यहां वहां की उनसे हैप्पी न्यू ईयर कहने के दिन दिनेश बैस फ रवरी के पग रखते ही ‘हैप्पी न्यू इयर’ कहा जाए तो अगला बुरा मान सकती है. क्या हम...
यहां वहां की
उनसे हैप्पी न्यू ईयर कहने के दिन
दिनेश बैस
फरवरी के पग रखते ही ‘हैप्पी न्यू इयर’ कहा जाए तो अगला बुरा मान सकती है. क्या हमेशा लेट चलते हो, ट्रेन की तरह...उलाहना देने पर उतर आये...अब याद आयी है हैप्पी न्यू इयर कहने की? अब तक एक महीना बासी हो चुका है यह जुमला. और यू नो, बासी चीजों को मुँह लगाना हमारी आदत नहीं है...
दुनिया भर की घासफूस, महीने भर पुरानी डबल रोटी के दो पाटों के बीच दबोच कर, बर्गर के नाम पर, ओठ छुआए बिना कुतरने वाली, घर की बनी सिंगल रोटी ताजी ही चबाने के सिद्धांत का पालन करती हैं. कैसे बताएं कि हम भारत के आम लोग धन से भले ही कंगाल हों, मन से मालामाल हैं. एक दिन में तो अपना कोई त्योहार निबटता ही नहीं है. फिर, नये साल के शुरू होने की हैप्पीनेस एक दिन में कैसे पैकअप कर सकती है. लगातार तीन महीने तक हैप्पी-हैप्पी न्यू इयर में झूमने के अवसर होते हैं अपने पास? और फिर, उनसे हैप्पी न्यू इयर कहने के लिये तो फरवरी के अलावा कोई और महीना हो ही नहीं सकता है.
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जनवरी में प्रचलित कलैंडर के अनुसार हैप्पी न्यू इयर घुसपैठ करता है तो फरवरी में बसंत भाई साहब गले आ लिपटते हैं. ऋतु विश्लेषक कहते हैं कि बसंत कामदेव का मौसम होता है. बसंती दादी बताती थीं कि माघ शुक्ल पक्ष की पंचमी से, भारतीय मौसमों का नया साल अंगड़ाई लेता है. बसंत-पंचमी कहते हैं उस दिन को. वहाँ, चैत्र में विक्रम संवत् ‘नव वर्ष’ का झंडा लहराता चला आता है. खतरा यह है कि विक्रम संवत् पर ‘हैप्पी न्यू इयर’ कह दो तो भाई लोग राष्ट्र-द्रोही घोषित कर सकते हैं. इन दिनों प्रमाण-पत्र बांटने के क्षेत्र में होल टाइमर हैं वे. इस लिये ‘नव-वर्ष मंगलमय’ हो जैसा भारी-भरकम नारा ही उछालना पड़ता है. खैर, इसमें भी क्या बुराई है. मतलब तो एक ही है. दादा शेक्सपियर कह मरे हैं ‘नाम में क्या रखा है’
अब सब अपने-अपने रंग में मस्त हैं. ‘सूरदास कहिं कारी कांवरि चढ़ै न दूजौ रंग’ की तरह किसी पर कोई रंग चढ़ता ही नहीं है. अपन काफी पिछड़े समय के रहे हैं. घर की बड़ी-बूढ़ी एक दिन पहले कपड़े धो-रंग कर सुखा देती थीं. घर के सब लोगों को बसंत पंचमी के दिन बसंती रंग के कपड़े ही पहनने होते थे. लगता था प्रकृति और हम एक दूसरे में समा गये हों. गेंदा, सूरज-मुखी, डहेलिया, सरसों और हम. सब बसंती-बसंती. बीच-बीच में टेसू के सिंदूरी फूल, हरे गेहूँ की पीली होती बालें, अमुआ के पेड़ों पर झूलती सुनहरी मंजरी, पीली पड़ कर अलविदा में हाथ हिलाती पेड़ों की पत्तियां. भुनगे तो कम्बख्त ऐसे दीवाने हो जाते हैं फरवरी में कि जहाँ बसंती रंग देखा, आ चिपटते हैं. बिल्कुल टपोरीपन पर उतर आते हैं जब भी कोई लड़की देखूं, मेरा दिल दीवाना बोले, ओले-ओले-ओले, ओले-ओले-ओले...
बसंत में प्रकृति और मनुष्य के इस तरह गड्डमगड्ड हो जाने पर पद्माकर मर मिटे. लिख ही तो दिया-
‘कूलन में केलिन में, कछारन में, कुंजन में,
क्यारिन में, कलिन में, कलीन किलकंत हैं,
कहैं पद्माकर, परागन में, पौनुह में,
पानन में, पीक में, पलासन पगंत हैं,
द्वार में, दिसान में, दुनी में देस-देसन में,
देखो दीप-दीपन में, दीपत दिगंत हैं,
बीथन में, बृज में, नवेलिन में, बेलिन में,
बनन में, बागन में, बगरयो बसंत है.’
पद्माकर तो खैर ठीक है, जगह-जगह बसंत बगरा कर ही रह गए, मगर सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ मचल ही गये कि नहीं, बसंत पंचमी को ही जन्म लेंगे. यहाँ बसंत का रंग-मंच सजेगा. वहाँ हिंदी के रंग-मंच पर हमारा अवतरण होगा. यह कुछ ऐसी ठसक थी कि हम जहाँ खड़े हो जाते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है. पता नहीं कितने लोग उनके पीछे लाइन में लग कर धरती पर आ कूदे...विद्या की देवी सरस्वती के प्रतिष्ठित होने के अवसर पर. तब से सरस्वती वंदन और निराला गायन एक ही दिन होता आ रहा है. कवि-कुल में प्रवेश के लिये उतावले नये नवेले और कुछ करें न करें, सरस्वती पूजन अवश्य करते हैं. कैसे समझाएं कि केवल सरस्वती-पूजन से कुछ नहीं होगा. पढ़ना सीखना होगा. तब लिखना आयेगा. बहरहाल, निराला के जन्म पर गाँव-घर में भले ही ढोलक की खनक पर, ‘सोहर’ गूँज उठी हो, स्वयं निराला बसंत से विभोर हो गुनगुनाने से खुद को नहीं रोक पाए...
‘रंग गई पग-पग धन्य धरा, हुई जग, जगमग मनोहरा,
वर्ण-गंध धर, मधु मकरंद भर,
तरु-उर की तरुणिमा तरुण तर,
खुली रूप कलियों में पर भर, स्तर सुपर-सिरा,
गूँज उठा पिक-पावन पंचम, खल-कुल कलख मनोरम
सुख के भय कांपती प्रणय-क्लम, वन श्री चारु-तरा.’
लेकिन, बसंत के आगमन से मदहोश हुए केदार नाथ अग्रवाल की नजरों से बच नहीं पाईं वे...
‘सिर से पैर तक
फूल-फूल हो गई उसकी देह,
नाचते-नाचते
हवा का बसंती नाच.’
उधर मुरझाए-मुरझाए से कुंवर बेचैन भी बसंत के स्वागत में नजरें बिछा कर बैठ गए. आह्वान करने लगे...
‘पतझर ही पतझर था मन के मधुवन में,
गहराता सन्नाटा सा था मन के अंतर्मन में,
लेकिन अब गीतों की स्वच्छ मुंडेरी पर,
चिंतन की छत पर भावों के आंगन में,
बहुत दिनों के बाद चिरैया बोली है,
ओ वासंती पवन हमारे घर आना.’
लेकिन बेढब बनारसी की बसंत में अलग ही विडम्बना है. वे बसंत में बिरह का दुख झेल रहे हैं...
‘आ गया मधुमास आली,
दिवस भर वे पाठ पढ़ते,
नित्य प्रातः हैं टहलते,
और आधी रात तक तो,
जागती है सास आली.’
उनकी पीड़ा की पावर को कुछ डिग्री और उछालने के लिये मैं बस एक पंक्ति और जोड़ देना चाहता हूँ- वे मगर कह न पाएं, चुलबुली लगती है साली...गोपाल दास ‘नीरज’ ऐसी किसी विडम्बना का शिकार नहीं हैं. वे तो बस मनुहार कर रहे हैं...
‘आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना.’
अनूप जलोटा भी उनकी इस मनुहार में शामिल प्रतीत होते हैं. न जाने किसकी गजल पर मचल गए...
‘आज जाने की जिद न करो,
यूँ ही पहलू में बैठी रहो.’
ऐसे तन-मन को कुदरत के रंगों से सराबोर करने वाले फरवरी माह में. बसंत के दिनों में बजरंगी लाल का काम बढ़ जाता है. उनके ऊपर दोहरी जिम्मेदारी आ जाती है. इसी महीने में चौदह फरवरी को वेलेंटाइन डे आ जाता है. दो दिल एक जान हो जाने के उछाव के साथ लोग दुनिया के सारे
बंधन तोड़ देने को निकल पड़ते हैं प्रेम का रिन्यूअल करने. बजरंगी लाल को इस दिन सबेरे-सबेरे अपनी वाली को वेलेंटाइन गिफ्ट देने जाना पड़ता है. अधर हस्ताक्षर देने का अवसर भी जुगाड़ ही लेते हैं. दोपहर में पार्टी कार्यक्रम को सफल बनाने के लिये पाकरें में पहुँच जाते हैं डंडा लेकर...अब करो प्रेम.
कैसे समझाएं कि प्रेम किसी लाठी-डंडे को नहीं सेंटता है. देश-दुनिया की किसी दीवार को नहीं मानता है. मीराबाई-कन्हैया, रोमियो-जूलियेट, शीरी-फरहाद, हीर-रांझा, अमृता प्रीतम-इमरोज की एक ही कहानी है. आज भी अखबार बताते हैं कि तमाम जोड़े ‘चल दरिया में डूब जाएं’ का संकल्प ले लेते हैं. किसी खाप पंचायत के फरमान उन्हें भयभीत नहीं करते हैं...देह गौड़ हो गई हैं वहाँ. भाव मुखर होकर उभर आते हैं. डंके की चोट पर एक ही ललकार होती है उनकी ‘प्यार किया तो डरना क्या.’
बसंत से ठहर जाने का ऐसा मार्मिक अनुरोध कोई शंकर शैलेंद्र जैसा गीतकार ही कर सकता है. उनके गीत पर दिल को हिलोड़ देने वाली ऐसी धुन कोई शंकर-जयकिशन ही रच सकते हैं...
‘ओ बसंती पवन पागल न जा रे ना जा, रोको कोई.’
सम्पर्कः 3-गुरुद्वारा, नगरा, झांसी-284003
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