वैसे तो भामह, दण्डी, उद्भट आदि अलंकारवादियों ने यह बात बलपूर्वक या स्पष्टरूप से नहीं कही है कि अलंकार काव्य की आत्मा होते हैं। लेकिन इन आ...
वैसे तो भामह, दण्डी, उद्भट आदि अलंकारवादियों ने यह बात बलपूर्वक या स्पष्टरूप से नहीं कही है कि अलंकार काव्य की आत्मा होते हैं। लेकिन इन आचार्यों की कुछ मान्यताएं ऐसी अवश्य रही हैं, जिनके आधार पर अलंकार को काव्य का सर्वस्व एवं अनिवार्य तत्त्व स्वीकार किया गया है। इसी बात का सहारा लेकर कुछ अलंकारवादियों ने यह कहना प्रारम्भ कर दिया कि अलंकार काव्य की आत्मा होता है।
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भामह के अनुसार-‘‘ अलंकार काव्य का एक आभूषण तत्त्व होता है। जिसके रूपकादि अलंकार काव्य में इस प्रकार आवश्यक हैं, जिस प्रकार किसी नारी का सुन्दर मुख भी आभूषणों के बिना शोभित नहीं होता है।’’ [1]
दण्डी कहते हैं-‘‘काव्य शोभा करान् धर्मान् अलंकारने प्रचक्षते’ अर्थात् काव्य-शोभा को धर्म के अलंकार द्वारा ही आलोकित किया जा सकता है।
उद्भट ने रस को भी अलंकारों की सीमा में बांधते हुए कहा कि- ‘रस वछर्शित स्पष्ट शृंगारादि रसादमय्, स्वशब्द स्थायी संचारी विभावाभिमी नयास्पदम्’ अर्थात् जहां स्वशब्द स्थायी, संचारी, विभाव तथा अभिनय के सहारे शृंगारादि नाट्य रस स्पष्ट होते हैं वहां रसवद्अलंकार होता है।
भामह, दण्डी और उद्भट की उल्लेखित मान्यताओं के आधार पर इतना तो स्पष्ट है कि अलंकार काव्य को शोभायमान बनाते हैं। पर यह शोभा काव्य के स्थल, वाह्य रूप, अर्थात् शिल्पपक्ष की शेाभा है। इसलिये अलंकारों की आत्मतत्त्व के रूप में स्थापना संदिग्ध है। जहां तक ‘रसवत् अलंकार’ की बात है तो इस बारे में डॉ. राकेश गुप्त का यह कथन दृष्टव्य है-‘‘अलंकारवादी आचार्यों [ भामह, दण्डी, उद्भट ] ने भरत के आठ नाट्य-रसों को ‘रसवत्’ नाम के अलंकार में समेट कर एक ओर रस के महत्व को कम किया तो दूसरी ओर अलंकार की व्यापकता को बढ़ाकर समस्त काव्य को उसकी परिधि में समेटने का प्रयास किया। जैसा कि मम्मट की काव्य परिभाषा से स्पष्ट है कि अलंकार के बिना भी श्रेष्ठ कविता हो सकती है। पर इसके साथ ही यह भी प्रमाणित है कि केवल अलंकार के बल पर भी श्रेष्ठ कविता होती है। दण्डी द्वारा अलंकार को ‘काव्य शोभाकर धर्म’ कहना थोड़ा भ्रामक है क्योंकि अलंकार कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे कविता से पृथक करके देखा जा सके। अलंकार और अलंकार्य का भेद, जिसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बड़ा महत्व दिया है निराधार और निरर्थक है। ‘बिन पद चलै सुनई बिनु काना, कर बिनु करम करइ विधि नाना’, में से विभावना अलंकार को तथा ‘जिन कें रखी भावना जैसी, प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी’ में से ‘उल्लेख अलंकार’ को निकाल देने पर ऐसा क्या बचा रहता है, जिसे अलंकार्य या कविता कहा जा सके। इसी प्रकार निम्नांकित छंदों में से क्रमशः विरोधाभास और यमक अलंकारों के चमत्कार को हटा देने पर जो अलंकार्य बचेगा उसे कविता कहना कठिन है-
बंदउ मुनि पद कंज रामायन जेहि निरमयऊ
सखर सुकोमल मंजु, दोष रहित दूषन रहित
कनक कनक ते सो गुनी मादकता अधिकाय
वा खाये बौरात नर, या पाये बौराय।
इस प्रकार यह सिद्ध है कि अलंकार एक काव्यांग अवश्य है, काव्य का अनिवार्य तत्त्व नहीं। दंडी के इस कथन में किस समस्त अलंकार रस निषेचन के लिये है, रस शब्द भरत के आठ नाटय रसों का पर्याय न होकर काव्यस्वाद का पर्याय है।’’
डॉ. राकेश गुप्त के कथन से स्पष्ट है कि अलंकार एक काव्यांग के रूप में तो स्वीकार किया जा सकता है न कि काव्य का कोई अनिवार्य तत्त्व। लेकिन डॉ. गुप्त का यह कथन अन्तर्विरोधों को भी दर्शाता है। एक तरफ तो डॉ. गुप्त यह स्वीकारते हैं कि अलंकार के बिना श्रेष्ठ कविता हो सकती है, दूसरी तरफ उनका यह भी कहना है कि केवल अलंकार के बल पर भी श्रेष्ठ कविता होती है।
यदि अलंकार के बल पर ही कविता श्रेष्ठ हो सकती है तो ऐसी स्थिति में अलंकार आत्मतत्त्व के रूप में प्रतिष्ठित नहीं हो जाता? ‘‘बिन पद चलै खुनै बिनु काना, कर बिनु करम करे विधि नाना’’ में से विभावना अलंकार को निकाल देने के बाद क्या ऐसा कुछ बचा नहीं रह जाता जिसे कविता कहा जाये? पैरों से चलने, कानों से सुनने, हाथों से नाना प्रकार के कर्म करने में क्या इस गत्यात्मक ऊर्जा के माध्यम से श्रेष्ठ कविता तक नहीं पहुंचा जा सकता? मुख्य तथ्य तो यह है कि आत्म रूप को प्रस्तुत करने के लिये इस कविता में अलंकार को लाया गया है, जिसके माध्यम से विधि का अद्भुत और अलौकिक कर्म प्रकट होता है। कवि की दृष्टि भी इसी पर ही है। इसी प्रकार उल्लेख अलंकार की सार्थकता भी दोष दूषन रहित उस रूप को प्रकट करने में है जो सृजन का नियामक है। इसी कारण वह श्रद्धेय और वंदनीय है।’’ श्रद्धेय और वंदनीय रूप को प्रस्तुत करने के संदर्भ में यहां उल्लेख अलंकार मात्र साधन है, साध्य तो वह आत्मरूप है जिसकी ‘रागात्मक चेतनता’ सृजनात्मकता, सुकोमलता और कृपा में अन्तर्निहित है।
‘कनक, कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय, जा खाये बौरात नर, या पाये बौराय’’ से कनक को अगर कनक से अलग करके भी देखा जाय तो इन दोनों वस्तुओं का नर को बौरा देने का गुणधर्म समाप्त नहीं हो जाता। कवि ने बात को एक ही शब्द के दो बार प्रयोग से कविता में जो चमत्मकार पैदा किया है, इस चमत्कार का मूल प्रयोजन दोनों के मादक स्वरूप को एक साथ दर्शाना है। अतः यहां भी ‘यमक’ आत्मतत्त्व न होकर गौण तत्त्व ही है। कुल मिलाकर अलंकार काव्य के आत्म रूप के प्रस्तुत करने का एक तरीका-भर है, जिसे डॉ. राकेश गुप्त ‘काव्यांग’ मानते हैं। अगर डॉ. राकेश गुप्त द्वारा उल्लेखित कविताओं से इसी आत्मरूप की निकाल दिया जाये तो निस्संदेह यह अलंकार निर्जीव हो जायेंगे और इनकी सार्थकता व्यर्थ। अतः डॉ. गुप्त का यह कथन कि-‘अलंकार के बल पर भी श्रेष्ठ कविता होती है’ प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। इस बात को निम्न उदाहरण देकर स्पष्ट किया जा सकता है।
‘‘मेरी तरनी को तारौ तारनहार
ए फंसि गयी भव सागर भंवर में
लोककवि रामचरन गुप्त की इन पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार है और इस अनुप्रास के माध्यम से कवि ने ईश्वर से भंवर में फंसी हुई नाव को तट तक पहुंचाने की ईश्वर से प्रार्थना की है। क्योंकि कवि वह मानता है कि प्रभु ही इस कार्य को कर सकते हैं क्योंकि वे पहले ‘‘ऐसा करते आये हैं’। यहां देखें तो प्रभु के आत्मरूप को प्रकट करने के लिये ‘जो ‘सत्योन्मुखी रागात्मकता’ से युक्त है, जिसमें दीनों पर दया का रूप संकटग्रस्त को संकट से उबारने की क्षमता विद्यमान है, अनुप्रास अलंकार का प्रयोग किया है। इसी बात को कोई दूसरा कवि इस प्रकार भी कह सकता है-
मेरी नैया फंसी भंवर में
प्रभु जी पार लगाओ
इस कविता में अलंकार का कोई सहारा नहीं लिया गया है, किन्तु क्या इसके कविता होने पर शंका की जा सकती है?
कहने का तात्पर्य यह है कि अलंकार तो मात्र कविता के आत्मरूप को व्यक्त करने में सहायक होते हैं। अतः अलंकारों की आत्म रूप में प्रतिष्ठा व्यर्थ है।
कविता का आत्मरूप तो वह रागात्मक चेतना है जो कभी प्रेम के सात्विक रूप में उभरती है तो कभी दुष्टों का विनाश करने के लिये उग्र और प्रचण्ड भावों में प्रकट होती है। यह उग्र और प्रचंड भाव विरोध, विद्रोह से लेकर रौद्र रूप में कविता के अन्तर्गत अनुभव किये जा सकते हैं।
सन्दर्भ –
1.का. अ.-113
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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