हमारे देश में निष्पक्ष, ईमानदार और सही को सही कहने का साहस रखने वाली सिविल सर्विस की सख्त जरूरत है :: श्री प्रकाश चन्द्र पारख, पूर्व सचिव...
हमारे देश में निष्पक्ष, ईमानदार और सही को सही कहने का साहस रखने वाली सिविल सर्विस की सख्त जरूरत है :: श्री प्रकाश चन्द्र पारख, पूर्व सचिव, कोयला-मंत्रालय, भारत सरकार
आज से लगभग दो वर्ष पूर्व जिस दिन से मैंने कोयला मंत्रालय के पूर्व सचिव श्री प्रकाश चन्द्र पारख साहब की पुस्तक “Crusader or Conspirator?” पढ़ी थी, उसी दिन से मेरा मन उनसे मिलने के लिए आतुर हो उठा था। यह वह समय था जब देश के प्रमुख अखबारों में उनके नाम की चर्चा एवं टेलीविज़न के विभिन्न चैनलों पर उन्हें अपने पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ इंटरव्यू देते हुए मैंने पहली बार देखा था। तभी से मेरे मन में इस बात का अहसास हो गया था कि दैदीप्यमान, उज्ज्वल, तेजस्वी चेहरे वाले पारख साहब के मन में सही अर्थों में, न केवल देश-प्रेम का अमिट जज्बा है वरन् सत्य, न्याय और ईमानदारी से कार्य करने वाली वह एक अनोखी ओजस्वी प्रतिमूर्ति हैं। जो इंसान अकेले अपनी आत्मा की आवाज और अपने विवेक के बल पर ममता बनर्जी, शिबू सोरेन, दसारी नारायण राव, चन्द्र शेखर दुबे जैसे खुर्रट कूटनीतिज्ञ राजनेताओं से अपनी सत्य बातों को मनवाने के लिए खुले मन से चुनौती दे सकते हैं, उस इंसान का आत्म-बल, दृढ़-संकल्प और सत्य-निष्ठा कितनी मजबूत होगी, यह मेरे लिए कल्पनातीत है, क्योंकि किसी के साथ वैचारिक मतभेद होना एक दूसरी बात हैं। मगर जिस अधिकारी को गुंडागर्द कलयुगी राजनेताओं की अपनी स्वार्थ-लिप्सा की पूर्ति के दुरुपयोग करने से रोकने हेतु संघर्ष करना पड़े तो वह अधिकारी अदम्य साहसी ही हो सकता है और अगर ऐसे महान पुरुष के घर भारत-सरकार की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई का छापा पड़ता हो तो यह देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य ही कहा जाएगा।
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पारख साहब ने अपनी इस पुस्तक में अपने जीवन के दृष्टान्तों के माध्यम से निष्पक्षता, ईमानदारी एवं सही को सही कहने का साहस रखने की अपूर्व क्षमता जैसे मानवीय गुणों एवं आधुनिक प्रबंधन कौशल के मूल-तत्वों को देश की नई पीढ़ी के समक्ष रखकर एक अत्यंत ही सराहनीय कार्य किया हैं, जिसकी ज्योति सदियों तक इस महान पुरुष के आत्म-प्रत्यय को अमरत्व प्रदान कर झिलमिलाती रहेगी।
सही कहूँ तो, ऐसे दिग्गज पुरुष का इंटरव्यू लेने का मेरा सामर्थ्य नहीं था। मगर उनकी पुस्तक से मेरी रग-रग में संचरित नई उर्जा और जोश ने मुझे पारख साहब से मिलने के लिए विवश कर दिया। उनके व्यक्तित्त्व की चार प्रमुख विशेषताओं में निरासक्तता, निस्पृहता, निरहंकारिता और निष्पक्षता ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया। उनके घर के सामने नाम-पट्ट पर केवल लिखा हुआ था-“PARAKHS”। उनकी जगह और कोई होता तो यह अवश्य लिखता, आईएएस(रिटायर्ड़) अथवा पूर्व सचिव, भारत सरकार, मगर पारख साहब के सामने इन पदवियों का कोई मोल नहीं हैं। वे अत्यंत ही उदारवान, विनीत एवं नम्र स्वभाव के धनी हैं और उनकी जीवन साथी श्रीमती उषा पारख इन सारे गुणों में उनसे कम नहीं हैं। वह तो उनकी प्रेरणा, संकल्प-शक्ति एवं ओजस्वी विचारों की अनवरत स्रोत रही है। इसे संयोग कहूँ या और कुछ! मेरे साक्षात्कार लेने का सपना भी तब साकार हुआ, जब मैं अपनी गाल ब्लेडर की पथरी के ऑपरेशन हेतु सिकन्दराबाद की यशोदा हॉस्पिटल गया था। ऑपरेशन होने में एक दिन बाकी था और वह दिन मेरे हाथ में था, मैंने फोन पर पारख साहब से इंटरव्यू के लिए एपोइंटमेंट ले लिया। जब मैं पारख साहब से मिला तो मैंने देखा कि एक दुबली-पतली-नाटी गोरी काया पर धारीदार शर्ट एवं पैंट वाले सुंदर परिधान में सुसज्जित बड़े नंबर वाले चश्मों के पीछे से झाँकते नेत्रों में अद्भुत दिव्य चमक, होठों पर मधुर मुस्कान और घने सफ़ेद केशों से आच्छादित चेहरे पर अनोखी कान्ति का तेजो-मण्डल प्रकाशमान था। पारख साहब ने जिस सहृदयता से अपने घर में बुलाकर मेरा आदर-सत्कार किया था, मुझे ऐसा लगा कि मैं उनके घर का एक चिर-परिचित सदस्य हूँ। दुबली-पतली, मृदुभाषिनी और आत्मयिता से ओत-प्रोत उषा भाभीजी की हार्दिक खातिरदारी ने भी मुझे अति प्रभावित किया, जिसे मैं आजीवन अपनी सुखद स्मृतियों में सँजोकर रखूँगा।
साक्षात्कार अत्यंत ही सुलझे हुए ढंग से दीर्घ चार घंटे की अवधि तक चला। प्रारम्भ में इधर- उधर की औपचारिक बातें करने के बाद मैंने अपनी संरचनात्मक तरीके से तैयार की गई प्रश्नावली के माध्यम से उनके धारा-प्रवाह जवाबों के मुख्य बिन्दुओं को डायरी में लिखते चला गया ताकि इंटरव्यू की समग्रता बनी रहे।
तत्पश्चात मेरी हार्दिक इच्छा हुई कि जिस टेबल पर बैठकर पारख साहब ने सन् 2014 में कोलगेट जैसे इस सदी के महाघोटाले की सत्यता को देश की जनता के समक्ष रखकर चहुंओर हलचल मचाकर रख देने वाली अपनी पुस्तक “Crusader or Conspirator ?” का रचना-कर्म किया था, उसे देखने और उसका फोटो लेने की। मैंने उस टेबल को मन-ही-मन सारस्वत नमन करते हुए एक स्नैप लिया, जिसके आगे उनकी प्रमुख स्मृतियों का आधार फोटो-एलबम की तस्वीरें कार्ड-बोर्ड पर लगी हुई थी तथा साथ ही साथ, उनके ड्राइंग रूम में सजी हुई तस्वीरें, एयर-इंडिया के लोगो जैसे राजस्थानी आर्टिफेक्ट, सोफ़े की लकड़ी पर की गई सुंदर नक्काशी के फोटो भी खींचना नहीं भूला। कलात्मक गृह-सज्जा भले ही फ्लैट को अत्यंत ही सुंदर बना दे रही थी, मगर पारख साहब जैसे वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी की जीवन-पर्यंत ईमानदारी, सत्य-निष्ठा और ओजस्विता की चमक सिकंदराबाद की ‘जागृति रेजीडेंसी’ के समूचे अपार्टमेंट को ऐतिहासिक रूप प्रदान कर रही थी। आज नहीं तो कल, चीन के महान समाजवादी क्रांतिकारी लेखक लू-शून के शंघाई स्थित फ्लैट की तरह यह फ्लैट भी इतिहास के स्वर्ण-पन्नों पर अंकित हो जाएगा।
यहाँ तक कि उन्होंने हँसते हुए मुझे बातों-बातों में बताया कि हमने केवल जान-बूझकर एक ही संतान पैदा की ताकि इस खर्चीले वातावरण में उसकी सही परवरिश करने में हम कामयाब हो सके। अख़बारों और टेलीविज़न के माध्यम से न केवल कोल-इंडिया के अधिकारियों, कामगारों वरन् जनता के दिलों में अपना विशिष्ट स्थान दर्ज करने वाले श्री प्रकाश चंद पारख के जीवन के अनछुए पहलुओं को उजागर करना ही मेरे इस साक्षात्कार का मुख्य उद्देश्य था। आशा करता हूँ हिंदी जगत में इस साक्षात्कार का भरपूर सम्मान होगा, इसके माध्यम से वर्तमान और भावी पीढ़ी देश के नव-निर्माण में अपना सार्थक योगदान देने के लिए स्व-प्रेरित होगी।
प्रश्न.1:- आप अपने बचपन, परिवार और प्रारम्भिक शिक्षा के बारे में कुछ प्रकाश डालें?
उत्तर:- दिनांक 20.12.45 को मेरा जन्म राजस्थान के जोधपुर शहर के नवचौकिया मोहल्ले में स्थित किराए के मकान में हुआ था। मेरे पिताजी का नाम स्वर्गीय श्री के. सी. पारख तथा माताजी का नाम स्वर्गीय श्रीमती चाँद कुवंर था। मेरे पिताजी स्वतन्त्रता के पूर्व जोधपुर सरकार की नौकरी में थे। वे मुझे बहुत प्यार करते थे और मुझे यह अच्छी तरह याद है कि प्रकृति-प्रेमी होने के कारण वह हर महीने एक बार हमें अपने साथ जोधपुर की क्रोनी कैपिटल ‘मण्डोर’ के नैसर्गिक छटाओं से घिरे उद्यान में पिकनिक के लिए ले जाते थे। धार्मिक तौर पर यह अक्सर पूर्णिमा का दिन हुआ करता था। मेरे पिताजी जितने बाहर से सख्त और अनुशासन-प्रिय थे, भीतर से उतने ही सुकोमल एवं सवेदनशील। मेरी माँ, भले ही, अनपढ थी, मगर वह हमारे लिए वह पूरी तरह से सत्य-निष्ठा, अनुशासन एवं न्याय की रोल मॉडल थी। ऐसे माता-पिता की संतति होने के कारण मेरे भीतर बचपन से ही सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, न्याय-वादिता एवं अनुशासन-प्रियता जैसे आदर्श संस्कार एवं उच्च मानवीय गुणों का बीजारोपण हुआ। मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि मेरी माँ ‘सही को सही’ और ‘गलत को गलत’ कहने में बिल्कुल भी नहीं हिचकिचाती थी। अगर उन्हें इस कार्य के लिए अप्रिय सत्य बोलना भी पड़ता था तो उन्हें वह बोलने में किसी प्रकार की झिझक नहीं होती थी। इस वजह से वह समाज अथवा पास-पड़ोस में कभी-कभी अलोकप्रिय हो जाती थी, मगर उन्हें इस चीज की बिलकुल परवाह नहीं रहती थी। इस प्रकार से अगर मैं यह कहूँ कि निष्पक्षता, ईमानदारी और स्पष्टवादिता जैसे गुण मुझे अपनी माँ से विरासत में प्राप्त हुए हैं तो उसमें किसी भी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं होगी। हमारे परिवार में 2 भाई और 2 बहने हैं। मेरा छोटा भाई श्री एस॰सी॰पारख हैदराबाद में ही डॉक्टर है। एक बहन स्नेहलता नाहटा, जो बडौदा में रहती थी, उनका दुर्भाग्यवश देहान्त हो गया। दूसरी बहन श्रीमती कुसुम सुराना दिल्ली में डॉक्टर हैं।
मेरी प्रारम्भिक शिक्षा जोधपुर में हुई। उसके पश्चात मेरे पिताजी का वहाँ से स्थानान्तरण जयपुर हो गया। अत: पांचवी कक्षा से स्नातक तक की पढाई जयपुर में सम्पन्न हुई। पांचवी कक्षा से ही मन में अव्वल आने का प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा हो गई थी, जो आजीवन मेरे साथ जुड़ी रही।
प्रश्न॰2:- आप तत्कालीन रूडकी विश्वविद्यालय (वर्तमान आईआईटी-रूडकी) से एम॰टेक (एप्लाइड ज्योलोजी) में गोल्ड मेडलिस्ट हैं। फिर आपने ज्योलोजी वाले महत्वपूर्ण सेक्टर को छोड़कर आईएएस की नौकरी करना क्या इसलिए आवश्यक समझा कि इस नौकरी को हमारे देश में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित एवं सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है या कोई और वजह थी? कृपया खुले मन से इस विषय पर प्रकाश डालें।
उत्तर:- मैंने ओएनजीसी के अधिकारियों से प्रभावित होकर बीएससी में ज्योलोजी विषय चुना था। स्नातक तक मेरे विषय फिजिक्स, मैथेमेटिक्स एवं ज्योलोजी थे। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने रूडकी विश्वविद्यालय से ज्योलोजी में एम॰टेक॰किया। यह बहुत पुराना विश्वविद्यालय होने के साथ-साथ एशिया का पहला आभियांत्रिकी कॉलेज था, जिसे थॉमसन इंजीनियरिंग कॉलेज के नाम से जाना जाता था। इस कॉलेज में शुरू-शुरू में आर्मी के लिए इंजिनियर्स को तैयार किया जाता था। वहाँ जीवन की गुणवत्ता (Quality of Life) ही सर्वोत्कृष्ट थी। सन् 1963 में यहाँ 2000 विद्यार्थी अध्ययन करते थे। एक विशाल हॉल में एक साथ 1000 विद्यार्थी बैठकर खाना खाते थे। सच में प्रबंधन पूरी तरह से प्रोफेशनल तौर-तरीकों को अपनाता था।
(…… यह कहते हुए पारख साहब अपने अतीत में इस तरह खो जाते हैं मानो कॉलेज की पुरानी स्मृतियाँ एक-एककर ताजा हो रही हो और उनके एक-एक शब्द अंतरात्मा की अथाह गहराई से प्रतिध्वनित होकर गूंज रहे हो ....)
दाग-रहित एकदम सफेद साफ-सुथरे टेबल क्लॉथ, तवे पर फूली हुर्इ गर्म चपातियाँ आज भी याद आती हैं। पहली बार जब मैंने चप्पल पहनकर मैस में खाना खाने के लिए प्रवेश किया तो मुझे बटलर ने यह कहते हुए रोक दिया, ‘‘चप्प्ल्स आर नॉट एलाउड”। उस दिन से मैंने मैस में कभी चप्पल नहीं पहने। यह था वहाँ का कठोर अनुशासन! सितम्बर से मार्च महीने तक लम्बे सूट पहनना जरूरी हुआ करता था। फुल-शर्ट और टार्इ पहनना तो अनिवार्य था। उस समय तक ब्रिटिश परिपाटी ही चल रही थी। रुड़की विश्वविद्यालय के ज्योलोजी विभाग में एक साल में दस विद्यार्थियों का दाखिला होता था। इस तरह तीन साल के कोर्स में तीस विद्यार्थी स्नातकोत्तर होते थे। संकाय की संख्या भी दस थी। अत: तीन विद्यार्थियों पर एक संकाय की उपलब्धि क्या कम होती थी? रुड़की का अनुभव मेरे लिए अत्यन्त ही मृदु एवम् हृदयस्पर्शी रहा हैं। चूंकि अध्यापकगण हमारे साथ ज्योलोजिकल कैंप में जाते थे तथा वहाँ हम सीमित संख्या में विद्यार्थी होने के कारण सारा माहौल एक परिवार की तरह लगने लगता था। क्या अध्यापक, क्या विद्यार्थी, सभी एक परिवार के ताने-बाने से बुन जाते थे।
नौकरी के दौरान एक बार मैं रूडकी गया था तो वहाँ का माहौल देखकर इतनी खुशी नहीं हुई, जितनी मुझे होनी चाहिए थी, वरन् निराशा ही हाथ लगी। भवनों के अनुसार (रूडकी में हॉस्टल को भवन कहा जाता हैं) सारे मैस अलग-अलग चल रहे थे। एक हजार विद्यार्थियों के एक साथ बैठकर खाना खाने की अनुभूति ‘ॐ सहनाववतु सहनो भुनक्तू सह वीर्यम् करवावहे’ एवं कटलरी और क्रोकरी के खनखनाने की प्रतिध्वनि के श्रुति-बोध के अनुभव की पूर्णतया कमी खलने लगी।
जब मेरी एम॰टेक पूरी हुई, उसके दो साल बाद तक संघ लोक सेवा आयोग द्वारा ज्योलोजिस्ट की कोई परीक्षा नहीं हुर्इ थी, इसलिए मैंने अपना नाम पीएचडी के लिए रजिस्ट्रेशन करवा दिया। रजिस्ट्रेशन किए हुए दो-तीन महीने नहीं बीते थे कि नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ने एक्जिक्यूटिव ट्रेनिंग की वेकेन्सी निकाली थी। मैं जानता था कि पीएचडी का उपयोग केवल अध्यापन के क्षेत्र के सिवाय और कहीं नहीं हैं, इसलिए मैंने नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन में अपना आवेदन भर दिया। उन तीन पदों के लिए सौ प्रविष्टियाँ आई थी। जिनमें तीन टॉपरों का चयन हो गया।
पहला टॉपर श्री एच॰एस॰मदान, आईआईटी खडगपुर से, दूसरा टॉपर श्री पी॰एस॰एन॰ मूर्ति आन्ध्रा-यूनिवर्सिटी विशाखापट्टनम से और तीसरा मैं स्वयं रूडकी विश्वविद्यालय से। मेरे आकलन से हम तीनों में श्री मूर्ति ज्यादा बुद्धिमान एवं होशियार थे। मगर इसे किस्मत की बात ही कहा जाएगा कि श्री मूर्ति एनएमडीसी में महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए और श्री मदान आस्ट्रेलिया चले गए, वहाँ उन्होंने अपनी एक बहुत बड़ी कंसल्टेंसी खोली। मेरे बारे में आपको मालूम ही हैं।
मदान के पिताजी भारत सरकार के तत्कालीन डिप्टी सैक्रेटरी हुआ करते थे। अत: उनकी हार्दिक इच्छा थी कि उनका बेटा आईएएस कर लें, मगर मुझे उस समय तक आईएएस की बिल्कुल भी जानकारी नहीं थी। मदान ने साथ-साथ पढ़ार्इ करने के लिए मुझे आईएएस की परीक्षा देने हेतु प्रेरित किया।
मेरा इधर विगत तीन सालों से मैथेमेटिक्स और फिजिक्स से संपर्क टूट चुका था और उधर एनएमडीसी की प्रथम नियुक्ति बस्तर की बेला-डिला आयरन माइंस से चार-पाँच महीने में स्थानांतरण होकर मेरी पोस्टिंग राजस्थान के खेतडी में हुर्इ थी। उस समय वहाँ एक्सप्लोरेशन का कार्य चल रहा था। फिल्ड-वर्क बहुत कठिन हुआ करता था। दिन भर काम करने से हम थक जाते थे। ऐसी नौकरी के उबाऊपन और मेरे मित्र मदान की प्रेरणा से मैंने आईएएस देने का निश्चय किया। मैंने आईएएस की परीक्षा के लिए इंडियन हिस्ट्री, ज्योग्राफी (ज्योलोजी से थोड़ा-बहुत मिलता-जुलता विषय) और ज्योलोजी जैसे विषयों का चयन किया था और मेरे मित्र मदान ने मैथेमेटिक्स, रसियन लेंगवेज़ और ज्योलोजी। उस समय आईएएस की परीक्षा के लिए पाँच पेपर उत्तीर्ण करने पड़ते थे। तीन पेपर स्नातक स्तर के और दो पेपर स्नातकोत्तर स्तर के चयन करने होते थे। उन दो पेपरों में से एक पेपर मुगल इतिहास का मैंने चयन किया था। यह थी मेरी आईएएस की परीक्षा की रणनीति।
हमारे खेतड़ी प्रोजेक्ट के चीफ ज्योलोजिस्ट डॉ. सिक्का (वर्तमान में कनाडा प्रवासी) कभी नहीं चाहते थे कि कोर्इ भी तकनीकी विशेषज्ञ यानि टेक्नोक्रेट आईएएस बनकर अपने तकनीकी ज्ञान का वांछित लाभ देश को देने में असमर्थ रहे। वे अक्सर हमसे कहा करते थे, “व्हाइ डू यू वांट टू बिकम बाबू ?”
उस समय चर्चा का बहुत बड़ा विषय हुआ करता था, “जनरलिस्ट वर्सेज़ स्पेशियलिस्ट”। सब लोग अपने-अपने मंतव्य देते थे। कोई जनरलिस्ट के पक्ष में तो कोई स्पेशियलिस्ट के पक्ष में। डॉ॰ सिक्का आई॰ए॰एस॰ अर्थात् जनरलिस्ट के पक्ष में कतई नहीं थे। पढ़ाई के नाम पर वे हमें छुट्टी भी देने में आनाकानी करते थे। यह तो मेरी तकदीर है कि किसी भी तरह मैंने मैनेज कर लिया पंद्रह दिन की छुट्टी के लिए और खेतड़ी से जयपुर चला गया। कारण खेतड़ी में उस समय कोई पुस्तकालय नहीं था। जयपुर जाकर मैंने वहाँ की राजस्थान यूनिवर्सिटी के पुस्तकालय का भरपूर उपयोग किया।
मेहनत के साथ-साथ यहाँ भी किस्मत की बात ही कहूँगा कि आई॰ए॰एस॰ की परीक्षा के लिए विषयों का सही चयन और सही रणनीति के कारण मैं आईएएस की लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया, जबकि मेथेमेटिक्स विषय के चयन के कारण मदान फेल।
अब रही इंटरव्यू की बात। तत्कालीन आईएएस का इंटरव्यू एक घंटा चला करता था। इंटरव्यू के पैनल में दस अलग-अलग विषयों के विशेषज्ञ बैठा करते थे, परीक्षार्थी के आत्म-विश्वास की परख करने के लिए। इस पैनल के चेयरमैन श्री सरकार ने मुझे सबसे पहला सवाल पूछा, ‘‘आप एनएमडीसी जैसे पीएसयू में काम कर रहे हैं तो आईएएस जैसी सरकारी नौकरी में क्यों आना चाहते हैं?”
पहले से ही मैंने देखा था कि पीएसयू के तत्कालीन वरिष्ठ अधिकारी काफी मेहनती और प्रतिबद्ध थे, क्योंकि बेलाड़ीला की आयरन खदान के महाप्रबंधक श्री कुमार मंगल को मैंने हर सुबह छह बजे उठकर क्रशिंग प्लांट, कोल हैंडलिंग प्लांट तथा रेल्वे साइडिंग आदि का दौरा करते हुए देखा था। उसके बाद वह सभी फील्ड के अधिकारियों से कल, आज और कल के लक्ष्यों पर विमर्श हेतु समीक्षात्मक बैठक का आयोजन किया करते थे। इस व्यावहारिक जानकारी की वजह से मेरे लिए इस सवाल का जवाब देना अत्यन्त ही सहज रहा। मैंने उत्तर दिया, “यद्यपि पीएसयू में काम करना चुनौतीपूर्ण एवं संतोषजनक है, मगर आईएएस की नौकरी ज्यादा चुनौतीपूर्ण, ज्यादा अवसर प्रदान करने वाली और समाज में ज्यादा प्रतिष्ठाजनक है। “
एक घंटे में से बीस मिनट चेयरमैन के इसी तरह के प्रश्नों का जवाब देते हुए आरामदायक अवस्था में बीत गए। पैनल के अन्य सदस्य इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस ने दूसरा सवाल पूछा, “कुछ समय पूर्व दिल्ली पुलिस पर एक आयोग का गठन हुआ हैं। कृपया उस आयोग की सिफारिशों के बारे में बताएं?”
मैं राजस्थान का रहने वाला था, दिल्ली की पुलिस से मेरा क्या लेना-देना? अत: इस असंगत सवाल का मैंने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया, ‘‘सॉरी सर, आई डू नॉट नो”
उत्तर नहीं आने के बावजूद भी मेरे चेहरे पर आत्म-विश्वास की लकीरें साफ झलक रही थी। बाहरी दबाव तब तक उन्हें मिटा नहीं पाया था। इस वजह से पहले प्रयास में ही मेरा आईएएस में चयन हो गया।
मैंने एनएमडीसी में तीन साल का बॉन्ड पहले से ही भर रखा था, नौकरी से रिजाइन करते समय बॉन्ड की राशि भरने के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे। यह तो मेरे लिए सौभाग्य की बात थी कि मेरे पिताजी उस समय इंडस्ट्री विभाग में कार्यरत थे और उनके विभाग के सचिव हमारी कंपनी के निदेशक मण्डली में शामिल थे। उनके सौहार्द्यपूर्ण सम्बन्धों के कारण कंपनी ने बॉन्ड के भुगतान किए बिना मुझे वहां से रिलीज कर दिया।
प्रश्न॰3:- क्या कभी आपको सिविल सर्विस ज्वॉइन करने में जन सेवा का अच्छा अवसर या मंच मिलने की अनुभूति हुई थी?
उत्तर:- जी, हाँ। सिविल सर्विस में केन्द्र एवं राज्य सरकार के साथ कार्य करने का अवसर मिला है। जिसमें अलग-अलग क्षेत्रों के कर्इ लोग आपके संपर्क में आते हैं। सिविल सर्विस के एक अधिकारी को गरीब मजदूरों से लेकर धनाढ्य उद्योगपतियों तथा गाँव के एक सरपंच से लेकर प्रधानमंत्री के साथ कार्य निष्पादन करने का मौका मिलता हैं। इस प्रकार सिविल सर्विस के माध्यम से सामान्य जन की सेवा अच्छी तरह से की जा सकती हैं।
प्रश्न॰ 4 :- मैंने आपकी किताब “Crusader or conspirator?” ध्यानपूर्वक पढ़ी। इस पुस्तक के परिशिष्टों में बहुत सारे पत्र संलग्न किए गए हैं, जिससे यह पता चलता हैं कि आपका पूरा कैरियर करनुल जिले के कलेक्टर एवं डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट बनने के शुरूआती दिनों से ही संघर्षों से भरा हुआ था। क्या यह सत्य है? इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर - यह बात बिल्कुल सत्य हैं कि मेरा संपूर्ण कैरियर संघर्षमय रहा। हमारे गर्वंनेंस में राजनेता चुनाव जीतने के बाद एक प्रकार से संभ्रम में रहते हैं कि क्या उन्हें करना चाहिए और क्या नहीं? उन्हें लगता हैं कि जनता के हर कार्य को करना अथवा करवाना ही उनका धर्म हैं, चाहे उनकी मांग नाजायज ही क्यों न हो। उदाहरण के तौर पर, मन्सूरी की ट्रेनिंग पूरी कर लेने के बाद हमें एक साल तक पटवारी, जिला परिषद एवं सब-कलेक्टर आदि के कार्यों की निगरानी से गुजरना पड़ता हैं, ऐसी ही अवधि में मैं भी जिला-परिषद का काम देख रहा था। उस समय जिला परिषद् के चेयरमैन बापी मीडु हुआ करते थे। वह मेरे पास हर सप्ताह सरकारी अध्यापकों के स्थानान्तरण की पर्ची भेजा करते थे, जबकि सरकारी नियम था कि एक अध्यापक को, जब तक कोर्इ वैध कारण न हो, कम से कम तीन साल तक एक ही जगह पर अपनी सेवा देनी होती थी।
बापी मीडु ने वे सारी फाइलें, जिन पर मैंने अध्यापकों के स्थानान्तरण के खिलाफ सरकारी नियम के मुताबिक अपनी नोटिंग लिखी थी, अपने पास तब तक रखी, जब तक कि मेरा वहाँ का कार्यकाल पूरा नहीं हो गया। जब मैं अपने अंतिम कार्य दिवस पर विदाई समारोह के दौरान उनसे मिलने गया तो उन्होंने कहा, “पारख साहब, आपके लिए फाइलों पर यह टिप्पणी करना आसान है कि स्थानांतरण सरकारी नियम के विपरीत है, पर हमारे जैसे राजनैतिक नेताओं के लिए अपने वोटरों को सरकारी नियमों का उद्धरण देते हुए ‘नहीं’ कहना एक दुष्कर कार्य है। अगर हम उन्हें कृतज्ञ नहीं करेंगे तो वे हमें अपना वोट क्यों देंगे?”
मैंने उनसे कहा, “सर, आप जनता के एक चयनित नेता है। मगर आपके लिए वोटरों को आभारी बनाने की तुलना में बच्चों की शिक्षा पर ध्यान देना ज्यादा जरूरी है। जिले में पढ़ार्इ सही ढंग से चल रही है या नहीं, उसका उत्तरदायित्व क्या आपके ऊपर नहीं हैं?अगर अध्यापक हर दो-तीन महीनों में ट्रांसफर होते रहे तो वे बच्चों को कैसे पढ़ा पाएंगे?” वह निरुत्तर थे। उनका शिक्षा प्रणाली के उत्थान से कोई लेना-देना नहीं था। अध्यापकों का केवल स्थानांतरण करवाना ही उन्हें अपना मुख्य उद्देश्य नजर आता था। कहने का मतलब, राजनेताओं के लिए सबसे बड़ी भ्रामिक स्थिति यह होती है कि वह किसी को मना नहीं कर सकते हैं। हमारे संविधान में स्थायी सिविल सर्विस का प्रावधान इसलिए है कि वह चेक एंड बेलेन्स का काम करें ताकि राजनेता किसी भी तरह का आर्बिटरेरी निर्णय न ले सके। सिविल सर्विस के अधिकारी अगर र्इमानदारी और निष्पक्षतापूर्वक सही निर्णय देने का साहस रखते हो तो कोर्इ भी राजनेता निर्भय होकर गलत निर्णय नहीं ले सकता है। इसी तरह अगर राजनैतिक पार्टियां नागरिकों के अनरीजनेबल एक्सपेक्टेशन पूरी करने से इन्कार कर दें और स्वयं जागरूक होकर गलत कार्यों की तरफ प्रवृत्त नहीं हो तो हमारे देश का लोकतांत्रिक ढांचा क्या अच्छे ढंग से नहीं चल सकता है?सरदार पटेल के पास ऐसा दृष्टिकोण था जिसके अनुसार सिविल सेवा के अधिकारीगण को अनुशासित, योग्य, समर्पित और र्इमानदार होने के साथ-साथ राजनीतिक पार्टियों के अनुचित प्रभाव से मुक्त होने चाहिए और साथ ही साथ, वे राजनैतिक दबाव बर्दाश्त कर सके एवं स्वतंत्र निर्णय देने का साहस रखने वाले होने चाहिए। किसी भी सिविल सेवा के अधिकारी का अगर कोर्इ व्यक्तिगत एजेण्डा न हो तो उसे अपनी दक्ष सेवाएं देने में किसी भी प्रकार का खतरा नहीं होता हैं। आधुनिक युग में राजनैतिक नेताओं के लिए भी किसी अच्छी सलाह को खारिज कर देना इतना सहज नहीं होता हैं। आखिरकर उनके मंतव्य की जानकारी जनता को हो जाती हैं। मगर दु:ख इस बात का हैं कि आज के नेताओं की चमड़ी मोटी हो गई है।
विमल जालान के अनुसार हर साल उत्तर प्रदेश में एलाइट आईएएस और आईपीएस अधिकारियों का स्थानान्तरण होता हैं। किसी एक सरकार में अगर स्थानान्तरण की औसत दर 7 प्रतिदिन है तो दूसरी सरकार में यह दर 16 प्रतिदिन हो जाती हैं। अगर सिविल सर्विस के अधिकारी अपने ट्रांसफर से डरेंगे तो वे देश की सेवा नहीं कर सकते हैं। जिस तरह सैनिक अपने घर-परिवार को छोड़कर अनेक जानलेवा खतरों से जूझते हुए देश की सेवा करते है, वैसे ही आईएएस अधिकारियों को भी घर-परिवार की चिंता किए बगैर निडर होकर देश निर्माण में अपना योगदान देना चाहिए।
प्रश्न॰ 5 :- आपकी पुस्तक “Crusader or conspirator?” पढ़ने के बाद यह पता चलता है कि प्रशासन पर राजनेताओं का दबदबा सत्तरहवें-अस्सीवें दशक में भी था। इससे यह प्रतीत होता है कि स्वतंत्र भारत में आज तक ब्यूरोक्रेसी के लिए निडरतापूर्वक पक्षपातरहित होकर कार्य करने का दौर कभी भी नहीं रहा। कृपया इन पर अपनी विस्तृत टिप्पणी प्रदान करें?
उत्तर :- यद्यपि ब्यूरोक्रेसी का पतन देश की आजादी के साथ ही शुरू हो गया था मगर आपादकाल के समय(1975)यह पतन और ज्यादा तेज हो गया और साझा सरकारों के बनते-बनते अपनी चरम-सीमा तक पहुँच गया। मेरे आईएएस ज्वॉइन करने के समय अर्थात् सन् 1969 में नब्बे प्रतिशत र्इमानदार अधिकारी होते थे तथा शेष दस प्रतिशत बेर्इमान अधिकारी। मगर अब जनता का विश्वास पूरी तरह से टूट गया हैं। जनता में ऐसी धारणा घर कर गई है कि वर्तमान समय में सिविल-सेवा में बहुत कम र्इमानदार अधिकारी बचे हैं, बाकी अधिकांश बेर्इमान अधिकारी हैं।
प्रश्न॰6:- क्या आप भारत सरकार में कोयला सचिव बनना अपने कैरियर का अभिशाप मानते हैं? अगर हाँ तो क्यों?
उत्तर - नहीं। कोयला सचिव बनना मेरे लिए कोर्इ अभिशाप नहीं था। मैंने तो इस पद का भरपूर आनंद लिया। मेरा यह मानना है कि मैंने भारत के कोल सेक्टर में अपना अमूल्य योगदान दिया हैं। उदाहरण के तौर पर -
1- जब मैने कोयला मंत्रालय ज्वॉइन किया था तब भारत के सभी विद्युत सयंत्र कोयले की गंभीर कमी से जूझ रहे थे। सात दिन से ज्यादा किसी के पास कोयले का स्टॉक नहीं था और जब मैने मंत्रालय छोड़ा तो प्रत्येक प्लांट में कम से कम पंद्रह दिनों का स्टॉक मौजूद था।
2- मेरे ज्वॉइन करने के समय कोल इंडिया की तीन अनुषंगी कंपनियाँ बीसीसीएल , ईसीएल और सीसीएल घाटे के दौर से गुजर रही थी। मेरे मंत्रालय छोड़ते समय ये तीनों कंपनियां ऑपरेटिंग प्रॉफ़िट में आ गई थी। सन् 2005-2006 में मैंने कोल इंडिया में ई-आक्शन लागू करवाया।
3- मेरे समय में सभी अनुषंगी कंपनियों के सीएमडी और डायरेक्टरों की नियुक्ति मेरिट एवं दक्षता के आधार पर की गई। वे लोग राजनेताओं के हथकंडों से मुक्त हो गए थे। पब्लिक एन्टरप्राइजेज सलेक्शन बोर्ड की सिफ़ारिशों वाली फाइलें कोयला मंत्रियों के पास भेजी जाती थी। मंत्रीगण उन फाइलों को तब तक लंबित रखते थे जब तक उनके मांगों की पूर्ति नहीं हो जाती थी और अगर उनकी मांगे पूरी नहीं होती तो वे पब्लिक एन्टरप्राइजेज सलेक्शन बोर्ड की सिफ़ारिशों को भी बेहिचक रिजेक्ट कर देते थे। नियुक्ति के इन मामलों में अंतिम निर्णय का अधिकार एसीसी(एपोइंटमेंट कमेटी ऑफ कैबिनेट)के हाथों में होता है, इस अवस्था में सचिव को चाहिए कि वह उन फाइलों को मंत्रियों की असंगत टिप्पणियों के बावजूद भी एसीसी(एपोइंटमेंट कमेटी ऑफ कैबिनेट) में अनुमोदनार्थ भेंजे। इस कमेटी में कोयला मंत्री, गृहमंत्री एवं प्रधानमंत्री सदस्य होते हैं। साधारणतया कोर्इ भी कोयला सचिव मंत्री द्वारा ठुकराए हुए ऐसे प्रस्ताव को एसीसी में नहीं भेजता है, इसलिए राजनेता अपना फायदा उठाते हैं। मगर मैंने अनेक विषम परिस्थितियों के बावजूद भी कोल इंडिया के चेयरमैन शशिकुमार के केस में यह काम कर दिखाया था।
4- मुझे अपनी कार्यावधि में प्रत्येक सीएमडी तथा डायरेक्टर का पूरा-पूरा सहयोग मिला। मैंने उनसे कह दिया था कि अगर अवैध मांग, भले कोयला मंत्री से क्यों न आए, आप मुझे सीधे पत्र लिख सकते हैं। इस बात की भी जानकारी होनी चाहिए कि कोर्इ भी सरकारी आदेश सेक्रेटरी या ज्वाइंट सेक्रेटरी द्वारा ही पारित किया जा सकता हैं, न कि किसी मंत्री के द्वारा। मेरे समय में सभी सीएमडी अच्छे ढंग से सुरक्षित थे। मेरी सेवानिवृत्ति पर उन्होंने मुझे प्रशस्ति पत्र भी प्रदान किया। इस प्रकार से कोयला सचिव बनना मेरे लिए अभिशाप नहीं वरन एक बहुत बड़ा वरदान था।
प्रश्न॰ 7:- तालचेर कोयलाचंल के सांसद धर्मेन्द्र प्रधान द्वारा संसदीय सलाहकार समिति की एक बैठक में आपके खिलाफ अपशब्दों का प्रयोग करने के कारण आपने अपनी गरिमा और आत्मनिष्ठा बचाने की खातिर प्रधानमंत्री को चिट्टी लिखकर अपना त्याग-पत्र दे दिया। इसके कलह के पीछे क्या कारण हो सकते है?
उत्तर :- धर्मेन्द्र प्रधान मुझसे दो कारणों से खफा थे -
1) ई-आक्शन लागू करने के कारण तालचर कोयलांचल में काफी हद तक कोयला माफियाओं पर नकेल कस दी गर्इ थी। शायद यह उनके क्रोध की वजह रही होगी।
2) मेरे समय में कोल इंडिया में कुल मिलाकर 6 लाख श्रमिक थे। जिसमें से 2.5 लाख श्रमिक बिना किसी काम के थे। धर्मेन्द्र प्रधान चाहते थे कि जमींहरा अर्थात भू-विस्थापित लोगों को कोल इंडिया में रोजगार मिले। कोल इंडिया में सामान्य मजदूर को भी सैलेरी बहुत ज्यादा मिलती हैं। प्रत्येक जमीन के छोटे टुकड़े के अधिग्रहण पर रोजगार प्रदान करना मुश्किल है, इस प्रकार के अनुत्पादक रोजगार देकर कोल इंडिया जैसी वाणिज्यिक संस्थान को चलाना अव्यवहार्य है।
इस संदर्भ में मैंने ओड़िशा के मुख्य मंत्री और मुख्य सचिव के समक्ष वैकल्पिक प्रस्ताव रखें ताकि भू-विस्थापितों को मिलने वाली सुनिश्चित आय से सीआईएल को अनुत्पादक एवं आधिक्य श्रम-शक्ति से बचाया जा सके। जबकि सीआईएल में रोजगार दिलवाना राजनेताओं के लिए एक बहुत बड़ा कारोबार है।
शायद इन्हीं कारणों से श्री प्रधान ने मेरे खिलाफ असंयत एवं अभद्र भाषा का प्रयोग किया। जिस वजह से मैं अपनी गरिमा एवं आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए कैबिनेट सचिव को अपनी स्वैच्छिक सेवा-निवृति के लिए एक पत्र लिखने के लिए विवश हुआ।
प्रश्न॰ 8:- कोलकाता की ममता बनर्जी, धनबाद के सासंद चन्द्रशेखर दूबे, झारखंड के शिबु सोरेन आदि नेता लोग अपनी राजनैतिक गतिविधियो को चलाने के लिए प्रशासन तंत्र का दुरूपयोग करते है और जब उनका राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध नहीं हो पाता तो दादागिरी के रास्तों का अख़्तियार करते है। क्या विदेशों में भी ऐसा कुछ होता है?
उत्तर - नहीं, विदेशों में ऐसा नहीं होता है। वहाँ की ट्रेडिशन और कल्चर कुछ इस प्रकार की हैं कि ऐसी घटनाएं वहाँ नहीं घटती हैं। अगर ब्रिटेन का उदाहरण लें तो वहाँ पर लिखित संविधान भी नहीं हैं। वहाँ किसी भी मंत्री की इस प्रकार की गतिविधियां अगर जनता के ध्यान में आ जाती है तो उन्हें तुरंत त्याग-पत्र देना होता है। जबकि हमारे देश में ऐसा नहीं हैं। किसी भी घोटाले के पर्दाफाश होने से पूर्व अनेक संवैधानिक प्रक्रियाओं जैसे जांच-समितियाँ, संसदीय-प्रश्न, सीबीआई जांच आदि से गुजरना होता है।
प्रश्न॰ 9 :- मैं जानता हूँ कि कोल-सेक्टर में अनेक सुधारात्मक गतिविधियों को बढ़ावा देने का श्रेय आपको जाता हैं। जिसमें ई-नीलामी के माध्यम से कोयला बिक्री की पारदर्शी एवम् नवीन विधि भी शामिल है। मगर आपको आपके हिस्से का श्रेय नहीं मिल सका। क्या आप इसके लिए कभी असंतुष्ट या अवसाद-ग्रस्त हुए हैं?
उत्तर - श्रेय किसे चाहिए? मनुष्य को निस्पृह-भाव से अपना काम करते रहना चाहिए। श्रेय की कभी कामना नहीं करनी चाहिए। मेरे समय में सारे अध्यक्ष-प्रबंध-निदेशक, अधिकारीगण पूरी तरह से खुश थे। इस संदर्भ में मुझे किसी भी प्रकार का दु:ख या अवसाद नहीं है।
प्रश्न॰ 10 :- किसी भी स्थापित प्रणाली एवं संस्थान के खिलाफ संघर्ष करने के लिए आपके अन्दर साहस, आत्म-विश्वास और ताकत कहाँ से आती है? क्या कभी आपको अपने बैचमेट या ब्यूरोक्रेटिक सर्कल में से किसी ने न्याय, सत्य, र्इमानदारी और पारदर्शिता के लिए संघर्ष करता हुआ देखकर अपनी तरफ से शुभकामनाएँ प्रेषित की?
उत्तर - मेरी इस शक्ति, आत्म-विश्वास और साहस के पीछे तीन लोगों का हाथ हैं। पहला, मेरी माँ, जो मेरी प्रेरणा-स्रोत थी। वह पढ़ी-लिखी नहीं थी, मगर सत्य-निष्ठा और न्याय की प्रतिमूर्ति थी। तत्कालीन समय में लड़के-लड़कियों में बहुत ज्यादा विभेद किया जाता था, जबकि मेरी माँ उस समय भी दोनों को समदृष्टि से देखती थी। मेरी माँ के ये सारे गुण मुझे अपनी विरासत में मिले।
दूसरा, मेरी धर्म-पत्नी श्रीमती उषा पारख, जो पहले से ही सिविल सर्विस की सीमा-रेखा से परिचित थी और उसकी बाध्य-बाधकता को अच्छी तरह जानती थी। मेरे साले साहब 1963 बैच के आईएएस अधिकारी थे। वे भी पूरी तरह से सत्य-निष्ठा का पालन करने वाले शख्स थे। मुझे इस बात का फक्र है कि मुझे ऐसी पत्नी मिली, जिन्होंने आजीवन कभी भी मुझे मेरे मनचाहे र्इमानदारी के पथ से डिगने नहीं दिया। इस वजह से सही मायने में, मैं अपने जीवन की सम्पूर्ण गुणवत्ता को पूरी तरह जी पाया हूँ।
तीसरा, मेरी बेटी श्रीमती सुष्मिता पारख, जो फिलहाल चेन्नर्इ में हैं। उसने कभी भी अपनी आवश्यकताओं से ज्यादा पूर्ति की मांग नहीं की। पत्नी और बच्चे की अवांछित मांगें अधिकांश समय र्इमानदार आदमी को भी बेर्इमान बना देती हैं, ऐसा मेरा मानना है।
( पारख साहब के उपरोक्त कथन से मुझे बुर्ला विश्वविद्यालय, सम्बलपुर के प्रबंधन-संकाय के भूतपूर्व विभागाध्यक्ष व मैनेजमेंट गुरु श्री ए॰के॰महापात्र की एक कहानी याद आ जाती है । कहानी इस प्रकार है:-
“...... एक बार अखिल विश्व-स्तरीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सी॰ई॰ओ॰ के ‘फ्रस्टेशन-लेवल’ की जांच करने के लिए बैठक का आयोजन किया गया, जिसमें दुनिया भर के बड़े-बड़े लोगों ने भाग लिया। इस प्रयोग में पता चला कि भारतीय सी॰ई॰ओ॰ का ‘फ्रस्टेशन लेवल’’सबसे ज्यादा था। उसका कारण जानने के लिए एक टीम ने फिर से ‘व्यवहार तथा सोच’ संबंधित और कुछ प्रयोग किए। जिसमें यह पाया गया कि उनकी धर्मपत्नी बात–बात में उनके ऊपर कटाक्ष करती थी, यह कहते हुए, “आपने क्या कमाया है ? मेरे भाई को देखो। आपके एक गाड़ी है तो उसके पास चार गाड़ी है। आपके पास एक बंगला है तो उसके पास पाँच बंगले हैं। आप साल में एक बार विदेश की यात्रा करते हो तो वह हर महीने विदेश की यात्रा करता है। अब समझ में आया आपमें और उसमें फर्क ?”
ऐसे कटाक्ष सुन-सुनकर बहुराष्ट्रीय कंपनी के अट्ठाईस वर्षीय युवा सी॰ई॰ओ॰ इतना कुछ कमाने के बाद भी असंतुष्ट व भीतर ही भीतर एक खालीपन अनुभव करने लगा। पैसा, पद व प्रतिष्ठा की अमिट चाह उनके ‘फ्रस्टेशन-लेवल’ को बढ़ाते जा रही थी।
इसी बात को अपने उत्सर्ग में पारख साहब ने लिखा की सिविल सर्विस में मोडरेट वेतन मिलने के बाद भी मेरी सारी घटनाओं की साक्षी रही मेरी धर्मपत्नी ने ऐसा कभी मौका नहीं दिया, जो मेरे निर्धारित मापदंडों को उल्लंघन करने पर बाध्य करते। और ऐसे भी अँग्रेजी में एक कहावत है, “चैरिटी बिगेन्स एट होम”। हर अच्छे कार्य का शुभारंभ घर से ही होता है।
पारख साहब अत्यंत ही भाग्यशाली थे कि उन्हें अपने स्वभाव, गुण व आचरण के अनुरूप जीवन–संगिनी मिली। मैं बहिन सुष्मिता को भी धन्यवाद देना चाहूँगा कि अपने निर्मोही पिता के पथ में कभी भी किसी तरह का अवरोध खड़ा नहीं किया, बल्कि एक निर्लिप्तता से उनका हौसला बढ़ाते हुए उन्हें अपने पथ से विचलित नहीं होने दिया। यह है यथार्थ वैराग्य का अनुकरणीय उदाहरण। )
मेरा संघर्ष देखकर अपने बेचमेटों में किसी ने भी मुझे शुभकामनाएं नहीं दी, मगर सीबीआई केस के समय मुझे अपने परिचित-अपरिचित मित्रों, साथ में काम करने वालों और राजनेताओं से भी काफी सबंल प्राप्त हुआ।
प्रश्न॰ 11 :- जिस समय आपके घर में सीबीआई की रेड हुर्इ, उस समय आपकी और भाभीजी की मनोदशा कैसी थी?
उत्तर - ( इस सवाल का जवाब पारख साहब ने नहीं दिया, शायद उस घटना की याद आते ही उन्हें काफी कष्ट हो रहा था। मैंने देखा कि शांत-स्वभाव वाले पारख साहब का मन उन बुरी स्मृतियों को याद कर उद्विग्न होता जा रहा था मानो किसी ने प्रशांत महासागर में किसी प्रकार के प्रक्षेपण से उथल-पुथल पैदा कर दी हो। उन्हें नीरव देखकर भाभीजी ने इस प्रश्न का उत्तर दिया। उनके शब्दों में भी मार्मिक कंपन था। )
यह एक अप्रत्याक्षित घटना थी, हमारी कल्पना से परे। अचानक जब सीबीआई ने हमारे सिंकदराबाद स्थित निवास-स्थान “जागृति रेजीडेन्सी” के फ्लैट नं. 4 A में छापा मारा तो उस समय हम मॉर्निंग वाक पर जाने की तैयारी कर रहे थे। पारख साहब ने शयन कक्ष में आकर मुझे शांत रहने और फिर बाहर जाकर सीबीआई अधिकारियों को अपना काम करने के लिए कहा। फोन के ऊपर फोन आ रहे थे। मैं फोन उठा रही थी। मेरे दोनों हाथों में फोन थे। एक उनका और एक मेरा। कम से कम 1500 कॉल से कम नहीं आए होंगे। इधर टीवी में भी हमारे घर में सीबीआई द्वारा छापे पड़ने की स्क्रॉल जारी कर दी गई थी। फिर भी उनके चेहरे पर किसी भी प्रकार के तनाव की रेखाएं नहीं थी। उनके मन में एक ही बात पर विश्वास था, सांच को आंच कहाँ?बिना किसी प्रकार की खीझ या तनावग्रस्त हुए सौम्य, शांत और संयमित भाषा में इन्होंने(पारख साहब ने )सीबीआई के लोगों से कहा, “अगर कुमार मंगल बिरला ने जो कुछ मुझे दिया होगा। अब तक तो वह मैं हजम कर चुका हूंगा। मुझे सेवा-निवृत्त हुए सात साल से ज्यादा हो गए हैं। आप लोग यहाँ ढूंढ क्या रहे हो?यहाँ क्या मिलेगा आपको?”
उन्होंने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। वे लोग कुछ आवश्यक दस्तावेज खोज रहे थे। जहां-तहां तकिये के नीचे, बिस्तर के ऊपर, सोफे के पीछे-सब जगह इधर-उधर झांक रहे थे। उन दिनों पारख साहब अपने संस्मरण लिखने में व्यसत थे, उनके वे हस्त-लिखित कागज टेबल के ऊपर पड़े हुए थे। सीबीआई के अधिकारियों ने उन कागजों को उठाया और अपने काम के लिए आवश्यक दस्तावेज समझ ले जाना चाहते थे। अभी भी पारख साहब ने अपना धीरज नहीं खोया था। उनके अनुरोध पर उन कागजों को उन्हें सुपुर्द कर दिया गया, बशर्ते उनकी एक फोटोकॉपी अपने पास रखने की इच्छा जताकर। फोटोकॉपी का एक सेट मिल जाने पर मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखकर पारख साहब कहने लगे, ‘‘जो किताब प्रकाशित होने देना आप नहीं चाह रही थी, नेताओं के डर से, वह किताब अपने आप अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच गई। ’’
ऐसी विषम परिस्थिति में भी उनकी विनोद-प्रियता मुझे अचंभित कर रही थी। मुझे डर था कि अगर उनकी यह किताब प्रकाशित हो गई तो कर्इ नेता लोग उन्हें जान से मरवा सकते थे, अपने किसी षड़यंत्र का शिकार बनाकर या किसी अज्ञात व्यक्ति किसी द्वारा पत्थरबाजी या किसी गाड़ी से दुर्घटना करवाकर, कुछ भी कर सकते हैं वे लोग! मेरी सारी दुनिया तो ये ही हैं। उन्हें कुछ हो जाने से .....?
( इस समय भाभीजी काफी भावुक हो गई थी और उनकी आँखों में आंसुओं की कुछ बूंदें साफ झलक रही थी। उनकी आवाज भी आद्र हो गई थी, एक रूआँसापन लगने लगा था। अपने आप को संभाल कर वह आगे कहने लगी )
मुझे आश्चर्य हो रहा था कि इस अवस्था में पारख साहब को न्याय मिल सकता हैं अथवा नहीं? न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार को देखकर आधुनिक युग में ऐसे सारी शंकाएं मेरे मन में गलत नहीं थी। मैं इस घटना को लेकर पूरी तरह से हतप्रभ एवं स्तब्ध थी क्योंकि मैं जानती थी कि इन्होंने कभी भी अपने जीवन में कुछ गलत नहीं किया फिर ऐसा क्यों? क्या यह कोई षड्यंत्र नहीं तो और क्या है?
प्रश्न॰12 :- आपने अपने सिविल सर्विस की सारी जिंदगी ईमानदारी, सत्य-निष्ठा और कर्तव्य- परायणता के साथ बिताई, फिर ऐसी क्या वजह हुई कि सीबीआई को आपके ऊपर शक करना पड़ा?
उत्तर:- सन 1993 में कैप्टिव कोल ब्लॉकों के आवंटन हेतु स्क्रीनिंग कमेटी का गठन किया गया था, जो पार्टी की आर्थिक एवं तकनीकी फिजिबिलिटी चेक करती थी और उसके बाद कोल ब्लॉक का आवंटन करती थी। शुरुआती सालों में बहुत कम आवेदक थे, मगर सन 2003 में स्टील उद्योग में आए उछाल के कारण कोल-ब्लॉकों की मांग में अचानक बढ़ोतरी हुई और प्रत्येक कोल ब्लॉक के लिए आवेदकों की संख्या में वृद्धि होने लगी। इसलिए मैंने खुली निविदा के माध्यम से आवंटन करने का प्रस्ताव रखा। स्क्रीनिंग कमेटी ने तलाबीरा ब्लॉक-II को नेवेली लिग्नाइट कॉर्पोरेशन को आवंटित करने का प्रस्ताव रखा था, मगर जब कुमार मंगल बिरला ने अपने निजी उपक्रम हिंडालको के लिए तलाबीरा ब्लॉक हेतु प्रधानमंत्री और मुझे पुनर्विचार हेतु अपना प्रेजेंटेशन दिया तो मैंने देखा कि उनके तर्कों में कुछ दम था, इसलिए प्रस्ताव पर मैंने कोयला-सचिव की हैसियत से उस ब्लॉक को जाइंट वेंचर हेतु दोनों नेवेली लिग्नाइट और हिंडालको को देने के लिए तत्कालीन कोयला-मंत्री (उस समय प्रधानमंत्री थे) से अपनी सहमति देने हेतु अनुरोध किया, जिसे प्रधान-मंत्री द्वारा स्वीकार कर लिया गया। यही वजह सीबीआई के संदेह का कारण बनी कि नेवेली लिग्नाइट को दिए जाने वाले ब्लॉक को स्क्रीनिंग कमेटी की सिफ़ारिशों को न मानते हुए एक भागीदार हिंडालको को कैसे बनाया गया? जिसका पूरा वर्णन मैंने अपनी पुस्तक के अध्याय “सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई एवं कोलगेट” में दिया है। बाद में सीबीआई ने अपनी क्लोज़र रिपोर्ट में मेरे प्रस्ताव को उचित ठहराया। मुझे दुख इस बात का है कि बिना होमवर्क किए सीबीआई को यह कदम नहीं उठाना चाहिए था, और साथ ही साथ केस को इंवेस्टिगेशन फेज से गुजरने से पहले जनता के सामने रखकर सिविल सर्विस के वरिष्ठ अधिकारी के आजीवन ईमानदारी की कमाई पर आधारित बने बनाए चरित्र का हनन नहीं करना चाहिए।
प्रश्न॰ 13 :- आपकी इस पुस्तक के प्रकाशित होने के उपरांत राजनेताओं के आचरण तथा शासन-प्रणाली में किसी भी प्रकार कोई परिवर्तन आया?
उत्तर - मुझे नहीं लगता कि कोर्इ किताब ऐसा परिवर्तन ला सकती हैं। जब तक हमारे देश की निर्वाचन पद्धति में कोई सुधार नहीं आ जाता, तब तक राजनीति में किसी भी प्रकार के परिवर्तन की उम्मीद करना बेकार हैं। मैं मोदी जी द्वारा वर्तमान राजनीति में जो सुधारात्मक कार्यक्रम किए जा रहे हैं, उनकी खुले कंठ से सराहना करता हूँ। उदाहरण के तौर पर विमुद्रीकरण की बात को ही ले लें। लघु अवधि के नुकसानों को अगर छोड़ दिया जाए तो दीर्घ अवधि में इसके फायदे ही फायदे होंगे ।
प्रश्न॰ 14 :- “कॉमर्शियल टैक्सेज़” वाले अध्याय में आपने किमते नामक एक व्यापारी का उदाहरण देते हुए यह लिखा है कि आधुनिक युग में कोर्इ भी व्यवसाय र्इमानदारी से नहीं किया जा सकता है, तब आपके दृष्टिकोण से र्इमानदारी लाने के लिए क्या-किया किया जाना चाहिए?
उत्तर - मुझे इस बात का दु:ख है कि जो लोग हमसे दस गुणा ज्यादा कमाते है, मगर वे हमारे जितना इन्कम टैक्स नहीं भरते हैं। यह अन्तर क्यों? अगर वे लोग अपना पूरा-पूरा टैक्स भरे तो सरकार के राजस्व में अच्छी-खासी वृद्धि हो जाएगी। इस कार्य के लिए निर्वाचन-प्रक्रिया में ठोस संशोधन की आवश्यकता है।
मेरे दृष्टिकोण में “टेक्नॉलॉजी ब्रिंग्स ट्रांसपेरेंसी” कथन एकदम सही है। उदाहरण के तौर पर ई-टेंडरिंग, ई-आक्शन, ऑटो रिफ़ंड, ऑनलाइन पेमेंट आदि ऐसी व्यवस्थाएं हैं। अपने काम के लिए जहां एक आदमी को दूसरे आदमी से संपर्क में आने की आवश्यकता नहीं हैं। इस अवस्था में भ्रष्टाचार स्वत: कम हो जाएगा।
प्रश्न॰ 15:- - आपनी पुस्तक के अध्याय ‘‘गोदावरी फर्टिलाइजर केमिकल लिमिटेड” में एक महाप्रबंधक (वित्त) का उदाहरण देते हुए यह बताया है कि किसी ऑर्गेनाइजेशन का मुखिया अगर भष्टाचारी है तो वो बहुत थोड़े समय में सारे ऑर्गेनाइजेशन को भ्रष्टाचार का सेसपूल बना देता है। इस पर अपने विचार प्रकट करें।
उत्तर - किसी भी ऑर्गेनाइजेशन का मुखिया अगर भ्रष्टाचारी है तो वह अपने प्रभाव का प्रयोग कर अपने अधीनस्थ अधिकारियों एवं मुख्य प्रबंधन को प्रभावित कर आराम से कुछ ही समय में भ्रष्टाचार का सेसपूल बना देता हैं। यह भ्रष्टाचार एक सिडींकेट के रूप में काम करता है और कमाए गए पैसों का आनुपातिक तौर पर सिंडीकेट के सभी लोगों में बंदर-बांट होती है।
प्रश्न॰ 16 :- समूचे देश को हिलाकर रख देने वाली आपकी पुस्तक “Crusader or Conspirator?” में उच्चतम स्तर के कर्इ सरकारी गोपनीय एवं गुप्त-पत्र संलग्न हैं। ऐसी पुस्तक लिखने के आपके संकल्प के पीछे के क्या कारण हो सकते हैं?
उत्तर - मेरी सेवा-निवृत्ति के पश्चात अपने संस्मरणों पर आधारित एक पुस्तक लिखने की सोच रहा था, लेकिन पुस्तक का क्या विषय रहेगा, क्या शीर्षक रहेगा?, इस बारे में कभी भी सोचा नहीं था। कुछ तो पुराने कागज मैंने पहले से ही इकट्ठे कर रखे थे और कुछ मैंने आरटीआई के माध्यम से मँगवा लिए थे। मगर मेरे घर में हुई सीबीआई की रेड ने मेरा काम आसान कर दिया। मुझे अपने पुस्तक की थीम ‘करप्शन’ तथा शीर्षक ‘क्रूसेडर ऑर कोन्स्पिरेटर?’ मिल गया। मैंने मेरे पास समस्त जमा सामग्री को एक पुस्तक का रूप दे दिया। उसे प्रमाणिक बनाने के लिए मैंने मेरे पास सारे संचित गोपनीय एवं गुप्त-पत्र पत्रों को संलग्न कर दिया।
प्रश्न॰ 17 :- श्री पी॰सी॰पारख अपने कैरियर का मूल्यांकन किस तरह करते हैं तथा सर्विस का सबसे अच्छा फेज किसे मानते हैं और क्यों?
उत्तर - मेरा पूरा कैरियर अधिकांश संतोषजनक रहा। मगर जिन तीन क्षेत्रों में मेरा योगदान अत्यन्त ही सार्थक रहा, वे निम्न हैं:-
1) वाणिज्यिक कर विभाग में मैंने डिप्टी कमिश्नर एवं ज्वॉइंट कमिश्नर (इंफोर्समेंट विंग) के रूप में कार्य किया था और मैंने देखा कि जिन लोगों को मैंने चयनित कर इंफोर्समेंट विंग में लाया था, उन्होंने इंफोर्समेंट विंग में आने के बाद अत्यन्त ही र्इमानदारी तथा निष्ठापूर्वक कार्य किया। मैं उसे अपनी उपलब्धि मानता हूँ।
2) उद्योग विभाग में काम की सफलता का एक राज था कि मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू के साथ मेरा सौहाद्रपूर्ण संबंध था। अत: पूरे प्रदेश में निवेश का वातावरण पैदा करने में मुझे कोर्इ पेरशानी नहीं थी। बहुत सारी कपंनियों को मैंने आमंत्रित किया। पहली बार उद्योग विभाग ने सिंगल विंडो फार्मूला तैयार किया था। रिव्यू मीटिंगें हर महीने होती थी। जिससे राज्य के निवेश पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। यूके, यूएसए और साउथ ईस्ट एशिया में रोड-शो भी निकाले गए। हैदराबाद भी बैंगलुरू की तरह देश-विदेशों से निवेशकों को खींचने लगा। यहाँ तक कि बिल गेट़स और बिल क्लिंटन भी हैदराबाद की तरफ आकर्षित हुए।
3) कोल मिनिस्ट्री में सैक्रेटरी के तौर पर मैंने काम करते हुए रिफॉर्म लाने का प्रयास किया। ई-आक्शन लागू करने के साथ-साथ सीएमडी/डायरेक्टर के चयन की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने तथा हानि में डूबी अनुषंगी कंपनियों को प्रॉफ़िट में लाने की भरसक मेहनत की।
प्रश्न॰18 :- इंडियन ब्यूरोक्रेसी के नकारात्मक पहलू पर हमेशा से आलोचना होती आ रही है। क्या आप इससे सहमत है?
उत्तर - ब्यूरोक्रेसी में अच्छे और बुरे दोनों पहलू होते हैं। राजनैतिक नेतृत्व पर अधिकांश चीजें निर्भर करती हैं। सामान्यतौर पर गुजरात, आंध्र-प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में सिविल सर्विसेज देना बेहतर हैं, जबकि उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार में दे पाना मुश्किल है। फिलहाल नीतिश कुमार के शासन-काल में बिहार के प्रशासन में काफी सुधार आया हैं।
प्रश्न॰ 19 :- ब्यूरोक्रेसी में किस प्रकार के संशोधनों की सलाह आप देना चाहेंगे?
उत्तर - किसी भी अच्छी सिविल सर्विस के तीन मूलभूत सिद्धान्त होते हैं:-
1- राजनैतिक रूप में निष्पक्षता
2- र्इमानदारी
3- जो सही हैं उसे सही कहने का साहस होना चाहिए।
अगर यह तीनों सिद्धान्त किसी भी सिविल सर्विस में लागू हो जाए तो वह एक अच्छी सिविल सर्विस कही जा सकती हैं।
प्रश्न॰20 :- आपकी पुस्तक “Crusader or Conspirator?” के प्रति लोगों का कैसा रेस्पोंस रहा? क्या आप इससे संतुष्ट है?
उत्तर - यह किताब जागरूक पाठकों द्वारा अत्यन्त ही प्रंशसित हुर्इ तथा सन् 2014 की बेस्ट सेलर किताबों में से एक थी। इन्टरनेट अमेज़न के एक सर्वेक्षण ने उस साल की संजय बारू की ‘एक्सीडेन्टल प्राइम मिनिस्टर’, मनोज मित्रा की “फिक्शन ऑफ फैक्ट फ़ाइंडिंग: मोदी एंड गोधरा”, एंडी मारिओ की “नरेन्द्र मोदी : पोलिटिकल बायोग्राफी” और सोमा बनर्जी की “द डिस्सरप्टर : अरविंद केजरीवाल” जैसी बेस्ट सेलर पुस्तकों में इसे शामिल किया था।
मैं अपनी इस किताब को लेकर काफी संतुष्ट हूँ। पाली के कलेक्टर ने मुझे इस किताब के बारे में एक पत्र लिखा तथा पूर्व कोयला सचिव अनिल स्वरूप ने भी पढ़ने के बाद मुझे प्रतिक्रिया-स्वरूप एसएमएस किया। इससे लगता हैं इस पुस्तक ने हर क्षेत्र के पाठकों को आकर्षित किया, खासकर युवावर्ग के प्रशासनिक एवं अधिशाषी अधिकारियों को। मेरे प्रकाशक मानस पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली के हिसाब से इस पुस्तक के प्रकाशित होने के कुछ ही महीनों में सोलह हजार प्रतियाँ बिकीं, जो एक रिकॉर्ड था।
प्रश्न॰21 :- मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास ‘नमक का दरोगा’ ने आपको ऐसी किताब लिखने के लिए प्रेरित किया?
उत्तर:- मुंशी प्रेमचंद के बहू-चर्चित उपन्यास ‘नमक का दरोगा’ ने मुझे अपना जीवन उपन्यास के मुख्य पात्र की तरह जीने के लिए प्रेरित किया। सीबीआई रेड की वजह से जनता के समक्ष सारे तथ्य रखने के लिए मैंने यह किताब लिखी।
प्रश्न॰22 :- क्या आपकी कोर्इ और पुस्तक लिखने की योजना हैं? अगर हैं तो इस पर विस्तार से प्रकाश डालें।
उत्तर - हाँ। दूसरी किताब की पाण्डुलिपि लगभग तैयार हैं। यह किताब पहली किताब से पूरी तरह अलग हैं। जिसमें देश की कोयला नीतियों तथा सीबीआई जाँच में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णयों को मैंने आधार बनाया है। यह 250 पृष्ठों की पुस्तक होगी। जिसका प्रकाशन मैं स्वयं करने की सोच रहा हूँ, क्योंकि दूसरे प्रकाशन-गृह वाणिज्यिक होने से ऐसी पुस्तकों के प्रकाशन करने से कतराते हैं कि भविष्य में कहीं सरकारी-तंत्र उन्हें परेशान न करें।
प्रश्न॰ 23 :- अनेक विषम परिस्थितियों के बावजूद आप भारत सरकार के सचिव-पद से सेवा-निवृत्त हुए है। क्या यह आपकी सफलता नहीं है?
उत्तर - मेरा संपूर्ण कैरियर मेरे दृष्टिकोण में सफलता से भरा हुआ था।
प्रश्न॰ 24 :- आपके दुर्दिनों के समय आपके परिवार ने आपको किस प्रकार संबल प्रदान किया?
उत्तर - मुझे मेरे परिवार से पूरी तरह अन-रिजोल्वड़ सपोर्ट मिला।
प्रश्न॰25 :- कृपया आपके जीवन की कोर्इ ऐसी घटना बताएं जो आज तक आपके मानस पटल पर तरोताजा है?
उत्तर - मैंने अपनी किताब के प्रथम अध्याय में आंध्र-प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री के श्री ब्रह्मानंद रेड्डी का जिक्र किया है। जिन्हें हम उनके ऑफिसियल निवास-स्थान ‘आनंद निलयम’ विला पर सौजन्यतावश मिलने गए थे। उन्होंने जो बात कहीं थी आज भी मेरे मन-मस्तिष्क में तरोताजा हैं। उन्होंने कहा था, ‘‘आज से आप, लोग राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार या ओड़िशा के नहीं हैं। आप सभी आंध्र-प्रदेश के हों। हमारे राज्य के विकास और इसके लोगों का कल्याण आपके सामर्थ्य एवं कठिन परिश्रम पर निर्भर करेगा। मुझे पूर्ण विश्वास हैं कि आप सभी मेरे विश्वास पर खरे उतरेंगे। अगर आपको किसी भी प्रकार की कठिनार्इ या कोई समस्या आए तो मेरे घर के दरवाजे आपके लिए सदैव खुले हैं। ”
कितने उदार हृदय के थे वे! आज के राजनेताओं में इस प्रकार की उदारता, परिपक्वता और खुले विचारों वाली मानसिकता नहीं मिलेगी। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी मुझे अपने कार्यों में पूरी तरह स्वतंत्रता दे रखी थी, मगर राजनैतिक दबाव के चलते उन्हें भी कर्इ जगहों पर समझौता करना पड़ता था। उनके समय 2 मार्च, 2005 को www. whispersincorridors.com पर मेरे बारे में एक चर्चा शुरू हुर्इ थी कि “विल कोल सेक्रेटेरी बी रिपेट्रिएटेड?”।
प्रश्न॰ 26 :- साक्षात्कार में ऐसी कोर्इ चीज जिसके बारे में मैंने आपको कुछ नहीं पूछा हो तो उसके बारे में ध्यानाकृष्ट करें।
उत्तर - आपने सब-कुछ तो पूछ लिया हैं। ऐसा कुछ भी नहीं बचा हैं, जिसे पूछना बाकी हैं।
प्रश्न॰ 27 :- किसी भी प्रकार का कोर्इ दु:ख या पछतावा?
उत्तर - किसी भी प्रकार का कोर्इ दु:ख या पछतावा नहीं हैं।
प्रश्न॰ 28 :- क्या कोल इंडिया में सीएमडी का चयन अभी भी उसी तरह से हो रहा है, जैसे आपके समय में पारदर्शिता से हुआ करता था?
उत्तर - फिलहाल कर्इ सालों से मेरा कोयला-मंत्रालय से कोई संपर्क नहीं हैं। जहाँ तक मुझे जानकारी है, श्री पीयूष गोयल र्इमानदार छवि वाले मंत्री है और पूर्व कोयला सचिव श्री अनिल स्वरूप भी बेहद अच्छे ऑफिसर और अच्छे इंसान है। अत: मुझे लगता हैं कि आजकल भी सीएमडी का चयन मेरिट एवं दक्षता के आधार पर ही होता होगा।
प्रश्न 29 :- कुछ समय पूर्व कोयला सचिव श्री अनिल स्वरूप को कोयला मंत्रालय से हटाकर शिक्षा विभाग में अचानक क्यों दे दिया गया?
उत्तर - श्री अनिल स्वरूप का कार्यकाल अभी दो-तीन साल बचा हुआ हैं। कोल-सेक्टर में जितने सुधार करने थे, वे सारे सुधार लगभग पूर्ण हो गए हैं। बहुत कुछ ज्यादा नहीं बचा है कोल सेक्टर में सुधार लाने के लिए।
अगर उन्हें शिक्षा-विभाग में दिया गया है तो सरकार ने कुछ सोच समझकर ही दिया होगा। उस क्षेत्र में अभी काफी सुधार लाने बाकी है। मुझे पूर्ण विश्वास हैं, वे इस कार्य में सफल होंगे।
प्रश्न॰ 30 :- सीबीआई के पूर्व निदेशक श्री रणजीत सिन्हा पर सीबीआई कार्यवाही कर रही हैं? इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर :- रणजीत सिन्हा का नाम शुरू से ही विवादों के घेरे में रहा हैं। पूर्व में उनका नाम चारा-घोटाला में भी उछला था। मगर मेरे केस में सीबीआई की क्लोजर रिर्पोट में उन्होंने बहुत अच्छा खुलासा किया कि मेरे सारे निर्णय लोक हित में किए गए थे और उसमें किसी भी प्रकार की गलती नहीं हुर्इ हैं।
प्रश्न॰32 :- सेवानिवृत्ति के पश्चात आप दो एनजीओ चला रहे हैं, इस पर कुछ बताएं।
उत्तर - मेरा पहला एनजीओ कृत्रिम अंग लगाने में संबन्धित हैं। विकलांग लोगों के जयपुर फुट लगाकर उन्हें सहायता प्रदान की जाती हैं। अलग-अलग जिलों में कलेक्टर की सहायता से विकलांगों के लिए कैम्प लगाए जाते हैं तथा उन्हें वहां आने के लिए मोबिलाइज किया जाता हैं। कलेक्टर हमें जगह और लोगों के निशुल्क खाने की सुविधा प्रदान करता हैं। एक कैम्प में कम से कम 300-400 पीड़ित लोग आते हैं। हम अपने सारे टेक्नीशियन और वर्कशॉप उन कैम्पों में ले जाते हैं और सुबह आए हुए विकलांग आदमी को देर रात तक तथा दोपहर को आए हुए आदमी को अगली सुबह तक जयपुर फुट लगाकर विदा कर देते हैं। सारे कैम्प सरकारी अस्पतालों में नि:शुल्क ही लगाए जाते हैं। जिसका खर्च कम्पनियों की सीएसआर स्कीम अथवा डोनेशन के माध्यम से किया जाता है।
मेरा दूसरा एनजीओ किडनी डायलासिस से संबन्धित हैं। इसके लिए हमारा एनजीओ प्रति व्यक्ति तीन सौ रुपए खर्च लेता हैं, जबकि बाहर में डायलासिस करवाने पर खर्च ढाई हजार प्रति व्यक्ति आता हैं। मेरी जानकारी के अनुसार किडनी के मरीज का मासिक खर्च चौबीस हजार से पचास हजार आता है, जबकि हमारे यहां यह खर्च दो हजार से पाँच हजार तक आता है। किडनी डायलासिस के हमारे चार केन्द्र हैं, तीन कोटी अस्पताल, भगवान महावीर विकलांग सहायता केन्द्र, राजा रामदेव मेमोरियल, गुरूद्वारा सिकन्दराबाद।
हमारे पास डायलासिस की एक सौ बारह मशीनें है। हमारा एनजीओ आंध्र-प्रदेश का सबसे बड़ा सर्विस प्रोवाइडर है। पाँच साल के भीतर हमने चार लाख से ज्यादा डायलासिस किया हैं। हम अपने डायलासिस केन्द्रों में सरकार द्वारा प्रायोजित बीपीएल रोगियों का उपचार करते हैं, जिसके लिए सरकार हमें बारह सौ रुपए प्रति सेशन भुगतान करती है। जिसमे से जो कुछ बच जाता है, उसे दूसरे एपीएल मरीजों के इलाज को सब्सिडाइज्ड रेट पर करने में काम में लेते है।
( साक्षात्कार समाप्त करने से पूर्व पारख साहब के बारे में उनकी जीवनसंगिनी श्रीमती उषा पारख की राय जानने के लिए दो सवाल मैंने उनसे भी पूछे। )
प्रश्न.30:- अपने पति श्री प्रकाश चन्द्र पारख का मूल्यांकन कैसे करती हो? जब वे किसी तरह का कठोर निर्णय लेते होंगे तब आप के ऊपर क्या प्रभाव पड़ता था?
उत्तर :- (हँसते हुए) विगत पैतालीस सालों से उनके साथ रह रही हूँ। इतनी दीर्घ अवधि का मूल्यांकन किन शब्दों में करूँ, समझ नहीं पा रही हूँ। पारख साहब बहुत ही ईमानदार कर्मठ, झुझारू और अत्यंत ही सहयोगी पति हैं। यह दूसरी बात है कि वे यथार्थ में ज्यादा विश्वास रखते हैं, इसलिए इमोशनल कुछ कम है। मुझे उनका कठोर निर्णय लेना अच्छा लगता है क्योंकि मैं भी राजस्थान के एक ऐसे परिवार से संबंध रखती हूँ, (ऐसे मेरा परिवार जोधपुर का रहने वाला है, मगर मेरा जन्म राजस्थान के सांभर जिले में हुआ), जिसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में उनकी ही तरह कठोर निर्णय लेने वाले मेरे बड़े भाई श्री पी॰एन॰भण्डारी भी 1963 बैच के आईएएस अधिकारी (सेवानिवृत्त) हैं। मेरे पिताजी श्री आर॰ एन॰ भण्डारी, डाइरेक्टर ऑफ इम्प्लॉइमेंट थे, एक भाई बैंक ऑफ इंडिया, गुजरात में महाप्रबंधक है और दूसरा भाई डुंगरपुर में बिल्डर है। इस वजह से मैं सिविल सर्विस की सीमा-रेखा से पूर्व परिचित थी, मगर फिर उनकी पत्नी होने के कारण जब भी ये कोयला माफियाओं की हृदय-स्थली धनबाद जाते थे तो मेरे दिल में हमेशा धक-धक बनी रहती थी कि कहीं कुछ अघटन न घट जाए। एक विचित्र डर लगने लगता था।
प्रश्न॰31:- पारख साहब की कुछ कमजोरियों के बारे में बताना आप पसंद करेंगी?
उत्तर:- ( फिर से हँसते हुए ) पारख साहब आजकल मेरी सुनते नहीं हैं, अपना ध्यान भी नहीं रखते हैं। यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है। सबसे पहले आदिलाबाद में साहब सब-कलेक्टर थे तो वहाँ के आदिवासियों का एक मुखिया परंपरा के अनुसार मिलने आता था, उसने उनकी तरफ देखकर कहा था, “ जब तक आप अपनी बीवी की बात मानोगे तब तक आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। हमेशा आपकी तरक्की होगी। ”
(यह कहते हुए वह अपने अतीत में खो जाती है, शायद उन्हें नौकरी वाले अपने पुराने दिन याद आने लगते हैं। फिर यथार्थ में लौटकर पारख साहब की तरफ देखते हुए कहने लगती है)
उस समय तो मेरी सुनते थे। नौकरी के सारे समय उन्होंने मेरी बात मानी, मगर अब ... ?
(यह कहते हुए वह नीरव हो जाती है। )
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