आचार्य भरतमुनि रस के प्रवर्त्तक माने जाते हैं। उन्होंने रस को ‘ नाटक का अनिवार्य धर्म ‘ के रूप में स्वीकारा है। भाव, संचारी भाव, अनुभाव औ...
आचार्य भरतमुनि रस के प्रवर्त्तक माने जाते हैं। उन्होंने रस को ‘ नाटक का अनिवार्य धर्म ‘ के रूप में स्वीकारा है। भाव, संचारी भाव, अनुभाव और स्थायी भाव के सहारे स्थापित की गयी इस रस की सत्ता को आगे आने वाले रस आचार्यों ने भी स्वीकार करते हुए रस को काव्य का एक अनिवार्य और सर्वोपरि प्रयोजन माना। तथा रस के बारे में कहा कि रस के सम्पर्क से प्रचलित अर्थ उस प्रकार आभासित होने लगते हैं, जिस प्रकार वसंत-सम्पर्क में द्रुम-
दृष्टपूर्वा अपि ह्यार्था: काव्ये रस परिग्रहात
सर्वे नवा इवाभान्ति मधुमास इव द्रुमाः। 1
आनन्दवर्धन, मम्मट, कुंतक आदि रस के बारे में निष्कर्ष यह रहा है कि –
1.रस काव्य का अमृत एवं अन्तस् चमत्कार का वितानक होता है। 2
2.रस काव्य का सर्वोपरि प्रयोजन है। 3
3.रस सब अलंकारों का जीवित ‘ रसवत् अलंकार ‘ है। 4
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महिमभट्ट एवं आचार्य विश्वनाथ ने अपने पूर्ववर्त्ती एवं सम्वर्त्ती आचार्यो के मतों के अनुसार एवं अपने तर्कों के सहारे रस को काव्य की आत्मा घोषित करते हुए अपने अभिमत इस प्रकार प्रस्तुत किए-
“काव्य स्यात्मिन संगिनि.....रसादिरूपे न कस्यचिद विभति“ अथवा “ वाक्यं रसात्मक काव्यं ”।
काव्य में रस की स्थिति या अस्तित्व के बारे में दिए गये उक्त तथ्यों के आधार पर रस को ही काव्य की आत्मा मान लेने में ऐसी अनेक दिक्कतें हैं, जिनका समाधान आवश्यक है-
1.यदि रस काव्य का अनिवार्य एवं सर्वोपरि प्रयोजन ही है तो सामाजिकों को रस तो अश्लील , गैर साहित्यिक, फूहड़ और विकृत कृतियों में भी आता है, तब इस प्रकार की रस-व्याख्याओं के आधार पर क्या काव्य की आत्मा के सत्-रूप के जीवंत बनाये रखा जा सकता है ? इस तरह काव्य की आत्मा भी विकृत और अश्लील नहीं हो जाएगी ?
2. यदि रस के सम्पर्क से ही प्रचलित अर्थ ठीक उसी प्रकार आभासित जिस प्रकार वसंत के सम्पर्क में द्रुम, तब काव्य के आस्वादक के रूप में एक कथित ‘ सहृदय ‘ की आचार्यों ने किसलिए खोज की ? यदि रस में ही इतनी शक्ति या प्रभावोत्पकता है, तो एक ही काव्य-सामग्री के प्रति विभिन्न आस्वादक रससिक्त होने के साथ-साथ रसहीनता की ओर क्यों जाते हैं। बिहारी का काव्य मार्क्सवादियों को फीका क्यों महसूस होता है। आचार्य शुक्ल केशव को काव्य का प्रेत क्यों बताने लगते हैं ?
सच तो यह है रस का अमृत, अन्तस् चमत्कार का वितानक एवं सर्वोपरि प्रयोजन तभी जान पड़ता है, जबकि जिस काव्य-सामग्री का हम आस्वादन कर रहे होते हैं, वह आस्वादन सामग्री हमारे रागात्मक मूल्यों से मेल खाती महसूस होती हो अर्थात् जब काव्य-सामग्री में व्यक्त किये गये रागात्मक मूल्य हमारे रागात्मक मूल्यों से मेल खाते अनुभव तभी काव्य से ग्रहण किया गया रागात्मक अर्थ इस प्रकार आलोकित होता है जैसे वसंत के सम्पर्क में द्रुम।
एक नारी-भोग में लिप्त में लिप्त रहने वाले सामाजिक को ऐसे काव्य से ही रस या आनन्द की प्राप्ति हो सकती है, जो वासना, आलिंगन, चुम्बन, विहँसन आदि का ब्यौरेबार बिम्ब प्रस्तुत करता हो। जबकि नारी-भोगविलास को व्यभिचार की श्रेणी में रखने वाले आस्वादक को ऐसी रसात्मकता शायद ही प्राप्त हो जो एक कथित रसिक को आनन्दित करती है। इन दोनों अवस्थाओं का सम्बन्ध हमारे उन रागात्मक मूल्यों से है, जिनके द्वारा हमारे आत्म अर्थात् रागात्मक चेतना का निर्माण होता है और जिन्हें हम काव्य में सीधे-सीधे देखना या अनुभव करना चाहते हैं।
रस को ही अन्तस् चमत्कार का वितानक और काव्य का सर्वोपरि प्रयोजन मानने से पूर्व हमें यह अवश्य सोचना पड़ेगा कि क्या हम नारी के रूप में माँ बहिन बेटी आदि के साथ वही रसात्मकबोध या आनन्दावस्था ग्रहण नहीं कर सकते, जो कि एक प्रेमिका या पत्नी के साथ सम्भव है। हमारे विचार से नहीं। इसका मूल कारण हमारी रागात्मक चेतना की वह मूल्यवत्ता अवश्य है जो आत्म के रूप में विभिन्न प्रकार के सम्बन्धों के प्रति विभिन्न के व्यवहार करती है। यही विभिन्न प्रकार की रागात्मक दृष्टियाँ काव्य से लेकर लोक-जीवन के रसात्मकबोध को भिन्न-भिन्न तरीके से भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में आलोकित करती है। अतः काव्य की आत्मा रस सिद्ध करने से पूर्व हमें इस बिंदु पर आकर अवश्य विचार करना पड़ेगा कि ‘ काव्य का सम्पूर्ण क्षेत्र हमारा समाज या लोक के प्रति रागात्मक सम्बन्धों का क्षेत्र है, जिसमें विभिन्न प्रकार की रागात्मक चेतना शक्ति या दृष्टि ही हमें विभिन्न प्रकार के रसात्मक बोधों की ओर ले जाती है।
रति को ही लीजिये- इसके द्वारा शृंगार रस की निष्पत्ति होती है। यदि हम इसका सूक्ष्म विवेचन करें तो रति-वात्सल्य, भक्ति, करुणा के मूल में भी रहती है। लेकिन इन सब के रसात्मक बोध में अंतर उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका हमारी रागात्मक चेतना या दृष्टि ही होती है। यदि नायक-नायिका शारीरिक भोग के प्रति आकर्षित होने वाले प्राणी हैं तो उनके मन में उत्पन्न होने वाली रति शृंगार का आधार बनेगी। यदि नायक-नायिका समाज या एक-दूसरे के प्रति दुःख-दर्दों में हिस्सेदारी तय करने वाले प्रेमी हैं तो दोनों में उद्बुद्ध रति करुणा के चरमोत्कर्ष को दर्शाएगी। ठीक इसी प्रकार यदि माँ-बेटी या बेटे की सुखात्मक अनुभूतियों से सिक्त हैं तो इन सम्बन्धों के बीच उद्बुद्ध रति का चरमोत्कर्ष ममत्व और वात्सल्य में अनुभावित होगा। स्वामी और सेवक के बीच के रागात्मक सम्बन्ध रति को भक्ति या दास के रूप में आलोकित करेंगे। भाई-भाई , बहिन-भाई आदि के रागात्मक सम्बन्धों की रति भी किसी न किसी रसात्मक बोध को दर्शाती है, किन्तु यह रस-तालिका अभी तक रिक्त है।
रति से सम्बन्धित उक्त व्याख्या के माध्यम से हम सिर्फ और सिर्फ यह कहना चाहते हैं कि-
1. काव्य के सन्दर्भ में राग काव्य का वह मूल प्राण है, जिसके अभाव में काव्य या तो कोरा संकेत बन कर रह जाता है या लोक-व्यापार की वह शृंखला टूट जाती है, जो मनुष्य से मनुष्य के बीच प्रेम, भाईचारे आदि को जन्म देती है।
2. काव्य में रस की स्थिति अंततः इस तथ्य पर निर्भर है कि आश्रय और आलम्बनों के रागात्मक सम्बन्ध किससे और किस प्रकार के हैं।
अपने पुत्रों के हत्यारे पांडवों को यदि गांधारी अंत तक घृणा और क्रोध का पात्र नहीं बना पाती है तो इसके मूल में गांधारी की वह रागात्मक चेतना है जो सत् और असत् में अंतर करना ही नहीं जानती, बल्कि उसे यह भी ज्ञान है कि अति स्वार्थी, अहंकारी, दम्भी और नारी-जाति का अपमान करने वाले वर्ग का एक न एक दिन यही हश्र होता है, उस वर्ग में ही उसके पुत्र आते हैं।
इसके विपरीत धृतराष्ट्र की रागात्मक चेतना सत् के आभाव में ऐसी रागात्मक चेतना बनकर उभरती है जो अंत तक पुत्र-मोह में जकड़ी रहकर भीम का छल-कपट से वध करने को आतुर रहती है।
अर्थ यह कि काव्य के हर पात्र में रसोद्बोधंन उसकी अपनी रागात्मक चेतना के अनुरूप ही होता है। यदि अयोध्या नरेश श्री राम की रागात्मकता का विषय जन-भावना न रहकर केवल सीता ही रही होती तो यह सम्भव नहीं था कि एक धोबी की उलाहना पर वे सीता का वनवास तय कर देते।
3. रस के स्थान पर राग को काव्य का सर्वोपरि प्रयोजन तभी माना जा सकता है जबकि राग में सत् तत्त्व मौजूद हो। वरना जिस प्रकार रस को अन्तस् चमत्कार का वितानक, ब्रह्म-सहोदर, अमृत स्वरूप मानकर काव्य को भोगविलास, व्यभिचार आदि में डालते आ रहे हैं, इसी प्रकार के खतरे राग के साथ भी उपस्थित होंगे।
अतः ‘राग’ काव्य का मूल प्राण होने के बावजूद काव्य की आत्मा तभी बन सकता है, जबकि उसमें सत्योंमुखी चेतना अंतर्निहित हो।
4. काव्य के सन्दर्भ में राग जब सत्योन्मुखी चेतना से युक्त होता है तो उसका रसोद्बोधन कोरी आनंदोपलब्धि या मनोरंजन मात्र का साधन न रहकर ऐसी रसात्मकता का परिचय देता है जिसका बीजरूप आचार्य शुक्ल के अनुसार ‘ करुणा ‘ ठहरता है। काव्य को जो चिंतक लोकमंगल से जोड़कर नहीं देखते, ऐसे विद्वान रस, अलंकार, ध्वनि, रीति आदि को भले ही ‘ काव्य की आत्मा ‘ घोषित करने के लाख प्रयास करें, किन्तु इन सब तथ्यों की सार्थकता काव्य में अंतर्निहित ‘ सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना ‘ के बिना संदिग्ध और सारहीन ही मानी जाएगी।
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+ रमेशराज, 15/109, ईसानगर, निकट-थाना सासनीगेट, अलीगढ़-202001 mob.-9634551630
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