मेरे संपादक ! मेरे प्रकाशक!! यशवंत कोठारी भाग एक , दो , तीन यहाँ पढ़ें (४) अब मैं संपादकों का पीछा छोड़ता हूँ और प्रकाशकों को पक...
मेरे संपादक !
मेरे प्रकाशक!!
यशवंत कोठारी
(४)
अब मैं संपादकों का पीछा छोड़ता हूँ और प्रकाशकों को पकड़ता हूँ. ये वे दिन थे, जब मैं बगल में पाण्डुलिपि दबाये चौड़ा रास्ता से लगाकर दरियागंज तक चक्कर लगता रहता था, दोनों जगहों पर कुछ चाय वाले मुझे पहचानने लग गए थे. बबुआ लेखक बनना चाहता है, इस वाक्य के साथ कट चाय मिलती थी. ऐसे नाजुक समय में चम्पालाल राका ने मुझे सही सलाह दी, पहली किताब खुद छाप लो, मैं वितरित कर लागत निकलवा दूंगा, बात जम गयी, कवर के लिए ब्लाक राम चन्द्र शुक्ल व्याकुल के संग्रहालय से उधार पर लिए गए, कागज उधारी में आया, और इस प्रकार कुर्सी सूत्र छपी. एक विज्ञापन भी दिया गया. किताब की कई समीक्षाएं छपी. बीकानेर के एक सज्जन कुछ प्रतियाँ ले गए आज तक वापस नहीं आये. अब मैं प्रकाशकों के पास पुस्तक के साथ जाने लगा. एक प्रसिद्ध प्रकाशक ने अगली पुस्तक छाप दी, मगर लिखित अनुबंध नहीं किया, बाद में समझौते के रूप में एक मुश्त राशि ली गयी. बाद में मैंने इस प्रकाशक को कोई पुस्तक नहीं दी. इनका नाम बड़ा था मगर दर्शन, व्यवहार बहुत ही छोटा था. मणि मधुकर ने इन महाशय के कई किस्से मुझे सुनाये. हिंदी की आखिरी किताब नामक पुस्तक छपने बाद मेरा शुमार लेखकों में हो गया, उन्हीं दिनों इब्ने इंशा की उर्दू की आखिरी किताब ने धूम मचा राखी थी मेरी किताब भी उसी कोण से देखी गयी. हाथ में दो किताबें लेकर मैंने दिल्ली की और कूच किया, प्रभात प्रकाशन के श्याम सुन्दर जी ने हाथों हाथ लिया, पाण्डुलिपि ली, अनुबंध बनाया चेक दिया, आने जाने का किराया दिया, मिठाई खिलाई और नाश्ता कराया, मैं परम प्रसन्न भया. प्रभातजी ने भी इस परम्परा को बनाये रखा.
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दिल्ली के एक अन्य बड़े प्रकाशक से मिलने गया, बातचीत हुई बोले -आप बच्चों की दो किताबें दीजिये, अगली बार वापस गया वे सब कुछ भूल गए. मुझे बैठने को भी नहीं कहा. ज्यादातर प्रकाशक पैसे या रायल्टी के नाम से ही बिदकते हैं. और कोढ़ में खाज की तरह पैसे देकर छपास पूरी करने वाले. शायद इसी कारण दरियागंज में ही एक दुकान पर हिंदी साहित्य सौ रूपये किलो बिक रहा है.
प्रकाशक साफ कहते हैं, रायल्टी याने रिश्वत आपको दें तो आप क्या मदद करेंगे, किसी समिति से काम करा दें, या फिर पुस्तक पाठ्यक्रम में लगवा दें. जयपुर में यह धंधा आम है. एक प्रकाशक ने बताया हर लाइब्रेरियन लेखक है, क्रय आदेश के साथ ही पाण्डुलिपि पकड़ा देता है, यही रिश्वत है. कई बार विभागाध्यक्ष उसी प्रकाशक की किताब खरीदता है, जो उसकी पुस्तक भी छापे और पैसे भी दे, ऐसे पचासों हिंदी वालों के नाम लिखे जा सकते हैं जो केवल कुर्सी के बल पर बड़े लेखक बन गए हैं, यहीं नहीं अब तो नेता, अफसर, भी लेखक हैं क्योंकि प्रकाशक का फायदा इसी में है.
वैसे जयपुर जनरल बुक्स की दूसरी सबसे बड़ी मंडी है यहाँ पर पुस्तक अस्सी प्रतिशत कमीशन पर मिल जाती है, दिल्ली से सस्ती पुस्तक जयपुर में. नकली माल भी काफी. अब तो वन वीक, कुंजियों, पास बुक्स आदि का सबसे बड़ा बाज़ार जयपुर. कई स्वनामधन्य प्रकाशक पुलिस व जेल तक हो आये. कुछ को ससुराल वालों ने बचा लिया. पाठ्य पुस्तकों व बोर्ड में पुस्तक भिड़ाने का एक माफिया यहाँ पर सक्रिय है. जो समिति के सदस्यों को मैनेज करने का विशेषज्ञ है. यहाँ पर लेखक को लबूरने वाले प्रकाशक, उनके दलाल भी खूब. कविता का माल सबसे ज्यादा यहाँ चलता है, कवि याने आज नहीं तो कल बीस तीस हज़ार खर्च कर किताब छपायेगा, लोकार्पण कराएगा, भोजन होगा, समीक्षा छपेगी. कवि को एक रात के लिए महाकवि घोषित कर दिया जायगा, फिर नए शिकार की तलाश. सेल्फ पब्लिशिंग कोई ख़राब काम हो ऐसा नहीं है, लेकिन जो पुस्तक छप के बाज़ार में जा रही है, उसकी मेरिट की बात होनी ही चाहिए, क्योंकि पुस्तक पूरे समाज को प्रभावित करती है. मैंने दिल्ली जयपुर में कुछ लघु पुस्तकें दी पर मगर प्राप्ति कुछ ज्यादा नहीं, कुछ खुद छापी, व्यावसायिक लोगों ने बिकने नहीं दी. मगर मैं लगा रहा, धीरे धीरे रास्ते बनते चले गए.
कुछ सम्पादक भी लेखक हो गये, अपनी टिप्पणियों को पुस्तकाकार दिया, प्रकाशक को धमकाया, किताब छपाई, विमोचन हुआ, थोक खरीद हुई. पैसा अंटी में. ऐसे लोग मंत्रियों के मुंहलगे होते हैं. कालान्तर में बहुत सारे लेखक ही प्रकाशकों से दुखी होकर खुद प्रकाशक हो गये. भारतेंदु, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, उपेन्द्र नाथ अश्क, राजेन्द्र यादव, और अन्य सैकड़ों लेखक प्रकाशक बने, उन्होंने भी किताब बेचने के लिए व्यावसायिक काम किये. लेकिन जब इन लोगों ने दूसरे लेखकों को छापा तो रॉयल्टी नहीं दी या कम दी, प्रेमचंद की प्रेस में तो कर्मचारियों ने हड़ताल तक की. दिल्ली के एक प्रकाशक तो अकादमी के पुरस्कारों की राजनीति पर भी अपना दखल रखते हैं. उनके या सहयोगी संस्थान को ही पुरस्कार जाना है, बाकी सब एक तरफ वे एक तरफ.
एक और प्रकाशक की याद आ रही है, वे इतने सज्जन थे शाम होते ही किसी न किसी किसी लेखक को पकड़ते और पीने के लिए चल देते, वे ऐसे ही एक दिन चुपचाप दुनिया से भी चले गए.
अपनी पुस्तक इसी जन्म में आये यह अरमान लिए ही कई चले गए, शुक्र है कि अकादमियां प्रकाशन ग्रांट देने लगी हैं जिसे प्रकाशक पूरी ही जीम जाता है, लेकिन लेखक अपनी कृति का मुख देख लेता है, जैसे सुहाग रत को पत्नी का मुख.
लेखक प्रकाशन संपादक रूपी त्रिभुज को कई प्रकार से बनाया जा सकता है, साहित्य के विद्यार्थी यह सब गणित के विशेषज्ञ से ज्यादा जानते हैं. एक अच्छे सम्पादक व एक अच्छे प्रकाशक की तलाश कभी खतम नहीं होती.
जीवन के अंतिम वर्षों में लेखक की यह इच्छा भी बलवती हो जाती है कि उसकी रचनावली या ग्रंथावली छप जाये. हरिशंकर परसाई रचनावली उनके जीवन काल में ही आ गयी थी. सुमित्रा नंदन पन्त ने प्राप्त पुरस्कार राशि को अपनी ग्रंथावली के प्रकाशन हेतु दे दिया था. गिरिराज शरण अग्रवाल की रचनावली भी आ गई है. इस काम को प्रकाशक बहुत मनोयोग से करता है, सम्पादक भी आसानी से मिल जाता है क्योंकि यदि हिंदी का अध्यापक है तो तुरंत प्रोन्नति व मोटी रकम संपादन के नाम की. नेताओं की भी रचनावली आ जाती है, एक बड़े लेखक की रचनावली तभी छापी गयी जब सरकारी खरीद तय हो गयी.
मित्रों अब इस व्यंग रचना या संस्मरण या मेरे आलाप, आत्मालाप या फिर प्रलाप का अंतिम समय आ गया है, यह रचना निराशावादी नहीं है, यह यथार्थवादी, आधुनिक, उत्तर आधुनिक सत्य व उत्तर सत्य की रचना है., कोई भी इसे कहीं भी प्रकाशित प्रसारित करें कोई आपत्ति नहीं.
आमीन.
(सभी से अग्रिम क्षमा याचना सहित )
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यशवंत कोठारी ८६, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर-३०२००२. मो-०९४१४४६१२०७
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