सोच प्रार्थना का मैदान, बच्चे और हम, प्रथम चरण प्रार्थना की समाप्ति पर प्रधानाचार्य ने विचार साँझे किए, ‘‘भारतीय हैं हम, ये वेलेन्टाइ...
सोच
प्रार्थना का मैदान,
बच्चे और हम,
प्रथम चरण प्रार्थना
की समाप्ति पर
प्रधानाचार्य ने विचार साँझे किए,
‘‘भारतीय हैं हम,
ये वेलेन्टाइन डे
मातृ-पितृ दिवस भी हो सकता है?
कौन कर सकता धरती पर वो कुरबानियाँ,
जो माँ करती अपने हाथ जलाकर,
गीले बिस्तर में रतजगे कर।
हमारी जरूरतों की पूर्ति हेतु
भूल जाता पिता अपना पुराना जूता बदलना,
पलटवा लेता दर्जी से फटा काॅलर,
करता घंटों ओवरटाइम, फिर थके-माँदे
शरीर में भरता मुस्कान, लौटता हाथ में
लिफाफे लिये बच्चों की खुशियों खातिर,
सब बच्चे करबद्ध प्रार्थना करें अपने
माता-पिता के लिये, कहें हम आपको
सर्वाधिक प्यार करते हैं।’’
प्रार्थना हुई, आँखें खुलते ही माहौल और था
अश्रुधारा बह रही थी, कुछ रोके खड़े थे।
आश्चर्य जो लाये थे अरमानों के फूल,
रख रहे थे माँ-बाप के चरणस्पर्श हेतु।
माहौल शान्त और भावुक,
नतमस्तक हवा इस सोच के समक्ष,
कितने शक्तिशाली शब्द, जो सोच नहीं,
बदलते जीवन।
धन्य हैं वो इन्सान, जिसने इतने प्यार से,
इस नकारात्मक दिन व सोच को
सकारात्मक किया।
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खूंटी
घर का गलियारा लांघते ही,
खूंटी पर टंगा, बाबूजी का कोट,
छतरी और मेज़ पर पड़ा चश्मा।
बरसों से टाँगते बाबूजी, इस
पर अपनी मौसमी पोशाकें,
कभी कुरता-पजामा, तो
कभी भारी सा कोट,
चुपचाप समेटे रहती ये खूंटी,
उनका सामान।
कभी खाली नहीं होती,
कभी बाहर के कपड़े, तो कभी घर के।
जी चाहता वो बतियाए
सामने वाली से कभी
जिस पर टंगे हैं चुन्नू के खिलौने
उसकी सोच, पगला सी गई,
ये कैसा शोर,
बबुआ उतार रहा, उस पर से
बाबूजी के कपड़े,
कोई नहीं सुन रहा उसकी आवाज़,
ले जा रहे बाबूजी को,
जो उसे अपना दोस्त समझते थे
रो रही खूंटी, पर नहीं पोंछ रहा
कोई उसके आँसू।
आवाज़ धीमे से आई, उस अन्दर
की कील से, जिसने थामा था उसे
बरसों अन्धेरी कोठरी में रहकर
दीवारों में बिन सांस लिये।
‘‘चुप हो जा मैं तेरे साथ हूँ जीवन भर,
याद कर दादा के समय जब उन्होंने
हमें इकट्ठा यहाँ बसाया था।
मैं सदैव तेरे संग हूँ।’’
परीक्षा
कोख में ही शुरू हो जाती परीक्षा,
जन्म लेने की, इस संसार
में बसने की,
कदम-कदम पर इम्तिहान,
कभी कागज़ों से,
कभी भावनाओं के
तो कभी मौसम के।
परिणाम नहीं आते इनके,
पर लगातार देते-देते इम्तिहान,
थक जाते हैं हम,
धोखे खाते हैं
फिर भी दोहराते हैं वही गलतियाँ,
मिलते हैं सबक
जो कभी किताबों में नहीं होते,
जिनके लिये परिभाषा और शब्द
नहीं होते?
देते हैं सबक, सिर्फ वो ही
जिन्हें हम अपना कहते हैं
विश्वास करते हैं।
सोचते हैं न जाने कौन सा
तमगा पहना देंगे।
चल देते हैं पूरी कर अपनी उम्र
वो समझते नहीं, हम समझाते नहीं,
सिर्फ इक अदृश्य परीक्षा के पात्र बने,
उठा दिये जाते हैं, ये कहकर
‘‘जल्दी करो, कब तक घर में रखेंगे?’’
सुबह
रात गहरा गई थी,
काली और काली, और काली,
पर अभी भी कोई तारा
टिमटिमा रहा था,
शायद रात उससे ही
चमक रही थी
और मैं उस सुबह का
इन्तज़ार कर रही थी
जब उस तारे को देखकर,
चाँद संग चमकेंगे सब
तारे इस स्याह रात में,
बनाएँगे सुबह को,
शीतल, सौम्य व
जीवन दायिनी।
महल
बहुत रंगीन सपनों का
महल, एक-एक इच्छा
की ईंट लगाकर बनाया था मैंने
उस महल का आधार थे तुम,
पर क्यूँ बिखर गई मेरे
महल की ईंटे,
तुम संग अग्नि फेरे लेते ही।
शायद तुम झाँक भी न पाये,
मेरे उस महल की खिड़की से
चहुँ ओर ही चक्कर लगाते रहे
समय का पहिया, नींव भी
कमज़ोर कर गया।
हिल गई नींव एक दिन
और टूट गई मैं
फिर तुम ढूंढने लगे उसमें
अपनी उम्मीदों के साये,
ध्वस्त हो चुका है सब
अब सिर्फ अवशेष बचे हैं,
मिट्टी में मिलने के लिये।
सिर्फ तुम्हारा ताकना ही रह जायेगा
चूर-चूर हुई इंटों को
टूटते हुए दरवाजों को
और महल के उस बड़े दरवाजे को
जिस रास्ते आए थे तुम।
थकान
बरसों की थकान उतर गई थी
उसकी
चेहरे पर लालिमा, नूर
चमक रहा था
आज वो बतिया भी रहा था,
जौ सदैव मूक सा बना
भक्त बनने का ढोंग करता,
पहन रहा था अपनी साफ-सुथरी
अच्छी पोशाकें,
डेरा डाला था चेहरे पर
मुस्कान ने।
बड़ा बदला सा, खुश था वह।
सवाल पर सवाल पैदा हो रहे थे,
ऐसा क्यूँ?
पता चला, इक पुरानी दोस्त
से मिला है वो, जिसने बुढ़ापे
में जवानी का अहसास दिया
है उसे।
चुनाव
हाथ में कुछ सामान उठाये,
सड़क किनारे खड़ी मैं,
इन्तज़ार रिक्शा का,
कि सामने वाली इमारत
के सामने, खड़ा हुआ ट्रक,
उसमें से उतारी गई पेटियाँ,
पूछा, तो पता चला, झंडे, बैनर, माइक,
दरियाँ, कुर्सियाँ हैं उसमें,
चुनाव का सामान, एक पार्टी का।
ख्याल आया, कितनी बर्बादी,
कितना बंटवारा, किस बात की होड़,
ग़रीब तो पहले भी भुखमरा था,
आज भी लाचार और बेचारा।
बंटा था देश, दो हिस्सों में,
थी हाहाकार चहुँ ओर,
पर आज गिनती ही नहीं
बंटवारे की।
नोंच रहे ये चुनावी फसाद देश को
चील-कौवों की तरह और अनायास
ही कक्कू चाचा की बात कसक उठती,
‘‘इस दौर से तो अच्छा था
वो अंग्रेज़ों का ज़माना, वो शासक थे
और हम सब एक।’’
वो दूसरी औरत
सुबह से शाम,
शाम से वर्षों तक
संभालती गृहस्थी का बोझ
हो जाती बूढ़ी, समय के साथ-साथ
ढूंढता पति, हर वक्त मुस्कान,
उसकी इच्छापूर्ति, इक लड़की सी
उस बूढ़ी देह में,
दे पाती वो कुछ भी ऐसा,
चूंकि दबी है जिम्मेदारियों के ढेर तले
स्वार्थी आदमी ढूंढ ही लेता विकल्प,
दिखाता खुद को, जो वो है ही नहीं,
लुटता उस पर, पत्नी के हिस्से
की दौलत व प्यार।
समझता खुद को समझदार।
शायद नहीं जानता वो, कि कितना
गरीब हो गया है वो,
उस पेड़ को छोड़कर, जिसने
सदैव दी है छाया व फल उसे,
देखता रह जायेगा, वृक्ष पर बैठे
परिन्दे को, जिसे वो चोगा डाल रहा।
उड़ जायेगा परिन्दा, दूसरे पेड़ पर
व रह जायेगा, ये शिकारी हाथ मलता,
घर का न घाट का।
शब्द
मन्दिर, मस्जिदों, गिरजाघर की
दीवारों पर लिखे शब्द
कुछ धर्मशालाओं, सरायों के बोर्ड
पर लिखे शब्द,
धार्मिक, स्कूली पुस्तकों, प्लेटफार्म
बस स्टैंड पर लिखे शब्द,
कोर्ट-कचहरी, जेल, पुलिस के
रजिस्टरों में लिखे शब्द,
कुछ गरम, कुछ नरम, कुछ कड़वे,
कुछ मीठे, कुछ ओछे, कुछ भारी,
कुछ हास्य, कुछ रुदन से भर शब्द,
सब पढ़े जा सकते हैं,
परन्तु कभी महसूस हुए हैं,
हृदय-पटल पर आग व पानी से
लिखे, वो शब्द, जो
चाहकर भी कोई पढ़ नहीं सकता।
पर उगलते हैं आग, अन्दर ही अन्दर,
भस्म करते हैं हमें
करते हैं वार, कटती है आत्मा,
तड़पते हैं हम, इन नासूर शब्दों
की वजह से।
आस की सीढ़ी
बचपन से आज तक
चढ़ते रहते
बस इक आस की सीढ़ी,
माँ-बाप से आस,
भाई-बहनों से आस,
ये अभी खत्म न हुआ तो
समाज से आस,
बढ़ गया दायरा, हो गये बड़े,
आकार व सीढ़ियाँ बढ़ती
चली गई
धोखे की सीढ़ियाँ पार करते-करते
फिर आस लगाते कि ऊपर वाली
पर ऐसा नहीं,
चढ़ गये शिखर पर,
ऊँचे-बहुत ऊँचे,
जहाँ से दिखने लगा सारा संसार
और खिसक गई वो बड़ी
सीढ़ी पाँव के नीचे से,
कब तक हवा थामती मुझे
औंधे मुँह गिर पड़े ज़मीन
पर, समा गये उसमें ही
जहाँ गिरी थी वो आस की सीढ़ी।
वो कहानियाँ
मेरे मानस पटल पर,
वो चंद नानी की सुनाई
कहानियाँ,
वो चंद दादी की दी हिदायतें,
काम आ रही समय की
उतरन के साथ,
कभी-कभी जब बच्चे पूछते हैं
मुझसे कुछ सवाल मेरे बचपन के
बारे में,
तो याद करती हूँ वो घर
के पिछवाड़े का मैदान,
पड़ोस की ताई-चाची, बुआ
की बातें,
गुड्डे, गुड़ियों के ब्याह,
कंचों की ढेरियाँ,
व छुपन-छुपाई के लिये वो गलियाँ,
यकीन नहीं करते बच्चे,
कि बच्चे भी दौड़-धूप का खेल
खेल सकते थे,
क्या कभी 10-20 बच्चे
भी इकट्ठे खेलते थे
मुहल्ले में भी रिश्ते होते थे,
पेड़ों के भी नाम थे,
बूढ़ा पीपल, बूढ़ा आम,
वो ताकते हैं अपने कमरे में
रखे टैब, फोन व खिलौने
जिनसे वो खेलते हैं वो इनसे नहीं,
सुनकर मेरी बातें, उसे कहानी
कहकर, वो दबा देता है बटन
आधुनिक खिलौने के, व
बन जाता है आधुनिक बच्चा।
तुम सब कुछ हो
घर की बोलती दीवार,
वर्षा की पहली फुहार,
नन्हें का दुलार,
पति का अनकहा प्यार,
सिर्फ तुम ही हो
बस सब कुछ तुम ही हो।
थाली में रखा वो प्यार,
बच्चों की आवाज़
बड़ों का अधिकार,
समाज का आधार,
बस सब कुछ तुम ही हो।
पायल की छन-छन,
मन्दिर की टन-टन,
खिलौनों की खनक,
हर चेहरे की चमक,
बस सब कुछ तुम ही हो।
शक्ति की तलवार,
हर रावण का वार,
कंस का प्रतिहार,
इस धरती का सिंगार
बस सब कुछ तुम ही हो।
तुम नहीं, तो वृक्ष पर पात नहीं,
सूखी नदियाँ, कोई बात नहीं,
सुनसान दुनिया, कोई रंग नहीं,
सब वीरान, कुछ संग नहीं,
समझ नहीं आता, क्यूँ ज़रूरत हुई
ये सब बताने की, तेरे अस्तित्व
को जिन्दगी में लाने की, जबकि
पता है सबको तू जननी है, तू अग्नि है,
तू धरा है, तू सागर है, तू गागर है,
तू नहीं तो कुछ भी नहीं,
बस सब कुछ तुम ही हो, तुम ही हो।
पिता
कन्धे पर झोला लटकाए,
खाना व पानी लिये,
देख सकते
दौड़ते-भागते पकड़ते
लोकल ट्रेन, बसें।
लटते-लटकाते,
लोगों की दुतकार खाते,
कभी घंटे भर का तो कभी
घंटों का सफर करते।
ढूंढते पैनी नज़रों से,
कहीं मिल जायक हाथ भर
बैठने की जगह,
मिल गई तो वाह-वाह,
वरना खड़े-खड़े करते, पूर्ण वर्ष ये सफर।
पहुँच दफ्तर, निबटाते काम,
खाते ठंडा खाना, पीते गर्म पानी,
बचाते पाई-पाई।
लौटते अंधेरे मुँह घर,
कल फिर से आने की
आशा लिये।
अक्सर घर से जाते-आते,
सोए मिलते बच्चे,
थकी दिखती पत्नी।
ये कोई और नहीं,
पिता है, पिता है,
जिन्हें अपनी नहीं
परिवार की फ़िक्र है।
क्यूँ मिटा रहे हैं हम
धरा के सिंगार को,
ममता की पुकार को,
इक अजन्मी कृति को,
क्यूँ मिटा रहे हैं हम।
पवन में सुगंधा को,
मदहोश रजनीगंधा को,
मौत के घाट उतार कर,
क्यूँ मिटा रहे हैं हम।
बिन बेटी का घर,
अनबोला अभिशाप,
मंडप के कलश,
कन्यादान का जाप,
क्यूँ मिटा रहे हैं हम।
इक चित्रकार की कल्पना,
कवि की सर्वोत्तम रचना,
संतों की साधना,
क्यूँ मिटा रहे हैं हम।
बिन नीर सरिता का बहाव,
बिन पात तरू की छाया,
बिन बदरिया सावन का मास,
बिन बिटिया वंश की आस,
क्यूँ लगा रहे हैं हम।
बुझे चूल्हे, वीरान घर,
बिन दुल्हन, बूढ़े वर,
प्रकृति से खिलवाड़ किये
जा रहे हम,
क्यूँ खुद को मिटा रहे हम।
बदलनी है सोच,
बचाना है कल को,
गहन रात्रि का आवाहन
कर रहे हैं हम,
खुद ही अपने पाँव पर
कुल्हाड़ी मार, अपना ही
दहन कर रहे हैं हम
नन्हीं कली के अभिशाप में
खुद को मिटा रहे हैं हम।
शबनम शर्मा
माजरा, तह. पांवटा साहिब, जिला सिरमौर, हि.प्र.
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