रस को व्याख्यायित करते हुए आचार्य विश्वनाथ कहते हैं कि ‘‘विशिष्ट संस्कार युक्त प्रमाता अपने सत्योद्रिक चित्त में अखण्ड स्वप्रकाशानंद, चिन्म...
रस को व्याख्यायित करते हुए आचार्य विश्वनाथ कहते हैं कि ‘‘विशिष्ट संस्कार युक्त प्रमाता अपने सत्योद्रिक चित्त में अखण्ड स्वप्रकाशानंद, चिन्मय, वेद्यांतर स्पर्शशून्य, ब्रह्मास्वाद सहोदर, लोकोत्तर चमत्कार प्राण तथा अपने स्वरूप से नितांत अभिन्न रस का आस्वादन करते हैं।’’[1]
आचार्य विश्वनाथ के इस रस सम्बन्धी कथन से यदि हम सहृदयगत रस का विवचेन करें तो उस रस का लोकोत्तर चमत्कार, चिन्मय, स्वप्रकाशानंद, वेद्यान्तर स्पर्शशून्य और ब्रह्मास्वाद सहोदर रूप हमें तभी प्राप्त हो सकता है जबकि आस्वादक विशिष्ट संस्कारों से युक्त होने के साथ-साथ सत्योद्रिक चित्त वाला हो।
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सवाल यह है कि काव्य के आस्वादन के लिये हम विशिष्ट संस्कारों और सत्योद्रिक चित्त वाले आस्वादक लायेंगे कहाँ से? क्या व्यावहारिक रूप से ऐसा सम्भव है? नाटक या फिल्म का आस्वादन करने वाले सबके सब आस्वादक क्या एक से संस्कारों, स्वभावों, प्रवृत्तियों और सत्योद्रिक चित्त वाले होते हैं? उत्तर है नहीं। तब यह किस प्रकार सम्भव है कि विभिन्न रुचियों, मान्यताओं और स्वरूप वाले आस्वादक अपने स्वरूप से नितांत अभिन्न रस का आस्वादन कर लें? क्योंकि काव्य के भी भिन्न-भिन्न स्वरूप, संस्कार और रागात्मक परिवेश होते हैं। इसलिये आचार्य विश्वनाथ का साधारणीकरण का विशिष्ट संस्कार युक्त सत्योद्रिक चित्त वाले प्रमाताओं को लेकर गढ़ा गया यह सिद्धांत एक काल्पनिक और अवैज्ञानिक सूझबूझ से युक्त सिद्धांत ही माना जाना चाहिए।
आचार्य विश्वनाथ कहते हैं कि ‘‘सीतादि विभाव के साधारणीकृत हो जाने से हम रामादि आश्रय के साथ अभेद स्थापित कर लेते हैं। इसी अभेद बुद्धि के प्रभाव से प्रमाता समुद्र कूद जाने वाले हनुमान से अपने को अभिन्न समझने लगता है।’’[2]
आचार्य की बात का यदि हम विश्लेषण करें तो कथित साधारणीकरण के तथ्य तो यहीं असिद्ध हो जाते हैं, जब वह प्रमाता को विशिष्ट संस्कारों से युक्त मानकर चलते हैं। जो प्रमाता आचार्य के विशिष्ट संस्कारों से युक्त नहीं हैं तो उन तक विभाव साधारणीकृत होकर किस प्रकार पहुंचेंगे और उनमें कैसे और किस प्रकार का रसोद्बोधन होगा? यह विचारणीय है। क्या ऐसे प्रमाताओं के लिये विभाव साधारणीकृत नहीं होंगे? इसका सीधा-सीधा अर्थ क्या यह नहीं कि यह साधारणीकरण की प्रक्रिया हर प्रकार के संस्कारों से युक्त प्रमाताओं को रससिक्त नहीं करेगी। इसलिये आचार्य का यह कहना कि ‘सीतादि के साधारणीकृत हो जाने से हम रामादि आश्रय के साथ अभेद स्थापित कर लेते हैं? सोचने पर विवश करता है कि क्या व्यावहारिक रूप से ऐसा सम्भव है? बात यदि सीतादि विभाव के साधारणीकरण हो जाने की स्थिति में अभेद-सम्बन्ध स्थापित करने की होती तो शायद कुछ-कुछ समझ में आती। आचार्य तो प्रमाताओं का रामादि से अभेद स्थापित करने की बात करते हैं। यदि नाटक या काव्य के आस्वादक सीतादि विभाव के साधारणीकृत हो जाने पर रामादि से अभेद स्थापित कर लेंगे तो सीधे-सीधे रामादि नहीं बन जायेंगे। तब क्या सीता से ब्याह रचाने की इच्छा उनके भी मन में ठीक उसी प्रकार जागृत नहीं हो जायेगी, जैसी राम के मन में है। क्या प्रमाता भी उसी प्रकार सीताहरण होने के उपरांत विलाप करने लगेगा जैसा कि राम कर रहे होते हैं ? क्या धोबी की बात पर जिस प्रकार राम ने सीता को घर से बाहर दर-दर भटकने के लिये छोड़ दिया, प्रमाता भी राम से अभेद स्थापित कर ऐसा ही करने लगेगा? क्या प्रमाता सीता के पुत्रों को अपना पुत्र मानने लगेगा? प्रमाता अपनी इसी अभेद बुद्धि के प्रभाव के कारण समुद्र कूद जाने वाले हनुमान से अपने को अभिन्न समझते हुए समुद्र कूद जाने के लिये अपने भीतर हनूमान जैसा ही साहस और पराक्रम जुटायेगा? क्या राम जब रावणादि पर तीर चला रहे होंगे तो क्या वह भी अपने को राम की तरह रावाणादि पर तीर चलाता हुआ अनुभव करेगा? अगर रसानुभूति के अन्तर्गत राम, हनुमान आदि के साथ इस प्रकार का अभेद स्थापित हो गया तो मंच और दर्शक-दीर्घा के बीच भी अभेद स्थापित हो जायेगा। मंच पर जो कुछ नट-नटी राम सीतादि के रूप में व्यक्त या अभिनीत कर रहे हैं, श्रोता और दर्शक भी ठीक उसी प्रकार के अभिनय की दशा में पहुंच जायेंगे। इस प्रकार दृश्य और दृष्टा का अन्तर मिट जायेगा। सब कुछ दृश्य बन जायेगा। अतः यह कहना अतार्किक न होगा कि आचार्य विश्वनाथ की उक्त साधारणीकरण सम्बन्धी व्याख्या हर प्रकार असिद्ध और अप्रामाणिक है।
आचार्य विश्वनाथ की ही तरह आचार्य भट्टनायक ने साधारणीकरण को प्रस्तुत करते हुए कहा कि- ‘‘पात्रों के काल्पनिक होने से देशकालादि के बन्धन टूट जाते हैं और आलम्बनादि किसी व्यक्ति विशिष्ट के न रहकर सामान्य हो जाते हैं।’’
यहां विचारणीय यह है कि अगर पात्रों के मात्र काल्पनिक होने से अगर देश-कालादि के बन्धन टूट जाते हैं तो राम और रावण के युद्ध के बीच क्या धनुषवाण, गदा, तलवार के बजाय स्टेनगन और हैन्डग्रनेड के प्रयोग दर्शाये जा सकते हैं? क्या बाल्मिीकि को पेंटशर्ट पहने हुए डॉटपेंसिल से लिखते हुए दिखाया जा सकता है? क्या राम या रावण की सेना को वर्तमान भारतीय सेना की बर्दी में दिखाया जा सकता है? क्या सीता को सलवार या बुर्के में जनकवाटिका के में पूजा का थाल लिये प्रस्तुत किया जा सकता है? रामायण के इन पात्रों का औचित्य तत्कालीन वेशभूषा और अस्त्र-शस्त्र आदि में ही अन्तर्निहित है। देशकाल की इन्हीं विशिष्टताओं के आधार पर तो श्रोता या दर्शक रावण को रावण के रूप में, राम को राम के रूप में, सीता को सीता के रूप में, सूपर्णखा को सूपर्णखा के रूप में पहचानते हुए रसानुभूति को प्राप्त होते हैं। साधारणीकरण की स्थिति में अगर आलम्बन किसी व्यक्ति विशिष्ट के न रहकर अगर सामान्य हो जायेंगे अर्थात् सीता, सीता न रहकर मात्र एक स्त्री, राम, राम न रहकर मात्र एक पुरुष के रूप में उद्बोधित होंगे तो सोचने का विषय यह है कि स्त्री से एक तरफ मां, बहिन, बेटी, प्रेमिका, परकीया, नगरबधू जैसी विशिष्टताओं का विलुप्तीकरण अगर तय है तो दूसरी तरफ नट का देव रूप जैसे शिव, ब्रह्मा, विष्णु आदि का भी सामान्य पुरुष-रूप उद्भाषित होगा। तब यह कैसे सम्भव है कि यशोदा हमें ममत्व के दर्शन करायें और कृष्ण अपने विराट रूप से समस्त ब्रह्माण्ड को अपने भीतर समाहित दर्शाएं। इसलिये आचार्य विश्वनाथ के साधारणीकरण की यह बात भी असिद्ध होती है।
तब प्रश्न यह है कि नाटक या फिल्म के आस्वादकों को आस्वादन के समय लगभग एक जैसी रसानुभूति किस आधार पर होती है। एक ही नाटक या फिल्म या काव्य-सामग्री से विभिन्न संस्कारों से युक्त सामाजिक क्या एक जैसी भावदशा ग्रहण कर लेते हैं अथवा नहीं? अगर नाटक, फिल्म या काव्य सामग्री के आस्वादन के समय साधारणीकरण नहीं होता है तो फिर क्या होता है?
इन सारे प्रश्नों के उत्तर देने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि काव्य, नाटक, फिल्मादि से सहृदय या सामाजिक जो रसानुभूति प्राप्त करते हैं उसका आधार सामाजिकों के रागात्मक संस्कारों से युक्त संवेदनशील मन पर काव्य फिल्म या नाटक के आलम्बन या उद्दीपन विभावों द्वारा अनुभावों में व्यक्त किये गये रागात्मक संस्कारों का एक विशेष अर्थ के साथ आच्छादित हो जाना होता है। सामाजिक के मन पर आाच्छादित अर्थ जब सामाजिक के रागात्मक संस्कारों में विलय होना प्रारम्भ कर देता है तो सामाजिक के मन में एक विशिष्ट प्रकार की ऊर्जा पैदा होती है जिसे भाव कहा जाता है। इन्हीं भावों के सहारे वह रससिक्त होता है।
इस प्रकार हम पाते हैं-
1.रसानुभूति ‘स्व’ से ‘पर’ की ओर जाने वाली क्रिया न होकर ‘पर’ से ‘स्व’ तक तय की जाने वाली क्रिया का नाम है। सीता अगर ‘पर’ है और उसका रावण द्वारा हरण करते समय अबाध क्रन्दन जारी है। यह अबाध क्रन्दन उसके हाथ-पैरों की छटपटाहट, रावण की शिकंजे से बचने के लिये राम को पुकारना, अविरल अश्रु बहाना जब ‘स्व’ अर्थात् सामाजिक के मन पर एक विशेष अर्थ कि ‘‘दुष्ट रावण निर्दोष सीता का अपहरण कर सीता को लिये जा रहा है। यह कैसा नीच कर्म कर रहा है, के रूप में आच्छादित हो जायेगा। अतः सामाजिक में सीता को निर्दोष, दुःखी और असहाय मानते हुए वह करुणाद्र हो उठेगा। यह सामाजिक का संवेदनात्मक रस-रूप होगा। दूसरी तरफ रावण को दुष्ट, छली, अत्याचारी मानते हुए वह प्रतिवेदनात्मक रस जैसे घृणादि, क्रोधादि से सिक्त हो उठेगा।
कुल मिलाकर सामाजिक में संवेदनात्मक और प्रतिवेदनात्मक दो प्रकार की रस सम्बन्धी स्थितियां बनेंगी।
सामाजिक चूकि दृष्टा है और उसे इस बात का पूरा ज्ञान भी है कि वह दृष्टा है इसलिये सीता के प्रति
संवेदनात्मक होते हुए भी वह दृष्य अर्थात सीता की कोई सहायता नहीं कर सकता है। अतः सीता का क्रन्दन उसे शोकाकुल बना देगा।
रसानुभूति के कभी-कभी ऐसे अवसर भी आ जाते हैं कि सामाजिक को यह ज्ञान नहीं रहता कि वह तो मात्र एक श्रोता, दर्शक या आस्वादक है तब उसकी भाव अवस्था इतनी तीव्र हो उठती है कि जो कार्य ‘पर’ नहीं कर रहा होता है वह कार्य ‘स्व’ अर्थात् सामाजिक कर बैठता है कि-‘‘कहते हैं कि दर्शक ने क्रुद्ध होकर खलनायक की ओर जूता फैंक कर मारा।’’3
मैं अपने छोटे भाई के साथ बालकॉनी में ‘किताब’ पिक्चर देख रहा था। पिक्चर के एक दृश्य में दो बच्चों में किताब के बस्तों से लड़ाई देखकर मेरा बच्चा भी रैलिंग पर खड़ा हो गया और वह भी हवा में घूंसे और लात चलाने लगा।
इसी प्रकार की एक घटना और है जब प्रख्यात कवि रमेश रंजक अपना एक गीत [जो लोकधुनों पर आधारित था] को अलीगढ़ में एक मंच से पढ़ रहे थे तो श्रोता दीर्घा से कुछ मंच पर चढ़ आये और रमेशरंजक के साथ साथ उनके गीत को गुनगुनाते हुए नृत्य करने लगे।
कई बार ऐसा भी देखा गया है कि नृत्यांगना फिल्म के पर्दे पर नृत्य कर रही होती है और दर्शक अपनी सीटों से खड़े होकर पर्दे की तरफ पैसे पैंफकना शुरु कर देते हैं, शीटी बजाने लगते हैं।
इन सब बातों से सिद्ध यह होता है कि- ‘पर’ के आत्म के किसी भी रूप का निर्णय अन्ततः ‘स्व’ अर्थात् सामाजिक के आत्म के स्तर पर होता है। इस प्रकार देखें तो काव्यानुभूति से सामाजिक को किसी भी प्रकार की रसानुभूति साधारणीकरण द्वारा नहीं आत्मीयकरण द्वारा होती है।
आत्मीयकरण की इस प्रक्रिया में जैसे रागात्मक संस्कार सामाजिक के होंगे वह उन्हीं संस्कारों के अनुसार फिल्म या नाटक के पात्रों के प्रति संवेदनात्मक या प्रतिवेदनात्मक हो जायेगा। इसीलिये एक ही काव्य सामग्री का आस्वादन करने सामाजिक यह कोई आवश्यक नहीं हैं कि सम्पूर्ण रूप से किसी आलम्बन विभाव के प्रति सम्वेदनात्मक या प्रतिवेदनात्मक ही हो जायें। आलम्बन विभाव के संस्कारों से तालमेल न बिठा पाने वाले आस्वादक नायक के स्थान पर खलनायक के प्रति भी संवेदनात्मक रूप ग्रहण कर सकते हैं। ‘अर्धसत्य’ फिल्म के खलनायक रामाशेट्टी के संवाद बोलने की कला के कायल ऐसे कई सामाजिक फिल्म खत्म होने के बाद आपस में बातचीत करते हुए मिले जो रामाशेट्टी के हर कुकृत्य की सराहना कर रहे थे। आजकल की फिल्मों के व्यावसायिकता और अपसांस्कृतिकता के कारण खलनायक को महिमामंडित करके जिस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है, भले ही यह प्रमाता के सद्संस्कारों की स्थिति न हो और यह स्थिति हमें अपसंस्कृति की ओर ले जाती हो लेकिन आज की फिल्मों का आस्वादन करने वाला अधिकांश युवावर्ग खलनायक के प्रति फिल्म के अधिकांश स्थलों में संवेदनात्मक रस दशा में होता है। इन सब बातों को यहां बताने का तात्पर्य यह है रसानुभूति की प्रक्रिया साधारणीकरण की नहीं आत्मीयकरण की प्रक्रिया है।
आत्मीयकरण की इस प्रक्रिया के अन्तर्गत-
1. सामाजिक रसानुभूति के समय न तो ‘स्व’ और ‘पर’ के बन्धनों से मुक्त होकर सत्योद्रिक चित्तवाला हो जाता है और न अपने व्यक्तिगत रागात्मक संस्कारों से विहीन, बल्कि वह अपनी व्यक्तिगत रागात्मक दृष्टि के अनुसार ही काव्य या नाटक के पात्रों के साथ रागात्मक, द्वेषात्मक, ममत्व-परत्व के सम्बन्ध बना कर रसानुभूति को प्राप्त होता है। जब उसके रागात्मक संस्कार राम के रागात्मक संस्कारों के अनुरूप होते हैं तो वह राम से सम्वेदनात्मक सम्बन्ध स्थापित कर लेता है और संवेदनात्मक रसात्मक बोध से सिक्त होता है। राम के शत्रुओं के प्रति चूंकि उसके रागात्मक संस्कार मेल नहीं खाते इसलिये वह ऐसे पात्रों के प्रति प्रतिवेदनात्मक रसदशा ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार राम और राम के प्रियजन उसके आत्मीय हो जाते हैं तथा रावण और रावण के प्रियजन उसके शत्रु। अगर स्थिति इसके विपरीत हो अर्थात् किसी प्रमाता के रागात्मक संस्कार रावण के रागात्मक संस्कारों से मेल खाते हों तो ऐसा प्रमाता राम के प्रति प्रतिवेदनात्मक रसदशा ग्रहण कर लेगा। आज भी कई स्थानों पर, रावण के स्थान पर राम और लक्ष्मण के पुतले फूंके जाते हैं। अनेक ब्राह्मणों में राम के स्थान पर रावण श्रद्धा का पात्र है।
2.रसानुभूति के समय आस्वादक सीता से अभेदस्थापित नहीं करता, अभेद स्थापित करने का अर्थ तो यह होगा कि आस्वादक भी सीतादि हो जाये। जब काव्य-नाटक के पात्र भी एक दूसरे से प्रगाढ़ सम्बन्ध रखने के बावजूद अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं के कारण एक दूसरे से पृथक अस्तित्व बनाये रखते हैं। वे राम, सीता नहीं हो सकते-सीता राम नहीं। हनुमान, अंगद नहीं हो सकते-अंगद, हनुमान नहीं। सबके अपने-अपने व्यक्तित्व हैं और सबकी एक दूसरे पर प्रति विशिष्ट आस्थाएं, मान्यताएं, विचारधाराएं और भावनाएं होती हैं। राम के लिये लाख सम्बन्धों की प्रगाढ़ता के बावजूद हनुमान सेवक हैं तो हनुमान के लिये राम-प्रभु या स्वामी। और स्वामी की पत्नी सीता-माता। अपने-अपने अस्तित्वों और व्यक्तित्वों की विभिन्नता, विविधता को समाहित किये हुए सीता, राम, हनुमान, अंगदादि एक दूसरे सुख-दुःख और संघर्ष के साथी होने के बावजूद जब अपनी-अपनी पृथक पहचान बनाये हुए हैं, तब यह कैसे सम्भव है कि एक सहृदय सामाजिक जो कि या तो श्रोता होता है अथवा एक दृष्टा, वह दृश्य अर्थात् सीता, राम, हनुमानादि से अभेद की स्थिति में आकर रसानुभूति को प्राप्त हो। इस ‘अभेद’ में भेद करने वाला पहला अंतर तो ‘दृष्य’ और ‘दृष्टा’ का ही है और दूसरा भेद यह है कि ‘दृश्य’ किसी भी प्रकार ‘दृष्टा’ की ओर मुखातिब नहीं होता। ‘दृष्टा’ ही ‘दृश्य’ की ओर मुखातिब रहता है और दृश्य के रागात्मक संस्कारों [दृश्य के अनुभावों से माध्यम से ] अपने आत्म के स्तर पर आच्छादित अर्थ से रसानुभूति प्राप्त करता है।
आत्मीयकरण की इस प्रक्रिया के अन्तर्गत काव्य या नाटकादि का आस्वादक सीता में अगर उन गुणों या संस्कारों, विशेषताओं को अनुभव करता है जो कि उसके रागात्मक संस्कारों के अनुरूप होते हैं तो वह इस रागात्मक संस्कारों की अनुरूपता के कारण सीता के प्रति संवेदनात्मक रसात्मक बोध से अभिसिक्त होकर हर्षादि को प्राप्त होता है और इस प्रकार सीता से उसके आत्मीय सम्बन्ध स्थापित हो जायेंगे। चूकि राम भी सीता के आत्मीय हैं इसलिये सीता से आत्मीय जुड़ाव होने के कारण राम भी उसके आत्मीय हो जायेंगे। वह सीता और राम रति रूप से अगर आनंदित होगा तो एक धोबी के कहने पर सीता को दर-दर भटकने के लिये मजबूर करने वाले राम के प्रति उसमें क्षोभ, आक्रोश भी परिलक्षित होगा। इसका प्रमाण रामायण या रामचरित मानस से अलग ऐसे कई काव्य-ग्रन्थ हैं जिनमें निर्दोष सीता को लेकर राम के प्रति विरोधस्वरूप अनेक शंकाएं व्यक्त की गयी हैं। यही नहीं जिन तर्कों के सहारे राम ने बाली का वध किया, उन्हीं तर्कों को सुग्रीव द्वारा अपनी ही भाभी को पत्नी बनाये जाने पर जब एक आस्वादक जब खंडित होते देखता है तो उसके मन को राम के प्रति कई आशंकाएं घेरती हैं और आस्वादक के लाख आत्मीय होने के बावजूद राम अपने चरित्र के प्रति संदेह के घेरे में आ जाते हैं। राम के चरित्र के प्रति उत्पन्न हुए इस संदेह को आधार बनाकर भी अनेक काव्य ग्रन्थ लिखे गये हैं। यह आस्वादक की प्रतिवेदनात्मक रसावस्था से उत्पन्न हुआ वह क्षोभ और आक्रोश है जिसके अन्तर्गत आस्वादक के लाख आत्मीय होने के बावजूद राम कई संदर्भों में उसके आत्मीय नहीं रह पाते।
जिस प्रकार आम खाने पर उसका स्वाद मुँह में घंटों तक बना रहता है ठीक उसी प्रकार काव्य का आस्वादन रसानुभूति के समय ही नहीं, रसानुभूति के बाद भी लम्बे समय तक एक आस्वादक को रससिक्त किये रह सकता है। एक आस्वादक को रसानुभूति के बाद जो आनंदानुभूति होती है वही तो रस का वास्तविक स्वरूप होता है जो किसी भी काव्य या नाटक को बार-बार देखने-सुनने-पढ़ने के लिये बार-बार प्रेरित ही नहीं करता, नये सिरे से पात्रों के मूल्यों और मान्यताओं अर्थात रागात्मक संस्कारों को संशोधित रूप में सृजित करने को भी बाध्य करता है। भले ही यह कवि-कर्म के अन्तर्गत आता है और आलोचक इसका विश्लेषण करता है। इसलिये आलोचक के विश्लेषण के मूल में भी वही अन्तर्भुक्त रसानुभूति ही रहती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि रसानुभूति एक सहृदय सामाजिक के लिये आत्मीयकरण की एक प्रक्रिया है और इस क्रिया में ‘स्व’ अर्थात सामाजिक में काव्य के ‘पर’ की समाहिति होती है। ‘पर’ की ‘स्व’ में इस प्रकार की समाहिति के समय किसी प्रकार का ‘पर’ और ‘स्व’ के बीच अभेद स्थापित नहीं होता और न अभेद बुद्धि के प्रभाव से प्रमाता समुद्र कूद जाने वाले हनुमान से अपने को अभिन्न समझने लगता है। प्रमाता तो समुद्र कूद जाने वाले हनुमान को देखकर या तो आश्चर्यचकित होता है या समुद्र कूदने की क्रिया पर गर्व और उल्लास की अनुभूति करता है।
3. आचार्य भट्टनायक ने साधारणीकरण को प्रस्तुत करते हुए पात्रों के काल्पनिक स्वरूप को स्वीकारते हुए कहा कि- ‘‘पात्रों के काल्पनिक होने से देशकालादि के बन्धन टूट जाते हैं और आलम्बन आदि किसी व्यक्ति विशिष्ट के न रहकर सामान्य हो जाते हैं।’[3]
आचार्य भट्टनायक द्वारा पात्रों के काल्पनिक स्वरूप को ही स्वीकारने का अर्थ यह है कि राम और सीता के रूप में जो नट और नटी अभिनय कर रहे हैं वह अभिनय राम और सीता बने नट और नटी के मध्य ही आश्रय और आलम्बन के रूप में एक दूसरे की भावानुभूति या रसानुभूति प्रदर्शित करने के लिये है। उसका वास्तविक जगत के पात्र जैसे सामाजिकों या आस्वादकों से कोई लेना-देना नहीं। एक सामाजिक या आस्वादक तो दोनों के अनुभावों के माध्यम से पूरी तन्मयता के साथ नाटक का आस्वादक कर रहा होता है। वह न तो राम और रावण के युद्ध में राम या जामवंतादि की तरह शरीक है, न हनुमान की तरह लंकादहन कर रहा होता है और न सूपर्णखा की तरह अपने नाक-कान कटा रहा होता है। आस्वादक तो इन समस्त क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं, भावों-अनुभावों, सौम्यता-दुष्टता, प्रेम और युद्ध, गर्वोक्तियों-संतोक्तियों आदि का आस्वादन करते हर्षादि को प्राप्त हो रहा होता है।
अगर देखा जाये तो आस्वादक के चित्त में यह स्वप्रकाशांनद चिन्मय, वेद्यांतर स्पर्शशून्य, ब्रह्मास्वाद सहोदर, लोकोत्तर चमत्कार प्राण तथा अपने स्वरूप से नितांत अभिन्न रस-रूप इस कारण उद्बुद्ध होता है क्योंकि नाटक के पात्र वास्तविक दुनिया के पात्र नहीं होते। वह काल्पनिक पात्रों का कल्पना के आधार पर इस तरह अभिनय कर रहे होते हैं कि कल्पना भी वास्तविक लगे। कल्पना का यह वास्तविक रूप भी चूंकि नट और नटी के बीच राम और सीता के चरित्र-चित्रण की क्रमवार प्रस्तुति होती है, इसलिये कल्पना-जगत के लाभ-हानि, राग-द्वेषादि सामाजिक को सीधे-सीधे प्रभावित नहीं करते। इसी कारण उसका चित्त कथित रूप से सत्योद्रिक बना रहता है। अगर राम और लक्ष्मण से विवाह-प्रस्ताव रखने वाली सूपर्णखा सामाजिकों या आस्वादकों की ओर मुखातिब होकर प्रेम का इजहार करने लगे, रावण मंच पर राम को लक्ष्य न बनाकर दर्शकों की ओर तीर छोड़ने लगे, डाकू का अभिनय करने वाला डकैत सामाजिकों की ओर दुनाली सीधी कर दे तो काव्य या नाटक की सारी की सारी अलौकिकता यकायक लौकिकता में तब्दील हो जायेगी और सत्योद्रिक चित्तवाला प्रमाता, अपने सत्योद्रिक चित्त की सारी की सारी विशेषताओं को खो बैठेगा।
इसलिये काव्य का सारा का सारा आलौकिक स्वरूप तभी तक अलौकिक है, जब तक वह लौकिक जगत को सीधे-सीधे कोई लाभ या हानि नहीं पहुंचाता। यही कथित काव्य का अलौकिक जगत जब लौकिक जगत को हानि या लाभ पहुंचाने लगता है तो सामाजिकों का सत्योद्रिक चित्त भी यकायक नष्ट हो जाता है। वह हुसैन की कलाकृतियों को जलाता है, ‘सोजेवतन’ को जब्त करता है। अखबारों के दफ्तरों में आग लगवा देता है, दिनकरों की कलम तोड़ने की कोशिश करता है। लोकमान्य तिलक, भगतसिंह, सुकरात, गणेशशंकर विद्यार्थी, फैज, साहिर, सरदार जाफरी जैसे चिन्तकों को प्रताणित-दण्डित करता है। नुक्कड़ नाटक के कलाकार सफदर हाशमी की हत्या करवाता है। ‘फायर’ फिल्म को चलने नहीं देता। इस प्रकार काव्य का सारा का सारा आलौकिक स्वरूप लौकिक स्वरूप में तब्दील हो जाता है। कहने का अर्थ यह है कि भट्टनायक का साधारणीकरण का सिद्धान्त नाटक के पात्रों के काल्पनिक होने के कारण सतही तौर पर भले ही सारगर्भित महसूस हो, क्योंकि नाटक के आस्वादन के समय आस्वादक को सीधे-सीधे किसी भी प्रकार की लाभ-हानि, सुख-दुख, शोषण-यातना, वार-प्रहार आदि से होकर नहीं गुजरना पड़ता। वह तो मात्र एक दृष्टा या श्रोता होता है, दृश्य नहीं। दृश्य में उपरोक्त लाभ-हानि आदि स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। दृष्टा सिर्फ उनका आस्वादन करता है और रसानुभूति या आनंदानुभति को प्राप्त होता है। पात्रों की इस काल्पनिकता के ही कारण ही सम्भवतः भट्टनायक को देशकालदि के बन्धन टूटे हुए महसूस हुए होंगे और आलम्बनादि विशिष्ट न रहकर सामान्य लगे होंगे। जबकि देश-कालादि का अनुभव कराये बिना एक सामाजिक में रसोद्बोधन किसी प्रकार सम्भव नहीं। अगर देश के ही बन्धन टूट जायेंगे तो देश-प्रेम की रसानुभूति किस प्रकार होगी? अगर काल के बन्धन टूट जायेंगे तो सतयुग और कलियुग की विशेषताओं में एक सामाजिक किस प्रकार अन्तर महसूस करेगा? ठीक इसी प्रकार आलम्बनादि यदि विशिष्ट न रहकर सामान्य लगने लगेंगे तो राम और रावण में एक सामाजिक किस प्रकार अन्तर महसूस करेगा? ऐसी स्थिति में उसे सीता, कौशल्या, कैकैयी, मन्थरा आदि या तो सिर्फ सामान्य स्त्री महसूस होंगी या सिर्फ अभिनय करने वाली नटी। इसलिये यह बात बलपूर्वक कही जा सकती है कि काव्य के आस्वादन के समय साधारणीकरण जैसी कोई स्थिति नहीं बनती। किसी भी प्रकार के रसोद्बोधन का सम्बन्ध सामाजिक के आत्मनिर्णय पर निर्भर है। अर्थात् एक सामाजिक राम, सीता, रावण, दुष्यंत, शकुन्तला, कौरव, पांडवादि का अभिनय करने वाले नट और नटी के अनुभावों से क्या और कैसा अर्थ ग्रहण कर रहा है? भले ही नट और नटी काल्पनिक पात्र हों लेकिन आस्वादन से लेकर रसानुभूति तक आस्वादक को वह पात्र वास्तविक लगते हैं और अपनी अभिनय क्षमता के आधार पर आस्वादक के रागात्मक संस्कारों को उद्वेलित करते है। सामाजिक के इन्हीं रागात्मक संस्कारों के उद्वेलन का नाम रसानुभूति है। और यह सारी प्रक्रिया आस्वादक के लिये काव्य के पात्रों के प्रति आत्मीयकरण की ही एक प्रक्रिया है। वह अपने आत्म के निर्णय के आधार पर ही काव्य के पात्रों के प्रति राग-द्वेषमय अर्थात् संवेदनात्मक या प्रतिवेदनात्मक हो जाता है। सामाजिक के आत्म को जब किसी काव्य-सामग्री से किसी भी प्रकार की लाभ-हानि की प्रतीति होती है तो वह काव्य के प्रति भी वही व्यवहार करने लगता है जैसा कि लौकिक जगत के पात्रों के साथ करता है। जैसे कि प्रेमचन्द की ‘मोटेराम शास्त्री’ अथवा ‘सत्याग्रह’ कहानियों में प्रतिबिम्ब पाने वाले पंडितजी का उन पर मानहानि का मुकदमा ठोक देना।’
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संदर्भ-सूची
1.रससिद्धांत , डॉ. ऋषिकुमार चतुर्वेदी, पृ.128
2.साहित्य-दर्पण तृतीय परिच्छेद
3.रससिद्धांत , डॉ. ऋषिकुमार चतुर्वेदी, पृ.99
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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