आत्म संदर्भ धारावाहिक आत्मकथा (दूसरी किस्त) अनचाहा सफर रतन वर्मा सुप्रसिद्ध कहानीकार और उपन्यासकार रतन वर्मा उन गिने चुने लेखकों में...
आत्म संदर्भ
धारावाहिक आत्मकथा (दूसरी किस्त)
अनचाहा सफर
रतन वर्मा
सुप्रसिद्ध कहानीकार और उपन्यासकार रतन वर्मा उन गिने चुने लेखकों में से हैं, जो निरन्तर साहित्य साधना में रत रहते हैं. उनके कई उपन्यास प्रकाशित होकर चर्चित हो चुके हैं. अब उन्होंने आत्मकथा लेखन में अपना हाथ आजमाने का प्रयास किया है. अभी उनकी आत्मकथा पूरी नहीं हुई है, परन्तु प्राची ने उसे धारावाहिक रूप में प्रकाशित करने की योजना बनाई है. प्राची के जनवरी, 2017 अंक से इसका आरंभ हुआ था. अब प्रस्तुत है इसका दूसरा अंश. संपादक
मेरा निरंकुश होते जाना
जब मैं सिर्फ एक वर्ष का था, तब ही मेरे पिता का निधन हो गया था. हम चार भाई-बहनों में मेरे भैया श्री कामेश्वर प्रसाद वर्मा सबसे बड़े थे. पिता के निधन के समय उनकी उम्र मात्र नौ वर्ष थी. मेरी विधवा हो गयी मां सिर्फ सत्ताईस की थीं तथा मुझसे बड़ी बहन तीन वर्षों की उनसे बड़े मंझले भैया धनेश प्रसाद वर्मा छः वर्ष के थे. मधुबन गाँव में अच्छी-खासी पुस्तैनी सम्पत्ति थी हमारी. वह गाँव मुजफ्फरपुर जिले में अवस्थित था. मुजफ्फरपुर शहर के नया तोला मोहल्ले में एक दो मंजिला मकान भी था, जो आज भी थोड़े परिवर्तन के साथ वहां मौजूद है और जिसमें मेरे इकलौते चचेरे भाई रमाशंकर अपने परिवार के साथ निवास करते हैं.
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मेरे पिता अपने दो भाइयों में बड़े थे. पिता के जीवनकाल में अपने बड़े भाई को मेरे चाचा पिता जैसा ही आदर दिया करते थे. मेरी मां को अपनी मां समान और हम भाई-बहनों को पुत्रवत आत्मीयता देते थे. लेकिन जैसे ही मेरे पिता का निधन हुआ उनका व्यवहार हम सभी के लिए सौतेला जैसा हो गया. हालात यहां तक पहुंच गये कि हमारे लिए उनके साथ रहकर ढंग से सांस लेना भी दुश्वार हो गया. हम जी तो रहे थे, पर जैसे-तैसे जीवन काट लेने की तरह. यह तय था कि चाचा के साथ रहते हुए हम भाइयों और बहन का भविष्य कहीं से भी सुरक्षित नहीं था. हालांकि मैं तो उस समय सिर्फ एक वर्ष का था, लेकिन जब थोड़ी समझ विकसित हुई तो मां अक्सर उन भयावह दिनों के किस्से बताया करती थीं.
हमारे हालात की सूचना मेरे बड़े मामा बिंदेश्वरी प्रसाद वर्मा, जो दरभंगे में रहा करते थे और शहर के गणमान्य लोगों में शुमार थे, उन्हें मिली. वे न सिर्फ जाने-माने स्वतंत्रता सेनानी थे, बल्कि समर्पित कांग्रेसी नेता भी थे. अपने दो छोटे भाइयों के लालन-पालन का दायित्व भी उन्हीं के कंधे पर था. उन्हें सिर्फ एक बात का दुःख था कि शादी के दस ग्यारह वर्ष गुजर जाने के बावजूद उन्हें संतान की प्राप्ति नहीं हुई थी तो जब उन्हें हमारे हालात का पता चला, तब क्रोध तो उन्हें बहुत आया था, पर अपने क्रोध पर नियंत्रण रखते हुए वे चाचा के पास पहुंच गये थे तथा हमारे पूरे परिवार को साथ लेकर दरभंगा आ गये थे.
हमारे आ जाने से उनके घर में जैसे बहार सी आ गयी थी. मैं चूंकि सबसे छोटा था, इसलिए मामी ने मुझे अपनी संतान मान लिया था. हालांकि ऐसा नहीं कि मेरे बड़े भाइयों और बहन को उनके किसी भी प्रकार के तिरस्कार का सामना करना पड़ता रहा था, फिर भी मेरे प्रति उनका स्नेह तुलनात्मक दृष्टि से कुछ अधिक ही था. मुझे मामा-मामी अपने साथ सुलाने लगे थे, जबकि दोनों भैया और दीदी मां के साथ सोया करते थे. मेरे साथ उनके अतिरेक स्नेह का हश्र यह हुआ था कि मैं दिन-प्रतिदिन जिद्दी होता चला गया था. इतना जिद्दी कि क्या मजाल कि मैंने किसी चीज या किसी बात के लिए जिद्द ठान ली और पूरी न हो.
एक घटना की याद तो अगर आज भी आ जाती है, तो अन्तस ठहाका लगा उठता है- मैं चार वर्ष का हो गया था. बाहर ही मामा आराम-कुर्सी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे और मैं उन्हीं के पास बरामदे में बैठा खेल रहा था. तभी दरवाजे पर नाई का आगमन हुआ. मेरा बाल काटने के लिए उसे बुलवाया गया था. पर मैंने जिद्द ठान ली थी कि बाल नहीं तो नहीं कटवाऊंगा. मामा दुलार-पुचकार करते रहे. अंततः जब मुझे लालच दिया गया कि बाल कटवाने के एवज में मुझे लेमनचूस दिया जायेगा तब मैं राजी हुआ था. लेकिन अभी नाई ने कनपट्टी के बाल पर एक-दो बार कैंची चलायी ही थी कि मैंने जिद्द ठान ली कि मैं अमरूद की शाख पर बैठकर बाल कटवाऊंगा.
हमारे दरवाजे के बाहर दो अमरूद के पेड़ हुआ करते थे. एक तो बहुत ऊँचा और दूसरा मंझोला, जिसकी शाखें छितराई सी थीं और शाखों की ऊँचाई इतनी ही कि जिस पर किसी बच्चे को गोद में लेकर बिठाया जा सके और फिर भी बच्चे का सिर बिठाने वाले के कंधे तक हो.
मामा ने मुझे गोद में लेकर शाख पर बिठा दिया था और खुद दोनों हाथों से मुझे पकड़ रखा था. फिर से नाई ने मेरे बालों पर कैंची चलाना शुरू किया था. अभी उसने दो-चार कैंची ही चलायी थी कि मैंने जिद्द ठान ली थी कि अब नाई के कंधे पर बैठकर बाल कटवाऊंगा.
मेरी इस जिद्द पर मामा को गुस्सा आ गया था, बोले थे, ‘उसके कंधे पर बैठेगा तो बाल कैसे काटेगा वह?’
पर मैं भी अपनी जिद्द पर अडिग था.
अब मामा का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया था. गुस्से में उन्होंने मेरे गाल पर हल्की चपत जड़ दी थी. फिर क्या था, मैं ऐसे चिंघाड़ उठा था, जैसे किसी ने मेरी जान ले ली हो. मेरा आर्तनाद अंदर मामी के कानों में पड़ा था. भागती हुई बाहर आयी थीं वह और मुझे गोद में उठाकर सीने से चिपका लिया था उन्होंने. फिर जब उन्हें पता चला कि मामा ने मुझे मारा है तब तो बिफरती नागन हो गयी थीं. वही बरस पड़ी थीं मामा पर, ‘हाथ नहीं टूट गया आपका, इस पर हाथ उठाते? इसीलिए भगवान आपको अपना बच्चा नहीं दे रहे हैं...’ इसके आगे और क्या-क्या बोलती रही थीं वह. इससे अनभिज्ञ मामा को डांट खाते देखकर शायद मैं मन ही मन आह्लादित होता रहा था. मामा लाख अपनी सफायी देते रहे थे, पर मामी पर कोई असर नहीं हुआ था.
उक्त घटना का जिक्र मैंने इसलिए किया है, ताकि बता सकूं कि अतिशय प्यार बच्चे को किस तरह जिद्दी बना सकता है, जो उसके व्यक्तित्व के विकास में घातक भी सिद्ध हो सकता है.
मामा और मामी इस उम्मीद से निराश हो ही चुके थे कि अब उन्हें किसी औलाद का सुख भी प्राप्त होगा, इसलिए अपना सारा प्यार वे मुझपर ही न्यौछावर करते रहे थे, लेकिन नियति का खेल भी निराला ही होता है. उसी वर्ष जब मैं चार वर्ष की उम्र पार कर रहा था, मामी के पैर भारी हो गये. और जब मैं पांच वर्ष का हुआ, तब उन्होंने एक पुत्री को जन्म दिया, जिसका नाम मंजु रखा गया. उसके बाद तो मुझे जैसे भगवान का अवतार ही मान लिया गया था. सिर्फ मामा-मामी नहीं, बल्कि आस-पड़ोस, हित नातेदार सभी के मुंह में एक ही बात कि रतन का पैर इतना शुभ है कि मामी की गोद भी भर गयी. फिर तो मामा-मामी जैसे दोनों हाथों से मेरे लिये प्यार लुटाने लग गये थे; हालांकि एक संकट का सामना उन्हें और करना पड़ा था. कमरे में एक अतिरिक्त पलंग की व्यवस्था कर दी गयी थी. उस पर मेरे और मामा के सोने की व्यवस्था की गयी थी और मामी और मंजु की व्यवस्था पुराने बिस्तर पर.
लेकिन यह मुझे कहां मंजूर था. मेरी जिद्द और रोने-चिल्लाने के कारण व्यवस्था में परिवर्तन किया गया था. मैं मामी के साथ सोने लगा था और मंजु मामा के साथ. मगर रोज़ सुबह जब मेरी आँखें खुलती थी, मैं खुद को मामा के बिस्तर पर पाता था.
बचपन का मेरा वह संस्मरण लंबे समय तक मेरे जेह्न में छाया रहा था. बाद में चलकर उस मनोविज्ञान पर मैंने ‘अब चेतना स्वस्थ है’ शीर्षक कहानी की रचना भी की, जिसका प्रकाशन ‘धर्मयुग’ के 1 से 15 जन. 1993 अंक में प्रकाशित हुई और अनेक बार उसका नाट्य रूपांतर का मंचन भी हुआ.
मंजु के जन्म के तीन वर्ष बाद मामी ने एक पुत्र को भी जन्म दिया. अब बड़े मामा का परिवार पूर्ण हो गया था. और मैंने अपने शुभ होने का डंका भी पिटवा दिया था चारों ओर.
मामा के एक घनिष्ठ मित्र हुआ करते थे, जिनका नाम था दयाशंकर प्रसाद. वे एक नामी एडवोकेट थे तथा धनपति भी. लेकिन वे भी संतानविहीन थे. मेरे कदम शुभ हैं, इसकी खबर तो थी ही उन्हें, सो एक दिन बातों-बातों में ही मामा से बोल पड़े, ‘भाई बिन्दा, अब तो तुम दो-दो बच्चों के बाप बन चुके हो. रतन का पैर तो सचमुच तुम्हारे लिए शुभ सिद्ध हुआ. अगर बुरा न मानो तो मैं रतन को गोद लेना चाहता हूँ. मेरे पास इतनी सम्पत्ति है, मगर भोगने वाला...’
शायद वे और भी कुछ बोलते, लेकिन तभी मामा गुस्से से आग बबूला होते हुए बोल पड़े थे, ‘चल उठ! और निकल यहां से. खबरदार जो आज के बाद से तुमने अपना चेहरा दिखाया. रतन मेरा भांजा नहीं, बल्कि बेटा है. मेरे दोनों बच्चों से पहले का बेटा. अब खड़ा क्यों है, जाता क्यों नहीं...’
तमतमाहट दयाशंकर बाबू के चेहरे पर भी उभर आयी थी. फिर भी वे स्पष्टीकरण देना चाह रहे थे, लेकिन मामा ने उनकी एक न सुनी और घर से निकाल बाहर करके ही दम लिया था.
अअअ
मैं शायद हर तरह से मामा के लिए शुभ सिद्ध हुआ था. न सिर्फ संतान के मामले में, बल्कि उनके उत्तरोत्तर समृद्ध होते जाने के मामले में भी. मेरे आने के पूर्व दो बार वे वार्ड-आयुक्त के चुनाव में खड़े हुए थे, पर सफल नहीं हो पाये थे. लेकिन मेरे आने के बाद जब उन्होंने चुनाव लड़ा, तब भारी बहुमत से उनकी जीत हुई थी. शहर के गणमान्य नागरिक तो थे ही वे, चुनाव जीतने के बाद उन्हें म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन के ओहदे के लिए भी ऑफर दिया गया था. पर क्योंकि सुरेन्द्र प्रसाद सिन्हा को वे बड़े भाई जैसा ही आदर देते थे, इसलिए उन्होंने खुद से उसके नाम का प्रस्ताव रख दिया था. उसके बाद से भी हर चुनाव जीतते रहे थे वे.
तो घर में मेरा शुभ माना जाना, अन्य लोगों के लिए शुभ था या नहीं, लेकिन मेरे लिए वह घातक ही सिद्ध हुआ था. मेरी जटिल से जटिल फरमाइशें पूरी की जाती रहतीं और मेरी बड़ी से बड़ी गलती पर भी किसी को कुछ कह पाने की इजाजत तो बिल्कुल भी नहीं थी. अगर किसी ने कुछ कह दिया, फिर तो समझिये कि उसने अपनी शामत ही बुला ली हो. मामी ने अगर किसी का भी मेरे प्रति दुर्व्यवहार देख लिया, तो गलती चाहे मेरी ही क्यों नहीं होती, मगर खामियाजा दुर्व्यवहार करने वाले को ही भुगतना पड़ता. चाहे वह मेरी माँ या मामा ही क्यों न हों.
घर में एकमात्र मेरे भैया ही थे, जो बचपन से ही काफी गंभीर प्रकृति के थे. सिर्फ उन्हीं से घर के सारे बच्चे खौफ खाते थे. इसका कारण था कि मामी भी उनकी गंभीर प्रकृति के कारण उन्हें कुछ विशेष सम्मान दिया करती थीं.
काव्य लेखन को भैया ने जब से होश संभाला था, तभी से करना शुरू कर दिया था. माँ तो यह भी कहा करती थीं कि मेरे पिता के जीवन-काल में दूसरी-तीसरी कक्षा से ही भैया कुछ-कुछ लिखते रहे थे. भैया की उस प्रतिभा पर हमारे पिता जी भी गौरवान्वित महसूस किया करते थे. मगर इतना तो समझ ही सकता हूँ मैं कि दूसरी-तीसरी कक्षा में पढ़ने वाला बच्चा भला क्या लिखता रहा होगा.
खैर, तो मामा के संरक्षण में आने के बाद, समय के अंतराल में, कामेश भैया धीरे-धीरे ख्यात होते चले गये थे. इतने ख्यात कि जब वे मारवाड़ी उच्च विद्यालय के छात्र थे, तब उनके हिंदी के शिक्षक का व्यवहार भी उनके साथ मित्रनुमा ही हुआ करता था. और धीरे-धीरे तो उनकी प्रतिष्ठा शहर के प्रत्येक वर्ग के लोगों के बीच बढ़ती गयी थी. जिला और समाज में वे मामा की तरह ही गणमान्य होते गये थे. शायद यही कारण था कि मामा और मामी की नज़रों में वे गंभीरता से महसूस किये जाने लगे थे.
क्रमशः.....
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