कहानी मंगरा मॉल पंकज मित्र शिक्षा : एम. ए., पी एच डी प्रकाशन : तीन कहानी संग्रह प्रकाशित- क्विज मास्टर, हुडुकलुल्लू और जिद्दी रेडिओ. ...
कहानी
मंगरा मॉल
पंकज मित्र
शिक्षा : एम. ए., पी एच डी
प्रकाशन : तीन कहानी संग्रह प्रकाशित- क्विज मास्टर, हुडुकलुल्लू और जिद्दी रेडिओ. चौथा शीघ्र प्रकाश्य.
इंडिया टुडे का युवा पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद् का युवा सम्मान, मीरा स्मृति सम्मान
सम्प्रति : आकाशवाणी रांची में कार्यक्रम अधिशाषी
ई-मेल : pankajmitro@gmail.com
‘‘शहर के किनारे जब मंगरा मॉल खुला तो शहर चौंका था. कुछ बातें बड़ी गजीब (गजब+अजीब) थी इस मॉल के बारे में. पहली बात इसका नाम- कहाँ शहरों के बीच स्मार्टफोन की प्रतियोगिता हो रही थी- स्मार्ट नामों वाले मॉल हर शहर में खुल रहे थे- ये मार्ट, वो मार्ट, ये बाजार वो बाजार, वहां किसी मंगरा-बुधुआ के नाम से मॉल हो तो अजीब तो लगेगा ही. दूसरी जो गजब बात थी वह मॉल के एस्कलेटर के ठीक पास एक आदमकद चट्टाननुमा चीज जो पहली नजर में किसी पत्थरगड़ी का पत्थर लगता था. पर बहुत ध्यान से देखें तो एक धुन बजाता आदमी सा दिखता....मतलब आभास देता था. इससे भी गजब यह कि ऊपरी हिस्से में चार-छः छेद बने थे जो कान-आँख-मुँह-नाक का आभास देते थे उसमें से किसी छेद में अगर कुछ ठूँस दें तो यह पत्थर कुछ-न-कुछ प्रतिक्रिया जरूर देता था. मसलन मुँह माने जानेवाले छेद में किसी ने टूथब्रश डाला तो नाक वाले छेद से टूथपेस्ट की झाग निकलती थी. किसी मनचले ने एक बार सिक्योरिटी की नजर बचाकर जलती सिगरेट ठूँस दी थी तो नाक वाले छेद से भकाभक धुँआ निकले लगा था और फायर अलार्म की घनघनाहट से पूरा मॉल गूँज उठा था. छोटे-छोटे बच्चों की शैतानियों का वह पत्थर बिल्कुल बुरा नहीं मानता. उसकी हाथनुमा चीज पर चढ़कर बच्चे जब उन छेदों में उँगली डालते तब भी नहीं. लेकिन एक शोहदेनुमा युवक ने जब उसके कानवाले छेद में मुँह सटाकर कुछ कहा था तो पत्थर उसके ऊपर गिरने लगा था. कई लोगों, सिक्योरिटी वालों ने बड़ी मुश्किल से संभाला था वरना युवक तो दब ही गया होता. बाद में पूछने पर कि उसने ऐसा क्या कह दिया था, उसने डरी-घबराई आवाज में बताया था- गंदी सी गाली दी थी उसने. देर रात जब मॉल बंद होता था तो शटर गिराने से पहले गार्ड्स या कोई सेल्सगर्ल पत्थर के सामने खाने की कोई चीज रख देते थे जो सुबह गायब मिलती थी. जिस रात ऐसा करना भूल गए तो समझो शामत आ जाती थी. काफी सामान बिखरा पड़ा होता था. तरह-तरह के पैकेट्स, कपड़े- काफी मेहनत से फिर जगह पर जमाना पड़ता था सबको. वैसे नाइट गार्ड तो यह भी कहता था कि रात को मांदर बजने की आवाज भी आती थी बंद शटर के अंदर से. लेकिन लोग इसे नाईट गार्ड वीरू भगत के संध्याकालीन टॉनिक का असर मानते थे. मॉल का स्टाफ जब खिल्ली उड़ाता वीरू भगत की तो वीरू काफी तैश में आकर रहता- तुमलोग देखा नहीं है न मंगरा को, हम देखा है. सारा बात हम जानता है. तुमलोग आज का लड़का-लड़की! कहाँ से जानने सकेगा. -फिर थोड़ा लड़खड़ाता-सा पत्थर के सामने जाकर कहता- दादा! जोहार! रात को जो तुम अधरतिया अंगनई झूमर का ताल बजाया, झूमा दिया- एकदम!- हाय रे हाय! हाय रे हा! झिंझरी काटल मांदर गुइयाँ...गाता हुआ वीरू भगत निकल जाता डेरे की ओर. उस वक्त मॉल की सफाई चल रही होती. चारों तरफ वैक्यूम क्लीनर की घर्र-घर्र, डंडे वाले पोंछा की सपासप चल रही होती. सामान सजाया जा रहा होता. पुतलों के कपड़े बदले जा रहे होते. उनकी जगह भी बदली जा रही होती- मतलब कस्टमर आये तो उसे सबकुछ नया, चमकीला और दिव्य आलोक से जगमगाता लगना चाहिए न. धूल-माटी का कहीं एक कण भी न रह जाये जबकि वीरू भगत कहता है कि पहले तो यहाँ धूल ही धूल उड़ती थी.
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-मंगर दादा को तो माटी से एतना परेम था...अभी भी देखते नहीं हो केतना भी झाड़ू-पोंछा मारो, मंगर दादा मतलब उ पत्थर के पास थोड़ा सा माटी हमेशा झरल रहता है. रहता है कि नहीं? -वीरू भगत की इस बात पर से सहमत होना ही पड़ता है विरसी को क्योंकि वहां पर वही तो रोज पोंछा लगाती है. मगर नये लड़के-लड़कियाँ इस बात पर खी-खी कर हँसते हैं.
-चलो! बैक टू वर्क।! -मैनेजर हल्की झिड़की देता है. भगत! जाओ घर जाओ -और तुम बबीता! क्या मुँह चला रही हो अभी तक? आज बंपर सेल डे है और तुम लोग तैयार नहीं हो अब तक. एसी चलाओ, सब ओर रूम फ्रेशनर स्प्रे करो. गॉट इट? फास्ट.
-यस सर! -सबकी समवेत ध्वनि.
-आज बॉस का भी विजिट होगा. बी केयरफुल.
-यस सर! -फिर समवेत ध्वनि.
-हुँह! बॉस! -साइकिल पर चड़ता हुआ वीरू भगत बुदबुदाया था. सोमरा भगत का बेटा-जॉन! गांव में जो पाँच परिवार क्रिस्तान बन गए थे उसी में एक- मंगर-दादा के ही किलि का आदमी पर- मंगर को ही...ठीक ही कहता है टाँगी में बेंट लकड़ी का नहीं हो तो गाछ कटेगा कैसे? वहीं जॉन अब बॉस है उसका भी. जोहार का जवाब तक नहीं देता. एकाध बार कोशिश की थी वीरू भगत ने सामने पड़ने की. तनख्वाह बढ़वाने के लिए बात करने की- सोचा गाँव का लड़का है तो बात रखेगा. लेकिन हुआ क्या? गार्ड डयूटी से हटकर नाईट गार्ड में पहुँच गया कि कभी जॉन मॉल में आए भी तो उसका सामना न हो कभी भी. सामने पड़ते ही उस दिन का दृश्य घूम जाता है जब गले में मांदर लटकाये मंगर दादा पहुँचा था जॉन के सामने हिसाब-किताब करने. झक्क सफेद कलफ किया हुआ कुर्त्ता-पाजामा, पैरो में सफेद स्पोर्ट्स शू और गले में मोटी सोने की चेन पहने जॉन बैठा था नए बने बैठके में. उसी की धजावाले चार-पाँच दोस्तों के साथ. इसमें विसनाथ बाबू को भी पहचाना था मंगर ने. विसनाथ बाबू ने भी पहचान लिया था उसे-
-अरे! मांदर सम्राट! -विसनाथ बाबू चहके थे.
जॉन का चेहरा गंभीर हो गया था मगर बाकी सभी ही-ही-ठी-ठी करने लगे थे विसनाथ बाबू की बात पर.
-काहे आये हैं? -जॉन ने गरजकर पूछा.
-जॉन बेटा! उ हम अपना बेटा के बारे में पूछने...
-आपका बेटा कहाँ है हम क्या जाने -कहीं पड़ल होगा- पी-खाके.
-नहीं बाबू! तुम तो जानते हो पीता-खाता नहीं
-मोटा पैसा मिला था तो आदमी का नीयत बदलते केतना देर लगता है.
-लेकिन सब बोलता हूँ कि वहीं पर जो हमरे जमीन पर मॉल न क्या बना है वहीं दिखा था- उसके बादे से गायब है- बेटा.
फफक कर रो पड़े थे मंगर दादा.
-तुमलोग को कुछ मालूम है तो बता दो, हमरा और कौन है?
-मतलब हमलोग गायब कर दिये है तुमरा बेटा को? -इस बार विसनाथ बाबू गरजे थे- तो जाओ- थाना पुलिस कर दो.
-निकलिये- निकलिये यहाँ से जाइये -कहकर जॉन ने जो धक्का दिया तो गिर पड़े थे मंगर दादा. ठेहुने छिल गये थे. चुपचाप उठे, मांदर को संभाला और धीरे-धीरे बजाते हुए निकल गए. अखड़ा पर पहुँचे मतलब अखड़ा तो अब था नहीं एक उजाड़ सी जगह थी. वहाँ पहुँचकर जोर-जोर से मांदर बजाने लगे- धातिंग दा-धातिंग दा/धातिंग-धिंग धतिंग
धिंग/अखिट किड़ तांग/अखिट किड़ तांग/तिरी ता धातिंग/तांग किड़ तांग.
मंगर दादा का यह रूप वीरू भगत सहित सभी ने पहली बार देखा था. चेहरा लाल भभूका, आँखों से झर-झर बहती आँसू की धार और मांदर की आवाज में एक रोषपूर्ण रुलाई- सचमुच अद्भुत हाथ चलता था मांदर पर मंगर दादा का. सरहुल हो या करम, झूमर हो या खेमटा -अखड़ा में बस रंग जमा देते थे मंगर दादा. तब भौजी भी थी- जगर. मगर रूप- कमर में हाथ डालके एक झुंड- हाय रे हाय, हाय रे हाय/झिंझरी काटल मांदर गुइयाँ के तोरा लानय सिरा सिंदूर, नयना भी काजर गुइयाँ.
और साथ में मांदर पर चलती मंगर दादा भी उल्लासमय उंगलियाँ- धितांग धातिंग/दा धातिंग दा दा धातिंग/धातिंग अखिट तांग.
ऐसी ही एक लास्यमयी रात में विसनाथ बाबू को लेकर आया था जॉन अखड़ा. पर सबकी भौहें तनी थी थोड़ी. लेकिन इतना मिठबोलिया थे विसनाथ बाबू कि...फटाक से उपाधि दे डाली मंगर दादा को- ‘‘आप तो मांदर सम्राट है. जॉन! हमारे यहाँ तो इतना तरह का विभागीय प्रोग्राम होता रहता है, बड़ा-बड़ा स्टेट लेवल का. काहे नहीं लाते हो भाई इनको? एतना हुनर है तो पूरे राज्य के आदमी को जानना भी तो चाहिए.’’ ले भी गया था जॉन. मंत्रीजी के हाथ से शाल ओढ़ाया. पुरस्कार राशि भी दी गई. मंगर दादा गद्गद्. भौजी के हाथ का बना हड़िया पिलवाया वीरू भगत को और साथी-संगाती लोग को.
-एक बात तो मानना पड़ेगा. हमलोग के समाज का एक आदमी तो है जिसका बड़ा-बड़ा मंत्री-संत्री के साथ उठना-बैठना है.
-हाँ! मंगर दादा का एतना मान परतिष्ठा बढ़ाया. अखबार में फोटो छापी हुआ. सुनते हैं टी.भी. पर भी दिया.
मगर भौजी को बहुत पसंद नहीं आया- शाल-उल ओढ़ के, उ भी जेठ में कैसा तो बकलोल लग रहे थे आप!
-अरे तो का करते गोमकाइन. एतना बड़ा मंत्री-संत्री ओढ़ा रहा है तो हम मना कर देते.
- और नहीं तो का. जेठ में कंबल ओढ़ा देगा तो ओढ़ लेंगे?
-तुम तो और अलबते बात करती हो. कचिया भी तो भेटाया.
-उहे तो एगो अच्छा काम हुआ. एगो शर्ट पैंट सिला देंगे रमेश को. एक्के गो में कॉलेज जाता है रोज.
-अरे, तो अबकी राहर बेचेंगे न. न सुनते है बड़ी महँगा बिक रहा है अभी.
मंगर दादा की पूछ बढ़ गई थी. बार-बार शहर जाना पड़ता. आज विदेश का कोई मेहमान आ रहा है. जॉन बुलाने आ जाता. सात गो लड़की लोग लाल पाड़ का साड़ी पहन के, खोपा में फूल खोंस के, कमर में हाथ डाल स्वागत में, साथ में, माथा में मुरेठा बाँध के धोती पहने मांदर की थाप देते हुए मंगर दादा. उनकी ऊब को भॉप लिया जॉन ने.
-काका! कचिया भेटायेगा. विसनाथ बाबू का प्रोग्राम है.
-इसमें मन उबिया जाता है बाबू, मन लायक गाना-बजाना कहाँ होता है?
-होगा काका होगा! बस विसनाथ बाबू का किरपा बना रहे तो सब होगा.
‘किरपा’ की बात तो मंगर दादा को तब पता चली जब लड़कियाँ आपस में सुन-गुन कर रही थीं.
-देख न हमलोग को बस पचास रुपिया.
-सब पैसा तो इ जॉन खा जाता है. पी.आर.डी. तो बीस हजार दिया था. आफिस में है न उ तिर्की, वही बताया हमको.
-ठीकेदार तो खइबे न करेगा रे. चल अब.
मंगर दादा हाथ में पकड़े दो सौ रुपये को देख रहे थे. हर हफ्ते-दस दिन में वही स्वागत गान और मांदर की एकरस थाप और हाथ में पकड़े दो सौ रुपये. मात्र दो सौ के सम्राट! न मन भरे न तन!
-अरे जॉन! सुन बाबू! दोसर किसी को बोला लेना हम नहीं जाने सकेंगे -मंगर दादा ने कन्नी कटाने की सोची- ‘‘रमेश भी बोल रहा था कि उसके कॉलेज के साथी उसे चिढ़ाते भी हैं.’’
-अरे काका! विसनाथ बाबू नाराज हो जायेंगे. अभी संस्कृति विभाग से एक टीम जर्मनी जानेवाला है- विदेश! आपका नाम विसनाथ बाबू डलवाये हैं उसमें और ऐसा समय में आप?
-का करेंगे बाबू हम विदेश-उदेश जाके. अरे गाँव घर में गा-बजा लेते है शौक-मौज के लिए.
-काका! हमलोग के समाज का एक आदमी विदेश मांदर बजाने जायेगा तो हमलोग का भी तो इज्जत प्रतिष्ठा बढ़ेगा कि नहीं- हमलोग के गाँव का भी नाम होगा.
-गाँव अब रहा कहां बाबू, अब तो शहरे हो गया. वीरू भगत को याद आया कि कितनी तेजी से उसके और मंगर दादा के गाँव को शहर निगलता जा रहा था. जैसे टी.वी. पर देखा था मॉल में ही कि ज्वालामुखी से निकलता आग का लावा कैसे तेजी से आगे बढ़ता जा रहा था और उसमें सबकुछ गायब होता जा रहा था.
- अरे हां! काका अच्छा याद आया! जमीन के बारे में कुछ सोचे हैं.
-क्या?- अकबकाकर मुँह देखने लगे मंगरा दादा.
-देखिए शहर तो अब इधरे बढ़ रहा है. बल्कि बढ़ चुका है. पचीस हजार डिसमिल बिकने लगा जमीन. विसनाथ बाबू बोल रहे थे कि पारर्टनरशिप में एगो मॉल बन जाये तो मजा आ जाये. आपका जमीन तो रोड साइड में है न वहीं.
-का बन जायेगा? मॉल? -इ का होता है बाबू?
-दोकान होता है बहुत सारा. एक ही छत के नीचे सबकुछ बिकता है अनाज, कपड़ा, जूता, सिंगार-पटार सब -जमीन के बारे में सोचिए.
-सोच तो रहे हैं बाबू! खेत बेच के दोकान बना देगा सब तो बेचे वाला अनाज कहाँ होगा? दोकान में?
-बड़ा काइयां है मंगर काका -सोचा जॉन ने. विसनाथ बाबू पैसवा लगायेंगे. बहुत दूनंबरी कमाते हैं, लेकिन जॉन को तो पार्टनरशिप में रखना ही पड़ेगा उनको. जय सीएनटी बाबा की! उसके बिना तो एक कदम नहीं चल पायेंगे विसनाथ बाबू. 75-25 का शेयर कह रहे थे. 30 तक दबायेगा, कम से कम कोशिश तो जरूर करेगा. लेकिन मंगर काका माने तब न. अब तो इ रमेश भी जवान हो गया है. बातचीत से लक्षण ठीक नहीं लगता इसका भी. कुछ गिफ्ट-उफ्ट देना पड़ेगा कभी-कभार. काकी को भी टटोलगा. लेकिन टटोलने से पहले ही- भादों के अंधरिया पक्ष में जब घर के पिछवाड़े की बगीची से हरी मिर्च लाने गई क्योंकि मंगर काका बिना हरी मिर्च के खाना ही नहीं खा पाते थे तो लाल मिट्टी का काल यानि करैत पर पैर पड़ गया और तब तक बाप-बेटे कुछ समझ पाते या कुछ कर पाते तो- यहाँ तक कि झमाझम बरसात में मंगर दादा और रमेश ने करीब आठ किलोमीटर दूर शहर में अस्पताल में भौजी को
कंधे पर लादकर ले जाने की भी कोशिश की. जॉन ने अपने बोलेरो से पहुँचाया भी मगर देर हो चुकी थी तब तक...बहुत देर!
इसके बाद बहुत दिनों तक माँदर टाँग दिया मंगर दादा ने. जॉन आता था बीच-बीच में बाप बेटे की खबर लेने- उसने उम्मीद नहीं छोड़ी थी. जब भी आता दोनों लिए कुछ न कुछ ले आता- दादा के लिए चश्मा, छाता, टूथब्रश-पेस्ट, तो रमेश के लिए जींस की पैंट, टी-शर्ट, डियोडोरेंट. आग्रह भी करता उनका इस्तेमाल करने की, पर बाप-बेटे थे कि सारी चीजें वैसी ही रखी रहती थीं. रमेश ने दादा को संभाल लिया था. दोनों कुछ पका-खा लेते. रमेश प्रतियोगिता परीक्षाएँ दे रहा था. खेती तो क्या होती-चौबीसों घंटे तो आस-पास धूल-मिट्टी-सीमेंट-रेत उड़ती रहती. जॉन ने अपनी जमीन पर अपार्टमेंट बनवाना शुरू कर दिया था. देखा-देखी कई मकान-दुकानें उग आयी थीं. ठीक से देखें तो मंगर दादा की जमीन तीन तरफ से मकानों-दुकानों से घिर चुकी थी- सामने की तरफ सड़क थी ही.
उसी सड़क पर एक दिन डंपर, जेसीबी मशीनें आकर लगीं और साथ में पुलिस भी थी. जब तक मंगर दादा कुछ समझाते, जेसीबी ने उनका मकान ढहाना शुरू कर दिया. पुलिसवा जो भी छोटा-मोटा सामान था फेंकना शुरू कर दिया. रमेश दूसरे शहर गया था कोई परीक्षा देने. विसनाथ बाबू चुपचाप खड़े देख रहे थे. जॉन बता रहा था सबको कि मंगर काका ने ये जमीन उसे बेच दी है लेकिन दखल-दिहानी होने नहीं दे रहे हैं सो पुलिस बुलानी पड़ी. पक्का रजिस्ट्री के कागजात भी दिखा रहा था जिसमें मंगर काका के उंगलियों की छापी भी थी. थोड़ी देर तक दौड़-दौड़ कर विरोध भी किया. गालियाँ बकी लेकिन फिर निढाल होकर माँदर को गले लगाकर सड़क किनारे ही सो गये.
दूसरे दिन रमेश आया तो उसने देखा मंगर दादा उसी तरह पत्थर की मूरत बने मांदर को दोनों हाथों से पकड़े बैठे हैं. न खाना-पानी, न कपड़े-लत्ते की चिंता, रमेश ने झिंझोड़ा- बाबा! बाबा! तब होश लौटा. रमेश को देखकर भभाकर रोने लगे- सब कुछ खत्म हो गया बेटा! सबकुछ खतम!
-सबकुछ खतम कैसे होगा? देश में कानून है कि नहीं?
देश में कानून था और काफी सख्त कानून था, तभी तो कानून ने अपनी ताकत दिखाते हुए रमेश और उसके दो साथियों को कानून-व्यवस्था तोड़ने के जुर्म में एक-सप्ताह के लिए बंद कर दिया. किसी दयालु न्यायाधीश ने उनकी कच्ची उम्र देखते हुए जमानत दे दी तो वे फिर बनते हुए मॉल के सामने धरना-प्रदर्शन पर बैठ गए. साथ में पत्थर हो गए मंगर दादा भी रहते जो यांत्रिक अंदाज में मांदर पर थाप देते रहते. पुलिस की निगरानी में मॉल तेजी से खड़ा हो रहा था. मॉल के नाम को लेकर बिसनाथ बाबू और जॉन जो अब माननीय होने की तैयारी में था- दोनों के बीच यक्ष और युधिष्ठिर संवाद हुआ-
बिसनाथ बाबू- सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?
जॉन- पिछड़ा कहे जाने वाले राज्य में रोज नए-नए मॉल खुलना और खरीदारों की अपार भीड़.
विसनाथ बाबू- कहाँ से आये इतने खरीदार?
जॉन- शहर के अस्सी प्रतिशत मॉल हमारे समाज के लोगों के कारण चलते हैं. वही हैं, खरीदार.
बिसनाथ बाबू- लोग तो कहते हैं कि आप लोगों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं फिर?
जॉन- कौन कहता है? कुछ प्रतिशत जिनके परिवारों में कई लोग नौकरी करते हैं वे सब खरीदार हैं.
बिसनाथ बाबू- और ज्यादा प्रतिशत?
जॉन- उनसे हमारा कोई लेना-देना नहीं.
बिसनाथ बाबू- आप मंगरा मॉल नाम पर क्यों जोर दे रहे हैं. ये नाम थोड़ा डाउन मार्केट नहीं लग रहा.
जॉन- नहीं! अस्मिता की राजनीति, अस्मिता के गर्व को समझिये. हमारे समाज के लोग असल खरीदार हैं तो उनको अपनापन महसूस होगा ऐसे नाम से.
विसनाथ बाबू चित्त हो गये. जॉन अब 60-40 का पार्टनर था. हर तीसरे-चौथे रमेश को पुलिस ले जाती पर वह भी ढीठ की तरह फिर धरने पर बैठ जाता ठीक मंगरा मॉल के सामने. लाल नियॉन साइन दूर से झिलमिलाता था ‘मंगरा मॉल - ए न्यू डेस्टिनेशन.’ और एक दिन जब मॉल के सामने रमेश लोगों को जोर-जोर से भाषण के अंदाज में बता रहा था- आपलोग जानते हैं कौन है मंगरा? ये जो मेरे साथ खड़े हैं मांदर लेकर. एक समय में मांदर सम्राट- यही है मंगरा और ये जमीन हमारी ही थी जिसे हड़प लिया गया.
भीड़ जुटने लगी थी हुल्लड़बाजों की और धक्कामुक्की होने लगी. पुलिस ने लाठी चार्ज कर दिया और लाठी लग गई मंगरा दादा के सिर पर. वहीं पर तो था वीरू भगत, छाप लिया मंगरा दादा को ऊपर से, लेकिन इसी हबड़-दबड़ में कौन लोग रमेश को ले गए वह देख नहीं पाया. कुछ लोग कहते हैं कि पुलिस ले गयी. कुछ कहते हैं कि वो कोई और थे. पर तभी से उसका कुछ पता नहीं चल रहा है. जॉन मंडली में जब पता करने गए थे मंगर दादा, तब का हाल आपको पता ही है.
मंगर दादा तभी से घंटों मांदर लेकर खड़े रहते हैं. बीच-बीच मे एकाध थाप देते भी हैं मॉल के शीशे के विशालकाय एंटे्रंस के सामने. गार्ड आकर हटा देते हैं लेकिन फिर थोड़ी देर में वापस. किसी ने खैनी खिला दी खा लिया. किसी ने कभी केला दे दिया, कभी ब्रेड की स्लाइस, कभी कोई सिगरेट भी पिला देता. पत्थर की मूरत की तरह यांत्रिक भाव से बजाते हैं मांदर. देखने वाले कहते हैं कि अब तो शायद मांदर से आवाज भी नहीं निकलती सिर्फ हाथ भर हिलता है या शायद वह भी नहीं. चेहरा भी भूलने लगे हैं लोग उनका. मंगरा मॉल में भीड़ भी खूब होती है- जानू! सचमुच इनोवेटिव नाम है न? मंगरा मॉल! पता नहीं उस पत्थर की मूरत को मंगरा मॉल ने आगे बढ़ कर अपने अंदर ले लिया है या मूरत ही खुद बढ़कर मॉल के अंदर खड़ी हो गई हैं. किसी ने देखा नहीं.
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