(प्रस्तुत निबन्ध लेखक द्वारा वरिष्ठ वर्ग में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नागरी लिपि परिषद नई दिल्ली द्वारा आयोजित प्रतियोगिता -95 -96 हेतु लिखा...
(प्रस्तुत निबन्ध लेखक द्वारा वरिष्ठ वर्ग में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नागरी लिपि परिषद नई दिल्ली द्वारा आयोजित प्रतियोगिता -95 -96 हेतु लिखा गया व पुरस्कृत हुआ)
नागरी लिपि के उद्भव और विकास को जानने के लिए यह आवश्यक है, कि हम पूर्ववर्ती साहित्य को देखें। प्राचीन काल के साहित्यिक ग्रन्थों वैदिक और बौद्ध साहित्य को देखने से स्पष्ट होता है, कि भारत में लेखन कला का प्रचार चौथी शताब्दी ई0 पू0 से बहुत पहले उपलब्ध था; जब कि इसके विपरीत योरोपीय लोगों का मानना है कि भारतीयों ने चौथी, आठवीं या दसवीं शती ई0 पू0 में लेखन कला का ज्ञान प्राप्त किया। जो कि मेरी दृष्टि में नितान्त सारहीन ,खोखला तथा भारतीयों को सांस्कृतिक दृष्टि से निम्न स्तर का प्रमाणित करने का षडयंत्र है।
नागरी लिपि का प्रयोग उत्तर भारत में 10 वीं शताब्दी से पाया जाता है। तो वहीं दक्षिण भारत में इसका प्रयोग 8 वीं श्ाती में ही विद्यमान था। जहां इसका नाम नंदिनागरी था। उत्तर और दक्षिण भारत के लिपि सम्बन्धी प्रयोग देखने के बाद यह तो स्पष्ट ही है ; कि 10 वीं शताब्दी में देवनागरी नाम प्रचलन मे था। दसवीं शताब्दी से आज तक देवनागरी की वर्णमाला मे पर्याप्त विकास हुआ। इसका स्वरूप शनैः -शनै : सुन्दर से सुन्दर तर अक्षरों के रूप में बदलता गया। जहां तक शिलालेख ,ताम्रपत्र, अभिलेख आदि का सम्बन्ध है तो इस काल में लिखे गए राजस्थान, संयुक्त प्रान्त, बिहार, मध्य भारत तथा मध्यप्रान्त के सभी लेख देवनागरी लिपि में ही पाये जाते है।जिनसे देवनागरी के उद्भव व विकास के क्षेत्र में सामग्री जुटाने हेतु पर्याप्त बल मिलता है।देवनागरी लिपि के विकास व प्रारम्भिकी स्थिति पर कुछ निष्कर्ष सामने आते हैं। जैसा कि दसवीं शताब्दी की नागरी में कुटिल लिपि की भांति अक्षरों का सिर चौड़ाई सदृश्ा और दो भांगों में विभाजित होता था। किन्तु ग्यारहवीं शती की नागरी लिपि वर्तमान देवनागरी से मिलती -जुलती है। बारहवीं शताब्दी आते -आते यह पूर्णतया आज की वर्तमान वैज्ञानिक लिपि देवनागरी हो जाती है अर्थात् आधुनिक समय की देवनागरी लिपि आज से नौ सौ साल पहले की नागरी लिपि का ही परिष्कृत रूप है। जिसने समय व परिस्थितियों के साथ स्वंय को बदला है। सभी से अनुकूलन कर सामंजस्य स्थापित किया है। देवनागरी ,नागरी की दसवीं शताब्दी से आज तक की विकास यात्रा पर डॉ0 गौरी शंकर हीराचन्द ओझा जी ने पर्याप्त प्रकाश डाला है। उनके अनुसार-'' ईसा की दसवीं शताब्दी की उत्तरी भारत की नागरी लिपि में कुटिल लिपि की नाई अ, आ, प, म, य, श् औ स् का सिर दो अंशों में विभाजित मिलता है, किन्तु ग्यारहवीं शताब्दी मे यह दोनों अंश मिलकर सिर की लकीरें बन जाती हैं और प्रत्येक अक्षर का सिर उतना लम्बा रहता है जितनी कि अक्षर की चौड़ाई होती है।ग्यारहवीं शताब्दी की नागरी लिपि वर्तमान नागरी लिपि से मिलती -जुलती है और बारहवीं शताब्दी से लगाातार आज तक नागरी लिपि बहुधा एक ही रूप मे चली आती है। '' ( भारतीय प्राचीन लिपि माला पृष्ठ संख्या- 69-70)
अन्य सार्थक पहलुओं के साथ देवनागरी लिपि के विकास मे अंकों की भूमिका भी अत्यन्त महत्वपूर्ण रही है, जिनका विकास क्रमिक रूप से हुआ है जो अंक -1 सातवीं और आठवीं शताब्दी तक पड़ी रेखा (-) के रूप मे लिखा जाता था। वही परिष्कृत होकर दसवीं शताब्दी आते -आते सीधी (।) खड़ी रेखा में लिखा जाने लगा। इसी भांति 2 और 3 की भी स्थिति हुई; जो आगे चलकर आज के इन वर्तमान रूप एवं स्वरूपों को प्राप्त हुए।
देवनागरी के नामकरण के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मत भेद रहा है। देवनागरी अथवा नागरी लिपि नाम क्यों पड़ा ? इस पर विभिन्न विद्वानों ने अपने -अपने विचार व्यक्त किये है। एक किन्तु ठोस सर्वमान्य मत कोई प्रस्तुत नहीं कर सका है। फिर भी हम प्रत्येक पर क्रमश्ाः प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे-
1-कुछ विद्वान इसका सम्बन्ध नागर ब्राह्मणों से लगाते हैं, जो कि गुजरात में अधिक संख्या में हैं तथा वे इसका प्रयोग करते थे। इसी लिए यह लिपि देवनागरी कही जाने लगी।
2-एक दूसरे मत के अनुसार नागरी अर्थात् नगरों में प्रचलित होने के कारण नागरी कहलायी। नागरी से पूर्व 'देव' शब्द देवताओं का वाची है और इसी आधार पर इसे देवनागरी कहा जाता है।
3-इस मत के अनुसार - तान्त्रिक मन्त्रों में बनने वाले कुछ चिन्ह देवनगर कहलाते थे जिनसे मिलते -जुलते होने से इसका नाम लिपि से जुड़ गया और यह लिपि देवनागरी हो गयी।
4-आइ0 एम0 शास्त्री जी के विचारानुसार - ''देवताओं की मूर्तियां बनने के पूर्व सांकेतिक चिन्हों द्वारा उनकी पूजा होती थी। ये चिन्ह कई त्रिकोण तथा चक्रों आदि से बने हुए मंत्र थे; जो देव नगर कहलाता था के मध्य लिख जाते थे। देवनगर के मध्य लिखे जाने के कारण अनेक प्रकार के सांकेतिक चिन्ह कालान्तर में उन -उन नामों के पहले अक्षर माने जाने लगे और देवनगर के मध्य में उनका स्थान होने से उनका नाम देवनागरी हुआ।''
5- ललित विस्तार में संकेतित '' नाग'' लिपि नागरी है। 'नाग' से नागरी होना सरल है का उल्लेख मिलता है। जिसका तीव्र विरोध करते हुए डा0 एल0डी0 वार्नेट ने कहा है-''कि 'नागलिपि' का नागरी लिपि से कोई सम्बन्ध नहीं है।''
6-काशी (वाराणसी) का दूसरा नाम देवनगर है। यहां प्रचलित होने के कारण देवनागरी स्पष्ट शब्दों में यही देवनागरी है।
7-डॉ0 धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार -मध्य युग में स्थापत्य की एक शैली नागर थी। उसमें चतुर्भुज आकृतियां होती थीं। इन चर्तुमुखी आकृतियों के कारण ही इसे देवनागरी कहा गया।
उपयुक्त सभी मत देखने से स्पष्ट होता है, कि सभी परस्पर विरोधी हैं तथा एक -दूसरे से अत्यन्त दूर जान पड़ते हैं। नागरी शब्द नागर से निर्मित हुआ है जिसका अर्थ है -नगर का अर्थात् सभ्य, शिष्ट और शिक्षित। वस्तुतः जिस लिपि में सभ्य, शिष्ट, सुसंस्कृत और परिष्कृत रुचि वाले व्यक्यिों द्वारा साहित्य रचा और लिखा गया ।वही नागरी लिपि कहलायी और कालान्तर में अपने विकास के आयामों का स्पर्श करती हुई देवनागरी लिपि के रूप में जानी जाने जगी ।
देश व समाज में होने वाले सांस्कृतिक ,राजनीतिक व नैतिक परिवर्तनों सें भाषा व लिपि अछूती रह जाए ऐसा तो संभव ही नहीे है। देवनागरी लिपि पर भी देश की परिवर्तित परिस्थितियों, सांस्कृतिक आक्रमणों ,राजनीतिक अस्थिरता, सामाजिक, धा`िर्मिक आन्दोलनों का पर्याप्त प्रभाव पड़ा। देवनागरी लिपि विभिन्न भाषाओं और उनके प्रभावों से प्रभावित हुए बिना न रह सकी।देवनागरी को सर्वाधिक प्रभावित किया है फारसी ने। क्योंकि भारत भूमि फारसी के प्रभाव में निरन्तर आठ सौ वर्षौं तक रही है। यही वह समय भी था। जब नागरी विकास के सोपान चढ़ रही थी और ऐसी स्थिति में अधिक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। जिसके परिणाम स्वरूप देवनागरी में जिह्नामूलीय ध्वनियां क, ख, ग,फ, आदि विकसित हुईं। डॉ0 भोलानाथ तिवारी के अनुसार-'' नागरी में नुक्ते या बिन्दु का प्रयोग निश्चित रूप से फारसी का प्रभाव हैं मध्य युग में कुछ लोग य, प दोनों को य जैसा और व, ब को व लिखने लगे थे। फारसी के बाद यदि किसी भाषा या संस्कृति ने सर्वाधिक प्रभावित किया है; तो वह अंग्रेजी ही रही है। जिसके प्रभाव वश देवनागरी लिपि में अनेक परिवर्तन हुए। परिणामत : आज भी यदि कोई अंग्रेजी पढ़ा-लिखा देवनागरी में लिखता है, तो वह अंग्रेजी की ही भांति बिना लेखनी उठाये लिखता चला जाता है। अंग्रेजी ने हमारे विराम चिन्हों ,उद्धरण चिन्हों, अल्प -अर्द्ध विराम आदि को भी प्रभावित किया है। यदि हम पूर्ण विराम को छोड़ दे तो लगभग सभी पर अंग्रेजी का प्रभाव परिलक्षित होता है। कुछ विद्वजन तो ऐसे भी देखे जा सकते हैं जो आज तक पूर्ण विराम के लिए पाई (। ) का प्रयोग न कर केवल (ं ∙) बिन्दु का उपयाग करते हैं बल्कि यह दुर्भाग्य अथवा लिपि के भाग्य की बिडम्बना ही कही जाएगी। कि आज भी कुछ हिन्दी पत्रिकाएं पूर्र्ण विराम के लिए मात्र बिन्द ु(∙) को ही मान्यता देती हैं। अंग्रेजी प्रभाव के सन्दर्भ में डॉ0 भोलानाथ तिवारी का मत है कि-'' भाषा के प्रति जागरूकता के कारण कभी-कभी ह्नस्व ए ,ओ के द्योतन के लिए अब ऐं , ओं का प्रयोग भी होने लगा है।''
बंगला लिपि का देवनागरी के विकास पर कोई विशेष प्रभाव न पड़ सका। हाँ डॉ0 मनमोहन गौतम का मत अवश्य इस सम्बन्ध मे उदधृत करना चाहेंगे। उनके अनुसार- ''अक्षरों की गोलाई पर बंगला का प्रभाव अवश्य दिखलाई पड़ता है। चौकोर लिखे जाने वाले अक्षर अब गोलाई में लिखे जाने लगे हैं।''
मराठी ने भी देवनागरी लिपि को प्रभावित करने में कोई कृपणता नहीं की। बल्कि इसके प्रभाववश एक ही वर्ण दो -दो रूपों में प्रचलित हुआ है। उदाहरणार्थ -न्न्र -अ, भ - झ आदि।
गुजराती लिपि ने भी देवनागरी को प्रभावित किया है। चूँकि गुजराती लिपि शिरोरेखा विहीन लिपि है। इस कारण परिणामतः आज भी अनेक विद्वान शिरोरेखा के बिना ही लिखते चले जाते हैं। जिनमें से अधिसंख्य गुजराती साहित्य से प्रभावित ही हैं।
देवनागरी लिपि की विशेषताओं पर यदि हम दृष्टि डालें तो पाते हैं ,कि यह आज की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है। जिसकी सर्व प्रिय विशेषता है - जैसा लिखना वैसा पढ़ना। इसमें अंग्रेजी अथवा उर्दू की भॉति लिखा कुछ और पढ़ा जाता कुछ नहीं ; बल्कि इसकी ध्वनियां इतनी पूर्ण व सशक्त हैं, कि इसमें जो जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोलकर पढ़ने की अपूर्व क्षमता है। इसके उच्चारण स्थान मुख, तालु , मूर्धा, दन्त्य और ओष्ठ में विभाजित है। जिस क्रम में उच्चारण के स्थान हैं। ठीक वही क्रम स्वर व व्यंजन के विभाजन का भी है। इसमें स्वर -व्यंजनों की तरह एक ही वर्ण को कई -कई ध्वनियों के रूपों में प्रयोग नहीं किया जाता है, बल्कि प्रत्येक ध्वनि के लिए एक अलग वर्ण है। संसार की किसी भी भाषा -लिपि में स्वरों की मात्राएं भी निश्चित नहीं हैं। लेकिन देवनागरी लिपि के स्वरों की मात्रायें भी निश्चित की गई हैं। यह ध्वनि प्रधान लिपि है। वर्णों का क्रम उच्चारण स्थानों के आधार पर क्रमबद्ध किया गया है।प्रत्येक उच्चारण स्थान की ध्वनि भिन्न होती है। किसी भी ध्वनि के लिए हमें किसी प्रकार की न्यूनता का आभास नहीं होता है। तुलनात्मक दृष्टि से भी देखें तो देवनागरी लिपि अति उत्तम है।अंग्र्रेजी और उर्दू की भॉति वर्ण संकेतों की अल्पता नहीं है। कुँवर को कुनवर ,जेर जेबर, पेश का अभाव जैसी समस्यायें भी नहीं हैं। बल्कि इसमे मात्राओं का निश्चित विधान मिलता है। ह्नस्व और दीर्घ की मात्राएं भी निश्चित हैं।
निष्कर्षत : नागरी के नाम से आरम्भ की गई अपनी यात्रा के अनेक पड़ावों ,भाषायी प्रभावों मत - मतान्तरों आदि को अपने में आत्मसात करती हुई देवनागरी अपने विकास के उच्चतम शिखर की ओर बढ़ रही है। जिसमे उसकी सरलता, बोधगम्यता ,उच्चारण की शुद्धता, वैज्ञानिकता ध्वनि लिपि की विशेषता पर्याप्त योग देकर नूतन आयामों को स्पर्श कराने में सहयोग कर रही है। आशा है कि लिपि देवनागरी अपने लक्ष्य तक की यात्रा बड़ी सुगमता से पूर्ण कर लेगी।
शशांक मिश्र भारती संपादक - देवसुधा, हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर - 242401 उ.प्र. दूरवाणी :-09410985048/09634624150
Most world languages have modified their alphabets and use most modern alphabet in writings. Vedic Sanskrit alphabet have been modified to Devanagari and to simplest Gujanagari(Gujarati) script and yet Hindi is taught in a very printing ink wasting complex script to millions of children in India.
जवाब देंहटाएंWhy not adopt a simple script at national level?
Indian states can retain their languages,scripts and culture by teaching government propagated Hindi/Sanskrit in regional scripts to impart technical education through a script converter or in India's simplest Gujanagari script along with a Roman script to revive Brahmi script. Maharashtra has lost Modi script in 1950 in order to teach three languages in one script. Bihar also has lost Bhojapuri(Kaithi) script in 1894.
Westerners were able to simplify Brahmi script to their proper use but Sanskrit pundits ended up creating complex script by adding lines and matras on letters.These pundits also have divided India further by creating various complex scripts for regional languages/dialects under different rulers.
http://www.ancientscripts.com/brahmi.html
अ आ इ ई उ ऊ ऍ ए ऐ ऑ ओ औ अं अं अः...........Devanagari
અ આઇઈઉઊઍ એ ઐ ઑ ઓ ઔ અં અં અઃ..........Gujanagari(Gujarati)
a ā i ī u ū æ e ai aw o au an am ah.......Roman
क ख ग घ च छ ज झ ट ठ ड ढ ण
ક ખ ગ ઘ ચ છ જ ઝ ટ ઠ ડ ઢ ણ
ka kha ga gha ca cha ja jha ṭa ṭha ḍa ḍha ṇa
त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व
ત થ દ ધ ન પ ફ બ ભ મ ય ર લ વ
ta tha da dha na pa pha ba bha ma ya ra la va
श स ष ह ळ क्ष ज्ञ
શ સ ષ હ ળ ક્ષ જ્ઞ
sha sa ṣa ha ḽa kṣa gya
क का कि की कु कू कॅ के कै कॉ को कौ कं कं कः
ક કા કિ કી કુ કૂ કૅ કે કૈ કૉ કો કૌ કં કં કઃ
ka kā ki kī ku kū kæ ke kai kaw ko kau kan kam kah