1- अजन्मा कर्ज़दार जान गयी हूँ माँ ! मरना नियति मेरी और मुझे मारना , तुम्हारी मजबूरी पर मैं नहीं चाहूंगी मेरी हत्या तुम्हे अभि...
1- अजन्मा कर्ज़दार
जान गयी हूँ माँ ! मरना नियति मेरी
और मुझे मारना , तुम्हारी मजबूरी
पर मैं नहीं चाहूंगी
मेरी हत्या तुम्हे अभिशप्त करे
नहीं ये भी चाहती माँ
तुम्हें होना पड़े
लगातार चौथी बार पदाक्रांत
बेटी हूँ, जानती हूँ, नहीं हूँ
तुम्हारे प्रत्यर्थ
पर हूँ आज इतनी समर्थ
तीन माह के जीवनदान के बदले
चुका सकती हूँ
ममत्व का क़र्ज़
अपने नन्हें कोमल हांथों से
करके अपना आत्मोसर्ग |
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2- परिनिर्णय
तुम्हारे पुरुषत्व की अहं -रेख पार कर सकूँ
इतना साहस है मुझमें
एक अज्ञात भय के साथ
परिवर्तन की
आकांक्षा भी है !
नकारात्मकता का संहार
सकारात्मकता की विजय
भ्रमित, आशंकित नेत्रों की
अग्नि परीक्षा में
जलूँगी भी नहीं ,
जानती हूँ !
जल कर राख हो जाने को ही सत्य की कसौटी
मानते कुछ लोग
सहज होता उनके लिए केवल उपभोग
इन्द्रियाँ कहाँ होतीं उनकी इतनी सबल ,
होता कहाँ इतना आत्मबल ?
पहचान संकट से गुजरते हुए लोग
पहचानने का दंभ भरते हैं
जानता हूँ कैसी है !
का तंज कसते हैं
चीरती रहती हूँ , भीड़ और सुनसान
लिये मुट्ठियों में भस्म मसान
प्रलय से फटी वसुंधरा में , समाऊँगी नहीं
जीवन सरिस सौन्दर्य , कहीं पाऊँगी नहीं
जानती हूँ
हर युग में हमारी जरुरत है तुम्हे
लौटूंगी बार –बार
बनके सर्जना का विस्तृत आगार
पर ये संकल्प शब्द
मेरे आर्द्र मन की व्यथा
नारीमन की विवशता नहीं
प्रकृति हूँ !
आत्मसात मुझमे
सृष्टि का नवनिर्माण ..
पर जिस दिन !
तुम मेरे मर्म को
विवशता से तौलोगे
अस्तित्व को
पौरुष की लाठी से तोड़ोगे
तब मेरा परिनिर्णय होगा
अन्तर्निहित अग्निबल का वरण
जो मेरे मरण पर नहीं
संकल्प ,सबलता और सनातन अस्तित्व से अंकुरित होगा |
3-नारी
सदियों से माया ,ममता ,विश्वास रही मैं तुम्हारी
सृष्टि के प्रथमाक्षर से /जीवन के अंतिम क्षण तक
तुम सुन निहार सकते हो / दृढ़ मृदु पदचाप हमारी
मैंने बांहों मे अपनी, है देवों को भी पाला
पीडक हो या पातक हो /कब ममता ने है टाला
दारुण, अथाह ,दुःख सहकर / पालक हूँ बनी तुम्हारी
तुम ...........
जब शीतलता की आस लिए ,मेरे द्वारे पर तू आया
गहन विषादों के क्षण में ,है आँचल की दी छाया
बन प्रातराश की मृदुता / मुस्कान मुखों पर वारी
तुम......
कितने अपराध तुम्हारे / संकल्प ने मेरे धोये
शापित, तापित, निष्काषित /जीवन के हर सुख खोये
चुपचाप रही सब सहती / पीकर अमृत विषकारी
तुम....
प्रतिबोध गान ये मेरा, विस्मित हो विश्व सुनेगा
हर दाहक, नाशक क्षण भी /अभिधान हमारी गुनेगा
क्षण परिवर्तन का आया /है नियति भी हमसे हारी
तुम....
4 –दीदी
आज चौथी बार तिरस्कृत होकर लौटी
दीदी की तस्वीर
बाबूजी के जूते , अम्मा की सांसें
भैया के सपने , छुटकी के खिलौने
और मेरी ख़ुशी ,
एक बार फिर
दीदी के हाथों की लकीरों - सा कट गए
बाबूजी की जेब का हल्कापन
सभी दिलों को भारी कर गया
दीदी का घरोंदा
हल्केपन के भार से दब गया
पर ,
दीदी फिर घरोंदे बनायेगी
विश्वास की नीव डालेगी
आशा के दीपक जलायेगी
एक गुड़िया सजायेगी , प्यार करेगी उसे , बियाहेगी
पर ,
दीदी की भीगी आँखे , ढलती साँसे और सूनी माँग देख
क्या गुड़िया ससुराल जायेगी ?
5- इंतज़ार
बाज़ार गयी बेटी
माँ की साँसें बाप की इज्ज़त
गठिया ले गयी ,फटे दुपट्टे के कोने में
कभी भी फट सकता है दुपट्टे का कोना
बाज़ार की बीरानी में
डर है, कहीं खुल ना जाये, दुपट्टे की गाँठ !
शायद
इसीलिए सहमी है ,दरवाज़े पर टिकी माँ की साँसें
और बाप की आँख ..........................
6– सबूत
एक रात बाहर गुज़ार लौटी लड़की
अग्निपरीक्षा हेतु चक्षुकुण्ड ले दौड़ी
सारे मुहल्ले की आँखें
गुजरी रात का सच भी
ना बचा सका उसे
कैसे बताये
सुनसान रास्ते पर ,बिगड़ी बस में
अजनबी पिपासु नेत्रों ,कुंठित शब्दों ,अमर्यादित भावों की
अनलशिखा में
कितनी देर, देती रही अग्निपरीक्षा
अवध हो या लंका
हर हाल में देना पड़ता है
भरमाई आँखों को सबूत अपने होने का |
7 - शाश्वती
घुटाता रहा उसे हर सफ़र
रसोई से दफ्तर तक, चूल्हे से ओवन तक
बिना तपे कहाँ दे पायी स्वाद ?
सिल-बट्टे से लेकर मिक्सी तक
बिना पिसे कहाँ दे पायी रंग ?
पतीले की खुरचनी से होटल की मेज तक
खंघालती रही अपनी भूख ?
मोटी मारकीन से कांजीवरम तक में
चुभती रही हर आँख ?
फिर भी
पिता, पति, पुत्र ,परिवार
संजोए संस्कार ,प्रथाएं
मंचित करती सार्थक भूमिकाएं
जीती उर्वर आशाएं
लहलहाता उसका कर्मपथ
शाश्वत,सनातन ,अनवरत |
8-केश तुम्हारे
जब तुम्हारा निर्दोष बचपन
घुँघराले बालों में चहकता
जीवन निश्चलता का भाव परोसता
दो चोटियों में बंधकर
सयानी होती बातों को
अवसर प्रदान करता, स्वछंद होने का
परिणीता पलों में केश तुम्हारे
जीवन मृदुता का पान कराते
भीगे बालों तुलसी के लेती फेरे
ममत्व के आभास बिखेरे
जूड़े के रूप में बंधकर
दृढ़ता ,मर्यादा साकार कर
साक्षात्कार कराता, जीवन के सत्य का
परन्तु ....................................
जब कभी कोई दु:साशन बन
निश्छलता ,स्वछन्द्ता ,मृदुता, ममता और दृढ़ता को चुनौती देता
फिर
पांचाली का प्रण बन
कुरुक्षेत्र - सा विध्वंश दोहराता |
9- मेरी कहानी
मैं शोकगीत तेरे आंगन की
पीहर बन ,मंगल गीत गयी
डोली, अर्थी, खुशियाँ , आँसू
गुड़िया, बेटी, अम्मा , सासू
आँगन से लेकर देहरी तक
मेरी सारी साँसें रीत गयीं
मैं शोकगीत तेरे आंगन की
पीहर बन ,मंगल गीत गयी
भैया के सपने ले आयी
मैया के गहने ले आयी
बाबुल की फटी कमीजों का
छोटा - सा टुकड़ा ले आयी
चूल्हे से लेकर बासन तक
मेरी सारी जवानी बीत गयी
मैं शोकगीत तेरे आंगन की
पीहर बन ,मंगल गीत गयी
बेटी हूँ बचपन छीन लिया
गुड़िया से पहले शादी की
पत्नी हूँ यौवन दान किया
बन जैसे पुतली माटी की
माँ हूँ ! छिडकी, ताने सुन लूँ
कीमत लौटी बाती की
किलकारी से सिसकारी तक
मेरी सारी कहानी बीत गयी
मैं शोकगीत तेरे आंगन की
पीहर बन ,मंगल गीत गयी |
10- चंडी तू नर्तन करती जा !
चंडी तू , नर्तन करती जा !
अरि शीश गिरे, मत गिनती जा
वाणी तेरी , हुंकार भरे
संताप मिटे, तू हँसती जा
आँखें तेरी, ज्वाला बरपे
सब पाप जले, तू दहकी जा
ये केश, प्रलय घन तेरे
विध्वंश करे, तू घिरती जा
हे अष्टभुजी ! कर शस्त्र धरे
संहार करे, तू चलती जा
दृढ़ ,मर्यादित, शुभ कर्मों से
विषमर्दन हो, तू कुचलती जा
अरि शीश गिरे, मत गिनती जा
चंडी तू नर्तन करती जा
तेरा ये तांडव नर्तन
करने को अनास्था मर्दन
संताप सभी हृद्यों का
सुन विश्व पुकार रहा है
तू हरती जा, तू हरती जा
चंडी तू ,नर्तन करती जा
अरि शीश गिरे मत गिनती जा |
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1 - रिश्ते
इस तरह भी हम रिश्तों को जी लेतें हैं
एक दो मिस्स्ड काल , या मेसेज
फेसबुक पर तस्वीरों को लाइक कर देतें हैं ....
पुराने एलबम से चिपकी नम तस्वीरें निकाल बाहर
पलों को जबरन लौटाने की कोशिश
और फिर खट्टी- मीठी यादों को देख
तस्वीरों से ही बतिया लेतें हैं ..
इस तरह भी हम रिश्तों को जी लेतें हैं
बहुत दिनों बाद मिले , कहो कैसे हो ?
हो गए हो मोटे थोड़े - से
काम तो नहीं , कोई जरूरी
समय हो तो अगर !
कोई उनीदी - सी शाम बैठे -बिठाये
दो कप चाय और थोड़ी चटर – पटर
एक पल में भी
सदियों की मिठास भर लेते हैं
इस तरह भी हम रिश्तों को जी लेते हैं
जिक्र चलता जब भी कहीं रिश्तों का
नम आँखों से मुस्कुरा , खूबसूरत रिश्तों को मन में उतार
यूँ , कहकहों मे शामिल हो लेते हैं
इस तरह भी हम रिश्तों को जी लेते हैं |
2 - रे मन तू
रे मन तू सबकी लिख जाना !
धूप झोपड़ी / छांव महल की
शब्द रहट के / गीत चहकते
रे मन तू सबकी लिख जाना !
चिथड़ा आंचल / रेशम , मलमल
भीत दरकती / ईंट के जंगल
रे मन तू सबकी लिख जाना !
मौत की चीखें / गीत जन्म के
विदा के आंसू / चैन मिलन के
रे मन तू सबकी लिख जाना !
रूखे टुकड़े / मखनी दाल
बहता पानी / सूखे ताल
रे मन तू सबकी लिख जाना !
चन्दन तुलसी / भजन प्रभू के
मस्त कबीरे की साखी – से
रे मन तू सबकी लिख जाना !
3- भूख
भूख ऐसी आँख है जो
ना शहर , ना गाँव
ना धूप , ना छाँव
ना पहाड़ , ना खाई
ना पीर , ना सांई
कुछ नही देखती
ना छोटा , ना बड़ा
ना खोटा , ना खरा
ना यौवन , ना जरा
ना दिन , ना रात
ना धरम , ना जात
ना ऊंच , ना नीच
ना तनहा , ना बीच
महसूस ही नही करती
ना बाप , ना भाई
ना बहन , ना माई
ना अपनी , ना परायी
ना मातम , ना शहनाई
पहचानती ही नहीं ,
देखती है , सोचती है , महसूसती है , पहचानती है
सिर्फ गहराई अपने अहसास की
और नापती है इंसानियत का कद
कितना उठा , कितना गिरा
धरती का कलेजा चीरकर , उसके बोने और रोटी बनने तक !
जन्म : 1 मार्च
ग्राम- खेमीपुर, अशोकपुर , नवाबगंज जिला गोंडा , उत्तर - प्रदेश
दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान ,कादम्बनी,वागर्थ ,बया ,इरावती प्रतिलिपि डॉट कॉम , सिताबदियारा ,पुरवाई ,हमरंग आदि में रचनाएँ प्रकाशित
2001 में बालकन जी बारी संस्था द्वारा राष्ट्रीय युवा कवि पुरस्कार
2003 में बालकन जी बारी -युवा प्रतिभा सम्मान
आकाशवाणी इलाहाबाद से कविता , कहानी प्रसारित
‘ परिनिर्णय ’ कविता शलभ संस्था इलाहाबाद द्वारा चयनित
मोबाईल न. 8826957462 mail- singh.amarpal101@gmail.com
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