1. तीन वृत्त फिलहाल तीनों वृत्तों के मध्य के केन्द्र से परिधि खींचने की यात्रा से हो रहा। तुम, वो और वे के बीच खण्ड से जो बना है मैं व...
1. तीन वृत्त
फिलहाल
तीनों वृत्तों के मध्य के केन्द्र से
परिधि खींचने की
यात्रा से हो रहा।
तुम, वो और वे
के बीच खण्ड से
जो बना है मैं
वहाँ वास्तविक स्वयं का
देख रहा केन्द्र साक्षी
और कोशिश कर रहा मैं
खींचने की, वास्तविक परिधि,
जिससे
वे (माता -पिता)
छनकर आ जाएँ
उतना ही
जितना कि कुछ
मै स्वयं का हूँ
माता-पिता
वो..{ ईश्वरत्व (यदि हैं/हैं/हैं ही)}
वो भी उसी अनुपात में आ जाए
(जो अनुपात भी नहीं)
अपनी संपूर्ण तीव्रता से।
और
तुम (प्रेमिका/प्रेमिका/अन्य)
अपने-अपने मौलिकता में
हो आओ
परिधि सीमा में स्वतंत्र
और उभरो प्रतिमा सी सजीव
प्रेमिका के ठोस पत्थरत्व से,
फिर
जो सहज/पवित्र/चेतन दशा
हो आए
(रहे ना रहे)
वही वास्तविक
(मात्र काल्पनिक से इतर नहीं
या इतर से इतर ही नहीं)
स्वयं होऊँ मैं।
जिसका केन्द्र
अनायास, अप्रयास, नैसर्गिक हो निर्मित
(व्यक्तित्व की इमारत नहीं)
वहीं से अपनी परिधि
खींचना चाहता हूँ
जहाँ स्वयं ही नहीं
नहीं ही नहीं
बस हों
कुछ के कण।
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2. देवद्रोही
क्या ईश्वर पवित्रतम है वाकई?
या है कुछ,
कुछ जो पवित्रता के परे हो
हो अनंत आयामी।
विचार जहाँ थिरकते हो
अनजानी थाप से,
शून्य-सितार संग ध्वनित हो
अदृश्य उँगलियों के ताप पे।
जहाँ मस्तिष्क
मात्र मानव मांसपिंड हो
हृदय
लाल गोश्त का ताजा टुकड़ा
जहाँ आहार आवश्यक न हो
भूख से उठकर कोई तो है
कुछ तो है।
जहाँ जीर्णता के बावजूद
जीवन सांसमय है
जहाँ निर्वात का विनिमय है।
ईश्वर तो तुम ही हो
ईश्वर!
मगर श्रेष्ठतम हो यह कैसे मानूँ?
कुछ है
जो श्रेष्ठता देखता ही नहीं
कुछ जो विश्वास के अथाह में
कमलपात सा तैर रहा
तब कहीं आती हैं तुम्हारी देवी
देवियाँ!
(मेरी भी)
जिनमें यदा-कदा मुझे हो जाता है
कुछ दृश्यमान
तो हो जाता हूँ मानव।
किंतु
सदैव एक प्रतिकार है
संघर्ष है, विरोध है
जन्म का
जो ध्येयहीन है!
जिसकी ठोस वजह न ढूँढ़ पायी मानव जाति
और ये अनगिन योनियाँ भाँति-भाँति
क्यों आखिर क्यों?
क्या औचित्यहीन है जन्म वाकई?
ये जो प्रश्न उठते-बैठते हैं दिन-रात
घोर विवाद, विद्रोह लिए
यही, सदैव का यह देवद्रोह ही तो हूँ मैं
ये मैं हूँ
मैं वेदनांश हूँ
एक देवद्रोही।
ओ अखिल ब्रह्मांड के समस्त देवताओं!
आओ, मुझे बंदी बनाओ
तुम्हारे नरक को
स्वर्ग में
तब्दील करने को मैं बेताब हूँ
मैं चलता-फिरता एक देवद्रोही किताब हूँ।
****
3. आदमी न बन पाया
आज मैं हारा हुआ, थका
सुनसान मैदान में गिरा
कटा, निष्प्रभ, क्षतविक्षत
दुर्गत, हाय दुर्गति।
कहीं देवता नजर नहीं आते
नहीं आते
देवता नहीं आते
भ्रम, अतिभ्रम, भ्रममति।
कोई विरोधी नहीं
ये आत्मविरोध क्या?
मैं... मैं ही उधर भी
कितना ठूँठा, निस्सहाय, चुप
मैं स्वयं महज व्यक्ति!
सैनिक न हो सका
न बन सका योद्धा
यही पीड़ा ताड़े जा रही
खाने, चीरती फाड़े जा रही
कि हारता भी यदि
तो कुछ कर के, स्वमति।
पर
यहाँ एक ऐसा आदमी
रो भी नहीं सक रहा
अपने आदमी न हो पाने पर,
इस हौआ ने निगल ली
सारी पत्तियाँ, पुष्प,
भ्रूणावस्था के फल
और सोख लिया
तने से सारा लहू।
शापित केले का वृक्ष मैं
पर्ण- मानस-भित्ति
मस्तिष्क की पीड़ा
जो दिखती नहीं,
दूर नहीं
अर्ध-कालक्रीड़ा
क्या करूँ?
कर्तव्य से भागा
हाँ, आदमी न बन पाया
बालक क्या करे?
करे तो क्या करे?
कहाँ पाँव रखे (थके)
पीठ टिकाए पके,
कि सर गोद में रखना
कमजोरी है
लिखने की तरह की
और... अरे-
मृत्यु आत्महत्यावाली
पाप है।
पुष्ट पेड़ पीपल सा
या महासैनिक होने से पहले
सब न हो गया
शक्ल अपनी ही ज्यों
विकृत मानव की दशा
हाय! ये दिशा, ये गति!
ये जो सूख रहा आस्थाहीन
आत्मा जो बौनी हो गई कितनी
कुछ है
जो मुझमें इस तरह
दिन-दिन मरा जा रहा,
भीतर का देवता
बचपन में ही मर गया
और लदी हुई उमर
विश्वास नहीं कर पाती
होता है ईश्वर भी कुछ
ये अकाट्य, विकट, घोर असहमति।
मेरे देवता!
किसी तलछट में छुपे हो तो आओ
कोई भीम -काय जगत
नहीं सकता तुम्हे ठग
कि तुम
वो लौह मानव!
अपरास्त! अक्षत! अजेय!
योद्धा अमर-
कहाँ हो तुम!!
****
4. आत्मयंत्रणा
ओ!
जिसे सैकड़ों संबोधन पुकारकर हार गए
सुन रहे हो तुम
मैं खड़ा हूँ निस्सहाय
अपने ही जिस्म के कटघरे में
अपने ही समक्ष।
देखता हूँ
खाली है तमाम जगह
मगर मेरे भीतर से ही
कुछ मुझे दोषी कहता है
बावजूद तुम्हारे वकालत के।
असल में
आत्मयंत्रणा के कोठरी पर भी
तो रह गया था
लगाना रंग वेदना का,
यह जो आत्म-उत्सव सा
मन रहा क्षण-क्षण,
वही बह रहा कण
रक्तकणिकाओं में।
ओ मेरे लहू!
और बहो तेज
इतना कि फट जाए नाड़ियाँ,
चाहता है फरार हो जाना (और नहीं भी)
भीतर से
उम्रकैद की सजा काटता
एक देवद्रोही कैदी।
ये क्या, अरे तुझे तो लगाव हो गया
उसी कोठरी से
जो पल-पल तुम्हें करती है बाध्य
अंधेरे धुआँ की आवाजाही में प्राण छिपाने को,
ओ ढोंगी!
उठ, व्यर्थ तेरा दावा है
देख कोई घसीट रहा बाल पकड़कर,
ये तू ही!
कौन भुगतेगा और
तेरे किए की सजा (जो हुआ ही नहीं)
ये सलाकें द्वार की नहीं पिघलेंगी (बुद्धि)
दिखावे के आँसुओं से,
कोई फरिश्ता नही आएगा, उबारने
भुगत स्वयं
अपने नरक की सजा शेष।
सबसे परे हो जाने की इच्छा
पाप-पुण्य
मान-सम्मान
सत्-असत्
वाह रे बावले!
प्रथम नहीं तू मानव धरा का
कीड़े से बिलबिलाते लोगों में
एक तेरा भी नाम है
हाँ है!
हाँ तू! तू!
तेरे आदर्शों से भी ऊँची स्थिति
‘वेदनांश’
महज एक छलावा है
छलावा।
****
5. कुछ थके दावे
मेरे दावे थककर गिर गए
स्वीकारता हूँ
सुलझा नही सका व्यवस्था को
व्यवस्था के होने को।
नहीं कर पाया स्थापित
कोई एक विचार
जिस पर अवलंबित कर सकता था
विश्व के अस्तित्व को।
दे सकता था दिशा
जो सर्वाधिक उपयुक्त हो
समस्त ज्ञात आयामों के परिप्रेक्ष्य में।
हाँ भाई!
इन अर्थों में अवश्य मैं हार गया।
(और किसी और प्रकार की जीत का
कोई अर्थ भी तो नहीं)
ये मैं
थका, हारा, चूका सा
इसी धरती में हूँ
(नहीं होने सा)
क्या करूँ?
बिना ये जाने कि क्यों हूँ
हर क्षण हुआ जा रहा,
सब कुछ कितना आधारहीन सा
ये अराजकता
मानसिक अराजकता
एक इंच भी आगे न जा सका
न ले जा सका
दुनिया अपनी जगह जहाँ की तहाँ।
एक जीवन मुझमें हो रहा
मगर व्यर्थ जा रहा,
कुछ न कर सका
कुछ भी तो नही
दावे अर्थ खो बैठे
व्यर्थता दीमक सा चाट रहा।
मेरी ही धरती
मैं अजनबी सा विचरता हूँ,
मानव-मानव में कितना भेद है!
मगर यथास्थिति को स्वीकारना
एक नए ढंग के
अस्तित्वहीनता में गिरना है।
ठीक हूँ!
अपने खोखलाए दावे
असफल, अपूर्ण विचार
अमान्य जीवनशैली में।
दरअसल
कहीं भीतर जीवित है
कुछ, कुछ
साँस ले रहा मुझमें,
सब हार के बावजूद
मुसकरा रहा।
जानता हूँ
अभी बाकी है
साँस लेने का अर्थ।
****
6. कुछ तलाशते भीतर आ देखा
कुछ तलाशते भीतर आ देखा,
खनकते शब्दों के चील्हर
मुड़े पुराने संवादों के नोट संग
मन के गुल्लक में मिले।
संयुक्त गंध स्मृतियों की परिचित
कई हाथों से गुजरा स्पर्श-चित्त
स्वादहीन ये सिक्के, नोट
खोटे, फटे, अनचले।
कुछ, जब भी विनिमय को जाता
स्मृतिनगर में यही काम आता
स्वर्ण सिक्कों सा ताम्र-पत्रों सा
संभाल -संभाल रखा संवाद, शब्द मढ़े।
नही मालूम गुल्लक के बाद
इनका करते हैं क्या?
विनियमित होता है कोई
महत्वपूर्ण, आवश्यक, निर्विकल्प।
सब खनखनाहट, गंध वगैरह
संभवतः नए रूप लें, नव अर्थ लें
किसी खास मकसद को पूर्णता दे चले
कुछ की तलाश को और भीतरता भरे।
****
7. चलो ठीक है
चलो ठीक है
कुछ को अनसुलझे ही रहने दें
मै, ईश्वर, आत्मा आदि।
ये प्रश्न से खुद ही उठे
तो जवाब भी (यदि आते हैं तो)
भीतर से आएँगे
ये सोच, अनसुलझे ही रहने दें।
अब उसके आगे
कुछ
रेत की इमारत खड़ी करने सा
मगर जब तक वक्त आएगा
समय बिताने के लिए
करना है कुछ काम।
जब रेत खेलते
मौन दरिया के किनारे बैठे हैं
तो शब्दों के कंकड़ से
सार्थकता की सीपियाँ ढूँढ़ने के सिवाय
कर क्या सकते हैं?
बहुत संभव है
इनमें मोतियाँ समाएँ हों
जिनकी स्निग्धता, शीतलता, शांति
मौन-सा का अहसास करा जाए,
खाली वक्त में भी
कुछ सीपियों के इमारत पर
मोतियों का गुंबद सजा जाएँ,
तो मेरे भाई, आओ!
बुद्धि कि एक अच्छी छलाँग
इस गुंबद से है,
जो मौन के समंदर के ठीक अंदर जाएगी
आओ, एक भरपूर मौन स्वागत को है।
लगता है
हम यहाँ अपनी सुलझा सकते हैं
स्वयं का सिगार सुलगा सकते हैं
चलो ठीक है।
****
8. नाद-पल
अक्षरों की चाहरदीवारी में कैद
सिपाही कलम का
गिन रहा अंतिम आँसू।
आखिरी अक्षर के खून पर
मिलेगी रिहाई कल।
सलाकें कविता की
अब नही जाएँगी मोड़ी
और भीतर ही भीतर
खुद की बुद्धि मरोड़ी।
मात्राओं के दरवाजे पार
लगाना होगा छलाँग
शून्य के अथाह में।
मुक्त!
खुद के अजनबीयत से,
चोगा अजनबी जो है
शख्सीयत के विपरीत
दिया जाएगा बदल।
नए नागरिक जीवन में
लौटा दिया जाएगा
पुराना परिधान मौन का
और करूणा का निश्छल जल।
सिक्के भी सदियों पुराने
स्वतंत्रता के, पूर्ण-स्वतंत्रता के, समता के
समस्त आयामों पर,
घड़ी!
जो बंद हो गई
आज सीपी भरना है,
पुनः शंख सा ध्वनि देंगे (अक्षर नहीं)
सुइयाँ मेरे क्षण की
ज्यों अस्तित्व का नाद-पल।
****
9. शब्द पहेली
दैनिक, नियमित, परिवर्तनशील
जीवन के अखबार पर
मन मनोरंजन पृष्ठ सा।
जहाँ से जानते हैं
सहअभिनेता, अभिनेत्रियों के
चेहरे, नाम, पसंद, नापसंद
दिखने-दिखाने का समय।
ठीक उसी जगह
जाने-अनजाने सुबह से शाम तक
चुप से चौकोर खानों को
भरने का प्रयास करते
जुझते हैं शब्द पहेली से।
यही निर्धारक
आज के राशिफल का
क्योंकि वह शब्द ही है
जो माध्यम बनता है
मौन की
गहराई, रिक्तता और प्रार्थना में होने का।
आज ही जन्में जातक सा
कभी-कभी देख लेते हैं
उड़ान के क्षणों को,
जब-जब महसूसते हैं बदलाव
निर्धारित सा करते हैं
सफर का सही समय
उसी पंचांग के परिप्रेक्ष्य में
जो अंकित होता है
मन के मनोरंजन पृष्ठ पर
शब्द पहेली के साथ,
दरअसल शब्द पहेली में
ऊपर से नीचे या बाएँ से दाएँ
एक निश्चिचत क्रम में संवाद होता है,
नीचे से ऊपर का संवाद
प्रार्थना की माँग करता है,
कुछ मौन के
अखंड़, वर्गहीन, लकीर-शून्य भाषा का।
शब्द पहेली में
प्रत्येक रिक्त खंड़ प्रार्थना की ओर है,
प्रार्थना मौन है,
रिक्तता मात्र चार कोनों वाला वर्ग नहीं
समाज सा।
लकीरें जो खंड सा निर्मित करती हैं
मौन के होते होने पर
(व्यक्ति व्यक्तित्वशून्य)
वही रिक्तता के शाश्वतता का सूचक है।
रिक्तता है
जिसे पूर्ण करना है
उचित, उपयुक्त शब्द व्यवस्था से।
असल में
शब्द पहेली सुलझाना
मौन की दिशा में उठाया पहला कदम है,
प्रार्थना की ओर उठी पहली ध्वनि
प्रथम नाद क्रांति का।
शब्दों के शासन से
मुक्त होकर ही संभव है
मौन के सम तल में उतरना,
वस्तुतः
मन के मनोरंजन पृष्ठ से हो
बौद्धिकता के निरपेक्ष, तटस्थ, संपादकीय से होते
जीवन के अखबार को
उलटना पलटना मात्र नहीं है
अस्तित्व।
कुछ और है
कुछ!
बहुआयामी, सारगर्भित, व्यवहारिक
कुछ है!
जो जीवन के अलावा भी है,
जिसे जीवन के माध्यम से ही हुआ जा सकता है
जैसे प्रार्थना के मौन तक
शब्द पहेली से भी हुआ जाता है।
****
10. दोपहर
दोपहर भर घूमता रहा
दोपहर भर घूमता रहूँगा
क्या फर्क है?
और घूम ही तो आया मन
यही लिखते-लिखते।
जिनको दृष्टि खोजती, देखती
उस जगह भी तो नहीं वो
और देखूँ तो हर जगह हैं,
यहीं मेरे समीप, साथ, पास
और ये मेरे भीतर ही
मैं ही!
खोजने की चाह जिसको थी
जिसकी थी।
फिर!
कहाँ जा रहे हो
यह पूछ रहा कौन
अजनबी सूरत के भीतर से
मैं ही तो झाँकता,
कल से पहले
और आज के बाद भी।
लो, फिर किसके इंतजार में बैठ गए
यूँ पेड़ के तले नजरे झुकाए
पीले कपड़ों में,
क्या मालूम नहीं
जो रंग दिख रहा
वही तो तुम्हारा नहीं,
जो तुम्हारा है
सोख लिया गया है
जी लिया गया है,
ये जो आदत नजर आ रही
ज्ञात समस्त आदतों में
सबसे ताजी है, नई है
किंतु सबसे कम गहरी,
जाने कितना वक्त ले
ये स्थायी अंग बनने में
व्यक्तित्व का।
क्या लगता है तुम्हें?
कोई आएगा राह चलते
छिड़क जाएगा रंग
जीवन-मृत्यु के परे का।
मैं!
नही आएगा कोई
नहीं मिलेगा कोई
जानते हो
फिर भी खोजते हो
मानते हो
फिर भी प्रतीक्षारत हो
क्यों?
यही तो भुलावा है
शून्य से शून्य की दूरी
सत्य को खोजते
असत्य को छू जाना।
जब स्वयं से भिन्न
कुछ प्रतीत हो
तभी तो अनुभूति हो
कुछ अनावश्यक है,
किंतु, अब ये जरूरी तो नहीं,
छू-छू कर लौट आए
स्वयं को
कितनी बार,
और ये लौटते हो
वो भी तो तुम ही हो।
ये आने-जाने का क्रम,
लगता है
ये यंत्रवत् गति
वस्तुतः है ही नहीं,
सब अपनी जगह तो है
एक भ्रम मात्र ही
कि मैं जा रहा
मैं आ रहा
घूम रहा
दोपहर है।
***
परिचय
1 नाम सुजश कुमार शर्मा (SUJESH KUMAR SHARMA)
2 शिक्षा एएमआईई- (मेकेनिकल इंजीनियरिंग),
एमए – हिंदी, अंग्रेजी और दर्शन शास्त्र,
पीएच-डी (हिंदी) - ‘विनोद कुमार शुक्ल तथा मुक्तिबोध की लंबी कविताओं का तुलनात्मक अनुशीलन’ विषय पर शोधरत।
3 सम्मान काव्य संग्रह ‘कुछ के कण’ के लिए भारत सरकार, रेल मंत्रालय द्वारा
‘मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार’ से सम्मानित।
4 संप्रति राजभाषा विभाग, चतुर्थ तल, महाप्रबंधक कार्यालय, दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे, बिलासपुर, छत्तीसगढ़, 492001
5 संपर्क सुजश कुमार शर्मा, पुत्र- श्री शरद कुमार शर्मा, बाह्मण पारा राजिम,
जिला-गरियाबंद, (छत्तीसगढ़), पिन-493885
6 ई-मेल sujashkumarsharma@gmail.com
7 मोबाइल 09752425671, 07869511716
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