काव्य के रसात्मक-विवेचन को लेकर आदि आचार्य भरतमुनि ने काव्य के लिये, जिस भाव-सत्ता को रस-निष्पत्ति के सूत्र में पिरोया था, वह भाव-सत्ता, रस...
काव्य के रसात्मक-विवेचन को लेकर आदि आचार्य भरतमुनि ने काव्य के लिये, जिस भाव-सत्ता को रस-निष्पत्ति के सूत्र में पिरोया था, वह भाव-सत्ता, रस-तत्त्वों के रूप में [ रति, शोक,हास, क्रोध, निर्वेद, वत्सल, भक्ति आदि स्थायी भावों के संचारी भावों सहित ] न पहले पूर्ण थी, न अब है। अतः भावों के रूप में रस-तत्त्वों की इस अपूर्ण तालिका के आधार पर ही काव्य की सम्पूर्ण रसात्मक सामग्री को परखा जाना अशास्त्रीय और कोरा कल्पनामय ही सिद्ध होगा। रीतिकालीन काव्योपरांत कविता ने जिस प्रकार अपनी वैचारिक प्रक्रिया को बदला है, उससे उसकी रस-प्रक्रिया भी परम्परागत रस-प्रक्रिया से काफी भिन्न हो गयी है। उसमें रस-तत्त्व के रूप में ऐसे अनेक भाव जुड़ गये हैं, जिनको पहचाने बिना वर्तमान यथार्थोन्मुखी कविता का रस-विवेचन नहीं किया जा सकता।
[ads-post]
वर्तमान कविता की स्थिति यह है कि एक तरफ जहां इसमें लोक या समाज की पीडि़त, शोषित, दलित, आतंकित, संत्रस्त, भयातुर अवस्था का अनुभव इसे शोक और करुणा से सराबोर किये रहता है, वहीं लोक या समाज को हानि पहुंचाने वाले वर्ग के प्रति इसकी भावात्मकता इसे ‘असंतोष’, ‘आक्रोश’, ‘विरोध’, ‘विद्रोह’ आदि से सिक्त रहती है।
अतः वर्तमान यथार्थोन्मुखी कविता को जिन रस-तत्त्वों के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है, वह परम्परागत रस तत्त्वों के साथ-साथ नये रस तत्त्वों के रूप में निम्न ठहरते हैं-
1.करुणा-
काव्य के संदर्भ में करुणा एक ऐसा रस-तत्त्व है, जिसका सम्बन्ध लोक या मानव की शोकाकुल दशाओं, भाव-भंगिमाओं के माध्यम से दर्शायी गयी दुःखानुभूति से होता है। इस दुःखानुभूति को एक कवि या रचनाकार उन अनुभवों से प्राप्त करता है जो लोक या जगत की पीड़ा, छटपटाहट, शोषण, यातना, त्रासदी, तनाव, क्षोभ, अश्रुपात आदि से जुड़े होते हैं। लेकिन यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह दुःखानुभूति को दुःखानुभूति के रूप में सुरक्षित नहीं रखना चाहता, अपितु उसे हर हालत में सुखात्मक बनाना चाहता है। कवि-कर्म में यह दुःखानुभूति ‘लोक-रक्षा के विचार’ से अभिसिक्त होकर प्रकट होती है। दुःखानुभूति में जुड़े ‘लोक-रक्षा’ के विचार से उत्पन्न भाव या तत्त्व का नाम ही ‘करुणा’ है। वर्तमान यथार्थोंन्मुखी कविता का करुणा एक ऐसा प्रधान रस-तत्त्व है, जिसका बीज-रूप अपनी विकास या गति की अवस्था में काव्य की हर प्रकार की रस-प्रक्रिया का अंग बनता चला जाता है। काव्य में आये अन्य प्रकार के रस-तत्त्व जैसे दया आदि भाव भी करुणा के इस बीज-रूप से किसी न किसी रूप में अपना सम्बन्ध बनाये रहते हैं। कुल मिलकार करुणा एक ऐसा बीज-भाव या प्रधान रसतत्त्व है, जिसका यदि दुःखानुभूति से सीधा-सीधा सम्बन्ध है तो लोक को पीड़ा-यातना देने वाले वर्ग के प्रति उभरे क्षोभ, असंतोष, आक्रोश, विरोध, विद्रोह आदि भावों के मूल में भी यही करुणा परोक्ष या अपरोक्ष रूप से अपनी मुख्य भूमिका निभाती है।
अतः वर्तमान यथार्थोंन्मुखी कविता की रस-प्रक्रिया को समझने के लिये शोषित वर्ग के प्रति, कवि के उन रागात्मक सम्बन्धों को समझना नितांत आवश्यक है जो परोक्ष-अपरोक्ष करुणा से सिक्त रहते हैं।
2. आक्रोश-
वर्तमान कविता में रसतत्त्व के रूप में ‘आक्रोश’ एक ऐसा भाव है, जो क्रूर-अमानवीय व्यवस्था के शिकार लोक या मानव की उस आन्तरिक दशा का परिचय देता है, जिसमें दलित या पीडि़त वर्ग, शोषक और आताताई वर्ग के प्रति घृणा, अनास्था, विरति आदि के लावे से भरा हुआ ज्वालामुखी बन जाता है। लेकिन यह लावा रौद्रता के रूप में उफन कर बाहर नहीं आता। दलित, पीडि़त वर्ग की इस प्रकार की भाव-दशा के अनुभाव उसकी सुर्ख आंखों, अनवरत चुप्पी, तमतमाते चेहरे, तनी हुई मुट्ठियों आदि के रूप में साफ-साफ अनुभव किये जा सकते हैं। डॉ. स्वर्ण किरण के अनुसार-‘आक्रोश वस्तुतः व्यक्ति की आन्तरिक घृणा का मूर्त्तरूप है’;1
‘‘हमारे साथ अन्याय हो रहा है, हम इस अन्याय को कब तक झेलते रहें? अब अन्यायी का खत्मा होना ही चाहिए’’ जैसे अनेक विचार अपनी ऊर्जस्व अवस्था में उक्त भाव का निर्माण करते हैं। कुल मिलाकर क्रोध से अलग, आक्रोश मानव की एक ऐसी भावत्मक दशा है, जिसमें क्रोध सिर्फ आन्तरिक अवस्था तक ही सीमित रहता है। रौद्रता के रस-परिपाक के रूप में यह दशा कभी भी परिलक्षित नहीं होती।
वस्तुतः आक्रोश का रसात्मक-बोध ऐसे ‘विरोध’ को प्रकट करता है जिसका रस परिपाक ‘वचनों की कटुता, शत्रुपक्ष की निन्दा, भर्त्सना, कोसने का सतत् क्रम जैसे अनेक अनुभावों के माध्यम से अनुभूत किया जा सकता है।
सारांश रूप में हम कह सकते हैं कि ‘शत्रु के निरन्तर आघात, प्रहार झेलने के बावजूद, शत्रु को नष्ट न कर पाने की विवशता के विचार से उत्पन्न ऊर्जा का नाम ‘आक्रोश’ है।
3. विरोध-
पीड़ादायक, यातनामय हालात से जन्य ‘आक्रोश’ की वैचारिक प्रक्रिया जब त्रासद हालात से उबरने के लिए नयी दशा ग्रहण करती है तो इस वैचारिक प्रक्रिया के द्वारा एक नये रस-तत्त्व का निर्माण होता है जिसे ‘विरोध’ कहा जाता है। आक्रोश का उद्भव विवशता, भय, छटपटाहट आदि की स्थिति में होता है, जबकि ‘विरोध’ की वैचारिक प्रक्रिया में साहस नामक तत्त्व और जुड़ जाता है। या हम यह भी कह सकते हैं कि आक्रोश का आगे का चरण ‘विरोध’ है। मन इस विरोध की स्थिति में [लगातार आक्रोशित रहने के कारण] पीड़ा देने वाले वर्ग के प्रति साहस के साथ उसका मुकाबला करने के लिए तैयार होने लगता है। उक्त तथ्यों को ‘दर्शन बेजार’ की निम्न तेवरी के माध्यम से इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
‘‘कह रहा हूं विवश हो ये तथ्य में
पल रही है वेदना आतिथ्य में।
जो विदूषक मंच पर हंसता रहा
सिसकियां भरता वही नेपथ्य में।
नर्तकी के पांव घायल हो रहे
देखता एय्याश कब यह नृत्य में।
सिर्फ समझौता नहीं है जि़दगी
एक जलती आग भी है सत्य में।
आदमी को अर्थ दे जीने के जो
लाइए तासीर ऐसी कथ्य में।’’
उपरोक्त तेवरी में एक सामाजिक या आश्रय के रूप में कवि, आलम्बनगत उद्दीपन विभाव [सामाजिक विकृतियां, विसंगतियां] से उत्पन्न क्षोभ, शोकादि के माध्यम से जिन तथ्यों को उजागर करने के लिए विवश हुआ है, वह-विवशता उसके मन में उद्बुद्ध आक्रोश की परिचायक है, जिसमें साहस जैसा तत्त्व जुड़ जाने के कारण ‘विरोध’ का रस-परिपाक स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है।
आश्रय के रूप में कवि जब एक विदूषक की मंच और नेपथ्य की जि़न्दगी के बीच एक त्रासदी अनुभव करता है तो उसे लगता है कि कहीं न कहीं ऐसा कुछ जरूर घट रहा है जिसमें आदमी को अपने भीतर एक संग्राम झेलते हुए भी मंच पर हंसने का नाटक करना पड़ रहा है। ठीक इसी तरह की स्थिति उस नर्तकी की भी है, जिसे किसी न किसी मजबूरी ने नृत्य करने पर विवश किया है। स्थिति यह है कि नृत्य के दौरान उसके पांव घायल हो चुके हैं, लेनिक नृत्य का आनंद भोगने वाले एय्याश को इतनी फुर्सत कहां कि नर्तकी के घायल होते हुए पांव देख सके। विदूषक और नर्तकी के प्रति करुणा-भरी दृष्टि रखने वाले कवि में, जीवन की विभिन्न स्तरों पर घटने वाली इस त्रासदी की अर्थमीमांसा यहां उसे मात्र आक्रोश से ही सिक्त नहीं कर रही है, बल्कि कवि के मन का यह आक्रोश उसे विवश जीवन के उन बिन्दुओं पर भी लाकर खड़ा कर रहा है, जिसमें जीवन का अर्थ मात्र एक समझौता या विवशता ही बनकर न रह जाए, बल्कि सत्य में जलती ऐसी आग भी हो जो असत्य को जला सके। इसके लिए जरूरी यह है कि कथ्य अर्थात कर्म में ऐसी तासीर लायी जाये, जो जीवन को त्रासदियों के दमघोंटू माहौल से उबार सके।
आक्रोश से आगे की यह वैचारिक प्रक्रिया जिस विचार को ऊर्जस्व बनाती है, उसका उद्बोधन यहां भाव के रूप में ‘विरोध’ को ध्वनित करता है। विरोध की यह ऊर्जा ‘जो कुछ घट रहा है, गलत घट रहा है और ऐसा कुछ घटना नहीं चाहिए’ के रूप में कवि के मानसिक तंतुओं को उद्वेलित करती है और इसी कारण कवि जीवन को नये अर्थ देने के लिये कथ्य में सत्योन्मुखी तासीर लाने का आह्वान करता है।
उक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि रस तत्त्व के रूप में ‘विरोध’ आश्रय को अपनी वैचारिक प्रक्रिया के दौरान जिस प्रकार ऊर्जस्व बनाता है, उसके माध्यम से गलत आचरणों के प्रति मात्र वह आक्रोशित ही नहीं रहता, बल्कि ‘हर गलत’ के प्रति जूझने या साहस दिखाने के लिए प्रेरित भी करता है।
4. असंतोष-
हम सब [सामाजिक प्राणी होने के नाते] एक दूसरे के प्रति कोई न कोई अपेक्षा रखते हुए जीते आ रहे हैं। जब कोई मनुष्य अपनी अपेक्षा के अनुकूल दूसरी मनुष्य को व्यवहार करता हुआ नहीं पाता है तो पहले मनुष्य में दूसरे मनुष्य के व्यवहार के प्रति ‘असंतोष’ का भाव जाग्रत हो जाता है। अपेक्षाओं के स्तर पर असंतोष की इस प्रक्रिया का स्वरूप हमें समाज के कई स्तरों पर दिखायी देता है। उद्योगपतियों से जिस प्रकार अच्छा या अधिक वेतन या अनेक सुविधाएं पाने की अपेक्षा मजदूर वर्ग रखता है, ठीक इसी प्रकार की अपेक्षाएं सरकार से सरकारी कर्मचारी रखते हैं। उद्योगपतियों या सरकार द्वारा उचित या अधिक वेतन न दिये जाने पर मजदूर या सरकारी कर्मचारियों की आये दिन होती हड़तालों, प्रदर्शनों में व्याप्त असंतोष को स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। ‘‘ जो कुछ हमें मिल रहा है या सुविधा के नाम पर प्राप्त हो रहा है, वह उचित और पर्याप्त नहीं है’’ जैसे अनेक विचारों से निर्मित होने वाला असंतोष आज की कविता में महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण किये हुए है। इस असंतोष की स्थिति आक्रोश से निम्न संदर्भों में भिन्न है-
[क] आक्रोश की स्थिति में आश्रयों के मन के भीतर विवशता, भय और दुःख का समावेश हर स्थिति में रहता है जबकि असंतोष रसपरिपाक तक जब पहुंचता है तो उससे भय की सत्ता समाप्त हो जाती है।
[ख] आक्रोश में कटुवचनों का प्रयोग, शत्रुपक्ष की निन्दा, भर्त्सना या शाप देने, कोसने आदि की क्रिया विवशता, असहायता, निरुपायता तक ही सीमित रह जाती है, जबकि असंतोष में विवशता या असहायता मन को जब उद्वेलित या अशांत बनाती है तो शत्रुपक्ष के प्रति हर प्रकार का संघर्ष, चुनौती और साहस में तब्दील हो जाता है।
[ग] आक्रोश और असंतोष की रस-परिपाक सम्बन्धी अवस्था ऊपरी तौर पर एक जैसी भले ही लगें, किन्तु यदि हम सूक्ष्मता के साथ विवेचन करें तो रस-परिपाक तक पहुंचते-पहुंचते ‘असंतोष’ अवज्ञा ललकार, चुनौती में अनुभावित होता है तथा ‘विद्रोह’ का उद्बोधन कराता है, जबकि आक्रोश की स्थिति अवज्ञा, ललकार, चुनौती तक पहुंचने के लिये ‘विरोध’ के रूप में सांकेतिकता में ऊर्जस्व होती है। अर्थ यह कि आक्रोश का रस-पारिपाक शत्रुपक्ष या कुव्यवस्था से टकराने, जूझने का जहां एक दिशा-संकेत-भर होता है, वहीं ‘असंतोष’ का रस पारिपाक जूझने, टकराने, चुनौती देने, ललकारने जैसी अनेक क्रियाओं का अनुभावन बन जाता है।
रसतत्त्व के रूप में ‘असंतोष’ को श्री योगेन्द्र शर्मा की तेवरी के माध्यम से इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
सर पै बस आकाश की ही छत मिली
जि़न्दगी को इस तरह राहत मिली।
एक सुविधा इस तरह से दी गयी
हर किसी की भावना आहत मिली।
‘असंतोष’ के संदर्भ में यदि हम उक्त पंक्तियों का विवेचन करें तो कवि ने यहां आम आदमी की उस जि़न्दगी का जिक्र किया है जिसे आवास के नाम पर कुछ भी नहीं दिया गया है। वह आज भी फुटपाथों पर खुले आकाश के नीचे जाड़ा-पाला, ओला, वर्षा, धूपादि की मार सहते हुए जी रहा है। इसी कारण इस कथित या महज क़ाग़जों पर दी गयी सुविधा ने उसकी भावनाओं को असंतोष से भर डाला है। भावना को ‘आहत’ बताकर दर्शाया गया यह असंतोष कोयले की खानों के बीच कोयला होते मजदूरों को यदि क्रान्ति के लिए प्रेरित कर उठे तो क्या आश्चर्य-
‘कोयल-सी जिन्दगी अब तक जिये हैं
खान के मजदूर जैसे हम रहे हैं।
जब कभी भी क्रान्ति बोयी है समय ने
तिलमिलाते-सोच के पौधे उगे हैं। [गजेन्द्र बेबस]
तात्पर्य यह कि असंतोष एक ऐसा रसतत्त्व है, जो अपनी ऊर्जस्व अवस्था में मन को इतना उग्र बना डालता है कि लोक या मानव क्रान्ति के लिये विद्रोह से सिक्त होने लगता है।
विद्रोह-
सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक व्यवस्था के समीकरण जब लोक या जगत में असफल या असन्तुलित होने लगते हैं, मनुष्य के अथक प्रयास, संघर्ष आदि के उपरांत भी जब कोई वांछित या अपेक्षित हल नहीं निकल पाता तो असंतुलित समीकरणों से जूझते सामाजिक प्राणी अपने भीतर पनपी असंतोष और अशान्ति की अवस्था को समाप्त करने के लिये [उस हर प्रकार की व्यवस्था, जो उन्हें तोष प्रदान नहीं कर पाती] में परिवर्तन या बदलाव तीव्र इच्छा रखने लगते हैं। परिवर्तन की यह तीव्र इच्छा अपनी विभिन्न प्रकार की वैचारिक प्रक्रियाओं से गुजरते हुए, सिर्फ इस निर्णय की प्रक्रिया बनकर रह जाती है कि ‘अब सीधी अंगुली से घी नहीं निकलने वाला, अर्थात् इस व्यवस्था को बदलने के लिये इसके व्यवस्थापकों से टकराने, युद्ध करने, उनके आदेशों की अवज्ञा करने के अलावा कोई चारा नहीं।’’
परिवर्तन की तीव्र इच्छा रखने वाली यह वैचारिक प्रक्रिया अपनी उर्जस्व अवस्था में ‘विद्रोह’ नाम से जानी जाती है। व्रिदोह का यह वैचारिक स्वरूप जितना तर्कसंगत, मानवसापेक्ष और लोकहितकारी होगा, उतना ही सत्य शिव और सौन्दर्य की वास्तविक स्थापना के निकट होगा। मार्क्सवादी विचारधारा के तहत रूस में हुआ सशस्त्र विद्रोह, जिसे क्रान्ति के नाम से जाना गया, निस्संदेह मानव मूल्यों की स्थापना पर आधारित था। ठीक इसी प्रकार का विद्रोह सरदार भगतसिंह, चन्द्रशेखर, सूर्यसेन, अशफाक आदि ने अंग्रेजों की आताताई व्यवस्था के विरुद्ध किया था, जिसके मूल में अंग्रेजों की कथित लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति भारतीय जनता का वह असंतोष था, जो विद्रोह के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार की क्रिया, प्रक्रिया से हल या समाप्त नहीं हो सकता था। लेकिन हमारे राष्ट्र का दुर्भाग्य, क्रान्तिकारियों के सपने साकार न हो सके। आजादी के नाम पर यहां के तस्करों, सेठों, चोर, उचक्कों को आजादी मिली। परिणाम सामने है, जिस प्रकार असंतोष भारतीय जनता में अंग्रेजों की साम्राज्यवादी व्यवस्था के प्रति था, ठीक उसी प्रकार का असंतोष इस वर्तमान व्यवस्था के प्रति जन समुदाय में परिलक्षित होने लगा है। अन्ना हजारे की व्यवस्था को बदलने की मुहिम असंतोष का वर्तमान में सटीक उदाहरण माना जा सकता है।
साहित्य चूकि समाज का दर्पण होता है, इसलिये आज की कविता वर्तमान व्यवस्था के प्रति असंतोष से सिक्त होने के कारण विद्रोह का स्वर मुखरित कर रही है। तेवरी चूंकि जन मूल्यों, लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था रखने वाली काव्य की विधा है, अतः वर्तमान व्यवस्था के प्रति इसका रसात्मकबोध विद्रोह से सिक्त न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। श्री अनिल कुमार ‘अनल’ अपनी एक तेवरी में विद्रोह का परिचय इस प्रकार देते हैं-
देश भर में अब महाभारत लिखो
आदमी को क्रान्ति के कुछ खत लिखो।
बाग में अब चहचहाहट है नहीं
हर परिन्दा है यहां आहत लिखो।
होने लगा आक्रोश लोगों में युवा
बाजुओं में आ गयी ताकत लिखो।
एक पगड़ी-सा उछाला है जिसे
अब नहीं जायेगी वह इज्जत लिखो।
खेलना अंगार से हर दौर में
है हमारी आज भी आदत लिखो।
तेवरी के संदर्भ में रसतत्त्वों की यह खोज मात्र करुणा, आक्रोश, विद्रोह, असंतोष और विद्रोह तक ही सीमित नहीं रह जाती, इसके अतिरिक्त भी ऐसे अनेक रसतत्त्व तेवरी में उपस्थित होते हैं, जो इस विधा को उर्जस्व बनाये रखने में अपना सहयोग देते हैं, लेकिन इन सहयोगी रसतत्त्वों की व्यापकता में न जाते हुए हम सिर्फ इतना ही कहना चाहेंगे कि जिन तत्त्वों की विवेचना हमने इस आलेख में की है, यह रस तत्त्व वर्तमान कविता या तेवरी के प्रधान रसतत्त्व हैं, जिन्हें पहचाने बिना आधुनिक कविता के रसात्मकबोध को नहीं समझा जा सकता।
------------------------------------------------------------------------
+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
COMMENTS