सुदीर्घ भारतीय चिंतन परंपरा मोक्ष को मानव जीवन का चरम पुरुषार्थ मानती है। जीवन में मोक्ष रूपी पुरुषार्थ की सिद्धि के अनंतर कुछ भी प्राप्त क...
सुदीर्घ भारतीय चिंतन परंपरा मोक्ष को मानव जीवन का चरम पुरुषार्थ मानती है। जीवन में मोक्ष रूपी पुरुषार्थ की सिद्धि के अनंतर कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता है। भारतीय दर्शन ग्रंथों में मोक्ष की सिद्धि ज्ञान से बतलायी गयी है। निर्मल ज्ञान की प्राप्ति भक्ति से होती है। जीव या प्राणी में भक्ति का प्रादुर्भाव जगत जननी जगदम्बा की कृपा से सहज रूप में संभव है।
आदि शक्ति जगत जननी जगदम्बा ही हम सबकी माँ हैं। माँ का ह्रदय अपनी दुलारी संतान के प्रति सर्वदा असीम वात्सल्य से परिपूर्ण रहता है। संतान के लिए ममतामयी माँ से अधिक हितैषिणी तथा क्षमा परायणा अन्य दूसरी कोई भी शक्ति नही है। माँ जगदम्बा के श्री चरणों में मातृत्व भाव की स्थायी स्थापना ही माँ की प्रत्येक आराधक संतान का प्रथम करणीय कर्त्तव्य है। माँ की कृपानुभूति ही जीव का जीवन सर्वस्व है। अपनी आराधक संतान के लिए माँ के पास कुछ भी अदेय नहीं है। माँ अपनी आराधक संतान को भोग के साथ साथ विशेष अनुग्रह के रूप में मोक्ष भी प्रदान करती है, इसीलिए कहा भी गया है – “भोगश्च मोक्षश्च करस्थएव।” माँ जगदम्बा के श्री चरणों में पूर्ण समर्पण की भावना से शुद्ध अंतःकरण द्वारा की गयी प्रार्थना सर्वदा सुफलदायिनी होती है।
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माँ संबोधन से अभिहित प्रस्तुत प्रार्थना मिश्रित आलेख में हृदयगत भावों की भव्यता अमोघ प्रभावशालिनी है। इस प्रार्थना के पठन, मनन , स्मरण तथा हृदयंगम करने से जगत जननी जगदम्बा से श्रीपाद पद्मो में असीम मातृत्व भाव की स्थापना द्वारा सर्वविध सार्वलौकिक कल्याण की प्राप्ति एवं मोक्ष रूपी पुरुषार्थ की सिद्धि संभव है। साथ ही साथ इस प्रार्थना मिश्रित आलेख का ध्येय श्रधेय प्रार्थी एवं श्रध्येया प्रार्थिनी को अपने परम आनंदमय परमात्म स्वरुप का स्मरण एवं पुनर्बोध कराना भी है। अस्तु –
माँ ! मैं स्वयं प्रकाशमान, परम चैतन्य, सत्-चित्-आनंद स्वरुप दिव्यात्मा हूँ| परब्रह्म परमात्मा का अंश होने से मैं ब्रह्म हूँ। मैं अपने ब्रह्म स्वरुप में अनादि ,अनंत, अजन्मा, अजर , अमर तथा अनश्वर हूँ। मैं जरा , जन्म , मरण , रोग , शोक, दुःख , भय , भूख एवं व्याधि से भी परे हूँ। चतुर्विध पुरुषार्थों का साधक तथापि नश्वर मानव देह मेरा वर्तमान वास स्थान है।
माँ ! मैं कर्ता नही हूँ। माँ ! मैं कर्म फलों का भोक्ता भी नही हूँ। निमित्त मात्र होने से मैं कर्म एवं कर्म फल जनित भोगो के बंधन से भी सर्वथा मुक्त हूँ। माँ ! तुम ही मेरी नियति तथा कारयिता हो।
माँ ! तात्विक दृष्टि से आत्म तत्व का ज्योतिर्मय पूंजीभूत स्वरुप ही परम तत्त्व है। परमात्मा यदि जल का असीम उत्स (श्रोत ) महासागर है तो मै भी उसी जल तत्त्व का एक बूंद हूँ। जो वह है वही मैं हूँ। वह मुझमे है ,मैं उसमे हूँ। परम आनंद ही हमारा वास्तविक स्वरुप है। माँ ! मैं परम आनन्द में लीन रहूँ तथा मुझमे परमात्म बोध निरंतर निर्वाध गति से होता रहे इसके लिए मैं तुम्हारी सुकृपा प्राप्ति का अभिलाषी हूँ।
माँ ! तुम्हारे अपलक नेत्रों से प्रतिपल संचरित दिव्य रश्मियों के आलोक से मेरे आत्मरूप मन में जन्म जन्मान्तरों से संचित शुभ संस्कार उदित हो रहे हैं। माँ ! तुम्हारे कृपापूर्ण अवलोकन से मेरा अंतर्मन अंतर्ज्ञान की दिव्य प्रभा से परिपूर्ण हो रहा है। माँ ! तुम्हारे करस्थ अमृत कलश से अभिसिंचित परमात्म निकेतन रूप मेरी मानवी काया अज्ञान के आवरण से विमुक्त होकर तुम्हारे श्री चरणों के पावन स्पर्श एवं अनंत काल स्थायी सानिध्य की प्राप्ति हेतु उत्कंठित हो रही है| माँ ! मेरे दैहिक अहम भाव का दमन करके मुझमे मेरे परम आनंदमय ब्रह्म स्वरूप का पुनर्बोध करा दे ।
माँ ! मुझमे अपनी ज्योतिर्मयी दिव्य अक्षय शक्ति भर दे, जिसकी स्वर्णिम आभा को स्वयं की आभा मंडल में , अपनी चिर संगिनी सह धर्मिणी के संग / अपने चिर संगी सहधर्मी के संग / परम आनंद में अर्धनारीश्वर (शिव-शिवा) स्वरुप में सम्यक् रूप से धारण कर तुम्हारे ही दिव्यतम लोको में अनंत काल पर्यंत उन्मुक्त भाव से विचरण करता रहूँ /करती रहूँ।
माँ ! तुम सर्वात्म रूप परमात्मा की सर्वत्र व्यापिनी महाशक्ति हो। माँ ! तुममे ही परमात्मा की संपूर्ण शक्तियां तथा समस्त सत्ता सन्निहीत है| माँ ! मेरी भी परम आराध्या मातृशक्ति तुम ही हो| माँ ! मेरी गति, मति , वुद्धि , श्रद्धा , भक्ति तथा सर्वस्व भी तुम ही हो। माँ ! तुम्हारे समान मेरा हित चिन्तक तथा शुभेच्छु अन्य दूसरा कोई भी नहीं है| माँ! मैं तुम्हारी शरण में हूँ। माँ ! मुझमे अपने चरणों की अविचल भक्ति दे दे।तुम्हारे चरणों की विधि पूर्वक अर्चना एवं भाव पूर्ण वंदना से मैं पल भर के लिए भी विरत न होऊं, माँ ! मुझमे ऐसी शक्ति तथा भक्ति भर दे।
माँ ! मैं तुम्हारे चरणों में नतमस्तक हूँ। माँ ! तुम्हारे चरण रज के मनः संकल्पित स्पर्श मात्र से मेरे समस्त पाप समूह समूल नष्ट हो चुके हैं तथा मुझमे छुपा हुआ पाप पुरुष भी निर्मूल हो चूका है। माँ ! मुझे सभी प्रकार के ऋणों के अनुबंध तथा जन्म मरण जनित क्लेश एवं वन्धन से भी मुक्त कर दें, जिससे कि सुगमता पूर्वक भव सागर को पार कर के तुम्हारे परम धाम में अपनी श्रद्धा जनित प्रसन्नता के नयन नीर से तुम्हारे सुरार्चित श्रीपाद पद्मो का नीराभिषेक कर सकूँ। माँ ! मैं तुम्हारे परम धाम में परम पद के प्राप्ति का अभिलाषी हूँ। माँ ! मुझे परम पद देकर अपना पार्षद बना लेना।
माँ ! मैं तुम्हारी आँचल की छांव में पलने वाला अबोध शिशु रूप आत्मा हूँ। माँ ! तुम्हारी ममतामयी आँचल की छांव मेरे लिए कल्प वृक्ष की छांव से भी अधिक सुखदायिनी है। माँ ! मेरे शीश पर तुम्हारे आशीष की सघन छांव निरंतर घनीभूत होती रहे। माँ ! मुझ पर तुम्हारी स्नेह सुधा सर्वदा बरसती रहे। माँ ! तुम्हारी ममता का सागर मेरे लिए सदैव अपारगम्य बना रहे। माँ ! तुम्हारी वात्सल्यमयी सानिध्य की सुवास से मेरी यह बाल सुलभ निर्मल काया सर्वदा सुवासित होती रहे। माँ ! तुम्हारी आराधना का साधन भूत यह मेरा शरीर सौ वर्षों तक पूर्ण स्वस्थ तथा निःरोगी बना रहे। माँ ! मेरा यह जीवन उमंग , उत्साह तथा सकारात्मक उर्जा से भरा रहे। माँ ! तुम्हारी अज्ञान अपहारिका एवं सद्ज्ञान प्रकाशिका सुकृपा दृष्टि मेरी सद् पथ प्रदर्शिका बनी रहे। माँ ! मेरे मन मंदिर में तुम्हारी त्रयलोक्य मोहिनी हर्षित एवं वरदायिनी मातृमूर्ति सर्वदा विराजमान रहें और माँ ! मैं तुम्हारी देवदुर्लभ, अद्भुत एवं अनिर्वचनीय सौम्यछवि के दर्शन से प्रतिपल पुलकित एवं रोमांचित होता रहूँ। माँ ! तुम्हारी दिव्यता से मुग्धता को प्राप्त होता हुआ मैं सुसुप्ता अवस्था सहित सभी अवस्थाओं में तुम्हारे दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करता रहूँ। माँ ! परम आनंद में आमग्न मेरा मन तुम्हारे दिव्यातिदिव्य भाव लोको में अहर्निश विचरण करता रहूँ तथा ह्रदय भाव समाधि में अनुभूत नूतन भावों को नवीन उद्रेक से मोती में अवस्थित तरलता की तरह आह्लादित होता रहे।
माँ ! मेरे ह्रदय रूपी सिंघासन पर तुम्हारी सुप्रतिष्ठित मातृमूर्ति सर्वदा सुपूजित होती रहे। माँ ! मेरी अंतर्दृष्टि तुम्हारी ममतामयी मातृमूर्ति के अमिट चित्रांकन में ही रत रहे। माँ ! मेरे शीश से स्पर्शित तुम्हारे श्रीपाद पद्मों में मेरा दृढ़ अनुराग पद्म पराग की सुगंधि युक्त सिन्दूरी लालिमा के समान प्रगाढ़ता को प्राप्त होता रहे। माँ ! तुम्हारे श्री चरणों में मेरा निःश्छल नेह निरंता बढ़ता ही रहे। माँ! मेरा शेष जीवन तुम्हारी सुरुचि पूर्ण स्तुतियों का सुमधुर गान तथा नाम रस का पान करते हुए प्रसंन्नता पूर्वक व्यतीत होता रहे।
माँ ! जीवन की सांध्य वेला में मुझे अवश्य याद रखना। माँ ! तुम्हारी कृपा अनुभूति से परिपूर्ण वर्तमान सौ वर्षों की दैहिक पूर्ण आयु का तुम्हारी भक्ति पूर्ण अर्चना में श्रद्धा समर्पण युक्त निवेश पूर्ण कर लेने के उपरांत जब मैं अपनी मानवी काया से विलग होकर , इस पावन धरणी तल से तुम्हारे परम धाम के लिए महाप्रयाण करूँ तब तुम निश्चित रूप से मुझे अपने कर कमल रूपी क्रोड में कर लेना। माँ ! मुझे भूलना मत| माँ ! मुझे अभी से अपनी वाल सुलभ, ममतामयी स्नेह की डोर में दृढ़ता पूर्वक आबद्ध कर ले। माँ ! तुम्हारी ममतामयी स्नेह की डोर कभी ढीली न पड़े, इस बात का हमेशा ध्यान रखना। माँ ! मेरे शीश पर अपना वरद हस्त धर दे तथा मुझे अभय कर दें।
माँ ! परम आनंद , सर्वविध परिपूर्णता तथा परम पद की प्रत्याशा में तेरा दिया हुआ सर्वस्व तुम्हारे श्री चरणों में सानुनय समर्पित है।
“मातुः चरणयो सादरं सश्रधाम् प्रणतमः I
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता I
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः II
लेखक परिचय – डॉ अखिलेश्वर त्रिपाठी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संस्कृत साहित्य में पीएचडी , सम्प्रति महंत रामरूप महाविद्यालय , बेतिया, बिहार में संस्कृत के आचार्य, संस्कृत भाषा एवं साहित्य, अध्यात्म आदि विषयों पर विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित.
संपर्क सूत्र – 2294414833@qq.com
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