अशोक गौतम का व्यंग्य - आईने, चेहरे और चरित्र

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आईनों को स्वर्गलोक में जन्म देने के आश्वासन के बाद भी जो उनका जन्म मृत्युलोक में हुआ तो कुछ दिन तक तो वे बहुत दुखी रहे, पर फिर सब भुला मजे...

आईनों को स्वर्गलोक में जन्म देने के आश्वासन के बाद भी जो उनका जन्म मृत्युलोक में हुआ तो कुछ दिन तक तो वे बहुत दुखी रहे, पर फिर सब भुला मजे करने लगे। यहां की यार बात ही कुछ और है! तब उन्हें लगा कि भगवान जो भी करता है अच्छे के लिए ही करता है। उनके जन्म लेते ही जो भी आता उनके सामने सजने को खड़ा हो जाता तो उन्हें अपने एकाधिकार पर गर्व होता।

अब तो जब भी देखो , जिसे भी देखो, जहां भी देखो, जिस वक्त भी देखो, जिसको मौका लगता, उनके सामने सजने- संवरने के लिए गुनगुनाता हुआ खड़ा हो जाता । गंजा आता तो वह उनके सामने खड़ा हो अपने सिर पर गुगुनाता हुआ कंघी करने लग जाता। श्याममवर्णी आता तो वह उनके सामने खड़ा हो पाउडर की लेअर पर लेअर चढ़ाता। तब वे हर चेहरे को चेहरे वाले की आंखों से भी अधिक गौर से ताकते, हर चेहरे में मुस्कुराते हुए झांकते।

शुरू- शुरू में तो आईनों को अपने सामने हर किसीको सजते देखना अच्छा लगता। आठ पहर चैबीसों घंटे यह सब होता देख तब आईनों को सजने वालों पर बहुत हंसी भी आती। गधे कहीं के! आईनों ने गलती से जन्म ले ही ले लिया तो इसका मतलब यह तो नहीं कि.....पर वे फिर भी चुप ही रहते। असल में उन्हें भी अपने सामने खड़े करवा लोगों को सजते- सवंरते देखने की बीमारी सी कुछ हो गई थी।

पर बहुत जल्दी ही वे अपने सामने हर किसीको का सजने आने से देखते- देखते तंग आ गए। उन्हें लगा कि वे सबको अपने सामने खड़ा कर सबको सजने का मौका तो दे रहे हैं, पर उन्हें अपने सजने- संवरने के लिए समय नहीं मिल रहा। उनके आगे सज धज कर आदमी आदमी को यों ठगने निकलता है कि मत पूछो......

और एक दिन हर चेहरे में ताक - झांक करते जब आईने ऊब गए तो उन्हें आदमी के चेहरे से नफरत होने लगी। कुछ-कुछ गुस्से तो वे तबसे ही थे जब उन्हें मृत्युलोक में जन्मने को विवश किया गया था। स्वर्गलोक में जन्म लेते तो कम से कम टूटते तो नहीं। टूटते तो मरते तो नहीं। अजर- अमर रहते। पर वहां अप्सराओं, देवों, गंधर्वों को उनकी जरूरत न थी।

अब जिस भी आईने को देखो , जिस घर में भी देखो ,बस एक ही शिकायत- हम सबको हर वक्त सजने के द्वार खुले रखते हैं, पर हमें खुद को सजने का मौका ही नहीं मिलता। आदमी में तो आदमी में , अब गधों तक में सौंदर्यबोध के प्रति इतनी जागरूकता बढ़ गई है कि वे आईनों के सामने से हटने का नाम ही नहीं लेते। किसीको पूरा आईना न मिले तो न सही, जहां आईने का टूटा टुकड़ा भी मिल गया, वहीं लग गए उसमें अपने को निहारने, संवारने।

देखते ही देखते आईनों के समाज में खुसर- फुसर शुरू हुई और एक दिन अचानक वह भयंकर आक्रोश का रूप धारण कर गई। कुछ समझदार आईनों ने लोकतंत्र में वोटों के महत्व को जानते हुए अखिल समाज आईना संघ बना डाला। आईनों को इतने बरसों से समाज के घर- बाहर रहते पता चल गया था कि लोकतंत्र में बिना संघ, परिसंघ के मुक्ति संभव नहीं। समाज में अपने अधिकारों के लिए लड़ने हेतु विचार नहीं, एका होना जरूरी है। इसीलिए, चोर, डाकुओं, रिश्वतखोरों ने भी अब अपने- अपने स्वतंत्र संघ बना लिए हैं ताकि अपने नाजायज अधिकारों के लिए सरकार पर प्रेशर बना सकें। संघ द्वारा रिवाजानुसार सरकार को नोटिस दिया गया तो सरकार ने बिन नोटिस पढ़े ही उसे हलके में लेते सोचा कि शायद वे भी आरक्षण की मांग कर रहे होंगे। जब चेहरों को आरक्षण तो आईनों को क्यों नहीं? आरक्षण इस देश में सबका जन्मसिद्ध अधिकार है।

अखिल भारतीय समाज आईना संघ की हंगामी बैठक में इसी के साथ यह भी तय हुआ कि वे खुद बिन सजे समाज को सजने- संवरने का मौका देते- देते पूरी तरह से टूट गए हैं। अब उनका समाज हद से अधिक दुरूपयोग करने लग गया है। सजा-संवरा आदमी बाहर से दिखता कुछ और है , और असल में होता कुछ और है।
तो??

बड़े विचार- विमर्श के बाद तमाम आईनों ने एकमत निर्णय लिया कि रात के बारह बजे के बाद आईने आदमी को उसका चेहरा नहीं, उसका चरित्र बताएंगे ताकि अदंर बाहर से वह एक सा हो सके। अपने चेहरे की बजाय वह अपने चरित्र की शुद्धि के बारे में भी सोचे और उसे भी बेकार के लोगों से मुक्ति मिले।

ज्यों ही अखबारों में अखिल भारतीय समाज आईना संघ की यह खबर छपी तो समाज में हड़बड़ी मच गई। चेहरे वाला तो चेहरे वाला चेहरा, चरित्र वाला चेहरा तक परेशान हो उठा। अगर सच्ची को आईनों ने उनके सामने खड़े होने वाले को उसका चरित्र दिखा दिया तो??? आदमी इस धरती का वह इकलौता जीव है जो हर चीज देखना चाहता है पर अपना चरित्र नहीं।

जगह -जगह आईना संघ के इस फैसले का समाज में घोर विरोध हुआ। रास्ते जाम हो गए। सरकारी गाड़ियों के चक्के जाम हो गए। स्कूल - कालेज बंद हो गए। हर किस्म के चेहरे खाना- पीना छोड़ आईनों के विरोध में नंगे पांव सड़कों पर उतर आए। जगह- जगह देश के संभ्रांत नागरिकों द्वारा सरकार को ज्ञापन सौंपे जाने लगे कि आईना संघ से उनके इस निर्णय को वापस लेने को दवाब बनाया जाए। यह देश के चरित्र को सीधी चुनौती है।

पर सरकार हर बार की तरह अबके भी बीच के रास्ते पर चलती रही। उसे समाज के चरित्रों से अधिक अपने वोटों की चिंता थी। उसके एक फैसले से जो अखिल भारतीय आईना संघ नाराज हो गया तो??? देश जले तो जले। बंद हो तो होता रहे। हम पहले हैं। देश बाद में। जबसे देश में लोकतंत्र की स्थापना हुई है आईनों तो आईनों, मरे हुओं वोटों तक की जीत दिलवाने में अहम भूमिका हो गई है।
अंत में वही हुआ जो होता आया है।

......जो भी प्रयोग के तौर पर हिम्मत कर आईने के सामने खड़ा होता, उसे अपने चेहरे के बदले अपना चरित्र आईने में दिखता तो वह आईने को गालियां देता अपना चेहरा नोचने लग जाता। आए दिन होने वाली इन घटनाओं के कारण सड़क पर अपने द्वारा नुचे हुए चेहरे ही बहुधा दिखने लगे।

आखिर मन मसोस कर सरकार ने जनहित में चेतावनी जारी की,’ देश के तमाम तबके के चेहरों को सूचित किया जाता है कि वे आईने के सामने आने से बचें। आईनों ने देश के तमाम चेहरों के विरूद्ध उनका चेहरा सजाने के बदले उनके चरित्र को दिखाने की जो मुहिम छेड़ी है ,वह राष्टर विरोधी है। सरकार अखिल समाज आईना संघ के इस निर्णय की हद से अधिक निंदा करती है। जनता से निवेदन है कि जब तक सरकार की आईनों से वार्ता सफल नहीं हो जाती , वे आईनों से बचे , धैर्य और संयम बनाएं रखे। अपने घर के हर उस आईने के मुंह पर कालिख पोत दें, जिनमें चरित्र दिखने की संभावना प्रबल हो।’

अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड़,
नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन.173212 हि. प्र.

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अशोक गौतम का व्यंग्य - आईने, चेहरे और चरित्र
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