तेवरी में रागात्मक विस्तार / रमेशराज

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काव्य की आत्मा वह रागात्मक चेतना है, जिसके द्वारा मानव रति या विरति के रूप में, अपने मानसिक एवं शारीरिक सम्बन्धों की प्रस्तुति विभिन्न प्रक...

काव्य की आत्मा वह रागात्मक चेतना है, जिसके द्वारा मानव रति या विरति के रूप में, अपने मानसिक एवं शारीरिक सम्बन्धों की प्रस्तुति विभिन्न प्रकार के माध्यमों और विधियों से करता है। चूंकि यह रति या विरति की प्रस्तुति लोक और उसके प्राणियों के सापेक्ष होती है, अतः काव्य में सारा का सारा लौकिक वर्णन, लोक की उस रागात्मक या प्रेमपरक स्थिति को उजागर करता है, जिसके द्वारा हम विभिन्न प्रकार के रसात्मक-बोध ग्रहण करते हैं।

काव्य की आत्मा रस, अलंकार, ध्वनि, रीति, वक्रोक्ति, औचित्य आदि सिद्ध करने से पूर्व हमें आचार्य शुक्ल के इस तथ्य की सार्थकता को अवश्य समझ लेना चाहिए कि-‘‘ज्ञान हमारी आत्मा के तटस्थ स्वरूप का संकेत है। किसी भी वस्तु या व्यक्ति को जानना ही वह शक्ति नहीं, जो उस वस्तु या व्यक्ति को हमारी अन्तस्सत्ता में सम्मिलित कर दे। वह शक्ति है-- राग या प्रेम।’’

अर्थ यह कि-जब तक कोई वस्तु या व्यक्ति हमारी रागात्मक चेतना का विषय नहीं बनेगा, तब तक हमारा ज्ञान लोक या मानव की आत्मा की सार्थक प्रतीति नहीं बनेगा। अतः हम कह सकते हैं कि काव्य की प्रत्येक प्रकार की अभिव्यक्ति हमारे या लोक के उस आत्म की प्रस्तुति है, जिसकी मूल आधार राग या प्रेम है।

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प्रेम या राग की यह स्थिति वीरगाथा काल में जहां स्व-प्रभुत्व, सत्ता-स्थायित्व की खातिर शत्रुपक्ष को कुचलने, सत्ता हथियाने आदि के रूप में अन्तर्निहित है, वहीं भक्तिकाल में यह रागात्मक स्थिति ईश्वरीय प्रेम में बदलती चली जाती है। रीति काल में यह रागात्मकता मात्र नारी भोग में लिप्त दिखाई देती है। विभिन्न प्रकार के अलंकारों में रागात्मक चेतना की रीति-कालीन कामोत्तेजक प्रस्तुति, जिस प्रकार का रसात्मक-बोध प्रदान करती है, उसमें कवि की चेतना को नारी-मोह चकाचौंध किये रहता है। भारतेन्दु काल में कवि का आत्म जिस प्रकार की रागातमक चेतना ग्रहण करता है, वह राग या प्रेम उस दलित या शोषित वर्ग के राग का विषय बनता है, जिसे तत्कालीन शासक वर्ग द्वारा लगातार खण्डित किया जाता रहा है। दलित या शोषित वर्ग के प्रति बनी यह रागात्मक चेतना, एक संवेदनशील कवि को जिस प्रकार संस्कारित करती है, उसकी करुणामय छटा हमें द्विवेदी काल से लेकर वर्तमान काव्य को आलोकित करती दिखलायी पड़ती है।

वर्तमान कविता के एक रूप ‘तेवरी’ का आत्म, अपनी विभिन्न प्रकार की वैचारिक प्रक्रियाओं के माध्यम से जिस प्रकार की रागात्मक सत्ता को प्रस्तुत करता है, वह रागात्मक सत्ता कभी राष्ट्रीय मूल्यों की धरोहर बनकर उभरती है, कभी सामाजिक सरोकारों की एक दायित्वपूर्ण प्रक्रिया तो कभी मानवीय रिश्तों की एक नैतिक और कल्याणकारी व्यवस्था बन जाती है।

बाबू गुलाबराय के अनुसार-‘‘ इस प्रकार की सामाजिक दृष्टि आत्म सम्बन्धी विचारों को विस्तार दिये बिना किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकती। जैसे-जैसे हमारे आत्म सम्बन्धी विचार विस्तृत होते जाते हैं, वैसे ही वैसे हमारी आत्म प्रतीति का क्षेत्र बढ़ता जाता है। जो लोग अपने व्यक्तियों में ही अपनी आत्मा को संकुचित कर देते हैं, उनकी आत्म-प्रतीति स्वार्थ-साधन में ही होती है। किन्तु उसे हम सच्ची आत्म-प्रतीति नहीं कह सकते। सच्ची आत्म-प्रतीति तो तभी हो सकती है, जब हम अपनी आत्मा को पूरा विस्तार देकर समष्टि की आत्मा से मिला दें और समष्टि के हित को अपना समझें। बहुत से लोग स्वहित को आत्म कल्याण के रूप में देश के हित-साधन में देखते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो मनुष्य मात्र के हित और अपने हित को एक कर देखते हैं। इससे भी एक ऊंची श्रेणी प्राणीमात्र से अपनी एकता करने वालों की है...। यही पूर्ण आत्म सद्भावना या आत्म-प्रतीति है।’’

लौकिक सत्ता एवं काव्य सत्ता कोई अलग-अलग चीजें नहीं हैं। जो कुछ लोक में घटता है, काव्य उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है। अतः बाबू गुलाब राय के उपरोक्त आत्म सम्बन्धी विवेचन को काव्य की सत्ता पर लागू करते हुए, यह बात सहज समझ में आ सकती है कि एक कवि की रागात्मक चेतना, किसी न किसी रूप में लोक की रागात्मक चेतना का ही प्रतिबिम्ब होती है, जो आत्म के संकुचित स्वरूप में नारी को यदि भोग विलास की वस्तु मानती है, तो समाज से स्वार्थ सिद्धि के लिये अपने कई संकीर्ण एवं शोषक स्वरूपों में प्रस्तुत होती है। जबकि सच्ची और सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना या आत्म-प्रतीति उन सारे संकीर्ण दायरों को तोड़ डालती है, जिनमें अपने-पराये का भेद अथवा किसी भी प्रकार के शोषण की गुंजाइश होती है।

तेवरी में आत्मविस्तार की स्थिति, मानव या लोक के प्रति उन रागात्मक सम्बन्धों के विस्तार की स्थिति है, जिसमें लोक के प्रेमपरक सम्बन्ध, विश्वास, नैतिकता, ईमानदारी और दायित्वबोध के साथ निस्स्वार्थ रूप से प्रगाढ़ होते जाते हैं। तेवरी में आत्म-विस्तार के रूप में रागात्मक चेतना की स्थिति निम्न प्रकार से देखी जा सकती है-

1. तेवरी समूचे लोक के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख बनाकर प्रस्तुत करती है। विश्व के किसी भी कोने में कोई दुर्घटना त्रासदी, हिंसा, अलोकतांत्रिकता अपना तांडव दिखलाती है, तो तेवरीकार लोक की दुर्दशा के प्रति ‘विरोध और विद्रोह’ के स्वर मुखरित करता है- बेंजामिन मोलोइस को द.अ. में आताताई सरकार फांसी पर चढ़ाती है और यहां का तेवरीकार कह उठता है-

फांसी तुमको जब लगी भइया बेंजामीन,

आंख-आंख-आंसू लदी भइया बेंजामीन।।

2. तेवरी नारी को भोग-विलास की वस्तु मानकर उसकी तिरछी चितवन, कमर की लचक, हिरनी जैसी चाल, गुलाबी कपोल , खूबसूरत कुच और नितम्बों से कोई रागात्मक सम्बन्ध स्थापित नहीं करती है। तेवरी के राग का विषय तो नारी का वह आत्मसौन्दर्य है, जिसके तहत एक मां, एक बहिन, एक पत्नी के रूप में नारी, पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर पारिवारिक एवम् सामाजिक दायित्वों का बोझ जटिल से जटिल परिस्थिति में उठाती हुई आगे बढ़ती है। यही कारण है कि कोठे की नृत्यांगना, देह व्यापार में लिप्त वैश्या से यह किसी भी प्रकार की रति सम्बन्धी रसात्मता ग्रहण नहीं करती बल्कि तेवरी की निगाह तो ऐसी नारी के उस विवश जीवन पर टिक जाती है जिसमें-

नर्तकी के पांव घायल हो रहे

देखता एय्याश कब यह नृत्य में।

या

सभ्यताओं के सजे बाजार में

बन गयी व्यापार नारी दोस्तो। [दर्शन बेज़ार]

तेवरी के राग का विषय वह चांदनी रात नहीं हो सकती, जिसमें दो कथित प्रेमी चुम्बन-विहंसन की क्रियाएं सम्पन्न करते हैं, उसे तो यह चांदनी रात जिस्मों को घायल करने वाली रात नजर आती है, जिसमें एक अनैतिक गर्भधारिणी सामाजिक प्रताड़ना का शिकार बनती है-

चांदनी ने आदमी के जिस्म छलनी कर दिये

क्या खिलाए गुल यहां पर धूप भी अब देखिए। [अजय अंचल]

3. तेवरी के आत्म अर्थात रागात्मक चेतना में प्रतीक रूप में आए पात्र, ऐसे संघर्षशील जुझारू पात्र होते हैं, जिन्होंने अपनी नैतिकता को किसी न किसी स्तर पर बचाते हुए लोकतान्त्रिाक मूल्यों की स्थापनार्थ सत्योन्मुखी उदाहरण प्रस्तुत किए हैं-

आओ फिर ‘बिस्मिल’ को साथी याद करें,

फिर गूंजे यह जमीं क्रांति के नारों से। [दर्शन बेज़ार]

4. तेवरी का आत्म उस कथित वीर साहसी का आत्म नहीं जो अपने साम्राज्य या सत्ता विस्तार के लिये लगातार अपनी सेनाओं को युद्ध की आग में झोंकते हुए आनन्दातिरेक में डूबता चला जाता है। ऐसी रसात्मकता को एक तेवरीकार मात्र हिंसक और घृणित कार्रवाई मानता है-

‘विजय पताका भाई तुम कितनी फहरा दो?

वांछित फल पाया है किसने बन्धु समर में?

5.तेवरी की प्रतीकात्मक या व्यंजनात्मक व्यवस्था एक तेवरीकार के उन रागात्मक सम्बन्धों को प्रकट करती है, जो उसने उन लौकिक प्राणियों के साथ स्थापित किए हैं, जिन्हें गोश्तखोरों ने अपना शिकार बनाया है-

इन मृगों की मेमनों की हाय रे अब खैर हो

घूमती जंगल में हिंसक शेरनी अब देखिए। [अजय अंचल]

6. भक्तिकालीन कविता में व्यक्त ईश्वरीय प्रेम या अलौकिक शक्तियों के प्रति आस्था, एक तेवरीकार की रागात्मकता का विषय इस कारण नहीं बन पाती, क्योंकि कवि अपनी वैज्ञानिक और यथार्थपरक दृष्टि के कारण यह विचार करता है कि कथित ईश्वरीय या अलौकिक शक्तियों के प्रति रखा गया राग, जीवन की समस्या का समाधान किसी भी स्तर पर नहीं कर सकता, बल्कि इस प्रकार की रागात्मकता किसी न किसी स्तर पर अन्धविश्वास को जन्म देती है। शोषण, धार्मिक उन्माद, साम्प्रदायिकता का माहौल बनाती है-

देवता की मूर्ति के पीछे

हो रहीं व्यभिचार की बातें।

[ज्ञानेन्द्र ‘साज’]

कथा ‘सत्यनारायण’ की सुनकर

सत्य तो सबने मरोड़े साहिब।

[योगेन्द्र शर्मा]

7.तेवरी का राग उस भाईचारे और निस्वार्थ प्रेम में व्यक्त होता है, जिसमें एक करुणाद्र प्रेमी किसी गरीब, निर्धन, असहाय की सहायता करने के लिये उसे हँसकर गले लगा लेता है-

‘हँस के मुफलिस को लगा ले जो गले

ऐसे माशूक की जरूरत है।

[विक्रम सोनी]

8. तेवरी उस शराबी के प्रति कतई अपनी रागात्मकता व्यक्त नहीं करती जो झूम-झूम कर सारे के सारे सामाजिक वातावरण को पीड़ा देता है। तेवरी की रागात्मक चेतना तो उस परिवार या समाज के प्रति सहानुभूति रखती है जो इस विकृत मानसिकता का शिकार होता है-

हर बार किये प्रश्न शराबी निगाह से

क्यों जी रहे हो जाम की मुद्रा लिये हुए?

[गिरिमोहन गुरु]

मयकदों में पड़े हैं गांव के मालिक

हो गया बरबाद हर घर बार झूठों से।

[कृष्णावतार करुण]

अतः उक्त विवेचन के आधार पर हम सारांश रूप में यह कह सकते हैं कि तेवरी का आत्म न तो वीरगाथाकालीन रौद्रता, बर्बरता से भरा हुआ कोई कथित साहसपूर्ण कारनामा है, न भक्तिकाल की कोई कीर्तनियां मुद्रा है, न रीतिकाल की वह रागात्मकता है जो अपनी विशेष आलंकारिक शैली में दो प्रेमियों को आलिंगनबद्ध करे-रिझाये, देहभोग तक पहुंचे। न छायावाद और प्रयोगवाद का ऐसा प्रकृति चित्रण है, जिसके द्वारा यौनकुंठाओं को तुष्ट किया जा सके और न अकविता के दौर की कोई ऐसी प्रस्तुति है, जिसके माध्यम से कोई कवि, कविता के साथ बलात्कार करे।

तेवरी के आत्म का विस्तार तो उन रागात्मक सम्बन्धों के बीच देखा जा सकता है जो पति-पत्नी, मां-बेटे, बहिन-भाई, भाई-भाई, पिता-पुत्र आदि के बीच प्रगाढ़ प्रेम और स्नेह में व्यक्त होते हैं। इससे भी आगे बढ़कर तेवरी की रागात्मकता, उस समाज, राष्ट्र और विश्व की रागात्मकता है, जिसमें अपने और पराये का कोई अन्तर नहीं रह जाता। स्वार्थ, शोषण, अहंकार-तुष्टि की सारी की सारी किलेबन्दी भरभरा का बिखर जाती है।

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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630

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रचनाकार: तेवरी में रागात्मक विस्तार / रमेशराज
तेवरी में रागात्मक विस्तार / रमेशराज
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