काव्य जगत डॉ . केदार सिंह की कविता परिचय जन्म तिथि : 24.08.1963, ग्राम-सलगी, पो.-जबड़ा, जिला-चतरा (झारखण्ड) शिक्षा : रांची विश्ववि...
काव्य जगत
डॉ. केदार सिंह की कविता
परिचय
जन्म तिथि : 24.08.1963, ग्राम-सलगी, पो.-जबड़ा, जिला-चतरा (झारखण्ड)
शिक्षा : रांची विश्वविद्यालय, रांची से हिन्दी एवं संस्कृत में एम.ए., पी-एच.डी.
प्रकाशित पुस्तकें : पत्थरों के शहर में खो गया है गाँव (कविता संग्रह), विषयनिष्ठ एवं वस्तुनिष्ठ हिन्दी : कल और आज, हिन्दी आलोचना : कल और आज, हिन्दी नाटक : कल और आज, प्रकाशनाधीन : हिन्दी पत्रकारिता : कल और आज. सम्पादित पुस्तकें : एकांकी कुंज, कहानी की तलाश, वेव पत्रिकाओं में यात्रा वृतांत, कविताएँ, संस्मरण, आलेख आदि प्रकाशित. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी अनेक शोध आलेख प्रकाशित. सम्प्रति : विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग में अध्यापन.
पता : सदर ब्लॉक रोड, आनन्दपुरी, संत कोलम्बस कॉलेज, हजारीबाग-825301 (झारखण्ड)
kedarsngh137@gmail.com
माँ
माँ!
जानता हूँ
तुम नहीं हो
फिर भी विश्वास नहीं होता
कभी बिस्तर के सूखे छोर पर
मुझे सुलाकर
खुद गीले छोर में सिकुड़कर
सोई हुई नजर आती हो
कभी निस्तब्ध रात्रि में मेरे रोने पर
मुझे दूध पिलाती नजर आती हो
नींद नहीं आने पर
लोरियाँ सुनाकर, थपकियाँ देती
नजर आती हो
माँ!
जानता हूँ
तुम नहीं हो
फिर भी विश्वास नहीं होता
कभी स्वयं भूखी रहकर,
अपने हिस्से का निवाला
खिलाती नजर आती हो
कभी आटा गूंधते, रोटियाँ सेंकते
पसीने से तर-बतर नजर आती हो
कभी खिलौने के लिए मचलने पर
मनौती करती हुई नजर आती हो
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माँ!
जानता हूँ
तुम नहीं हो
फिर भी विश्वास नहीं होता
कभी हाथ थामकर चलना सिखाती
नजर आती हो
कभी स्लेट पर वर्णमाला
का अभ्यास कराती नजर आती हो
कभी गीता, मानस का पाठ करती
नजर आती हो
कभी पंचतंत्र, हितोपदेश की कहानियाँ
सुनाती नजर आती हो
कभी क्रोधित होने पर
डांटती नजर आती हो
कभी पुचकारती नजर आती हो
माँ!
जानता हूँ
तुम नहीं हो
फिर भी विश्वास नहीं होता
और तुम्हें ढूंढ़ता हूँ
गाँव के उस घर में जहाँ तुम रहती थी
उस रसोई में जहाँ तुम भोजन बनाती थी
उस बिस्तर को टटोलता हूँ
जिसके गीले छोर पर तुम सोती थी
उन गलियों में जहाँ चलना सिखाती थी
माँ!
तुम्हें ढूंढ़ता हूँ
उन घरों में, जहाँ की
दहलीज पर वृद्ध माताएँ
आँखें बिछाए बैठी रहती हैं
अपनी संतानों की प्रतीक्षा में
माँ!
तुम्हें ढूंढ़ता हूँ
वृद्धाश्रम की उन माताओं में
जो एक अदद छत
और दो वक्त की रोटी के लिए
पनाह लिए रहती है वहाँ
माँ!
मैं तुम्हें ढूंढ़ता हूँ
ढूंढ़ता ही रहूँगा
कभी लोरियों के लिए
कभी थपकियों के लिए
कभी झिड़कियों के लिए
कभी सरलता के लिए
कभी निश्च्छलता के लिए
कभी ममत्व के लिए
कभी उदारता के लिए
माँ!
तुम्हें ढूंढ़ता रहूँगा
तुम्हें ढूंढ़ता ही रहूँगा
ढूंढ़ता ही रहूँगा...
-
राजेश महेश्वरी
बुजुर्गों के सपने
वह वृद्ध व्यक्ति
अपने अनुभवों की जागीर को समेटे हुए
चेहरे पर झुर्रियां जैसे
कैनवास पर किसी पत्रकार ने
आढ़ी तिरछी रेखाओं को खींचकर
एक स्वरूप दे दिया हो
टिमटिमाते हुए दिये की लौ में भी
गर्मी का अहसास कर रहा था
अपनी अवस्था से नहीं व्यवस्था से
वह दुखी व परेशान था
यह उसके सपनों का देश नहीं था
वह चिंतन, मनन में खोया हुआ
भयमुक्त, ईमानदारी की राह
नैतिकता से आच्छादित, सहृदयता, समरसता
एवं सद्चरित्र से परिपूर्ण
समाज का सपना देखता था
परंतु विपरीत परिस्थितियां उसे
अपने में अपने आप को सोचने में मजबूर करती थीं
उसके चेहरे पर फिर भी खुशी का भाव रहता था
उसे नई पीढ़ी से परिवर्तन की अपेक्षाएं थीं
सूर्यास्त हो रहा था और एक दिन वह
अनंत में विलीन हो गया,
उसके मन की आस, आज भी वातावरण में समाहित है
कि एक दिन, देश में परिवर्तन आएगा
और उसका सपना, साकार हो जाएगा.
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चाह रहा था
तेज राम शर्मा
चाह रहा था
जीवन हो
चुआया-सा
आसुत
मानवता के सत-सा
तरल
फैला हो सागर उछाह-सा
पृथ्वी-सी जीभ पर
खटमिट्ठा-सा
भरा हो रात दिन का ताना-बाना
रोजमर्रा के सरल सहज तारों से
शिल्पी के हाथों में हो
जीवन के खुरदरे पन की
स्निग्ध तराश
टूटे भी तो
रात के निर्मल आकाश में
तारे-सा
उभरे फिर नये क्षितिज पर
सुबह की हरी घास पर
अमृत बूंद-सा.
सम्पर्कः श्रीराम कृष्ण भवन, अनाडेल,
शिमला-171003 (हि.प्र.)
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रमेश मनोहरा
आनन्द उत्सव
प्रजातंत्र में वे ही आनन्द उत्सव
मनाते हैं भाई,
जो पांचों ऊंगलियों से
चाटते हैं दूध और मलाई.
गठबंधन
जब तक रहा गठबंधन
तब तक तो रहे
उनके आपस में खूब ठाठ.
मगर किसी बात को लेकर
उनके बीच बढ़ गया तनाव
तो पड़ गई उनमें गांठ.
सम्पर्कः शीतला गली, जावरा
(म.प्र.)-457-226, जिलाः रतलाम
मोः 9479662215
कविता
सत्यपाल ‘निश्चिन्त’
नारी की वेदना
आज के सामाजिक परिवेश में,
किसी ने भी नहीं जाना
नारी की वेदना को.
सभी ने पीड़ा दी है नारी को,
विशेषकर नारी ने ही छला है नारी को,
क्यों ऐसा होता है नारी के साथ
सोचा है कभी किसी ने नारी व्यथा को
क्या नारी चाहती है कि उसे
कुलक्षणी, कुल्टा, चरित्रहीन कहा जाय,
समाज द्वारा, अपनों द्वारा.
नहीं, फिर भी न चाहते हुए भी-
उसे इन्हीं नामों से पुकारा जाता है.
नारी के चरित्रहीन होने का
मुख्य कारण समाज ही तो है.
उसकी अस्मिता की धज्जी
समाज के दरिन्दे ही तो उड़ाते हैं.
और वही समाज उसे नाम देता है,
कुलक्षणी, कुल्टा चरित्रहीन का.
नारी स्वयं चिंतित है कि वह
कैसे बचा पाए अपनी लाज को.
लेकिन फैशन की दौड़ में,
धनवान बनने, आर्थिक विषमतायें मिटाने
और नाम कमाने की दौड़ में ही तो,
नारी स्वयं लुटाती है अपना अस्मिता.
आज की नारी इन्हीं कुछ कारणों से,
‘निश्चिंत’ नहीं है जीवन बिताने को.
संपर्कः बी-902, गिनी विवानिया, सर्वे नं. 38/1
मिटकॉन कॉलेज के पीछे, वालेवाडी,
पुणे-411045 (महाराष्ट्र)
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अनिरुद्ध सिन्हा
1
कदमों के जब निशान इरादों में ढल गए.
हम हौसलों के साथ हवा में निकल गए.
अब भी है अपने नूर पे मगरूर वो बहुत,
रस्सी तो जल गई है कहां उसके बल गए.
प्यासी जमीं के जिस्म पे ऐसी बला की धूप,
चेहरे थे जिनके चांद सफर में बदल गए.
फिर मुझको भूलने की भी रस्में अदा हुईं,
पहले तमाम खत थे जो यादों में जल गए.
रक्खे हैं जब से सर पे किसी ने दुआ के हाथ,
मुट्ठी में बद उनके मुकद्दर संभल गए.
2
तेरे सिवा कहीं न किसी से जुदा हुए.
फिर ये बता कि रूह से कैसे रिहा हुए.
तुझको जो भूलने की हुई भूल क्या कभी,
आंसू हमारी आंख के हमसे खफा हुए.
हमने लहू से गीत लिखे हैं तमाम उम्र,
हालात अपने आप कहां खुशनुमां हुए.
सर से जो इंतजार का पानी उतर गया,
खुशबू थे हम भी खुद में बिखर के हवा हुए.
रहते थे जो खुलूस से अपने पड़ोस में,
लम्हों के भेद-भाव से वे बेवफा हुए.
सम्पर्कः गुलजार पोखर,
मुंगेर (बिहार)-811201
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तालों की लहरी
अविनाश ब्यौहार
मुझे सुनाई
पड़ता ये
कोलाहल शहरी है!
गांव का
भोलापन आ
रहा है रास!
महानगर को
जकड़े कटुताओं
का नागपाश!
आबशार नातों का
दूषित है,
जहरी है!
रसोई की
साख गिरी,
कैफे गुलजार है.
बिछुये, इंगुर,
पायल, मेंहदी
सब बेजार हैं.
डरी डरी
सी लगती
तालों की लहरी हैं.
सम्पर्कः 86, रायल एस्टेट कॉलोनी,
माढ़ोताल, कटंगी रोड, जबलपुर
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केशव शरण
ईंट-पत्थर रह गया है.
ख्वाब का घर ढह गया है.
आंख सूखी तो हुआ क्या,
एक दरिया बह गया है.
और हाहाकार मचता,
दिल बहुत कुछ सह गया है.
क्यों न अच्छी लग रही है,
यार सच्ची वह गया है.
खूब बंटवारा अमिय का,
जब समुन्दर मह गया है.
एक चिनगी और मड़वा,
इक लपट में दह गया है.
देस वेदों से पुराना,
पर बदल-सा वह गया है.
अब कयामत साल सतरह,
ढा कहर सोलक गया है.
गुलों को अब बताना क्या.
परिन्दों का ठिकाना क्या.
नहीं ठहरे हमारे दिन,
तुम्हारा फिर जमाना क्या.
सभी के पास आंखें हैं,
हमें मंजर दिखाना क्या.
इशारेबाजियां देखीं,
समझ जाओ बताना क्या.
उन्हें ठंडक पहुंचती है,
वगरना दिल जलाना क्या.
यही उनकी मुहब्बत है,
समझते हो सताना क्या.
खिले हैं फूल पिछवाड़े,
वहां कुछ पल बिताना क्या.
सम्पर्कः एस 2/564 सिकरौल
वाराणसी-221002 (उ.प्र.)
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एहसान एम.ए.
चलो ये मान लिया बे-जमीर कोई नहीं
मगर ये क्यों है कि दिल का अमीर कोई नहीं
ये सच तो है कि किसी रुख से हम नहीं मुजरिम
मगर हमारे मुवाफिक नजीर कोई नहीं
हम अपने फैसले अपनी समझ से करते हैं
हमारा दिल के अलावा मुशीर कोई नहीं
बताये कौन? कि है इश्क की कहां मंजिल
हमारी राह में जब राहगीर कोई नहीं
खुदा वो दिन भी दिखाये कि शान से मैं कहूं
मेरे वतन की जमीं पर फकीर कोई नहीं
यकीं करो न करो तुम, मगर मेरे जैसा
तुम्हारे गेसू-ए-खम का असीर कोई नहीं
कोई न कोई बिसाते-सितम उलट देगा
ये कैसे कह दूं कि ‘एहसान’ वीर कोई नहीं
सम्पर्कः मोहल्ला- बरईपुर, पो. मोहम्मदाबाद गोहना
जिलाः मऊ, (उ.प्र.)
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