प्रत्येक विकसित समाज के निर्माण में स्त्री एवं पुरूष दोनों की सहभागिता आवश्यक है। भावी पीढ़ी के रूप में व्यक्ति से लेकर परिवार, समाज तथा राष...
प्रत्येक विकसित समाज के निर्माण में स्त्री एवं पुरूष दोनों की सहभागिता आवश्यक है। भावी पीढ़ी के रूप में व्यक्ति से लेकर परिवार, समाज तथा राष्ट्र तक के चहुँमुखी विकास की जिम्मेदारी में पुरुषों के साथ स्त्रियों की अपेक्षाकृत अधिक भागीदारी है। इस भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए ही परिवार की धुरी, महिला का सशक्तीकरण जरूरी है और सशक्तीकरण के लिए शिक्षा।आज महिलाएं राजनीति, समाजसुधार, शिक्षा,पत्रकारिता, साहित्य, विज्ञान, उद्योग, व्यावसायिक प्रबन्धन,शासन-प्रशासन, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, पुलिस, सेना, कला, संगीत, खेलकूद आदि क्षेत्रों में पुरूषो के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रही हैं । यह और बात है कि जब इन प्रक्रियाओ को इतिहास या राष्ट्रीय ‘माइथालॉजी’रूप दिया जाता है, तब स्त्रियो को केवल ‘पुरुष की प्रेरणा’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है या फिर अधिक से अधिक ऐसी वीरांगनाओं के रूप में,जिन्हें परिस्थितियां पराक्रम के लिए बाध्य कर देती हैं ।
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प्राचीन भारत में महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा हासिल था ऋग्वेद और उपनिषद जैसे ग्रंथ कई महिला साध्वियों और संतों के बारे में बताते हैं जिनमें गार्गी और मैत्रेयी के नाम उल्लेखनीय हैं।
राजनैतिक और सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में महिलाओं ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। विजय लक्ष्मी पंडित ने 1946, 1947, 1950 और 1963 में संयुक्तराष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया। 1953-54 में वह संयुक्तराष्ट्र महासभा की सदस्य भी रहीं। 1962-64 में महाराष्ट्र की राज्यपाल और 1964-66 तक लोकसभा की सदस्य रहीं। कुल्सुम जे. सायानी ने 1957 में यूनेस्को के तत्वावधान में हुए प्रौढ़ शिक्षा सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया। उन्हें 1959 में समाज सेवा के लिए पद्मश्री तथा 1969 में नेहरू साक्षरता पुरस्कार से सम्मानित किया गया।नैसर्गिक रूप से तो स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं ही । जिस आधुनिक लोकतात्रिक समाज मनुष्य अपने व्यक्तित्व की नयी ऊचाइयां छू रहा है, उसके निर्माण में भी स्त्री की भूमिका दूसरे र्जे की नहीं मानी जा सकती । हमारे अपने देश में भी, जब से देश के आधुनिक राष्ट्र में परिवर्तित की प्रक्रिया आरंभ होती है, तभी से हम स्त्रियों को सामाजिक, राजनीतिक प्रक्रियाओं में सक्रिय भूमिका निभाते पाते है ।
किसी भी राष्ट्र के निर्माण में साहित्य की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण रही है। विशिष्ट साहित्य समाज के नागरिकों में उत्तम गुणों का संचार करता है तथा राष्ट्र को अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर मान दिलाता है।
भारतीय साहित्य क्षेत्र में महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर नई पीढ़ी की महिला रचनाकारों में भी राष्ट्र के प्रति ग़ौर, आस्था के भाव व नागरिकों के लिए चेतना के स्वर प्रस्फुटित होते आए हैं। कहानी के क्षेत्र में मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा, कवियित्रियों में कीर्ति चौधरी, शकुंत माथुर, इंदु जैन, स्नेहमयी चौधरी, अनामिका कात्यायनी के अतिरिक्त समग्र साहित्य के क्षेत्र में अमृता प्रीतम, अजीत कौर, अनिता देसाई, कमला दास, शशि देशपांडे, मंजीत कौर टिवाणा, पदमा सचदेव, प्रतिभा दे, लिली मिश्रा दे, राजम कृष्णन, प्रभजोतकौर, कुर्रतुल-एन-हैदर, तारा मीरचंदानी, मालती चंदर, महाश्वेता, कलाप्रकाश, आशापूर्णा देवी, कुंदनिका कपाड़िया, सुनेत्र गुप्ता, इंदिरागोस्वामी, नवनीता देव सेन सहित अनेक महिला रचनाकारों ने विभिन्न भाषाओं में अपनी रचनाओं में भारतीय जन-जीवन, मानवीय संवेदनाओं का गहन चित्रण कर के देश-विदेश में भारत का मस्तक ऊंचा किया। शिक्षा, विज्ञान, खेलकूद,व्यवसाय, सूचना-प्रौद्योगिकी, चिकित्सा आदि सभी क्षेत्रों में महिलाएं पुरुषों से अधिक योग्य सिद्ध हो रही हैं। 9 मई, 1984 को कुमारी बछेंद्रीपाल एवरेस्ट चोटी पर विजय पताका फहराने वाली प्रथम भारतीय महिला बनीं। 5 अक्तूबर, 1989 को केरल उच्च न्यायालय की भूतपूर्व न्यायाधीश एम.फातिमा बीवी ने सर्वोच्च न्यायालय की प्रथम महिला न्यायाधीश के पद को सुशोभित किया। गीत-संगीत के क्षेत्र में महिलाओं ने आकाश की बुलंदियों को स्पर्श करके विदेशियों को भी मोहित किया है। एम. एस. सुब्बलक्ष्मी ने अपनी मीठी वाणी से कर्नाटकीय संगीत को पश्चिम के लोगों में लोकप्रिय कर दिया। स्वर कोकिला लता मंगेशकर तथा आशा भोंसले की मीठी तान सुनकर भारतीय ही नहीं सुदूर देशों में बसे विदेशी भी झूम उठते हैं। प्रथम महिला आई.पी.एस. किरण बेदी ने भारत की सबसे बड़ी तिहाड़ जेल में कैदियों को सुधार कर अपने प्रयास शुरू किए। अगर खेलों की बात करें तो पी टी उषा से लेकर सानिया ,साइना पी वी सिंधु मेरीकॉम साक्षी मलिक जैसी महिलाओं ने भारत का मस्तक ऊँचा करने में अपनी महत्व पूर्ण भूमिका निबाही है।
इक्कीसवीं सदी की ओर भारत में नारियों को प्रेम, बलिदान तथा विनम्रता के प्रतीक के रूप में सराहा गया है । इसके बावजूद विडम्बना यह है कि महिलाओं को, जिन्होंने अपने परिवार तथा समाज के विकास के लिए स्वयं को मिटा दिया,योजनाबद्ध विकास के पाँच दशकों के बाद भी उन्हें सामाजिक व्यवस्था में यथोचित स्थान नहीं मिला । वे सर्वाधिक उपेक्षित रही हैं ।
राजस्थान में कार्यरत कई स्वयंसेवी संस्थाएँ जो औरतों के मुद्दों पर काम करती थीं, उन्होंने संस्थाओं में घरेलू हिंसा, लैंगिक भेदभाव तथा बलात्कार जैसे मुद्दों पर चर्चाओं के माध्यम से जोरदार माहौल बनाया।
सन् 1985 में एक महिला मेले के दौरान पूरे राजस्थान से आई औरतों ने किशनगढ़ क्षेत्र में बलात्कार जैसी सामाजिक बुराई के विरुद्ध एक रैली निकाली। मजदूर महिलाओं को सड़क पर उतरकर, मुट्ठी बाँधकर, आक्रोश के साथ बुलन्द नारे लगाते, मंचों पर अत्याचारों के विरुद्ध बेखौफ बोलते देखकर मध्यवर्गीय औरतों में भी हिम्मत आई।आज स्त्रियों के काम तथा राष्ट्रीय उत्पाद में उनके कुल योगदान का बड़ा महत्त्व राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर स्वीकार कर लिया गया है। यह भी मान लिया गया है कि एक पुरुष को साक्षर बनाने से एक व्यक्ति ही साक्षर होता है, जबकि एक स्त्री के शिक्षित होने से एक पूरा कुनबा! अकाट्य तौर से यह भी प्रमाणित हो चुका है, कि गरीबतम तबके की औरतों तक स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारियों तथा सुविधाएँ पहुँचाए बिना संक्रामक रोगों अथवा आबादी पर अंकुश लगाना कतई नामुमकिन है। एक नागरिक और एक कामगार के रूप में स्त्रियाँ पाती हैं–कि स्त्रियों को कमजोर और पराधीन बनाने की कोशिशें पहले उनके ही घर–आँगनों से शुरू होती हैं । और दहलीज़ लाँघने के बाद कार्यक्षेत्र में वही कोशिशें उनके आगे ताकतवर और सामूहिक पुरुष–एकाधिकार की शक्ल धारण करती चली जाती हैं । विडम्बना यह कि एक ओर तो स्त्री में ‘पराधीन और ‘सहनशील’ बनने की महत्ता का बीज बचपन से रोपा जाता है और दूसरी ओर उसकी पराधीनता और सहनशीलता की मार्फ़त उसकी शक्ति का पूरा दोहन और नियोजन खुद उसी के और स्त्री–जाति के विरोध में किया जाता है । नतीजतन एक स्त्री हर क्षेत्र में दोयम दर्जे में बैठने को बाध्य की जाती है कि तुम्हारी नियति यही है ।यह भेदभाव सिर्फ निम्नवर्गीय स्त्रियों के साथ ही नहीं बरता जाता, इसकी चपेट में वे स्त्रियाँ भी हैं जो सरकारी ग़ैरसरकारी विभागों में ऊँचे–ऊँचे पदों पर कार्यरत हैं।
अमृता प्रीतम के शब्दों में-
‘...मैं नहीं मानती कि यह सभ्यता का युग है... सभ्यता का युग तब आयेगा,जब औरत की मर्जी के बिना उसका नाम भी होठों पर नहीं आयेगा, !
स्वतंत्रता के बाद भारतीय स्त्री की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति में काफी सुधार हुआ है । बहुत थोड़े पैमाने पर ही सही, लेकिन इक्कीसवीं सदी की स्त्री-छवि बड़ी तेजी से आकार ग्रहण कर रही है । और, हम उम्मीद कर सकते हैं कि नई सदी में वह भारतीय समाज की एक समर्थ, और स्वतंत्र इकाई होगी । यह आज भी नहीं कहा जा सकता कि स्त्री के सामने मौजूद तमाम चुनौतियाँ, दुविधाएं और बाधाएँ पूरी तरह दूर कर ली गई हैं ।
राष्ट्र के समग्र विकास तथा उसके निर्माण में महिलाओं का लेखा-जोखा और उनके योगदान का दायरा असीमित है तथापि देश के चहुंमुखी विकास तथा समाज में अपनी भागीदारी को उसने सशक्त ढंग से पूरा किया है। अपने अस्तित्त्व की स्वतंत्रता क़ायम रखते हुए वह पुरुषों से भी चार क़दम आगे निकल गई हैं। संकीर्णता, जात-पात, धार्मिक कट्टरता, भेदभाव, मानसिक गुलामी की ज़ंजीरों को तोड़कर महिलाओं ने देश को एक नई सोच, नया विचार प्रदान किया
है।
बहुत खूबसूरत आलेख आ0 सुशील शर्मा जी
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