सम्पादकीय बगावत की नौटंकी ए क जमाने में उत्तर प्रदेश में लोक नाट्य की विधा नौटंकी बहुत लोकप्रिय हुआ करती थी. लोग शादी-ब्याह या अन्य खुशी क...
सम्पादकीय
बगावत की नौटंकी
एक जमाने में उत्तर प्रदेश में लोक नाट्य की विधा नौटंकी बहुत लोकप्रिय हुआ करती थी. लोग शादी-ब्याह या अन्य खुशी के मौके पर अपने दरवाजे पर नौटंकी का आयोजन करवाते थे. नगाड़े की तिक ड़िक...तिक ड़िक धिन जब हवा में गूंजती थी, तो लोगों के दिल लहालोट हो जाते थे. हालांकि नौटंकी में बहुत ही भोंडे तरीके के नृत्य एवं हंसी मजाक हुआ करते थे. फिर भी लोग उसको पसंद करते थे.
कुछ समय बाद नौटंकी में लड़कियों का प्रवेश हुआ तो यह केवल नृत्य पर ही आधारित रह गयी. पहले धार्मिक और सामाजिक समस्याओं पर आधारित खेल खेले जाते थे, परन्तु
धीरे-धीरे उनका स्थान अर्धनम्न और अश्लील नृत्यों ने ले लिया. अब उत्तर प्रदेश से यह विधा गायब-सी हो गयी है. इसका कारण मॉल्स, मल्टीप्लेक्स सिनेमा, टीवी, कम्प्यूटर और इंटरनेट का प्रचार-प्रसार है.
उत्तर प्रदेश में यह विधा केवल रम्पत हरामी की बेहूदा और बकवास नौटंकी के कारण बची हुई है. रम्पत हरामी की नौटंकी में सुन्दर लड़कियों की भरमार है. इसमें काम करनेवाली लड़कियां सुन्दर भले हों, परन्तु उनकी आवाज बहुत भोंडी और बेसुरी होती है. फिर भी लोग उनका अश्लील नृत्य देख-देखकर वाह-वाह करते हैं. उसके ऊपर रम्पत हरामी के अश्लील मजाक नौटंकी का मजा दोगुना कर देते हैं.
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लोक नाट्य विधा नौटंकी भले ही उत्तर प्रदेश में अपनी आखिरी सांसें गिन रही हो, परन्तु इस प्रदेश में एक नए प्रकार की राजनीतिक नौटंकी का अवतरण हो चुका है. कुछ-कुछ रम्पत हरामी की नौटंकी की तर्ज पर, जिसमें आक्षेप-आरोप सभी कुछ है. यह नौटंकी लखनऊ से लेकर नई दिल्ली तक में इतनी धूमधाम से खेली जा रही है कि जनता चकित है और विपक्षी नेता खुश. इस नौटंकी के सूत्रधार मुल्ला मुलायम सिंह, शिवपाल सिंह, अखिलेश सिंह, रामगोपाल यादव और अमर सिंह हैं. लोग इस नौटंकी का खूब मजा ले रहे हैं. वह समझ रहे हैं कि यादव परिवार में फूट पड़ चुकी है और उनके बीच सिर-फुटौवल हो रही है. ये लोग आपस में लड़कर मर जाएंगे, परन्तु शायद लोगों को पता नहीं है कि नौटंकी के पात्र असल जीवन में एक दूसरे के रिश्तेदार और मित्र होते हैं. वह मंच पर लिखे गये नाटक के आधार पर अपने पात्र का मात्र अभिनय करते हैं. वह मंच पर झूठे संवाद बोलते हैं, झूठी तकरार करते हैं और दिखावे के लिए आपस में लड़ाई करते हैं. अपना अभिनय पूरा होते ही पात्र मंच के पीछे चला जाता है, और वहां मंच पर अभिनीत दुश्मन के साथ बैठकर हंसी-मजाक करता है, बीड़ी-सिगरेट पीता है और कच्ची दारू के पेग लगाता है.
उसी प्रकार मुलायम और अखिलेश द्वारा रचित, निर्देशित और अभिनीत नौटंकी बहुत ही सोच-समझकर मंचित की जा रही है. उत्तर प्रदेश के समझदार मतदाताओं को यह बात अच्छी तरह पता है कि समाजवादी पार्टी के नेताओं ने पांच साल सत्ता में रहते हुए केवल एक जाति और एक धर्म के लोगों को बढ़ावा दिया. उन्होंने अपने ही लोगों को सत्ता और शासन के ऊंचे और लाभदायक पदों पर नियुक्त किया. प्रदेश के बाकी लोगों की उपेक्षा की. सत्ता का दुरुपयोग किस प्रकार किया जाता है, और किस प्रकार धर्मनिरपेक्षता का ढिंढोरा पीटते हुए जातिवाद और धार्मिक संवेदनाओं को भड़काया जाता है, यह कोई समाजवादी दल के मुलायम सिंह और उनके अंध-भक्त चमचों से पूछे. इनके सत्ता में आते ही इनकी ही जाति के लोग किस प्रकार गुण्डागर्दी करते हैं, गरीब और मजलूम लोगों पर अत्याचार करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है.
मुलायम सिंह और अखिलेश को अच्छी तरह पता है कि उन्होंने प्रदेश में विकास के नाम पर जनता को केवल छला और ठगा है. उनको वोट केवल उनकी ही जाति और एक विशेष
धर्म के लोग ही देनेवाले हैं. बाकी जनता उनके साथ नहीं है. अतः चुनाव का समय आते ही उनके हाथ-पांव फूलने लगे. क्या किया जाय कि जनता उनके कुकर्मों और अत्याचार को भूल जाये? आम आदमी अपने दुःख-दर्द, मुसीबतों और परेशानियों को किस प्रकार दूर करता है? सस्ते मनोरंजन के माध्यम से. अब वह मुलायम की तरह सैफई महोत्सव तो आयोजित कर नहीं सकता, जिसमें फिल्मी दुनिया की विख्यात अभिनेत्रियां अपने लुभावने नृत्य से समाजवादी नेताओं को मनोरंजन प्रदान करती हैं. सच्चा समाजवादी वही है, तो आम आदमी की लंगोटी भी उतरवा दे.
तो बात चल रही थी कि समाजवादी दल के नेता किस प्रकार अपनी असफलताओं को आम आदमी से छिपाकर उनके मत हासिल करें? चुनाव आयोग ने अचानक ही चुनाव की तारीखें घोषित कर दीं. समय कम था. इतने कम समय में विकास के कोई कार्य नहीं किये जा सकते थे. जनता को कोई सुविधा प्रदान नहीं की जा सकती थी. पांच साल तक नहीं कर पाए, तो कुछ दिनों में क्या कर लेंगे? तो फिर उन्होंने सोचा, क्यों न आम आदमी को सस्ता और रोचक मनोरंजन परोसा जाय. नौटंकियां बंद हो चुकी हैं, लोकनृत्य स्वर्गवासी हो गये हैं. तो ऐसे में समाजवादी नेता और उनके नेता पुत्र ने खुद ही जनता को मनोरंजन परोसने की व्यवस्था कर दी. बाप ने बेटे के बगावत की खूबसूरत पटकथा लिखी, बेटे ने जिम्मेदारी से निर्देशित किया. यह पटकथा ऐसी थी जिसके निर्माता, निर्देशक, नायक, अधिनायक, सभी एक ही परिवार के थे. जैसे किसी जमाने में देवानन्द अपनी फिल्मों के सर्वेसर्वा हुआ करते थे. कुछ उसी तर्ज पर मुलायम सिंह ने बगावत की कहानी लिखी और उनके परिजनों ने खूबसूरती से उसका मंचन किया.
अब आप स्वयं सोचकर देखिए, बेटे को बाप के खिलाफ बगावत करने की आवश्यकता क्या थी? उसे तो पहले ही पार्टी और प्रदेश की बागडोर बाप ने सौंप दी थी. लेकिन एक जिम्मेदार बाप ने अपने गैरजिम्मेदार बेटे की विफलताओं को छिपाने के लिए इतना बढ़िया स्वांग रचा कि सारे विपक्षी नेता चकरा गये और उन्हें लगने लगा कि अब समाजवादी पार्टी टूटकर बिखर जाएगी. उनको समाजवादी पार्टी का नाम तो दूर उनका चुनाव चिह्न साइकिल भी नहीं मिलेगी. लेकिन मुलायम सिंह कोई कच्चे खिलाड़ी तो हैं नहीं. वह अखाड़े के ही नहीं, राजनीति के भी बहुत अच्छे खिलाड़ी हैं. सत्ता का उपयोग और उपभोग (दुरुपयोग) किस प्रकार किया जाता है, वह अच्छी तरह जानते हैं. कांग्रेस की टूटी नैया पकड़कर वह सीबीआई से बच गये. अरबों की सम्पत्ति जमा करने के बाद भी उनके खिलाफ सीबीआई कोई मामला नहीं दर्ज कर पाई. यह उनकी सत्ता में अच्छी पकड़ का ही कमाल है. यह कमाल मायावती ने भी किया. वह और उनके भाई अरबों की सम्पत्ति के मालिक हैं, परन्तु मजाल है कि सीबीआई उनके खिलाफ कोई मुकदमा दर्ज कर ले.
तो भैया बात मैं नौटंकी की कर रहा था. मुलायम सिंह और उनके परिवार के लोगों ने जो बगावत की नौटंकी जनता के समक्ष प्रस्तुत की, उसके माध्यम से वह आम आदमी (बेवकूफ आदमी) को रुलाने में कामयाब रहे. लोग कहने लगे, भगवान ऐसे बेटे से निपूता ही रखे, परन्तु भगवान किसी को निपूता क्यों रखे? अखिलेश से अच्छा और आज्ञाकारी बेटा और कौन होगा? बाप ने जैसा कहा, जैसा सिखाया, उसने वैसा ही अभिनय किया. न समाजवादी पार्टी दो-फाड़ हुई, न साइकिल टूटी और नौटंकी की समाप्ति पर बेटा सबसे पहले बाप का आशीर्वाद लेने ही पहुंचा. क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता है कि बाप-बेटे में कोई अनबन नहीं थी? यह नौटंकी मात्र आम आदमी की सहानुभूति बटोरने के लिए खेली गयी थी. यथासंभव नौटंकी के हर पात्र ने अपने अभिनय में जान डालकर उसे खेला और इतनी खूबसूरती के साथ खेला कि किसी को जरा सा भी अविश्वास नहीं हुआ.
अब खुद ही देख लीजिए, बाप ने अनुशासनहीनता के आरोप में बेटे और भाई को पार्टी से निकाल दिया और बारह घंटे के अंदर वापस भी ले गया. उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गयी. पलक झपकते सारे आरोप खारिज हो गये और यही नहीं, पार्टी के चिह्न को बचाने के लिए मुलायम सिंह ने चुनाव आयोग के समक्ष दावा तो पेश किया, परन्तु कोई सबूत नहीं दिये. देते तो शायद चिह्न दोनों में से किसी को नहीं मिलता. यह बात बाप और बेटे अच्छी तरह जानते थे, इसलिए जनता को बेवकूफ बनाने के लिए बाप ने दावा तो पेश किया, परन्तु सबूत नहीं दिये. लिहाजा, उनका चिह्न बच गया, पार्टी भी बच गयी. बाप यही तो चाहता था कि बेटा आगे बढ़े. बेटा आगे अवश्य बढ़ेगा, बाप का आशीर्वाद साथ है न! बस जनता बौखलाई हुई सोच रही है कि उसके सामने जो नौटंकी प्रस्तुत की गयी, वह सच थी या नकली!
बुद्धिजीवी कुछ भी सोचते रहे, परन्तु नौटंकी के कलाकार अपने जानदार अभिनय से आम आदमी की सहानुभूति बटोर ले गये. आम आदमी भूल गया कि पिछले पांच सालों में उसके साथ कितने अत्याचार हुए थे. वह तो बस यह सोच रहा है,कि जैसे राजा के दिन बहुरे, वैसे ही सबके दिन बहुरें; परन्तु क्या ऐसा होता है? राजा के अच्छे दिन तो सदा बने रहते हैं, लेकिन जनता कष्ट और अभावों में भी राजा की नौटंकी देखकर खुश होती रहती है कि एक दिन उसके अच्छे दिन भी आएंगे.
- राकेश भ्रमर
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