एकांकी पतित (शैतान) भुवनेश्वर पात्र पुरुष स्त्री युवक हरदेव सिंह राजेन नौकर सार्जंट ( उत्तरी प्रान्त के एक छोटे-से नगर ...
एकांकी
पतित (शैतान)
भुवनेश्वर
पात्र
पुरुष
स्त्री
युवक
हरदेव सिंह
राजेन
नौकर
सार्जंट
(उत्तरी प्रान्त के एक छोटे-से नगर की तंग गलियों में एक बड़ी-सी, परंतु 19वीं शताब्दी की एक कोठी के जनाने भाग का कमरा, दीवारें बेलबूटेदार कागज से मढ़ी हैं, छत में सफेद चादर तनी है, कमरे की जमीन में एक चटाई और उसके ऊपर एक पुराना कालीन है, जो कमरे के लिए कुछ छोटा है. दो खिड़कियों में से एक खिड़की बंद है. और तीन दरवाजों में तीनों खुले हैं, जो दृष्टि को सामने की छोटी सी फुलवारी तक ले जाते हैं.
कमरे में सन्ध्या-बेला के समान एक निस्तब्धता छाई है, जिसको भंग करते हुए एक पुरुष कहता है.)
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पुरुष का स्वर : वह कल शाम को भी चला होगा, तो आज आ जाएगा.
दूसरा स्वर : कैसे आ जाएगा? क्या उड़ आएगा-तार कब का चला हुआ है?
पुरुष : कल सबेरे का भाई! (कुछ देर नीरव रहकर) तो अब तुम क्या करने को कहती हो?
स्त्री : मैं क्या जानूँ जी, मैं तो पहले ही मना करती थी.
पुरुष : खैर, अब क्या करना चाहिए? हालाँकि ‘विल’ हमारे नाम है, पर न्याय से तो यह सब उसी का है.
स्त्री : (एक दीर्घ निःश्वास लेती है) इतने वर्षों तक वह क्या करता रहा? उसके धर्म- कर्म का भी कुछ ठिकाना है.
पुरुष : अब तो वह आ ही रहा है और अपने भी मित्रों से वैरी ही अधिक हैं. अधिकारियों से भी मैंने वैमनस्य ही सा कर रखा है.
स्त्री : मैं तो रूखे-सूखे में ही प्रसन्न थी और हूँ, मुझे धन-ऐश्वर्य और रियासत न चाहिए थी, और न है. तुम जिसमें सुखी हो, उसमें मेरा सुख है.
पुरुष : यदि उसने अपना धर्म बदल दिया है, तो वह रियासत नहीं पा सकता.
स्त्री : (उत्साह को छिपाकर) परमात्मा जाने कब से तो वह लापता था, क्या जाने...
पुरुष : कब से क्या 10-11 साल हो गए होंगे. सोलह वर्ष की आयु में ही तो वह यहाँ से भाग गया था, कैसा विचित्र लड़का है, दुनिया का कोई ऐब ऐसा नहीं, जो उसमें न हो. मामाजी इसी दुख में घुल-घुलकर मर गए.
स्त्री : मैंने तो उसे जब देखा था, कितना सुंदर और होनहार था, पर विधाता के खेल..
पुरुष : यदि उसने धर्म बदल दिया...
स्त्री : उसका क्या ठीक है! वह संसार में सब कुछ कर सकता है.
(सहसा आपत्ति के समान एक 26-27 वर्ष के युवक का प्रवेश, उसके बाल रूखे और बिखरे, नेत्र काले और विष के समान गंभीर हैं, वस्त्र बहुमूल्य पर अस्त-व्यस्त. आते ही वह कुछ त्रस्त हो जाता है और लौट जाना चाहता है, पर सहसा पुरुष और स्त्री खड़े हो जाते हैं और अपने को किसी भी परिस्थिति के लिए दृढ़ बनाते हैं)
युवक : (शराबियों की चाल और स्वर में उस पुरुष के पास जाता है) मैं क्या अपने पिता के भानजे और उत्तराधिकारी राजा हरदेवसिंह से बात कर रहा हूँ?
हरदेवसिंह : अवश्य! तुम क्या राजेन हो? कब आए? सवारी तो समय पर न मिली होगी? घर की सवारी मेरा मतलब.
राजेन : (स्त्री की ओर आँख फाड़कर देखता है) यह क्या भाभी साहबा हैं?
(स्त्री जैसे अपने को शीतला या प्लेग या धूप से बचा रही हो.)
हरदेवसिंह : तुम कितने दिनों बाद आए हो राजेन? तुम्हारा मन कैसा ही रहा होगा?
राजेन : कैसा भी नहीं, मेरे लिए तो समय गतिविहीन है. मेरे लिए तो दुनिया जैसी दस वर्ष पहले थी, वैसी ही अब भी है.
हरदेवसिंह : (विस्मित होकर) देखता हूँ, तुमने काफी विद्या ग्रहण की है.
राजेन : (हँसकर) विद्या-वह अपाहिजों के लिए होती है, मैंने जीवन का रहस्य जान लिया है.
(हरदेवसिंह घृणापूर्ण हँसी से इसका स्वागत करते हैं और उनकी पत्नी एक व्यंग्यदृष्टि से)
हरदेवसिंह : खैर, अब तुम्हारा क्या इरादा है? मामाजी की मृत्यु के बाद.
राजेन : (जैसे उससे किसी ने परमात्मा का स्वरूप पूछ लिया) इरादा! मैं क्या कह दूँ?
स्त्री : (जैसे मृत्यु का आवाह्न सुना रही हो) हम लोग जानना चाहते हैं कि तुम्हारा क्या धर्म है?
राजेन : (उत्साहित-सा) मैं एक बड़ी स्टेट का उत्तराधिकारी हूँ, यही मेरा धर्म है.
स्त्री : मैं यह पूछती हूँ कि तुम हिंदू हो?
राजेन : मैं यह नहीं कह सकता, मैं यह नहीं जानता, हिंदू किसको कहते हैं?
स्त्री : (ऊबकर) तुम्हारा ईश्वर पर, आर्य-संस्कृति और अपने पूर्वजों के धर्म पर विश्वास है?
राजेन : भाभीजी! (वह जैसे सन्नाटे में आ गई है)
हरदेवसिंह : हम तुम्हारा धर्मिक विश्वास पूछते हैं, तुम हिंदुओं के ईश्वर को मानते हो?
राजेन : मैं एक ऐसे ईश्वर को मानता हूँ, जो समस्त मानव-धर्म और जाति का विधायक और पोषक है.
स्त्री : (उत्साहित होकर) ब्रह्म!
राजेन : (दृढ़ता के साथ) रुपया!
हरदेवसिंह : रुपया! रुपया!
और उनकी
स्त्री एक साथ
राजेन : रुपया!
स्त्री : तुम ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रति श्रद्धा रखते हो?
राजेन : (उसकी ओर देखकर) मैं देखता हूँ कि मेरे या अपने दुर्भाग्य से तुम उन स्त्रियों में हो, जो अच्छी कही जाती हैं. प्रिये भाभी! हमारे जीवन में श्रद्धा का स्थान ही नहीं है- नहीं, उसकी आवश्यकता ही नहीं है.
मैं जीवन के लिए, आनन्द के लिए और शक्ति के लिए जी रहा हूँ.
(स्त्री घृणा से सिहर उठती है, कमरे का वायुमंडल फिर अभिमंत्रित-सा हो जाता है, सहसा एक नौकर दबे पाँव हरदेवसिंह के सामने अदब से खड़ा हो जाता है.)
नौकर : (दो क्षण हाँफकर) बाहर एक साहब आए हैं और जो बाबू अभी आए हैं, उनसे मिलना चाहते हैं.
राजेन : (उसकी ओर घूम और घूरकर), वह क्यों मिलना चाहते हैं?
नौकर : (कठिनता से) वह कहते हैं कि आपके साथ धोखे से उनका सोने का गिलौरीदान आ गया है, उन्होंने आपको रेल पर उसे दिया था.
राजेन : (निर्विकार भाव से) गिलौरीदान! अच्छा, वह उनका था (जेब से एक कागज निकालते हुए) यह दुकान चौक में है, 50 रुपये देकर वह उसे छुड़ा सकते हैं. उनसे कह दो, अच्छा!
(सब स्तम्भित और चकित होकर उसकी ओर देखते हैं, एक कठपुतली के समान नौकर वहाँ से चल देता है)
हरदेवसिंह : (असह्य नीरवता भंग करते हुए) देखो भाई, मामाजी ने विल हमारे नाम की थी, पर मुझे तुम्हारा यह कुछ न चाहिए. तुम्हें मालूम है (अपने खद्दर के वस्त्र देखकर) तुम्हें मालूम है, मैं देश के लिए अपना सब कुछ बलि कर सकता हूँ. मेरे सिर से यह बला टलेगी.
स्त्री : हमें अपनी निर्धनता ही प्यारी है.
राजेन : (उत्तेजित-सा) तुम नास्तिक हो, अधार्मिक हो, मैं कहूँगा तुम मक्कार हो!
स्त्री और : तुम पागल तो नहीं हो गए! देखो-देखो,
हरदेवसिंह शांति से बात करो.
राजेन : (वैसे ही) नहीं, नहीं, तुम्हारा यह आघात मैं नहीं सहन कर सकता, तुम यह सब कुछ मेरे लिए छोड़कर मुझे मेरी ही दृष्टि में नीच बनाना चाहते हो. तुम मेरे जीवन में एक भद्दी भावुकता भर के मेरा जीवन नष्ट करना चाहते हो.
हरदेवसिंह : निर्धनता ही हमारा धर्म है.
राजेन : निर्धनता धर्म नहीं, सबसे गुरु और निर्दय पाप है. वह एक अपराध है, जिसका दंड फाँसी होना चाहिए. मेरा विश्वास है कि जो स्वयं निर्धनता का आलिंगन करता है, उसको धन की सबसे अधिक आवश्यकता है, वह मान-प्रतिष्ठा का भूखा है, जो धर्म का दूसरा रूप है.
हरदेवसिंह : ठाकुर राजेन्द्रसिंह साहब, मैं आपसे आयु में बड़ा हूँ.
राजेन : तुम आयु में बड़े हो. अरे मैं सृष्टि से भी पुरातन हूँ, मैं शैतान हूँ, मैं सत् हूँ, मैं चित् हूँ, मैं यदि सृष्टि बनाता, तो उसे इतनी अपूर्ण न बनाता. मैं यदि समाज का संगठन करता, तो निर्धन फाँसी पर लटका दिए जाते.
हरदेवसिंह और
उनकी स्त्री : (विस्मय से) शैतान!
राजेन : हाँ, यही मेरा वास्तव स्वरूप है. पहले मैं उससे डरता था, दूर भागता था, अर्थात्- अपने आपसे दूर भागता था. मैं सुंदर और पुण्य पर विश्वास करता था और एक कुत्सित पापी था, पर अब मैंने जाना है कि मैं शैतान हूँ, मैं जीवन हूँ, मैं तुम्हारे परमात्मा का स्वामी और विधायक हूँ और मैं स्वयं सुंदर हूँ, मैं पाप-पुण्य से परे हूँ.
हरदेवसिंह : (आशा के स्वर में) देखता हूँ, तुम शराब भी पीते हो!
राजेन : देखता हूँ, तुममें केवल बुद्धि-ही-बुद्धि है, कल्पना का लेश भी नहीं है.
स्त्री : (जैसे स्वप्न से जागकर) कितना तो अँधेरा हो रहा है, चलो बाहर चलो.
(तीनों मन्त्र-मुग्ध के समान बाहर जाते हैं)
सीन दूसरा
समय, 8 बजे रात्रि
(फुलवारी में जो रात्रि के वक्षस्थल से चिपट अर्द्ध निद्रित, भय से या आशंका से काँप रही है, रात्रि के श्रमकन के समान तारे अपने ही भार से व्यथित हैं, एक ओर राजा हरदेवसिंह, उनकी धर्मपत्नी और राजेन्द्र प्रेतों के समान दिखलाई देते हैं. राजा साहब एक पुरानी कामदार कुर्सी पर बैठे हैं. राजेन्द्र थोड़ी दूर पर गुलाब की पंखड़ियों को अपने दाँतों से नोच-नोचकर पृथ्वी पर फेंकता है, उसके पीछे ही एक खाली कुर्सी है, जिसके ठीक दाहिनी ओर एक बेंच है, जिस पर राजा साहब की धर्मपत्नी अधलेटी बैठी हैं.)
हरदेवसिंह : (उदासीनता से) हम लोग हरिद्वार चले जाएँगे.
राजेन : (विश्रृंखल हँसी हँसकर) क्यों?
हरदेवसिंह : हम तुम्हारी छाया से बचना चाहते हैं.
राजेन : क्यों?
हरदेवसिंह : हमारे आत्मा है, हम उसका धन और ऐश्वर्य के लिए हनन नहीं कर सकते.
राजेन : क्या तुम समझते हो, मेरे आत्मा नहीं है?
हरदेवसिंह : नहीं, तुममें शब्द हैं, शब्द, शब्द, शब्द.
राजेन : शब्द और संज्ञा के अतिरिक्त इस संसार में और क्या है?
हरदेवसिंह : कुछ भी हो, तुम अपना सब कुछ सँभालो भाई, मैं निर्द्वन्द्व होकर देश की सेवा करना चाहता हूँ.
राजेन : इसके लिए तुम्हें धन की आवश्यकता है.
हरदेवसिंह : (एक शहीद के स्वर में) इसके लिए सच्चाई, पवित्रता, विवेक और बलिदान की आवश्यकता है.
राजेन : मैं अपने धन से तुम्हारी बड़ी-से-बड़ी राजनीतिक संस्था को खरीद सकता हूँ.
हरदेव : (हत होकर) तुम जीवन को उतना ही कम समझ पाते हो, जितना मैं तुम्हें.
राजेन : मैं स्वयं जीवन हूँ, विश्वात्मा मेरी आत्मा का अंश है.
हरदेवसिंह : मैं यह तुम्हारी पागलों की-सी बात नहीं सुन सकता.
(वह धीरे-धीरे उठकर वृक्षों के झुरमुट में विलीन हो जाते हैं, राजेन बेंच तक जाता है, स्त्री उदासीनता से उसकी ओर देखती है, राजेन दूर एक मेहँदी की झाड़ी से खेलता है)
राजेन : आपने मुझे पहले भी देखा था?
स्त्री : (रूखे भाव से) नहीं, मैं तुम्हें नहीं जानती, तुम्हें कौन जान सकता है, तुम स्वयं ही अपने अपवाद हो.
राजेन : खैर, इन बातों को छोड़ो, मैं स्वयं अपने आपको नहीं जानता हूँ और न मुझे जानने की आवश्यकता है. इस समय मुझे प्रतीत होता है कि मुझमें और तुममें कुछ समानता है.
स्त्री : (उठकर रोष में) मुझमें और तुममें समानता.
राजेन : क्यों, क्या हुआ, राम-रावण में भी तो कुछ समानता थी. दोनों सीता को चाहते थे, दोनों ने उसको पाने के लिए निन्द्य-से-निन्द्य और जघन्य कर्म किए हैं. मुझे विश्वास है, तुम मुझे जानती हो.
स्त्री : तुम चुप रहो, मैं तुम्हें नहीं जानती, यदि तुम न चुप होंगे, तो मैं यहाँ से चली जाऊँगी.
राजेन : (जैसे एक स्वप्न देख रहा हो) लोगों ने मुझसे कहा, तुम्हारे एक आत्मा है, जैसे माता अपने उनींदे बालक को हौआ कहकर डराती है, वैसे ही संसार ने मुझे आत्मा और परमात्मा के हौआ से डराना चाहा. मैं स्वयं अपने आपसे बहुत दूर चला गया. पाप मेरे लिए एक वर्जित फल था, मैंने उसे लुककर-छिपकर चखा और अपने जीवन के एकत्र भाव को नष्ट कर दिया, पर अब मैं स्वयं पाप हूँ, मैं सत् हूँ, चित् हूँ, मैं स्वयं विश्व की व्यापक आत्मा हूँ, क्योंकि मैं ही उसे पूर्ण बनाता हूँ.
स्त्री : (पीड़ित-सी) तुम पागल हो!
राजेन : आह! इस स्वर में मेरे लिए कोई रहस्य छिपा हुआ है, मैं उसे जान क्यों नहीं पाता. अवश्य तुम मेरी पूर्व परिचित हो. सृष्टि के अव्यक्त काल में भी मैं तुम्हें जानता था, मैं न जाने कब से तुम्हें पहचानने की चेष्टा कर रहा हूँ.
स्त्री : हिश! तुमने मुझे आज पहली बार देखा है.
राजेन : (निर्विकार भाव से) मेरे लिए समय गतिहीन है, मैं शैतान हूँ.
स्त्री : (उत्तेजित-सी) तुम यहाँ से चले जाओ, मैं आत्मघात कर लूँगी- नवाबसिंह! (पुकारती है)
राजेन : (उससे दूर जाकर) कुछ नहीं, तुम रात्रि के समान रहस्यमयी हो, तुम संसार के पापों की नग्न स्वरूप हो...
स्त्री : (अत्यधिक उत्तेजना के साथ) नवाबसिंह चौकीदार!
(राजेन हताश भाव से दूर की कुर्सी पर बैठ जाता है. पाँच मिनट को जैसे वे दोनों रात्रि की नीरवता में खो जाते हैं.)
राजेन : यदि यहाँ पर कोई इस समय आ जाए, तो मुझको तुम्हारा पति समझे.
स्त्री : (चौंककर) तुम्हारा क्या अर्थ है...दुष्ट!
राजेन : तुम मेरी ओर से उदासीन रह सकती हो, पर मुझसे घृणा मत करो. स्त्री की घृणा पुरुष पर बलात्कार है, मैं एक सादी-सी बात कह रहा हूँ, यदि यहाँ पर कोई इस समय आ जाए, तो तुम्हें मेरी धर्मपत्नी समझे.
स्त्री : क्या तुम मेरे पति से अपने आपको अधिक योग्य समझते हो?
राजेन : मैं केवल एक बात कह रहा हूँ.
स्त्री : पर तुम मेरा और मेरे पति का अपमान कर रहे हो!
राजेन : कदापि नहीं!
स्त्री : तुम अवश्य अपने आपको मेरे पति से अधिक योग्य समझते हो, तुम कह रहे थे कि मुझमें और तुममें समानता है.
राजेन : यह ठीक है, ठीक है, हम दोनों ही तुम्हारे अयोग्य हैं और...
स्त्री : (कठोर स्वर में) क्यों?
राजेन : क्योंकि तुम उसे प्रेम करती हो, क्योंकि वह तुम्हारे जीवन का एक आवश्यक अंग है और मुझसे घृणा करती हो, क्योंकि मेरी आवश्यकता तुमको नहीं है.
स्त्री : यदि तुम्हारे बिना मेरा जीवन नितांत असंभव भी हो जाए, तब भी मैं तुम्हें प्रेम न करूँ, पर (लज्जित होकर) नहीं, मुझे यह न चाहिए. तुम्हारे-हमारे बीच प्रेम का जिक्र तक होना अस्वाभाविक है.
राजेन : क्यों हम दोनों एक-दूसरे को नहीं पहचानते हैं?
(सहसा खड़ाके के साथ बाहर का फाटक खुलता है, दोनों अकारण चौंककर उस ओर देखते हैं, दूर पर कुछ लोगों के धीमे स्वर में बोलने की आवाज़ आती है, स्त्री डरकर उठ खड़ी होती है)
पहला स्वर : (आज्ञा का) तुम दो यहीं खड़े रहो, दो मेरे साथ आओ, बाकी दरवाजे पर चले जाओ, इधर-उधर भी निगाह रखना.
(स्त्री राजेन के पास आ जाती है, राजेन विस्मय के साथ बाहर की ओर देख रहा है कि सहसा एक सार्जेंट दृढ़ता के साथ दो सिपाहियों को लिये आता है, पीछे घर का नौकर है, जो भाग्य के समान काँप रहा है.)
सार्जेंट : (राजेन के पास जाकर) मैं बादशाह सलामत के नाम पर आपको राजद्रोह के अपराध में गिरफ्तार करता हूँ. ठाकुर हरदेवसिंह आपका ही नाम है?
राजेन : (अपूर्व दृढ़ता के साथ) मैं तैयार हूँ. हाँ, यह मेरा ही नाम है.
(राजेन पास ही की कुर्सी से राजा हरदेवसिंह की गांधी टोपी उठाकर लगा लेता है, स्त्री उसकी ओर विस्मय से नहीं, भय से नहीं, आपत्ति से नहीं, वरन् कातरता से देखती है.)
राजेन : (सार्जेंट के पास आकर) मैं तैयार हूँ.
सार्जेंट : यह सरकारी आज्ञा है, पर हमें इतनी जल्दी नहीं है, आप अपना बंदोबस्त कर लीजिए. अपनी पत्नी से विदा ले लीजिए.
राजेन : (मुस्कराकर) इसकी क्या आवश्यकता! अभी तो मुकद्मे में ही कितने दिन लग जाएँगे.
सार्जेंट : (उच्च स्वर में) हाँ, घबराने की कोई बात नहीं है. (धीमे स्वर में) मुझे खेद है, मुझे कहना तो न चाहिए, पर मैं आपसे कह देता हूँ कि सबेरा होते-होते आप लोग सब एक अज्ञात स्थान को भेज दिए जाएँगे.
(राजेन मुड़कर स्त्री के पास जाता है, वह पत्थर की मूर्ति के समान निश्चल खड़ी है. राजेन उसका हाथ अपने हाथों में ले लेता है.)
राजेन : देखो, घबराने की कोई बात नहीं. हमारे उन मित्र को, जो यहाँ थे, चेता देना कि हम दोनों ही तुम्हारे अयोग्य हैं. अच्छा बिदा.
(राजेन उस मृत्यु से शीतल हाथ को अपने गरम ओठों तक ले जाना चाहता है, पर सहसा वह हाथ छुड़ाकर उसके गले में बाँह डालकर उसके ओठों को चूम लेती है और आहत होकर गिर पड़ती है.)
हंस, वर्ष : 4, संख्या : 5, फरवरी, 1934 ई.
‘कारवाँ’ शीर्षक से प्रकाशित एकांकी संग्रह में संकलित (1935)
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