यादव काल महाराष्ट्र के सांस्कृतिक इतिहास का महत्व पूर्ण कालखंड है और जनाबाई उस काल की श्रेष्ठ मराठी संत कवयित्री हैं. यादव काल महाराष्ट्र...
यादव काल महाराष्ट्र के सांस्कृतिक इतिहास का महत्व पूर्ण कालखंड है और जनाबाई उस काल की श्रेष्ठ मराठी संत कवयित्री हैं. यादव काल महाराष्ट्र की अस्मिता का पहला हुँकार मराठी साहित्य की दृष्टि से यादव काल केवल आदिकाल नहीं , बल्कि ऐश्वर्यकाल भी माना जाता है. 17 वीं 18 वी शती के मराठी काव्य के अनेक प्रवाह तथा पारंपरिक मूल इसी काल में मिलते हैं. इतना ही नहीं अन्य किसी कालखंड की अपेक्षा यादव काल अपने काल के अनोखे प्रतिभाशाली देवतुल्य व्यक्तित्व के कारण, उनके विशवात्म वृत्ति से जन्मे सहज संवेदन शील संतत्व के कारण और श्रेष्ठ साहित्य का जतन करने वाले श्रेष्ठ जीवनाभिरूचिके कारण भी श्रेष्ठ है.
आख्यानात्मकता, चरित्रचित्रण, आत्मानुभूतिपरक भाषा आदि दृष्टि से श्रेष्ठ काव्यग्रंथों की रचना इस काल में हुई है. इसके अलावा लीळाचरित्र - जैसा अनोखा चरित्रात्मक ग्रंथ की रचना भी इसी काल में हुइ है. श्री कृष्ण - महाराष्ट्रीय जीवन का मंत्र तथा साहित्य का केन्द्र बिन्दु है.
[ads-post]
यादव कालीन मराठी कवयित्री संत जनाबाई का काव्य अपनी असाधारण कृष्णभक्ति तथा मोहक भावाभिव्यक्ति के कारण हमारा ध्यान आकर्षित करता है. यादवकालीन अन्य कवयित्रीयों की तुलना में जनाबाई का काव्य भिन्न तो है. इसके अलावा समकालीन सर्वश्रेष्ठ संतकवियों के काव्य से भी अपनी कलात्मकता तथा काव्यात्मकता से अपना अलग ही स्थान बना लेता है. जनाबाइ का काव्य उनके दैनंदिन यथार्थ जीवन विषयक अनुभूतियों में हमेशा उनके साथ रहा है. वह जनाबाई की लौकिक जीवनानुभूतियों को ही नहीं; उनकी श्रमात्मानुभूतियों को भी साद देता है. ऐसी लौकिक जीवनानुभूति को अलौकिक आध्यात्मिक काव्यानुभूति में परिवर्तित करने की कला जनाबाई के अभंगों में सहज रूप से प्रकट होती है. जनाबाई की अभंगवाणी अनोखी काव्यात्मक खोज है.
यादवकालीन आध्यात्मिक दीपोत्सव की एक ज्योति जनाबाई है. इस ज्योति ने अपने अस्तित्व से यादवकालीन महाराष्ट्र के आध्यात्मिक जीवन को उजागर करने में श्री ज्ञानेश्वर तथा नामदेव के एकात्म कार्य में सहभागी हुई हैं. यादवकालीन संतों की परंपरा में रहकर भी जनाबाई का लौकिक जीवन उपेक्षित ही रहा. उनके वैवाहिक जीवन संबंधी जानकारी नहीं मिलती. परिणाम स्वरूप नामदेव चरित्र के एक उपांग के रूप में ही आखिर जनाबाई को अस्तित्व प्राप्त होता है. उन्हें एक महत्वपूर्ण स्थान मिलता है. नामदेव के द्वार पर ही जिसका स्थान था उस जनाबाई के चरित्र को अन्यत्र स्थान मिलना संभव न था. जनाबाई का अपना कोई घर न था. नामदेव का द्वार ही उनका घर था. जिस गंगाखेड गाँव में उनका जन्म हुआ था वह तो कब का पराया हो चुका था. दमा तथा करूंड जो उनके माता - पिता थे उनसे केवल जन्म तक का ही नाता था. उनकी माता का बचपन में ही निधन हो चुका था. अपनी माता संबंधी कोई भी स्मृति उनके जीवन में न थी. पिता भी पालन - पोषण करने में असमर्थ रहे और उन्होंने ही उसे दामा शेठ के पास छोड़ दिया. जनाबाई अपनी आंतर प्रेरणा के कारण ही उनके द्वार पर टिकी रही. नामदेव, उनकी विठ्ठल भक्ति तथा उनका परिवार ही उनका सब कुछ था. नामदेव की विठ्ठल भक्ति उनका आदर्श थी. वही आत्मसात करने की उनकी इच्छा थी और इसी भक्ति से विठ्ठल को जितना, उन्हें पाना तथा उनके अखंड सहवास की अनुभूति करना ही उनका सुन्दर स्वप्न था.
ये सबकुछ उन्होंने नामदेव के द्वार पर रहकर प्राप्त किया. प्रारंभ में द्वार पर रहना उन्हें अस्वस्थ बना देता है लेकिन कालान्तर में यही ईश्वर ईच्छा समझकर वह आगे बढ़ जाती हैं. इसका वर्णन उनके अभंग में हुआ है - राजाई गोणाई. अखंडित तुझे पायी.
मज ठेवियले द्वारी. नीच म्हणोनि बाहरी.
नारा गोंदा महादा विठा. ठेवियले अग्रवाटा.
देवा केव्हां क्षेत्र देसी. आपली म्हणोनि जनी दासी.
गर्भरूप में पुनः - पुनः जन्म पाए तथा नामदेव के द्वार पर रहकर ही सेवा करूँ -ऐसी याचना वह हमेशा विठ्ठल से करती. नामदेव के घर में जनाबाई का स्थान आगे द्वार पर या पीछे आँगन में था तथा उससे जुड़े शारीरिक श्रम कार्य जना बाई के अभंग विशव की आधार भूमि है.
यादवकालीन कवयित्री की अपेक्षा का भाव - विश्व चैतन्य पूर्ण, गहन, विकासशील तथा प्रत्यक्षदर्शी है.
जनाबाई का आध्यात्मिक जीवन तथा कवित्व शक्ति अन्य कवयित्री की तुलना में अधिक संपन्न है इसका कारण उनका विठ्ठल के प्रति सखा भाव ही है. वे अपने एक अभंग में कहती है -
नामदेवा चे ठेवणे जनी स लाधले.
धन सापडले विटेवरी.
धन्य माझा जन्म धन्य माझा वंश.
धन्य विष्णुदास स्वामी माझा.
ते अपने एकाकी जीवन मे श्री विठ्ठल की सहानुभूति को हीअपनी भाव - पूर्णता मानती हैं.
आई मेली बाप मेला. मज साँभाळी विठ्ठला.
हरी मज कोणि नाहीं. माझी खात उसे डोई.
विठ्ठल म्हणे रुक्मिणी. माझे जनी ला नाहीं कोणी.
.
काय करूं पंढरीनाथा. काळ साह्य नाहीं आता.
मज टाकिले परदेशी. नारा विठा तुज पाशीं.
श्रम बहु जाला जीवा. आता साँभाळी केशवा.
कोण सखा तुज विण. माझे करी समाधान.
हीन - दीन तुझे पोटी. जनी म्हणे द्यावी भेटी.
विठ्ठल से उनका जन्मोजन्म का नाता है. वे कभी उन्हें पिता के रुप मे। कभीमाता के रुप में कभी सत्ताधीश के रुप मे तो कभी बाल - गोपाल के रुप में देखती हैं. उनसे मिलकर जनाबाइ पूर्ण रूप से बदल चुकी थी. उनका मन चैतन्यमयी बन चुकी थी. उनकी संवेदनाऐं जागृत हो चुकी थी. उनके मनोभावों का स्वरूप उनके अभंगों में देखने को मिलता है.
देहाचा पालट विठोबा चे भेटी.
जळ लवणा गाठी पडोन ठेली.
धन्य माय बाप नामदेव माझा.
तेणे पंढरी राजा दाखविले.
रात्र दिवस भाव विठ्ठलाचे पायीं.
चित्त ठायी चे ठायी मावळले.
नाम जयाचे जनी आनंद पै जाला.
भेटावया आला पांडुरंग.
जनाबाई को हुए विठ्ठल के साक्षात अनुभव का रुप निर्गुण, निराकार है. यहाँ जनाबाई नामदेव की सगुण भक्ति को पीछे छोड़ आगे निकल जाती हैं. इस तरह से जनाबाई के अभंगों का काव्य वैशिष्ट्य अनोखा है.
जनाबाई के अभंगों में ईश्वर के वियोग की उदासीनता की अपेक्षा मिलन कीआतुरता, औत्सुक्य अधिक देखने को मिलता है. ईश्वर से साक्षात्कार की अनुभूति का निरुपण उनके अभंगों में निखरकर आया है. वे उनके अलौकिक सगुण रुप का निरुपण बार - बार नहीं करती क्योंकि उनका विठ्ठल लौकिक जगत के सामान्य मनुष्य की भँति ही है. उन्होंने ईशवर का मानवीय धरातल पर ही निरुपण किया है, यही उनका वैशिष्ट्य है. यहीं उनका पुंडलिक से सख्यभाव (जुड़)बन जाता है. विठ्ठल जनाबाई के जीवन में छाया बनक र उनके साथ रहते हैं. जनाबाई का जीवन ही उनका जीवन था. जनाबाई आखिर दासी ही थी अतः विठ्ठल भी उनके दास बनते हैं. इस एकात्मभाव का निरुपण जनाबाई किसी भी प्रकार के अद्भूत अलौकिकता के स्पर्श के बिना सहजता से करती हैं.
डॅा. लता सुमन्त
संदर्भ ग्रंथ :-जनाबाई चे निवडक अभंग - एक चिंतन 35, विश्वंभर पार्क -1, गोत्री रोड़
संपादक : डॉ. सुहासिनी इर्लेकर बड़ौदा 390021
COMMENTS