युगीन यथार्थ का आईना : "आईना- दर- आईना" डी.एम.मिश्र का साहित्यिक सफर मीलों लम्बा है।"आईना-दर-आईना"श्री मिश्र का हाल ...
युगीन यथार्थ का आईना : "आईना- दर- आईना"
डी.एम.मिश्र का साहित्यिक सफर मीलों लम्बा है।"आईना-दर-आईना"श्री मिश्र का हाल ही में प्रकाशित तीसरा ग़ज़ल संग्रह(नौवीं कृति)है।आपकी कविताओं का पहला संकलन (आदमी की मुहर )1989 में प्रकाशित हुई थी। छंदमुक्त कविता से अपने काव्य लेखन की शुरूआत करने वाले श्री मिश्र ने ग़ज़ल को अपने अभिव्यक्ति का वसीला बनाया है। 109 ग़ज़लों का यह संग्रह जनजीवन की समस्याओं व विसंगतियों का आईना है। पुस्तक के फ्लैप पर टिप्पणीकार के रूप में वरिष्ठ कथाकार संजीव जी लिखते है "श्री मिश्र बुनियादी रूप से परिवर्तन और आक्रोश के शायर है सो उन्हें बड़ी आसानी से दुष्यंत, अदम गोण्डवी,...के कुनबे में रखा जा सकता है।
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श्री मिश्र अपने समय को बड़ी बारीकी से परखते है। मूल्यहीन राजनीति व राजनीतिज्ञों के असली चेहरे को देखते हुए वे लिखते हैं -
"अपराधियों में कल तलक उसका शुमार था
अब कर्णधार मंत्रियों में देखिये उसे। "
"जिन पर था रासुका लगा वो बंदी पहरेदार हो गये। "
"रोज किसी की शील टूटती पुरुषोत्तम के कमरे में
फिर शराब की बोतल खुलती पुरुषोत्तम के कमरे में।"
"गांव की ताज़ी चिड़िया भून के प्लेट में रखी जाती है
फिर गिद्धों की दावत चलती पुरुषोत्तम के कमरे में "
यह ग़ज़ल अदम की ग़ज़लों की याद दिलाती है अदम अपने समय को लिखते है और श्री मिश्र अपने समय को दिखाते हैं।
" आप सदन में बैठ के वहां मलाई काट रहे
सत्तर फीसदी लोग यहां संत्रास में डूबे हैं । "
" देश की धरती सोना उगले वो भी लिखो तरक्की में
आधा मुल्क भूख में सोता वो भी लिखो तरक्की में "
सभी राजनीतिक पार्टियों के चरित्र में कोई फ़र्क नहीं है केवल नाम व झंडे अलग है। विकल्प के अभाव में आम अवाम के लिए चुनाव में अच्छे प्रतिनिधि चुनना उसी प्रकार है जिस प्रकार बबूल के वनों से फूल चुनना। एक झलक दृष्टव्य -
" वोटरों के हाथ में मतदान करना रह गया
दल वही, झंडे वही कांधा बदलना रह गया
फिर वही बेशर्म चेहरे हैं हमारे सामने
फिर बबूलों के वनों से फूल चुनना रह गया। "
सत्ता के खातिर चुनावों में हर प्रकार के हथकंडे अपनाये जाते है। श्री मिश्र की नजर उधर भी जाती है। यथा -
" दारू बंटने लगी मुफ्त में लगता है आ गया चुनाव। "
" नेताओं ने वोट के लिए बांट दिया है पूरा मुल्क। "
श्री मिश्र अपनी रचनाओं में न केवल युगीन यथार्थ को प्रकट करते है बल्कि यथार्थ का मूल्यांकन कर बातों ही बातों में एक दिशा दे जाते हैं।
चुनावों की सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए वे कहते हैं -
"फिर चुनाव की मंडी में मतदाताओं का दाम लगा
फिर बिरादरीवाद चला एकता देश की हार गई । "
उनका स्पष्ट मानना है कि चुनाव द्वारा जनहितैषी सरकार आएं, ऐसा मौजूदा परिस्थिति में सम्भव नहीं क्योंकि जनता को सांपनाथ व नागनाथ के बीच ही चुनाव करना है।
"जनता ने तो चाहा था लेकिन परिवर्तन कहां हुआ
चेहरे केवल बदल गये,पर कहां भ्रष्ट सरकार गई।"
समाज में आर्थिक असमानता इस कदर व्याप्त है कि जहां बहुसंख्यक आबादी को सन्तुलित आहार भी मयस्सर नहीं वही चंद लोगों के पास अकूत सम्पति जमा है।
"फूटे हुए बरतन नहीं लोगों के घरों में
उसके यहां चांदी के मगर पीकदान तक"
वे देश की न्याय व्यवस्था से भी हमें रूबरू कराते है-
"चश्मदीद गवाह था वो इसलिए मारा गया
साथ वो सच के खड़ा था बस यही तो कसूर था।"
"बड़े आराम से वो क़त्ल करके घूमता है
उसे मालूम है जज भी तो पैसा सूंघता है।"
हमारे रिश्तों-नातों पर पूंजीवादी संस्कृति का शिकंजा कसता जा रहा है।मां-बाप अपने औलाद को बड़े प्यार एवं तपस्या से बड़ा करता है।लेकिन वृध्दावस्था में उसी मां-बाप को संतान सुख तो दूर रोटी के भी लाले पड़ जाते है।श्री मिश्र उस स्थिति का मार्मिक दृश्य प्रस्तुत करते हैं -
"बहुत बहला के फुसला के जिसे रोटी खिलाता था
उसी बेटे से रोटी आज हमको मांगनी पड़ती।"
"है वही दुनिया नये अंदाज में दिखने लगी
एक दूरी रख के औलाद भी मिलने लगी।"
सहजता के साथ संवेदना की गहराई में उतरना श्री मिश्र की अपनी पहचान है।यथा
"जवानी थी कमाता था तो देता था तुम्हें बेटा
बुढ़ापा आ गया तो मांगता हूं क्या करूं लेकिन"
सामाजिक न्याय के खोखले दावे का पर्दाफाश करते हुए श्री मिश्र शोषणमूलक व्यवस्था का एक और बदसूरत चेहरा सामने लाते है।
"एक जुलाहे को जब देखा फटे हुए कपड़ों में
सारे सपने चूर हो गये रेशम बुनते-बुनते। "
श्री मिश्र का मानना है कि हमें ज़ुल्म,अन्याय के खिलाफ चुप्पी को तोड़ना होगा।अन्याय के खिलाफ न बोलने से अन्याय करने वालों के हौंसले बढ़े है। नये प्रतीकों के साथ अपनी बात रखते हुए श्री मिश्र कहते हैं -
" फूल तोड़े गए ठहनियां चुप रहीं
पेड़ काटा गया बस इसी बात पर।"
वे राजनीति-सामाजिक विमर्श के बीच मन की कोमल भावनाओं को शिद्दत से जगह देते है, सौंदर्य का चित्र जब वे खींचते है तो ग़ज़ल अचानक गीत के माधुर्य से भर जाती है।
" किया कुछ भी नहीं था बस जरा घूंघट उठाया था
अभी तक याद है मुझको तुम्हारा वो सिहर जाना"
सजीव चित्र उपस्थित कर गीत पूरी रफ्तार से आगे बढ़ती हुई पाठकों को गुनगुनाने का अवसर देती है -
" बोझ धान का लेकर वो जब हौले-हौले चलती है
धान की बाली, कान की बाली दोनों संग संग बजती है।"
" खड़ी दुपहरी में भी निखरी इठलाती बलखाती वो
धूप की लाली, रुप की लाली दोनों गाल पे सजती है।
समग्रता: इस संग्रह के आईने में श्री मिश्र की ग़ज़लों में कहीं मूल्यों के प्रति समर्पण है तो कहीं जीवन की विसंगतियों को उजागर करती प्रभावी रचनाएँ। कई प्रभावशाली बिंब मन की तलवटी पर अपनी छाप छोड़ने में समर्थ रहें हैं। हर रचना अपने बिषय के दायरे में घूमती है, कहीं छटपटाती हैं और कहीं मंजिल के निकट आते-आते मुड़ जाती है। यथार्थ से गहरा नाता रखती व आशा से भरी समकालीन कृतियों का यह संग्रह कुल मिलाकर पठनीय व संग्रहणीय है।
कृति : आईना-दर-आईना
कृतिकार:डी एम मिश्र
प्रकाशक :नमन प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य :250 रू
समीक्षक :वीरेन्द्र त्रिपाठी ,लखनऊ
मो:9454073470
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