाव की तरह खूंखार चेहरा बनाए बैठ गए. झगड़े की वज़ह जानने में सबसे बड़ी समस्या भाषा की थी. वे एक ही साथ हिन्दी-मराठी-अँग्रेजी का प्रयोग करते. पल्ले कुछ नहीं पड़ता.

‘‘मैं आप दोनों की बात समझ नहीं पा रहा हूँ, कृपया

धीरे-धीरे बोलें.’’ मैंने निवेदन किया.

‘‘देखिए, देखिए अंकल! इसने सारा सामान फेंक दिया. पंखा तोड़ दिया. परदा फाड़ दिया. पेलमेट गिरा दिया...अन्दर आकर देखिए अंकल.’’

महिला मेरी बाँह पकड़कर दिखाने लगी. वे अन्दर थे. मैं दरवाजे पर खड़ा था. वह महिला मुझे अन्दर खींचने लगी. मुझे झिझक हुई. किसी का नैतिक अधिकार नहीं कि किसी महिला के बेडरूम में जाकर तहकीकात करे. और, वह बार-बार आग्रह...द्रोपदी के आर्त्तनाद सुनकर कृष्ण को द्वारिका से बिना जूते-चप्पल के दौड़कर आना पड़ा था. मैं ड्राइंग रूम में भी नहीं? मेरे वहाँ पहुँचते-पहुँचते पुरुष ने कमाल दिखा दिया था. वह उसे बेड पर पटक कर शेर जैसा सवार हो गया था. और चुपके से महिला का मोबाइल अपनी पैंट की जेब में डाल चुका था. किसी परपुरुष के सामने पति-पत्नी का उस तरह का झगड़ा कभी देखा नहीं था. मुझे पुरुष की बाँह पकड़ कर खींचना पड़ा. तभी महिला पुरुष की चंगुल से मुक्त हो पायी थी.

‘‘प्लीज अंकल, पुलिस को खबर कीजिए. या तो यह मेरी जान ले लेगा अथवा अपनी जान दे देगा. थोड़ी देर पहले यह रेलिंग से लटक रहा था. बाँंह पकड़कर खींच लायी हूँ. कृपया इसको भगाइए यहाँ से.’’ महिला ने कहा.

उस मियाँ-बीवी के झगड़े में साठ बरस का अंकल भला क्या करता? कितना बीच-बचाव? फिर दोनों बेडरूम की ओर भागे. वहाँ भी झब्बा-झुटी. वहाँ से दोनों को खींच कर ड्राइंगरूम में लाया. दोनों को बैठाया. दोनों चुप थे. अभी तरकस खाली नहीं हुआ था. किंतु, वे युवा थे और गुस्से की रौ में बहे जा रहे थे. वे शांत भले थे पर भीतर ज्वालामुखी था जो पत्थर से ढँका था. बीच-बीच में गर्मी का दबाव; ढक्कन उठक-बैठक कर रहा था.

मैंने महिला से ही शुरुआत की कि वह अपना प्रॉब्लम सुनाए. वह कुछ कहती, पुरुष बीच में कूद जाता. उसके वाक्यान्शों को सिर पर उठा लेता. पुरुष कुछ कहता, महिला बीच में. इस तरह बिल्ली-बिलाव का झाँव-झाँव. मुझे बार-बार हस्तक्षेप करना पड़ता. एक तो तीन वर्षीय मेरे पोते ने रात बारह बजे तक जगाए रखा. हर दस मिनट पर ‘गुड-नाइट दादा, गुड नाइट दादा’ कहता रहा. दूसरा कष्ट इन मियाँ-बीवी के कारण जिन्होंने चार बजे से ही जगा कर रखा था. आँखों में नींद की हिलोरों के कारण मन चिड़चिड़ाया हुआ था. ऊपर से इन दोनों का द्वन्द्व जैसे राम की ‘शक्ति पूजा’ का सस्वर पाठ हो रहा था. शब्दों में युद्ध चल रहा था. बाण से बाण, प्रत्यंचा से प्रत्यंचा की टंकार...कान फटे जा रहे थे.

‘‘अंकल, सी इज माई वाइफ.’’ पुरुष ने कहा.

‘‘यानी यू आर हर हसबैंड?’’ मैंने पूछा.

‘‘राइट सर!’’

‘‘यह वाइफ-हसबैंड का झगड़ा शाम तक होता है कि एक नींद सोकर रात के तीन बजे से?’’

‘‘सॉरी अंकल.’’ पुरुष ने क्षमा मांगी.

‘‘सॉरी अंकल कहकर सबकी नींद लौटा देंगे?’’ मैंने सरोश पूछा.

‘‘सॉरी अंकल.’’ पुरुष सटक गया.

मैं महिला की ओर अभिमुख हुआ, ‘‘यह आपके हसबैंड हैं?’’

महिला के कंठ में थूक अंटक गया.

‘‘यह आपके पति हैं?...मींस योर हसबैंड?’’ दूबारा पूछा.

‘‘हाँ अंकल. हम पति-पत्नी ही हैं. वाइफ-हसबैंड.’’

‘‘यह स्वीकार करने में संकोच क्यों हो रहा था?’’

वे पति-पत्नी थे, यह स्वीकारना महिला के मुँह से जरूरी था. वरना कभी भी पलट सकती थी. यानी वह पति-पत्नी का मामला था. उनकी पंचायत हो सकती थी. मैंने जज की तरह अपने को स्थापित किया. उन्हें सामान्य करने के लिए इधर-

उधर की चर्चा में उलझाया.

‘‘पति-पत्नी तो हम भी हैं. दिन में झगड़ते हैं और रात में मुँह फुलाकर सोते हैं. तीन दिन मौन व्रत के बाद राधा का मनौवल. बाँह पकड़ते ही गोद में समा जाती. और, एक आप लोग हैं. दिन में मौन व्रत, रात में महाभारत. युद्ध रात में नहीं, दिन में करने का विधान है...यह काम दिन में ही निपटा लिया कीजिए.’’

‘‘अंकल जी, हमदोनों एक साथ नहीं रहते?’’ महिला ने कहा.

‘‘मतलब?’’

‘‘अलग-अलग रहते हैं. यह तीन-चार महीने पर आता है.’’

‘‘तब तो और प्रेम बढ़ना चाहिए. तीन महीने पर हसबैंड घर आता है तो उसका स्वागत करना चाहिए प्रेम-संभाषण से, न कि...’’

‘‘अंकल, यह रात गुजारने के लिए नहीं...मारपीट करने आता है.’’ महिला बोली.

‘‘ना-ना-ना...यह गलत बात है.’’ मैंने पुरुष से पूछा, ‘‘हाँ जी, आप केवल झगड़ा करने आते हैं?’’

‘‘नहीं अंकल. इसकी गलत हरकतों के कारण ही. मैं कहता हूँ तुम मेरे साथ रहो. यह सुनती ही नहीं. यह स्वतंत्र रहना चाहती है अपने फ्रेंड्स के साथ.’’ पुरुष ने कहा.

पति-पत्नी के बीच फ्रेंड्स यानी ‘वो’. मामला गंभीर. और गुत्थी उलझ गयी. मैं महिला की देह टटोलने लगा. उस महिला को अधेड़ नहीं कहा जा सकता न ही पूर्ण यौवना. देह की चमड़ी सिकुड़ी नहीं थी. बालों में कपास की रेशें नहीं मिलीं. चेहरे का लुक-आऊट दुरुस्त. भौंहें तराशी गयी थीं. उस उम्र में भी टीन-एज का फैशन था. सारे वस्त्र ओछे. खुले गले की कुर्ती (बंडी) बिना बाँह वाली. आधी देह झाँक रही थी. घुटने के नीचे की टाँग झलक रही थी. मैंने पुरुष की ओर देखा, जो उस महिला के पागल होने का संकेत कर रहा था.

‘‘हाँ जी, आप हसबैंड के साथ नहीं रहती?’’ महिला से पूछा.

‘‘नहीं. यह सदैव झगड़ा करता है. घमंडी है.’’

‘‘आप कहाँ रहते हैं जी?’’ पुरुष से पूछा.

‘‘माँ-बाप के पास. यहीं मेरा अपना मकान है.’’

‘‘इसीलिए आरोप लगा रहे हैं कि यह अपने फ्रेंड्स के साथ रहती है?’’

‘‘हाँ.’’

‘‘तो उन्हें आने का मौका तो आप ही देते हैं. एक अकेली औरत को हजार मुसीबतें आती हैं. आप साथ रहते तो आपसे कहती न कि दूसरे पुरुष मित्रों से? अब जो सहयोग करेगा, आएगा ही.’’

‘‘वे गलत इरादे से आते हैं इसके इन्विटेशन पर.’’

‘‘उसका मौका भी आप ही देते हैं. इस युवा महिला की देह में भी खून-पानी है. गरमी और नेचुरल नीड्स हैं...क्या आपको स्त्री की जरूरत नहीं पड़ती?’’

‘‘इसकी कई लेडीज फ्रेंड्स हैं अंकल.’’ महिला ने पलटवार किया. उसे मौका मिला था.

आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया. उनका शब्दशः अर्थ समझ से परे था सिवा भावार्थ के. कुछ देर दोनों को झाँव-झाँव करने दिया. फिर मैं खड़ा हो गया, ‘‘आपलोग लड़िए मुझे जाने दीजिए.’’

महिला ने मेरी बाँह पकड़ ली.

‘‘प्लीज अंकल, थोड़ी देर बैठिए जब तक यह जाता नहीं.’’

मुझे बैठना पड़ा. मैंने पैर से सिर तक पुरुष को देखा. बाल तो काले थे पर सिर आधा गंजा. शरीर में युवा मर्द का कसाव नहीं. देह थुलथुल ऑफिस के बाबू माफिक सुकुमार. आँखों के नीचे झाँई.

‘‘पति-पत्नी के बीच बोलने का मुझे कोई हक नहीं. किन्तु, आरोप बेबुनियाद लगता है.’’

‘‘नहीं अंकल, मैं सच कह रही हूँ.’’

महिला के बाद पुरुष ने भी सच बोलने की दुहाई दी.

‘‘किंतु, मैं सहमत नहीं कि दोनों के अनेक मित्र होंगे. आप गुस्से में हैं. और प्रतिशोध ले रहे हैं. एक दूसरे पर गलत आरोप लगाकर. क्या इस महिला के साथ आपने किसी पुरुष को देखा है?’’

पुरुष के पास कोई जवाब नहीं था.

‘‘और, आपने किसी स्त्री को इस पुरुष के साथ?’’

महिला भी निरुत्तर थी. दोनों बगले झाँकने लगे.

‘‘किसी के चरित्र पर ऊँगली उठाना सहज है, प्रमाणित करना नहीं.’’ पुरुष से बोला, ‘‘मान लें इस महिला के कई पुरुष मित्र हैं तो इसमें आपत्ति क्यों?’’

‘‘यह मेरे खानदान एवं सोसाइटी की प्रतिष्ठा के खिलाफ़ है.’’

‘‘और आपका संबंध अन्य दूसरी महिलाओं से रहे तो?’’ पुरुष खलबला गया.

‘‘स्त्री की इज्जत पुरुषों से बड़ी है.’’ पुरुष ने कहा.

‘‘नहीं, पुरुषों ने अपनी प्रतिष्ठा स्त्रियों से जोड़ी है. वह तभी प्रतिष्ठित रहेगा, जब स्त्रियाँ पतिव्रता हों. इसीलिए उनपर बहुत सारी वर्जनाएँ लाद दी हैं और स्वयं सांड़ की तरह उन्मुक्त.’’

‘‘किन्तु, यह तो राजतंत्र से चला आ रहा है.’’

‘‘राजतंत्र में अनेक पत्नियों को रखने की प्रथा थी, न कि दासियों को पार्टनर बनाने की...अगर आप ऐसा करते हैं तो संभल जाइए...यह प्रजातंत्र है. समान कानून है स्त्री-पुरुष के लिए.’’

मैंने पुरुष को समझाया.

‘‘इसको यहाँ से हटाइए अंकल. प्राण देने-लेने लगेगा. आप नहीं भगा पाते हैं तो मैं पुलिस को बुलाती हूँ.’’ महिला ने कहा. मैंने स्त्री को डांटा जो बंदरी की तरह किटकिटा रही थी.

‘‘बिल्कुल ही पुलिस को फोन कर दीजिए. आप नहीं तो मैं ही कर देता हूँ. पुलिस आएगी, दोनों को थाना ले जाएगी. अलग-अलग सेल में बंद करेगी. बयान लेगी. कपड़ा उतरवाकर जख्मों के निशान देखेगी. अगर यह सब पसंद है तो तुरंत पुलिस को फोन कीजिए.’’ महिला सकपकायी.

‘‘हाँ-हाँ, बुलाओ पुलिस को.’’ पुरुष ने व्यंग्य से कहा.

‘‘यहाँ कोई पुलिस-दारोगा नहीं आएगा. मैं खुद ही जज-दारोगा हूँ. आप अपने झगड़े का अंत स्वयं करें.’’ दोनों निरुत्तर. दोनों के कंठ आहिस्ते-आहिस्ते खुले और झाँव-झाँव में बदल गए.

‘‘आप दोनों की शादी कब हुई थी?’’

‘‘उन्नीस सौ नब्बे (1990) में.’’ पुरुष ने बताया.

‘‘अलग-अलग कब हुए?’’

‘‘दो हजार बारह (2012) में.’’

‘‘यानी तीन साल से?’’

‘‘हाँ.’’

‘‘कोई बाल-बच्चा?’’

‘‘पन्द्रह साल का लड़का है.’’

‘‘कहाँ रहता है?’’

‘‘मेरे साथ.’’ पुरुष ने बताया.

महिला की ओर देखा- ‘‘यानी आपका बेटा भी आपके साथ नहीं रहता?’’

पुरुष उत्साहित हुआ.

‘‘जवाब दो, बेटा साथ क्यों नहीं रहता? पूछिए अंकलजी और पूछिए, बेटा साथ क्यों नहीं रहता?’’

‘‘क्योंकि ये लोग उसे रहने नहीं देते न ही मिलने. मैं चोरी-छुपे स्कूल में ही मिलने जाती हूँ.’’

‘‘आपने तो अपना हक़ खो दिया. कभी बेटे के लिए आपने पंचायत की थी? अपना हक़ मांगा था?’’

महिला चुप. वह आँसू पोंछने लगी.

‘‘कैसी विडंबना है कि माँ अपने बेटे से लुक-छिप कर मिलती है. आपने तो अपना पक्ष स्वयं ही कमजोर कर लिया. बेटा आपका ही है या किसी और का?’’

‘‘वह मेरी अपनी ही औलाद है.’’

‘‘फिर आपके साथ वह क्यों नहीं रहता कि पुत्र भार से भी मुक्त रहना चाहती हैं?’’ मैंने पूछा.

‘‘दादी उसकी आने नहीं देती. उसकी डिक्टेटरशिप चलती है.’’

‘‘तो आप ही चली जाती. वह भी तो आपका ही घर है.’’

‘‘वहाँ बहुत सारी पाबंदियाँ हैं.’’ महिला बोली.

‘‘यानी आपको पाबंदी पसंद नहीं. स्वतंत्र ख्यालातों की हैं ...किन्तु, आपके पिता ने उसी घर में आपकी शादी की होगी. दोनों के बीच सहमति होगी. फिर अचानक...!’’

महिला छटपटाने लगी. मैं पूछता रहा-

‘‘लव-मैरेज हुआ था या अरैंज्ड मैरेज?’’

‘‘दोनों. पहले लव मैरेज, बाद में अरैंज्ड. इसके पिता मेरे मामू भी लगते हैं.’’ पुरुष ने कहा.

‘‘इतना शुद्ध संबंधी, खानदानी परिचय, फिर अविश्वास क्यों? पन्द्रह साल ठीक-ठाक के बाद अचानक...?’’

‘‘इसकी बदचलनी के कारण. मेरे होते हुए भी दूसरे पुरुषों के साथ...’’

‘‘चुप रहिए. पुनः उसी लीक पर आ गए.’’ महिला से पूछा- ‘‘आप कहाँ की हैं?’’

‘‘नासिक की.’’

‘‘दोनों की भेंट कैसे हुई?’’

‘‘भेंट-मुलाकात तो बचपन से थी. पुणे पढ़ने आयी इंजीनियरिंग में तो...’’

‘‘...‘लव’ हो गया. लव हो गया तो शादी भी. यानी चट मंगनी पट ब्याह...तब दोनों में प्रेम था. चरित्रवान थे. सावित्री-सत्यवान थे. बच्चा पैदा किया तब तक सही-सलामत थे. बच्चा तेरह साल का हुआ, तो दोनों में बुरे लक्षण आ गए. संबंधों में दरार पैदा हो गयी. तिरसठ का आंकड़ा छत्तीस में बदल गया और अलग-अलग हो गए...यही न बात है?’’

दोनों ने ‘हाँ अंकल’ कहा और राम की शक्तिपूजा का सस्वर पाठ शुरू कर दिया. मैं सुस्ताने लगा. ‘लगे रहो मुन्ना भाई.’

मैंने महिला को देखा. सुबह की ठंड के कारण ठिठुरी हुई थी. रोंगटे खड़े थे. उसके ओछे ड्रेस में आधा शरीर जो खुला था.

‘‘देखिए, आपको ठंड लग रही है. शॉल तो ओढ़ लें. यह केस इतनी जल्दी सुलझने वाला नहीं. आपदोनों थक भी गए हैं. बैटरी रिचार्ज कर लीजिए.’’ मैंने कहा.

थोड़ी देर चुप्पी. कोई टस से मस नहीं हुआ.

‘‘आपके माता-पिता क्या करते हैं?’’ पुरुष से पूछा.

‘‘दे आर इन गर्वनमेंट जॉब. रिटायर होने में तीन साल बाकी हैं.’’

‘‘फादर पोल्टिशियन हैं.’’ महिला ने जोड़ा.

‘‘किस पार्टी के?’’

‘‘कांग्रेस...’’ महिला ने कहा.

‘‘अर्थात्, भालू के हाथ कुदाल.’’

‘‘ह्वाट?’’ उसे मुहावरा समझ में नहीं आया तो पूछा. मैंने उसे स्पष्ट करना चाहा-

‘‘आपके मम्मी-पापा धनी हैं और पोल्टिशियन भी. वहाँ इनकी जैसी महिला का क्या अस्तित्व होगा? इसलिए यह बगावत पर उतर आयी है. यहाँ सास-बहू का सीरियल काम कर रहा है. और, आपको माता-पिता के साथ रहने की मजबूरी है...आप कितने भाई हैं?’’

‘‘इकलौता हूँ.’’

‘‘इसलिए तो माँ-बाप के पक्ष में हैं. वरना जायदाद से बर्खास्त.’’ मैंने कहा.

पुरुष सकपकाया. महिला प्रसन्न.

‘‘सी इज डेंजरस अंकल.’’ महिला ने सास की आलोचना की.

‘‘सास डेंजरस हो सकती है, हसबैंड तो नहीं. फिर भी इन्हें जलील करती हैं. पकड़ने के लिए पुलिस बुलाती हैं, किन्तु यही आदमी आपके पास सात समन्दर पार कर आधी रात को आता है. कितना प्यार करता है आपको. तनिक इसका भी ख्याल कीजिए.’’ मैंने बताया.

‘‘नो अंकल! प्यार नहीं टॉर्चर करने आता है. इसके दिमाग का स्क्रू ढीला है. माँ जैसा कहती है, वैसा ही करता है.’’

‘‘कमाल की बात है. दोनों एक दूसरे को पागल बताते हैं. मेंटल हॉस्पिटल का सर्टिफिकेट दिखाएँगी तभी मैं मानूँगा कि कौन पागल है...’’

‘तू पागल’, ‘तू पागल’- कहते हुए पति-पत्नी भिड़ गए. महाभारत का दृश्य उपस्थित हो गया.

‘‘शांति-शांति-शांति.’’

‘‘इस तरह लड़ना है तो चाय पीकर लड़ें.’’ महिला से कहा- ‘‘या तो आप चाय बनाकर पिलाएँ अथवा मैं ही अपने घर से बनवा कर लाता हूँ. बिना चाय, झगड़ा सुनने में मजा नहीं आ रहा.’’

औरत टस से मस नहीं हुई. मैं जाने के लिए खड़ा हुआ. महिला बाँह पकड़कर लटक गयी.

‘‘प्लीज अंकल मत जाइए जब तक यह यहाँ है. नहीं तो इसे भी साथ लेते जाइए. यह मुझे डिस्टर्ब करेगा.’’ मुझे बैठना पड़ा.

इस बीच महिला अपना मोबाइल ढूँढ़ने लगी. मोबाइल नहीं मिला तो अपने पति से माँगा. पुरुष ने अनभिज्ञता प्रकट की जबकि मोबाइल उसी के पास था. वह मुझसे रिक्वेस्ट करने लगी कि दिलवा दूँ. पुरुष ने पुनः इंकार किया. उसने तो पत्नी के प्रेमियों का पता लगाने हेतु मोबाइल छीना था. दे कैसे!

महिला परेशान. इस बीच पुरुष ने बैग के साथ तीन-चार बार दरवाजे से बाहर-भीतर किया. मैं तो बुरी तरह फंस गया था. उनके झगड़े से मेरा कोई वास्ता नहीं था सिवा दिमाग चटवाने के.

उजाला होने को आया. मुझे ढूँढ़ती हुई मेरी श्रीमती पास आ गयीं. महिला प्रसन्न हुई कि एक बुजुर्ग महिला उसके पक्ष में आ गयी.

‘‘यह हल्ला क्यों हो रहा है?’’ मेरी श्रीमती ने पूछा.

कलह कथा का संक्षिप्तिकरण, महिला संतुष्ट नहीं हुई. उसने भानुमति का पिटारा खोल दिया. जहाँ भी सांस लेती अथवा गैप मिलता उसका पति घुस जाता. यानी वह कथा कहती तो पति ‘फिल्लर’ का काम करता. एक ही कहानी की रील दो-तीन बार घूम चुकी थी. बीच-बीच में ‘झाँव-झाँव’ नगाड़े की तरह होने लगता.

‘‘देखिए, हमलोग मेहमान हैं. आज न कल चले जाएँगे? इसलिए मिलजुल कर रहिए. पूरी जिंदगी बाकी है. यही हाल रहा तो दोनों कटकर मर जाएँगे. पुत्र भी बर्बाद होगा.’’

मेरी श्रीमती ने समझाया. मेरा बोझ हलका हुआ.

महिला बिफर पड़ी, ‘‘यह संभव नहीं है आंटी. मैं इसके साथ एक दिन भी चैन से नहीं रह पाऊँगी.’’

‘‘यह अपने यारों के साथ रहेगी.’’ पुरुष टुभक पड़ा.

‘‘आपको अकेला रहना पसंद है?’’

‘‘हाँ.’’ महिला ने कहा.

‘‘तो तलाक क्यों नहीं ले लेती?’’

‘‘यह पेपर तैयार करके लाएगा तो मैं साइन कर दूँगी.’’

‘‘और, नहीं लाया तो?’’ महिला मौन. मैं ताड़ गया.

‘‘यानी तलाक लेने की गरज केवल पति को ही है. आपकी नहीं?’’

‘‘नहीं, मेरी भी है.’’

‘‘तो कोर्ट में पेटिशन दीजिए. नोटिस जारी होगा तो खुद दौड़ने लगेगा.’’

‘‘मैं कोर्ट जाऊँगी.’’

‘‘आप कभी नहीं जाएँगी. केवल मुँह से कहती हैं.’’ पुरुष से पूछा, ‘‘आप तलाक लेंगे जी?’’

‘‘नहीं. मेरा कुल-खानदान कलंकित होगा. पिता का पोल्टिकल कैरियर चौपट होगा.’’

‘‘फिर झगड़ते क्यों हैं? बेचारी को वनवास कर दिया. सास-ससुर का बंगला छोड़ कर वन बी.एच.के. में रहने को मजबूर कर दिया.’’ श्रीमती ने पुरुष को झिड़का.

‘‘यह अपनी मर्जी से रहती है आंटी. किसी ने इसे भगाया नहीं. यहाँ दोस्त-यारों से मिलने की सुविधा जो है.’’

फिर उसी पुरानी पीच पर पुरुष दौड़ने लगा. महिला

विरोध करती. यानी झाँव-झाँव.

‘‘शांति-शांति-शांति.’’

‘‘आप न दाएँ चलने देती हैं न बाएँ. बार-बार पति पर मारने का आरोप लगाती हैं. यदि उसको मारना होता तो कब का मार चुका होता. उसके पास धन-बल है. अगर उसे आत्महत्या करनी होती तो कब का छलांग लगा देता. आत्मघाती मना करनेवाले की प्रतीक्षा नहीं करता.’’

मैंने महिला से कहा. पुरुष से पूछ डाला- ‘‘क्यों भाई, आत्महत्या करेंगे? यह पुण्य कार्य है. इसमें आपकी मदद करूँगा. कूद जाइए इस तीन तल्ले बिल्डिंग से.’’

‘‘मुझे कुत्ते ने काटा है कि आत्महत्या करुँ? अगर करना ही होगा तो किसी के चाहने से...?’’

‘‘सुन लिया आपने? आपके पतिदेव कभी आत्महत्या नहीं करेंगे. केवल डराते हैं. आप डरती तो हैं किन्तु मानती नहीं. कुछ सुनती नहीं. कितना प्यार करते हैं आपके पति; यह जानते हुए भी कि आपके अनेक पुरुष मित्र हैं...यह कितना बड़ा साहस है. कितना बड़ा त्याग. आपको पाने के लिए सारे आरोपों को खारिज कर दिया. दुर्गुणों को भुला दिया. और आप हैं कि खिसियानी बिल्ली की तरह...’’ मैंने उस महिला से कहा, और चालू रहा-

‘‘यह आपका पति है. दस बार इस दरवाजे से बाहर गया और अन्दर आया. यह क्यों करता है? आपको ले जाने के लिए. वह यहाँ अकेले में छोड़ना नहीं चाहता. आप उसकी पत्नी थी और आज भी हैं क्योंकि तलाक नहीं हुआ है...और, आप हैं कि उसे दुत्कार रही हैं...क्या यह चाकू लेकर आता है कि लठैत? बेचारा अकेले आता है पीठ पर एक बैग लेकर. उस पर भी फोन करके. वह भी आधी रात के बाद...आने पर आप दरवाजा खोलती हैं कि खिड़की से घुस जाता है?’’

‘‘नहीं, दरवाजा खोलती हूँ.’’

‘‘दरवाजा क्यों खोलती हैं? पुलिस को खबर करती...वह आता है तो आप स्वागत करती हैं...और भी कुछ होता होगा?’’

‘‘नहीं.’’ महिला बोली.

‘‘आप दोनों पति-पत्नी एक हैं. बाहर वालों को बेवकूफ बनाती हैं. सबकी नींद हराम करती हैं.’’

मैं जाने के लिए खड़ा हुआ. महिला मेरी श्रीमती का हाथ पकड़कर लटक गयी कि मैं न जाऊँ.

‘‘तो आप क्या चाहती हैं?’’ बैठते हुए मैंने महिला से पूछा.

‘‘शांति. विदाउट एनी डिस्टर्बेन्स.’’

‘‘यह तो निर्जन वन में, हिमालय या प्रशांत महासागर में ही संभव है. आप वहीं चले जाइए.’’

‘‘नहीं अंकल. मैं यहीं शांति से रहना चाहती हूँ. मुझे किसी की जरूरत नहीं. सास-ससुर, पुत्र, पति किसी की नहीं.’’

‘‘यानी, आजाद परिंदा?’’

‘‘हाँ.’’ महिला बोली.

‘‘फादर-मदर, ब्रदर-सिस्टर और फ्रेन्ड्स से भी दूर?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘यानी ससुराल वाले ही आपके दुश्मन हैं. राइट...तो ससुराल छोड़, कहीं भी जीवन निर्वाह हो सकता है? अगर हो सकता है तो वहीं चले जाइए. क्यों इस फजीहत में...’’ मैंने कहा. महिला चुप.

‘‘माँ-बाप बेटी की शादी कर निश्चिंत होना चाहते हैं न कि उसकी अंतहीन समस्या में शामिल. और, कोई सास-ससुर नहीं चाहेगा कि उसकी बहू-बेटी परिंदे की तरह बेलगाम घूमे. आजादी का मतलब स्वच्छंदता नहीं. बल्कि, सामाजिक मर्यादाओं के अंदर रहना है.’’

‘‘तो जुल्म का विरोध नहीं किया जाय?’’ महिला ने आवेश में कहा.

‘‘विरोध करें किन्तु स्वयं जुल्मी नहीं बनें. नारी-स्वतंत्रता यह नहीं कहती है कि सिर्फ अधिकारों के लिए लड़ें और कर्तव्य भूल जाएँ. परिवार के प्रति आपका कर्तव्य ही कहीं नजर नहीं आ रहा. इसीलिए आपके एकाकी संघर्ष में कहीं दृढ़ता नहीं है. न ही आप प्रेम की परिभाषा समझ रही हैं. बिना समर्पण व प्रेम आप अपनी लड़ाई जीत नहीं सकतीं.’’

जहाँ महिला सकपकायी, पुरुष प्रसन्न नजर आया. दोनों लड़ते-झगड़ते थक चुके थे. शीत युद्ध सम पर आ गया था. सुबह के छह. पुरुष ने अपना बैग उठाया. पीठ पर लटकाया और सीढ़ियाँ उतर गया. इस बार वह वापस नहीं लौटा. महिला ने झाँककर देखा. वह आश्वस्त थी कि वह चला गया था.

‘‘अब आप खुश हैं न?’’

‘‘हाँ, अंकल! रात दो बजे से ही टेंशन में रखा था.’’

‘‘किंतु, मैं नहीं. आपने उसे बैरंग लौटा दिया. उसके तन-मन का स्पर्श नहीं किया. उसे जलील ही किया. आप बिल्कुल व्यावहारिक नहीं हैं. आपके पत्थर दिल में प्रेम-करुणा और क्षमा का भाव नहीं. यू चेंज योरसेल्फ.’’

हम पति-पत्नी अपने घर लौट आए.

आधा घंटा बाद महिला उपस्थित हुई. बेटा-बहू जग गए थे. चाय बन रही थी. महिला सामने की कुर्सी पर बैठ गयी. वह फ्रेश होकर आयी थी. कपड़ा चेंजकर. वही बिना बाँह वाली टी-शर्ट. घुटने तक पैंट. हाई हील की चप्पल. नार्मल मेकअप. दो शूटकेस और हाथ में मोबाइल. वह परेशान थी. मोबाइल में व्यस्त.

‘‘इसी मोबाइल के लिए न शोर मचाया था आपने?’’

‘‘नहीं अंकल! यह दूसरा मोबाइल है. यहाँ दो-तीन मोबाइल रखती हूँ. वह जब भी आता है; पहला हमला मोबाइल पर करता है और मोबाइल छीन ले जाता है.’’ महिला ने लट सुलझाते हुए कहा.

मैंने उस महिला को आपादमस्तक देखा. वह अपने घर में ताला लगाकर आयी थी. किसी गर्लफ्रेंड को बुलाया था, जिसकी प्रतीक्षा थी. वह बार-बार, घड़ी देखती और रेलिंग से नीचे हुलक आती.

‘‘चाय पीजिए.’’ प्याला थमाते हुए बहू ने कहा. उसके केस में बहू-बेटा किसी की रुचि नहीं थी.

‘‘आप घर जाएँगी या मित्र के घर?’’

‘‘पहले मित्र के घर, बाद में माँ के घर नासिक.’’

‘‘और, वे खुश होंगे. तेरा स्वागत करेंगे. दुनिया भर की आजादी दे देंगे. और कहेंगे, जा बेटी जा. आजाद परिंदे की तरह घूमो. घाट-घाट का पानी पिओ और अपने घर-परिवार की उपेक्षा करो.’’

मैंने महिला से कहा. महिला चुप. उसे कोई उत्तर नहीं सूझा.

‘‘जैसे उड़ि जहाज का पंछी, पुनि जहाज पर आवै... आपका केन्द्र व ठिकाना वह ससुराल है. आप भटक गयी हैं. इसके लिए सास को दोषी मानती हैं. कल आप भी तो सास बनेंगी? अगर आपकी बहू स्वच्छंद होकर रहे. घर-परिवार से पंगा ले तो आपको अच्छा लगेगा?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘आपकी सास अपनी परंपरा हो जुड़ी हैं. सब पर लगाम रखना चाहती है कि उच्छृंखल न रहे. सास भी अपनी सास से यही सीखी होंगी और यही आपको सिखाना चाहती हैं जिसे आपको मंजूर नहीं. बगावत कर रही हैं. आज आप स्वस्थ हैं. अपने पैरों पर खड़ी हैं, इसलिए मचल रही हैं. क्रांति कर रही हैं. कल कुछ हो गया तो कौन देखभाल करेगा? तेरे माँ-बाप कल नहीं रहेंगे तो तुझे कौन पूछेगा? क्या तेरा भाई तेरी सेवा करेगा?...नहीं, नहीं करेगा. मैं लिख कर देता हूँ. जब भी सेवा करेगा, तेरा पति. यह पुरुष प्रधान समाज है. अंततः पुरुषों पर ही निर्भर होना पड़ेगा. और, पुरुष सामाजिक नियमों के अधीन ही चलेगा...अपना बुरा-भला सोच कर ही कहीं जाएंगी. जल्दबाजी का काम शैतान का. यही मेरी अंतिम सलाह है.’’

मैंने अपनी आँखें मूँद लीं. वह महिला सोच में पड़ गयी.

मैं मॉर्निंग वाक करके घंटा भर बाद लौटा तो वह महिला जा चुकी थी. उसके घर का ताला खुला हुआ था. मैंने राहत की सांस ली.

‘‘अरे बाप, वह फिर आ गया.’’

बहू ने बरामदे से नीचे हुलक कर देखा. मैंने भी देखा. सड़क पर वह पुरुष नजर आया. इसके पीछे एक उम्रदराज महिला. छह फीट लंबी. रोबदार चेहरा. जिसके पीछे ड्राइवर, गार्ड. शायद उसकी सास थी. जब वह दलबल के साथ ऊपर आयी, इस महिला को माथे पर चुन्नी रखकर उसके पाँव छूते हुए देखा. अब पुनः पंचायत होगी और मैं बुलाया जाऊँगा. इस भय से ‘अनुलोम-विलोम’ करने लगा.

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रचनाकार: प्राची - फरवरी 2017 / कहानी / कलह / ललन तिवारी
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