जीवन में परिवार का महत्त्व मौसमी सिंह प रिवार समाज की आधारभूत एवं महत्त्वपूर्ण इकाई है. मानव जीवन के सम्पूर्ण इतिहास में इसका महत्त्व स...
जीवन में परिवार का महत्त्व
मौसमी सिंह
परिवार समाज की आधारभूत एवं महत्त्वपूर्ण इकाई है. मानव जीवन के सम्पूर्ण इतिहास में इसका महत्त्व सबसे अधिक रहा है. परिवार ने अपने विकास की प्रारम्भिक अवस्था से ही व्यक्ति को वे सुविधाएँ दी हैं जो उसे एक सामाजिक प्राणी बनाने के लिए अत्यधिक आवश्यक है. यह एक जैविकीय प्राणी को सामाजिक प्राणी में परिणत करने में अपनी अद्वितीय भूमिका अदा करता है. यह सबसे पहली सामाजिक इकाई है जिससे नवजात शिशु का साक्षात्कार होता है. इसके माध्यम से शिशु सामाजिकता की जानकारी प्राप्त करते हुए स्वस्थ मानव के रूप में परिणत होता है. परिवार के विभिन्न कार्यों के परिणामस्वरूप ही व्यक्ति ने आज बर्बरता तथा असभ्यता की सीमा को लाँधकर सभ्यता के युग में प्रवेश किया है. डॉ. गोपाल शरण अग्रवाल ने लिखा है- ‘‘परिवार की सदस्यता के कारण ही व्यक्ति को एक सामाजिक मानव कहा जाता है- एक ऐसा मानव जो संस्कृति का अधिकारी है और जिसने अनेक नियंत्रणों में रहकर एक-दूसरे के विकास में सहयोग दिया है.’’ अतः इस दृष्टिकोण से परिवार द्वारा किये जाने वाले प्रमुख कार्यों के आधार पर उसके समाजशास्त्रीय महत्त्व को भली-भाँति समझा जा सकता है-
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परिवार के विभिन्न महत्त्व :
1. प्राणीशास्त्रीय कार्य- परिवार के प्रारंभिक विवेचन में कहा गया है कि यह पति-पत्नी तथा बच्चों का वह संगठन है जिसका प्रमुख कार्य परिवार की निरन्तरता को बनाये रखना और बच्चों के पालन-पोषण की व्यवस्था करना है. एक जैविकीय प्राणी होने के कारण मनुष्य में ऐसी अनेक जन्मजात प्रवृत्तियाँ हैं जिनकी नियमानुसार पूर्ति परिवार में ही संभव है. अतः इस संबंध में इसके तीन कार्यों का महत्त्व सबसे अधिक होता है- (क) यौनिक इच्छा की संतुष्टि, (ख) सन्तानोत्पत्ति और (ग) शारीरिक सुरक्षा. अतः परिवार एकमात्र ऐसी संस्था है जो व्यक्ति को कुछ सीमाओं के अन्दर रहकर ‘यौन’ जैसी मूलप्रवृत्ति को संतुष्ट करने के अवसर प्रदान करती है. सभी पुरुषों में पिता बनने की इच्छा और स्त्रियों में माँ बनने की इच्छा बहुत प्रबल होती है जिसकी पूर्ति केवल परिवार में ही सम्भव हो सकती है. अंत में कहा जा सकता है कि परिवार ही ऐसा स्थान है जहाँ इसके सदस्यों को सभी प्रकार की शारीरिक तथा मानसिक सुरक्षा प्राप्त होती है. परिवार के इन कार्यों के फलस्वरूप ही व्यक्तित्व का संतुलित विकास सम्भव हो पाता है।
2. सामाजीकरण का कार्य- परिवार का यह प्रकार्य विशेष महत्त्वपूर्ण है. इस कार्य को परिवार तीन रूपों में करता है- (क) सामाजीकरण के साधन, (ख) सामाजिक नियंत्रण के साधन और (ग) प्रस्थिति के निर्धारण. अतः परिवार का यह कार्य प्राणीशास्त्रीय कार्यों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है. यह केवल परिवार ही है जो व्यक्ति को प्राणीशास्त्रीय मानव से सामाजिक मानव के रूप में परिवर्तित करता है. यह व्यक्ति के जीवन को जन्म के पहले दिन से लेकर मृत्यु तक प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है. यह बच्चे को परिवार के नियमों की ही शिक्षा नहीं देता, बल्कि उसे अपने संस्कृति और लोकाचारों के अनुसार व्यवहार करना भी सिखाता है. उसी से बच्चा अपना एक ‘सामाजिक व्यक्तित्व’ विकसित करता है. इसी प्रक्रिया को सामाजीकरण की प्रक्रिया कहा जाता है. इसके माध्यम से ही परिवार बच्चों को समाज के अनुकूल बनाता है. रहन-सहन, खान-पान, बोलचाल की भाषा, अभिवादन के ढंग, क्रिया-कलापों के ढंग आदि सबकुछ परिवार से मिलता है.परिवार हमारे आचरण पर नियंत्रण भी रखता है, ताकि हम समाज के विपरीत कार्य न करें. सर्वप्रथम बच्चा परिवार के वातावरण में ही दया, सहानुभूति, सद्भावना, प्रेम और एकता जैसे गुणों को सीखता है. इस समय परिवार के सदस्य बच्चे से जिस प्रकार का व्यवहार करते हैं, वे ही व्यवहार धीरे-धीरे बच्चे के व्यक्तित्व का अंग बन जाते हैं. यही कारण है कि परिवार को मनुष्य के जीवन की ‘प्रारंभिक पाठशाला’ कहा जाता है. बच्चे के युवावस्था में प्रवेश करने पर यद्यपि अनेक दूसरी समितियाँ तथा संघ उसके जीवन को प्रभावित करना प्रारंभ कर देते हैं लेकिन परिवार का महत्त्व उस समय भी समाप्त नहीं होता है क्योंकि विवाह और दूसरे सांस्कृतिक कार्य भी परिवार द्वारा ही किये जाते हैं. इसके अतिरिक्त परिवार इसी स्तर पर व्यक्ति को एक सामाजिक परिस्थिति प्रदान करता है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों को समझने लगता है और इस प्रकार समाज की आशाओं के अनुसार व्यवहार करना सीखता है.
मनुष्य के जीवन में तीसरी अवस्था तब आती है जब व्यक्ति संतान को जन्म देकर माता और पिता का पद ग्रहण करता है. इस समय व्यक्ति को पारिवारिक जीवन के नये-नये अनुभव होते हैं और वह अपनी स्थिति में कुछ परिवर्तन पाता है. इस प्रकार समाजीकरण की प्रक्रिया, जिसमें व्यक्ति समाज से अनुकूलन करना सीखता है, यह परिवार द्वारा ही पूर्ण होता है.
3. आर्थिक कार्य- परिवार एक आर्थिक इकाई भी है. इस रूप में यह चार मूल कार्यों को करता है- (क) आर्थिक सुरक्षा, (ख) उत्पादन कार्य, (ग) सम्पत्ति अर्जन एवं संग्रह और (घ) श्रम-विभाजन. परिवार सदैव से ही आर्थिक क्रियाओं के केन्द्र रहे हैं. वही सर्वप्रथम नवजात शिशु को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करता है. वह इसी हेतु उत्पादन करता है, ताकि शिशु का उचित भरण-पोषण हो और वह इतना कुशल हो जाए कि समुचित जीवन-यापन के लिए संघर्ष कर सके. डॉ. गोपाल शरण अग्रवाल के शब्दों में- ‘‘असभ्यता के निम्न स्तर से ही पुरुष जंगलों में शिकार करने और भोजन की खोज में चले जाते थे, जबकि परिवार में स्त्रियाँ खेती, पशुपालन तथा दूसरे कार्य करती थीं. इसके बाद परिवार में ही छोटे-छोटे उद्योगों का जन्म हुआ और इस प्रकार परिवार आर्थिक क्रियाओं तथा उत्पादन के प्रमुख केन्द्र बन गए.’’ परिवार में सभी सदस्य किसी-न-किसी प्रकार धनोपार्जन करते हैं और इस प्रकार सभी छोटे-बड़े सदस्यों की आवश्यकता को पूरा किया जाता है. इसके अतिरिक्त श्रम-विभाजन के द्वारा भी परिवार अपनी क्रियाओं को इस प्रकार व्यवस्थित करते हैं जिससे सभी व्यक्तियों को अपनी कुशलता और योग्यता के अनुसार कार्य दिया जा सके. पारिवारिक सम्पत्ति की व्यवस्था करना भी महत्त्वपूर्ण कार्य है. आय और व्यय के सन्तुलन के आरम्भिक नियम व्यक्ति परिवार में ही सीखता है. सम्पत्ति के रूप में यह व्यक्ति के मकान, जमीन, आभूषण आदि की व्यवस्था अथवा संग्रहण करता है. इस प्रकार परिवार आर्थिक कार्यों को मिलकर सम्पन्न करता है.
4. धार्मिक कार्य- धर्म का पहला पाठ व्यक्ति परिवार से ही सीखता है. इसके माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने
धर्मों के बारे में जानकारी प्राप्त करता है. इससे धर्म की रक्षा होती है तथा इसके द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को इसका हस्तान्तरण होता है. परिवार के परिवेश में ही व्यक्ति धर्म, परम्परा, रीति-रिवाज पूजा-पाठ, पर्व-त्योहार आदि में भाग लेता है तथा उसे समझता, जानता है.वैवाहिक कार्य और दूसरे धार्मिक संस्कारों की पूर्ति भी इसी के द्वारा संभव है. परिवार व्यक्ति के जीवन में धर्म का महत्त्व स्पष्ट करता है. अतः इस कारण कहा जाता है कि धार्मिक कार्यों को पूरा करने में परिवार का सदैव एकाधिकार रहा है. परिवार व्यक्ति के जीवन में धर्म का महत्त्व स्पष्ट करता है और इस प्रकार व्यक्ति अपने जीवन को अधिक-से-अधिक नैतिक तथा पवित्र बनाने का प्रयत्न करता है. व्यक्ति को बचपन से ही धर्म का पाठ उसके परिवार वाले देते हैं जिससे बच्चा बचपन से ही अपने धर्मों के विषय में ज्ञान पाता है और उसे वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी धार्मिक कार्य के जरिये अपने बच्चों तक पहुँचाता है. बच्चे उसे अपनाकर अपने धर्म और संस्कृति का ध्यान रखते हुए उसे आगे बढ़ाते हैं.
5. सांस्कृतिक कार्य- परिवार के सांस्कृतिक कार्यों से तात्पर्य ऐसे कार्यों से है, जो उस समाज के मूल्यों और परम्पराओं की शिक्षा के रूप में होते हैं. एक समय विशेष में जिस प्रकार के व्यवहार संस्कृति के अन्तर्गत सम्मिलित किये जाते हैं, परिवार उन्हीं व्यवहारों को अपने सदस्यों को सिखाने का प्रयत्न करता है. यदि संस्कृति में धर्म का महत्त्व अधिक है तो परिवार व्यक्ति को धर्म और इसकी क्रियाओं की शिक्षा देता है. यदि संस्कृति में धन का महत्त्व है (जैसे कि आज यूरोप में) तो परिवार भी अपनी शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को प्रारम्भ से ही भौतिकवादी बना देता है.सांस्कृतिक तत्त्वों में किसी प्रकार का बदलाव आता है तो उससे सामाजिक संरचना में बदलाव आता है. यही सामाजिक परिवर्तन कहलाता है. उदाहरणस्वरूप- हिन्दुओं में विवाह के प्रति यह आदर्श था कि विवाह एक धार्मिक संस्कार है. अतः ‘‘परिवार का शैक्षणिक कार्य भी बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि परिवार ही बच्चे को सर्वप्रथम अपनी संस्कृति, धर्म, शिष्टाचार, व्यवहार के तरीकों तथा प्रथाओं की शिक्षा देता है. ये सभी शिक्षाएँ व्यक्ति के भावी जीवन का अभिन्न अंग बन जाती हैं. वर्तमान जीवन में परिवार के कार्यों में जो परिवर्तन हुए हैं, उनका बहुत बड़ा कारण सांस्कृतिक विशेषताओं में होने वाला परिवर्तन ही है.’’
6. मनोवैज्ञानिक कार्य- परिवार का यह कार्य मानसिक सुख एवं शांति से सम्बन्धित है. मानव एक भावुक प्राणी है. उसे स्नेह चाहिए, सहानुभूति चाहिए, अपनापन चाहिए, सुख-दुःख का सहभागी चाहिए, ताकि दुःखी मन को शांति मिले. जन्म से लेकर मृत्यु तक अनेक प्रकार की उथल-पुथल होती रहती है, ऐसे में मानव-मन कभी-कभी काफी टूट जाता है लेकिन परिवार व्यक्ति को स्नेह, सहिष्णुता, दया, सहानुभूति आदि के माध्यम से मजबूत बनाता है और उसे जीने की प्रेरणा प्रदान करता है. समाजशास्त्रीय अध्ययनों से यह सिद्ध हो गया कि परिवार इस मनोवैज्ञानिक प्रकार्य को कुशलता के साथ सम्पन्न करता है. परिवार के लोग आपस में मिलजुल कर रहते हैं तथा हर मुसीबत या विपत्ति की घड़ी में सदैव एक-दूसरे का साथ देते हैं. मानसिक रूप से बड़े सदैव अपने परिवार को सहयोग प्रदान करते हैं तथा इसकी देख-रेख करने का कार्य करते हैं.
7. मनोरंजन संबंधी कार्य- परिवार में मनोरंजन-संबंधी कार्यों का महत्त्व भी कम नहीं है. एम. एल. गुप्ता और डी. डी. शर्मा ने सही लिखा है- ‘संयुक्त परिवार में सदस्यों की अधिकता के कारण यह मनोरंजन की सस्ती व पर्याप्त स्थली है.’ एक समय था जब परिवार मनोरंजन के एकमात्र केन्द्र थे. संध्या को सभी कार्यों से निवृत्त होकर परिवार के सभी सदस्य एक साथ बैठते थे और कहानी एवं चुटकुलों द्वारा परिवार का मनोरंजन होता था. भारत के ग्रामों में तो परिवार के लोग आज भी सबसे अधिक मनोरंजन करते हैं और लोक-कथाओं के माध्यम से संस्कृति का विकास करते हैं. नाच-गान, खेल, कहानियाँ और पौराणिक गाथाएँ कुछ विशेष साधन हैं जिनके द्वारा परिवार के सदस्य इस कार्य को पूरा करते हैं. इस संबंध में एक विशेष बात यह है कि परिवार द्वारा प्रदान किये जाने वाले मनोरंजन का अन्तिम उद्देश्य केवल व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करना होता है. इसी कारण पारिवारिक मनोरंजन को आज भी मनोरंजन का सबसे स्वस्थ स्वरूप समझा जाता है, जिसमें बच्चों की प्यारी-प्यारी बोली, हँसना-हँसाना, बच्चों का पारस्परिक झगड़ा, दाम्पत्य प्रेम एवं रोमांस, कथा-कहानी आदि मनोरंजन प्रदान करते हैं. परिवार में मनाया जाने वाला पर्व-त्योहार, धार्मिक क्रिया-कलाप, विवाह-उत्सव आदि भी मनोरंजन के साधन हैं. परन्तु आज के आधुनिक समाज में जबसे घरों में टेलीविजन, रेडियो, कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, इन्टरनेट आदि का आगमन हुआ है तब से परिवार आधुनिक मनोरंजन का विशेष केन्द्र बन गये हैं.
8. शैक्षणिक कार्य- अरस्तू ने कहा है कि परिवार बच्चों का प्रथम पाठशाला रहा है. सर्वप्रथम बच्चे पारिवारिक परिवेश में ही दया, प्रेम, अपनापन, त्याग, सहयोग, आज्ञापालन, कर्त्तव्य निष्ठा, परोपकार जैसे गुणों की शिक्षा प्राप्त करते हैं. यह शिक्षा बच्चा एक-दूसरे के प्रति व्यवहार के क्रम में प्रतिदिन के जीवन में प्राप्त करता है इसलिए इसका शिशु मन पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि बच्चे अपने बचपन में जो सीखते हैं, आगे चलकर वही अपनी बाद की पीढ़ी को सिखाते हैं. प्रथम पाठशाला के रूप में परिवार अपने बच्चों को अच्छे-बुरे का ज्ञान देता है, इनमें फर्क समझाता है. बचपन से ये सब बातें हमारे परिवार के बड़े सदस्यों के द्वारा सिखाई जाती हैं जिसे बच्चे अपने सम्पूर्ण जीवन में व्यवहार करते हैं. बचपन से ही बच्चों को हँसना और रोना परिवार के द्वारा ही सिखाया जाता है. अतः यह परिवार का एक महत्त्वपूर्ण कार्य कहलाता है.
9. राजनीतिक प्रकार्य- परिवार को राजनीतिक क्रिया-कलाप का भी केन्द्र कहा गया है. एक तरफ यह राज्य एवं देश के प्रति व्यक्ति के कर्त्तव्य को स्पष्ट करता है तथा राज्य और देश के प्रमुख नियमों से हमें अवगत कराता है, तो दूसरी तरफ राजनीतिक व्यवहार को भी निर्देशित करता है. चुनाव-काल में सामान्यतः देखा जाता है कि एक ही परिवार के सभी मताधिकारी प्रायः एक ही उम्मीदवार को वोट डालते हैं. यह वोट देने की क्रिया पारिवारिक निर्णय पर आधारित होती है, साथ ही यदि परिवार का कोई सदस्य राजनीति में पूर्णतः लगा होता है तो परिवार के अन्य सदस्य प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में अपने सदस्य की मदद करते हैं. वे उसे जिताने में अपना सहयोग हर तरह से प्रदान करते हैं जिससे उस व्यक्ति को राजनीतिक तौर पर अपने परिवार का सहयोग प्राप्त होता है.
10. अन्य कार्य- उपर्युक्त समस्त कार्यों के अतिरिक्त परिवार, व्यक्ति तथा समाज के लिए अन्य महत्त्वपूर्ण सेवाएँ भी प्रदान करता है. ऐसे कार्यों में व्यक्ति को राज्य के प्रमुख नियमों से परिचित कराना, प्रमुख अनुभवों को आगामी पीढ़ी के लिए संचरित करना, मनोवैज्ञानिक रूप से सदस्यों को सुरक्षा प्रदान करना, व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का निर्धारण करना तथा मानवीय गुणों की शिक्षा प्रदान करना परिवार के महत्त्वपूर्ण कार्य हैं. परिवार द्वारा किये जाने वाले इन महत्त्वपूर्ण कार्यों के आधार पर ही गोल्डस्टीन ने कहा था- ‘‘परिवार वह स्थान है जिसमें भविष्य का जन्म होता है और ऐसा शिशुगृह है जिसमें एक जनतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था का निर्माण होता है.’’ इस प्रकार परम्परा के द्वारा परिवार अतीत से सम्बद्ध है लेकिन सामाजिक उत्तरदायित्वों के आधार पर इसका संबंध भविष्य से भी है. परिवार द्वारा सिखाए गए कार्यों से उस बच्चे के एक कुशल भविष्य का निर्माण होता है.
इस प्रकार उपर्युक्त तथ्यों से पता चलता है कि परिवार व्यक्ति एवं समाज के प्रति महत्त्वपूर्ण कार्यों को सम्पादित करता है जिससे एक कुशल व्यक्ति का निर्माण होता है तथा उसके पश्चात् एक कुशल परिवार का निर्माण उसी व्यक्ति के द्वारा किया जाता है. अतः इसे प्राथमिक एवं मौलिक इकाई कहा जाता है. चाहे तो हम कह सकते हैं कि परिवार वह संस्था है जिसमें भविष्य का जन्म होता है और यह एक ऐसा शिशुगृह है, जिसमें एक जनतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था का निर्माण होता है. समाज के लिए परिवार द्वारा किये जाने वाले कार्यों का उद्देश्य व्यक्ति को अपने विकास के लिए जरूरी सुविधाएँ प्राप्त कराता है. दूसरी ओर व्यक्ति के प्रति किये जाने वाले कार्यों का उद्देश्य सामाजिक संस्था में संतुलन तथा एकरूपता उत्पन्न करना है. हमारी पारिवारिक संरचना तथा कार्यों में आधुनिक युग में हो रहे परिवर्तनों के कारण परिवार में अनेक समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं. विवाह-विच्छेद, दाम्पत्य जीवन में मतभेद, माता-पिता तथा बच्चों के संबंधों में तनाव, संयुक्त परिवार के प्रति बढ़ती हुई उदासीनता इन समस्याओं में प्रमुख हैं. आज परिवार का प्रभाव पहले की अपेक्षा कम हो गया है, फिर भी उपर्युक्त विशेषताओं को देखते हुए हम कह सकते हैं कि परिवार का महत्त्व आज भी बना हुआ है. यह व्यक्ति के व्यवहारों पर नियंत्रण रखने वाली प्रभावशाली संस्था है. सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में परिवार के महत्त्व और इसके एकाधिकार में किसी तरह की कमी नहीं आई है.
संदर्भ सूचीः
1. अग्रवाल, डॉ. गोपाल कृष्ण, समाजशास्त्र, साहित्य भवन पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लि. आगरा, 2001, पृ. 101
2. वही, पृ. 102
3. वही, पृ. 102
4. गुप्ता, एम.एल. और शर्मा, डॉ. डी. डी., समाजशास्त्र, साहित्य भवन पब्लिकेशन, आगरा, 2016, पृ. 60
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