हमारे यहाँ त्यौहार व ग्रहण पर दान देने की प्रथा है। मकर संक्रांति के दिन तो दान देने का विशेष महत्व है। बचपन में माँ हमारे नन्हें हाथों से ...
हमारे यहाँ त्यौहार व ग्रहण पर दान देने की प्रथा है। मकर संक्रांति के दिन तो दान देने का विशेष महत्व है। बचपन में माँ हमारे नन्हें हाथों से दान करवाती थी। हमें अच्छा लगता था और हम दौड़कर दान देने आगे बढ़ते थे।
अभी मकर संक्रांति पड़ी। मैं सुबह साढ़े सात बजे उठा और बाहर आकर देखा कि घर के सामने सफाई कर्मी कचरा एक बोरी में भर रहे थे। ठंड कड़ाके की पड़ रही थी। तापमान 4.8 डिग्री नापा गया था। मैंने उस कर्मचारी से पूछा, ‘क्या आज मकर संक्रांति की छुट्टी नहीं है?’
‘छुट्टी तो है’, उसने कहा, ‘पर मन नहीं माना। त्यौहार पर सभी चाहते हैं कि घर के सामने कचरा न हो। इसलिये हम निकल पड़े।’
सच, गरीब लोग हमारी कितनी फिकर रखते हैं, मैंने सोचा। सोच अच्छी हो तो उसकी आहट अच्छे कर्म सुन लेते हैं। मैंने उन्हें गरमा-गर्म चाय पीने बुलाया। वे दो जन थे। मैंने उनके लिये बगीचे में दो कुर्सी निकाली और उन्हें चाय-बिस्कुट दिये।
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उनसे बात करते मैंने पूछा कि वे कहाँ तक पढ़े हैं। बड़े ने कहा, ‘पाँचवीं तक। फिर परिस्थितिवश पढ़ाई छोड़ दी।’ यही कुछ दूसरे ने कहा, ‘मैं कुछ नहीं पढ़ पाया।’
मैंने कहा, ‘पढ़-लिख जाना तो अच्छा होता है,’
उनके जाने के बाद मुझे याद आया कि इसी तरह मैंने अपने चपरासी से कहा था जब उसे नियुक्ति मिली थी। चपरासी के पद के लिये चयनित होनेवाले को आठवीं पास होना जरूरी होता था और उससे अधिक नहीं। मैंने उसे पहली तन्खाह देते समय कहा था कि पोस्ट आफिस में खाता खोल लेना और बचत के पैसे उसमें जमा करते जाना। इससे आगे पढ़ाई करते रहना।
कालान्तर वह एक अन्य अधिकारी के पास अटैच हो गया। उसने आपत्ति जताई कि वह आठवीं से ज्यादा पढ़ेगा तो नौकरी से हाथ खो बैठेगा। मुझे उनकी इस खब्ती सोच पर हँसी आयी।
खैर, जो भी हो, उन्होंने उसे नौकरी से नहीं निकाला। वह भी पढ़ाई करता रहा और उसने डिग्री हासिल कर ली। लेकिन बेचारा स्थायी चपरासी से आगे बढ़ न पाया। जो सपने मैंने उसे दिये थे वे टूटकर बिखर गये। लेकिन वह पड़ाई के महत्व को समझ गया था। उसने अपने लड़के को इंजीनियर बना दिया।
विचार तो मंथन करते ही जाते हैं इसलिये बैठे-बैठे एक और कहानी याद आयी। एक गरीब परिवार में दो बच्चे थे --- एक तीसरी पढ़ रहा था और दूसरा छोटा था इसलिये उसकी पढ़ाई चालू नहीं हो पाई थी। उनकी माँ घरों में झाडू-पोंछे का काम करती थी और पिता पियक्कड़ थे। वे देर रात घर पर आते थे। बच्चे तब तक सो चुके होते थे। पिता की पीने की आदत तीव्रता से बढ़ती रही। अब प्रायः सोते समय बच्चों को ऊँची भर्रायी आवाजों के साथ माँ की सिसकियाँ और घर की चीजों के गिरने की आवाज सुनाई देती थी। वे माँ से पूछते, पर बेचारी बात टाल दिया करती थी। एक बार उसने बच्चों को बता ही दिया, ‘ पिता कुछ करते नहीं हैं। खाली दिमाग शैतान का घर बन जाता है। जब कुछ करने लगेंगे तो सब ठीक हो जावेगा।’
माँ की यह बात सुन उन छोटे बच्चों ने दिवाली पर पिताजी को एक उपहार देने का निश्चय किया। उनके पास माँ से मिले कुछ पैसे थे। वे जूते-पालिश की किट लेकर आये। उत्साह से भरे उन्होंने कहीं से एक पुराना अखबार लिया और किट को लपेटकर एक लाल धागे से बाँध दिया।
लेकिन जब दिवाली की रात पिताजी के आने पर बच्चों ने उन्हें उपहार दिया तो पिताजी ने वह पैकेट बिना देखे बाहर सन्ना दिया और गालियों की बौछार करने लगे। बच्चों का दिया उपहार टूटकर बाहर बिखर गया। वे डरकर चुपचाप सोने का उपक्रम करने लगे। वे देर रात तक दूसरे कमरे से चीखने-चिल्लाने के बीच माँ की सिसकियों व कराहने की आवाज सुनते रहे।
फिर यकायक सब कुछ शांत हो गया। बड़े लड़के ने हिम्मत बटोरी और उठकर दूसरे कमरे में झाँका। सड़क लाईट कमरे के अंदर जिस जगह सुकबुकाई-सी बैठी थी, वहीं माँ जमीन पर अचेत पड़ी थी। पिता वहीं पर सिर पर हाथ धरे बैठे थे।
डरते-डरते उसने पुकारा, ‘माँ’। पर उसकी आवाज प्रतिध्वनित हो लौट आयी ‘माँ ऽऽऽ’। पिता भी वेसे ही सिर पकड़े बैठे रहे। बड़े ने छोटे भाई को जगाया और उसका हाथ थामे माँ के पास ले आया। माँ के सिर के पास खून पसरा हुआ था। ‘माँ’ यह शब्द अब निस्तब्ध बन गया था।
दोनों बाहर आये। बड़े ने गिफ्ट के टुकड़े बटोरे और छोटे का हाथ पकड़े और अमावस की उस अंधेरी रात में अनजान राह पर चल पड़ा।
उन बच्चों की किसी ने भी खोज खबर नहीं ली। मैं भी उस वाकया को भूल-सा चुका था। लेकिन एक दिन भीड़ की वजह से रेल्वे स्टेशन की मोड़ पर गाड़ी रोकना पड़ी। तभी बाहर बैठे उन दो बच्चों पर नजर पड़ी। बड़े लड़के को तो मैं पहचान गया। वह बूटपालिश की टूटी किट लिये बैठा था। उसका छोटा भाई पास बैठा हुआ एक कागज पर अक्षर लिखने की कोशिश कर रहा था।
मैं पास जाकर खड़ा हो गया। मैं चाहता था कि वह सिर ऊपर उठाये ताकि मैं ठीक से उसे पहचान सकूँ। पर वह सिर नीचा किये मेरे जूतों को देखता रहा। कुछ देर बाद वह बोला, ‘सर आपके जूते तो चमचमा रहे हैं। मैं उसे और चमका नहीं सकता।’ उसके इस भोलेपन ने मेरा मन छू लिया।
‘कोई बात नहीं। मैं तो तुम्हें वैसे ही दस रुपये देने आया हूँ।’
‘पर मैं बिना काम किये पैसे नहीं लूँगा।’ यह कहते हुए उसने मेरी तरफ देखा। शायद वह मुझे पहचान नहीं पाया था। मैं उसे पहचान गया और उसी पर नजर जमाये पर्स खोलकर कुछ नोट टटोलने लगा। हाथ में पचास का नोट आया और वही उसे थमा दिया।
‘इतने बड़े नोट की मेरे पास चिल्लर नहीं है,’ उसने कहा।
‘कोई बात नहीं,’ मैंने कहा, ‘तुम्हारे नाम से जो नोट निकला है, वही रख लो।’
गाड़ी की तरफ जाने के लिये मैं आगे बढ़ा और एक बार उसकी तरफ मुड़कर देखा। उसकी आँखों में अपनेपन की झलक देख मैं रोमांचित हो उठा। मैं पुनः उसके पास गया और कहा, ‘अपने छोटे भाई को स्कूल भेज दिया करो। पढ़-लिख जाना बड़े काम आता है।’
‘जी,’ उसने छोटा-सा उत्तर दिया। दोनों के चेहरे क्षण भर के लिये खिल उठे थे।
उधर कई दिनों तक मेरा उस तरफ जाना नहीं हो रहा था। लेकिन एक दिन उन्हें देखने की तीव्र इच्छा मुझे उसी मोड़ पर ले आयी। मैंने देखा कि बड़ा लड़का किसी के जूते पर पालिश करने में व्यस्त था। उसका छोटा भाई वहाँ नहीं था। वह बूट-पालिश में इतना तल्लीन था इसलिये मैं यूँ ही कुछ देर खड़ा रहा। मैं जानना चाहता था कि वह मेरे कहे अनुसार अपने भाई को स्कूल भेजने लगा है या नहीं। अगर वह मेरा कहा मान गया होगा तो मैं उसकी और मदद करूँगा और यदि उसने अपने भाई को स्कूल में दाखिला नहीं दिया होगा तो ......’
तभी उस लड़के ने सिर उठकर मेरी तरफ देखा। मैंने पर्स से निकाले नोट उसकी ओर बढ़ाये और पूछा, ‘क्यों मेरे कहे अनुसार छोटे को स्कूल भेजने लगे हो या नहीं?’
मेरे इस प्रश्न को सुन उसने नजर नीची कर ली।
‘नीचे क्या देख रहे हो। मेरे प्रश्न का उत्तर दो,’ मैंने कुछ कड़क आवाज में कहा। वह मेरी ऊँची आवाज से वह सिहर उठा। मुझसे नजर मिलाते ही वह रो पड़ा।
‘तो मेरा कहा तुमने नहीं माना,’ मैंने एक और तीखे प्रश्न से प्रहार किया।
अब वह अपने आँसू पोंछता उठ खड़ा हुआ और दाँत पीसता बोला, ‘आपका कहा नहीं माना होता तो अच्छा होता। आप तो यम का रूप बनकर आये थे। उस पचास के नोट ने मुझसे मेरा छोटा भाई ही छीन लिया।’
मैं उसका मतलब समझा नहीं ओर उसके इन शब्द-प्रहार से असहज महसूस करने लगा। वह यह सब क्यों कह रहा था? क्या हुआ उसके भाई को? वह यह रोष क्यों जता रहा था? ऐसे अनेक प्रश्नों ने मेरे अंतः को छलनी बना दिया। आहत हुआ मैं वापस होने पलट ही रहा था कि वह चीख पड़ा, ‘अब आप यहाँ आये हैं तो पूरी बात सुनते भी जाईये।’
मैं रुक गया। वह बोलता गया। उसका छोटा भाई खुशी-खुशी स्कूल जाने लगा था। ‘हर रोज मैं उसे स्कूल पहुँचाने जाता था और लेने भी। लेकिन एक दिन उसे लाने में देरी हो गई। मेरे सामने चार लड़के बूट-पालिश के लिये खड़े थे। मैं फुर्ती से पालिश करने लगा। पर वे कॉलेज के लड़के मेरे काम से खुश नहीं हो रहे थे --- बार बार और चमकाने कहते रहे। आखिर मेरे हाथों में लकवा-सा मार गया। मेरे हाथ को रुका देख उन्होंने कहा, ‘ले अपने पैसे’ और बारीबारी से मुझपर थप्पड़ जड़ दिये। वे मारते रहे। मैं चुप खड़ा रहा। मैं तो अपने भाई को लाने की सोच रहा था। मुझे उसका रोता चेहरा दिख रहा था।
‘मुझे चुप देखकर एक लड़के ने मेरे मुँह पर आखिरी घूँसा जड़ते हुए कहा, ‘बड़ा ढीठ लड़का है। इतनी मार खाकर भी चुप खड़ा है। रोता भी नहीं।’ वे सब लड़के ठहाका लगाते चल पड़े।’
फिर सिसकते हुए उसने बताया कि जब वह स्कूल पहुँचा तो .... ‘मुझे अपना भाई कहीं नहीं दिखा। मैंने इधर-उधर देखा। स्कूल से कुछ दूर सड़क के उस पार भीड़ जमा थी। मैं उस भीड़ में उसे खोजने बढ़ा। तभी किसी को कहते सुना, ‘एक छोटा बच्चा था। सड़क पार कर रहा था कि फर्राटे से आती बाइक से टकरा गया। उसे बहुत चोट लगी है। लगता है कि वह बचेगा नहीं।’ यह सुन मैं जैसे तैसे भीड़ छाँटता आगे बढ़ा। अब भीड़ अपने आप बिखरने लगी थी।’
इतना कह वह चुप हो गया। उसका पूरा शरीर काँपने लगा था। ‘बाबूजी, वो मेरा भाई था। वह पथराई आँखों से मुझे देख रहा था।’
इतना कह वह मुझसे लिपट गया और रोते-रोते बोला, ‘बाबूजी, मैं आपके और मेरे अपने सपनों को टूटते-बिखरते देख रहा था।’
.... भूपेन्द्र कुमार दवे
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