खबरें हथियार बनती हैं क्योंकि वे बनाई जाती हैं। खबरें सबक नहीं होतीं क्योंकि वे सिर्फ सूचनाएं भर होती हैं। खबरें इतिहास नहीं बनतीं। बन भी न...
खबरें हथियार बनती हैं क्योंकि वे बनाई जाती हैं। खबरें सबक नहीं होतीं क्योंकि वे सिर्फ सूचनाएं भर होती हैं। खबरें इतिहास नहीं बनतीं। बन भी नहीं सकतीं, क्योंकि वे बदल जाती हैं। खबरें परेशान करती हैं क्योंकि उनके पीछे कुछ सच छिपाए जाते हैं। शारदा बाबू भी परेशान रहते हैं। अखबार पढ़े बगैर उन्हें चैन नहीं आता और पढऩे के बाद उनका दिमाग चैन से नहीं रहता। पिछले एक दशक से अखबार उन्हें भ्रम में डाले हुए हैं। वे छपी हुई खबरों में वे सच तलाशते हैं जिन्हें कभी दिया नहीं जाता है। वे तब और परेशान होते हैं जब एक खबर में ही कई बातें एक दूसरे को काटती हैं। उन्हें तब कोफ्त होती है जब खबर कुछ कहती है और बाद में सच कुछ और निकल आता है।
उम्र के जिस पड़ाव पर शारदा बाबू पहुंच चुके हैं वहां आ कर आदमी धार्मिक किताबें पढऩे लगता है, लेकिन उनका इस बात में भरोसा ही नहीं। उनके अखबार पढऩे की आदत को लेकर कई बार धर्मपत्नी से बतकही हो चुकी है। धर्मपत्नी कह-कह के थक चुकी कि अब थोड़ा धरम-करम भी कर लो परलोक सुधर जाएगा, लेकिन शारदा बाबू पर कोई असर नहीं। उनकी दिनचर्या से घरवाले बेहद परेशान रहते हैं। सवेरे उठ कर वे जबतक अखबार नहीं पढ़ लेते उनकी दिनचर्या शुरू नहीं होती। और दिनचर्या भी क्या? अखबार पढऩे के बाद जब तक उसमें लिखे संपादकीय पर अपने किसी दोस्त से चर्चा करते तबतक उन्हें शौच भी नहीं आता।
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खबरें परेशान करती हैं और शारदा बाबू उर्फ काकाजी आजकल बेहद परेशान हैं। अखबार बांचने के बावजूद काकाजी कन्फ्यूज हो गए हैं। दरअसल उनकी समस्या एक आम भारतीय के जैसी ही है। उन्हें यह समझ में नहीं आता कि अमेरिका, यूरोप में बैंक डूब गए तो उसका उनके देश से क्या लेनादेना? यहां का शेयर बाजार ढह गया तो उससे उनकी सेहत पर क्या असर पड़ेगा? इन सवालों का जवाब उन्हें अखबार में कहीं नहीं दिखता। पहला पन्ना कुछ और कह रहा होता है तो संपादकीय कुछ और। हद तो यह कि अंदर के खबरिया पृष्ठों से कुछ और ही संकेत उन्हें मिलते हैं।
जब उन्होंने अखबार पढऩा शुरू किया था तब ऐसा नहीं होता था। पूरे अखबार में वैचारिक तारतम्य रहता था। उस समय बड़ी घटना होने पर संपादक के नाम से पहले पृष्ठ पर संपादकीय आता था। उसे पढऩे के बाद कई सारे सवालों के जवाब उन्हें मिल जाते थे। वे अपनी मित्र मंडली में संपादकीय में बघारे गए ज्ञान को बांचा करते थे और उनकी मित्र मंडली उन्हें सर्वज्ञ मानती थी। कुछेक मित्र ऐसे भी थे जो बहस में हिस्सा लेते थे। अर्थात पाठ और विवेचना का मर्म उन्हें भी मालूम था। फिर धीरे-धीरे समय बदला और जाने कब अखबारों से वैसी धार खत्म हो गई। अब तो अखबार पढक़र वे किसी विषय पर बोलने से हिचकने लगे हैं।
बदलाव आहत करता है। इन सालों में जो बदलाव आए हैं उसमें लोगों में तर्क करने की क्षमता कम होना भी उन्हें सालता है। अब तो जिससे भी बात करो या तो शेयर बाजार पर या फिर टीवी पर चल रहे मेगा सीरियलों के आगे के एपीसोड पर अनुमान जाहिर करता मिलता है। गंभीर मुद्दा छेड़ते ही कुछ देर तक हां-हूं करने के बाद लोग कह देंगे देर हो रही है, चलता हूं। तब काकाजी आहत हो जाते हैं।
अखबार पढऩे की तमीज उन्होंने अपने पिता से सीखी। उनके पिता ने उन्हें बताया था कि एक अच्छा पाठक सबसे पहले संपादकीय पृष्ठ पढ़ता है, क्योंकि यह अखबार की अपनी आवाज और उसके विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाला पन्ना होता है। इसे मूलमंत्र मान कर वे अब तक अखबार पढ़ रहे हैं। अखबारों में उन्हें मेगा सीरियलों की नायिकाओं से लेकर फिल्मों के कलाकारों के आंदरूनी संबंधों को जिस प्रमुखता से जगह दी जा रही है उससे कोफ्त होती है। उनके मन में सवाल उठता है कि ये कलाकार भी तो आम आदमी की ही तरह हैं। उनमें भी भावनाएं होंगी तो इसमें खबर क्या है? फिर उनके आपसी रिश्ते का बनना बिगडऩा खबर क्यों है?
काकाजी दकियानूसी विचार नहीं रखते। फिर भी मोहल्ले की खबरें उन्हें परेशान कर जाती हैं। अखबार में जिस रसीले अंदाज से फिल्मी हस्तियों की खबरें होती हैं उसी अंदाज की खबरें मोहल्ले में भी उड़ती रहती हैं। काकाजी अपने जमाने में कभी खबरों में नहीं रहे थे, लेकिन उनके दोनों बेटे न केवल खबरों में रहे, बल्कि छोटा तो मोहल्ले की खबरों की लीड भी बन चुका था। पड़ोस की एक लडक़ी के कारण वह कॉलेज में बुरी तरह पिटा था और कई दिनों तक अस्पताल में भर्ती रहा। इस घटना के बाद काकाजी कई दिनों तक सिर झुकाए दफ्तर आते-जाते रहे। सहज होने में उन्हें काफी वक्त लगा था, लेकिन बेटा अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद ऐसे रह रहा था जैसे कुछ हुआ ही नहीं। यह हाल उनके बेटे का ही नहीं था, अन्य लडक़े-लड़कियां भी ऐसी खबरों को कुछ इसी अंदाज में ले रहे थे। उन्हेें यह बदलाव चकित और परेशान किए हुए था।
इन खबरों से परेशानी के आलाम में एक दिन काकाजी को अपनी शादी के बाद के दिन याद आ गए थे। गांव से शहर सिनेमा देखने के लिए किस तरह पत्नी से बीमारी का बहाना बनाने के लिए कहा था। उन दिनों बीमार होने पर इलाज के लिए औरतें शहर आती थीं सो पत्नी को बीमारी का बहाना बनाने के लिए राजी करना पड़ा था। यह उपाय उनके अनुभवी भाइयों ने सुझाया था। बाकी घरों की ही तरह उनके घर में भी पत्नी के बीमार होने की सूचना फैलने के बाद कोहराम मचा था। काकाजी की मां ने उनकी पत्नी के सात पुश्तों को न जाने कौन-कौन सी गालियां निकाली थीं। एक बीमार लडक़ी से पाला बंधवाने का उलाहना शादी की मध्यस्थता करने वाले को भी झेलना पड़ा था।
तब यही होता था। शादी के बाद शहर जाने के लिए औरतें बीमार हो जाया करती थीं। यह आजमाया हुआ उपाय सभी के लिए था। अनुभवी शादीशुदा भाई यह सलाह नव दंपती को देते थे। सभी को बीमारी का कारण पता होता था, पर लोग चुप्पी साधे रहते थे। नव दंपती को लगता था वे अपने बुजुर्गों को ठग रहे हैं। काकाजी को भी यही लगा था कि उन्होंने सभी को ठग लिया। उनकी शहरी प्रेम कहानी किश्तों में निकलती रही। फोटो की शक्ल में और देखी हुई फिल्म की कहानी सुनाने की शक्ल में। बहुत समय बाद काकाजी को ज्ञात हुआ बुजुर्गों को उन्होंने नहीं ठगा था। बदलते समय को बुजुर्गों ने चुप रह कर स्वीकार किया था। काकाजी भी मोहल्ले की खबरों पर चुप्पी साध चुके हैं। उनकी कोई टिप्पणी नहीं होती है। यह बदलाव है।
खबरें उलझाव पैदा करती हैं और काकाजी भी उलझ गए। मंदी की खबर को समझने में कई दिनों तक उधेड़बुन में रहे। काफी कुछ पढ़ा मगर कुछ अल्ले-पल्ले नहीं पड़ा। उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आखिर यह आई कहां से? क्यों आई और किस रास्ते से आ गई। वे कभी-कभी सोचने लगते हर आतंकवादी हमले का दोष पड़ोसी देश पर मढऩे वाला हमारा देश और हर गड़बड़ी के लिए लादेन के सिर ठीकरा फोडऩे वाला अमेरिका इस मसले की जिम्मेदारी दूसरे पर लादने में इतनी देर क्यों कर रहा है? उनके मन में यह बात नहीं उठती, मगर उनके छोटे बेटे ने अपनी कंपनी में छंटनी की खबर सुनाते समय यह सनसनीखेज खुलासा कर गया कि इस सबके पीछे अलकायदा का हाथ है। तभी से काकाजी सोच में पड़े हुए हैं।
हर घटना की बारीकियों को देखने वाले काकाजी की अपनी मान्यताएं हैं। अपनी मान्यताओं को वे छिपाते भी रहते हैं क्योंकि उसे लेकर वे निंदा या उपहास का पात्र नहीं बनना चाहते। वे लादेन को दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी मानते हैं। काकाजी की नजर में लादेन एक ऐसा आदमी है जिसने अमेरिका को हिला कर रख दिया। वह लापता रह कर भी दुनिया के सबसे ताकतवर देश को चुनौती दे रहा है। लादेन की खबर पढ़ कर उनके मन ने कई बार कहा, कुछ भी हो आदमी तो मर्द है। हिला के रख दिया। यदि लादेन भारत विरोधी नहीं होता तो काकाजी उसे देश का सर्वोच्च सम्मान दिए जाने की वकालत करते।
अलकायदा का नाम सुनकर काकाजी यह तय नहीं कर पा रहे थे इस संगठन ने किस तरह मंदी को दुनिया के देशों में घुसेड़ दिया? एक अमूर्त चीज नश्तर की तरह मूर्त दुनिया को दुख दे रही है और उसका उपाय करते-करते दुनिया हार सी रही है। लादेन सच में महान है। उसके पास मूर्त और अमूर्त दोनों शक्तियां हैं। वह हिला सकता है। वह हिला रहा है। अमेरिका हिल रहा है और उसके साथ दुनिया हिल रही है। पड़ गया सेर को सवा सेर से पाला।
लादेन की तरह काकाजी सद्दाम के भी भक्त रहे। जब तक इराक ने घुटने नहीं टेके थे काकाजी को भरोसा था कि अमेरिका की ऐसी की तैसी हो जाएगी। बहस में वे जोरदार ढंग से कहते थे कि देखना सद्दाम उनका कैसा हाल करता है। तब अमेरिका के समर्थन में उतरने वाले लोग उनका उपहास उड़ाया करते थे। काकाजी इस बात से दुखी होते कि इराक पर अमेरिकी हमले को सिर्फ इसलिए जायज मान लिया जाए कि वहां रहने वाले अधिकांश मुस्लिम हैं? पर यथार्थ उनके सामने था और इसी सोच के साथ या तो लोग हमले का समर्थन कर रहे थे या विरोध कर रहे थे।
खबरें परेशान करती हैं क्योंकि उसके पीछे सच छुपाए जाते हैं। सद्दाम हार गया और पकड़ा भी गया। तब घातक हथियारों के बहाने एक देश को तबाह किए जाने का सच कहीं भी नहीं लिखा गया। इराक में न तो कोई हथियार मिला और न ही उसका खोल। और समाचार माध्यम यह सवाल उठाने की जगह सद्दाम के महल दिखाते रहे। उसके पालतू शेरों की खुराक का ब्योरा और उसके हालात की कहानी लिखते रहे, सुनाते रहे। काकाजी उस दिन खूब रोए थे जिस दिन सद्दाम को फांसी पर चढ़ाया गया था। अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों के लिए जाने कितनी बददुआएं दी थी। कुछ दिनों तक काकाजी को ईश्वर के अस्तित्व से भरोसा उठा रहा और वे यह मानते रहे कि भगवान भी धनी और सबल के साथ हैं। धीरे-धीरे वे सामान्य हुए थे।
तब काकाजी ने मान लिया कि इतिहास की तरह खबरें भी विजेताओं की हुआ करती हैं। जीतने वाला अपने हिसाब से खबरों को पेश करता है। वह खबरों को भी हथियार बनाता है। गोया हर खबर पर भरोसा नहीं किया जा सकता। फिर अपने पिता की सिखाई तमीज से आगे जा कर काकाजी ने एक और बात जोड़ लिया कि खबरें पढ़ कर उसकी सच्चाई को समझना जरूरी है तभी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। तभी से काकाजी किसी भी खबर की बारीकियों में जाने लगे हैं। खबरों के पीछे सच तलाशने की आदत सी हो गई है।
अब काकाजी मंदी पर सवाल उठाने लगे हैं। यह स्थिति क्यों पैदा हुई? पिछली गलतियों को दोहराया कैसे गया? उनके सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है। छोटू ने एक रात खाने के समय खुलासा किया कि कंपनियों की हालत खराब हो रही है। मुनाफा घट गया है और शेयर बाजार डूब गया है। तरह-तरह की डरावनी खबरें जो काकाजी दिन में पढ़ा करते थे रात में छोटू उन्हें सुना गया। काकाजी कुढ़ गए और कहा पढ़ते तो हो नहीं बस सुनके आते हो खबरें सुनाते हो। यह तो बताओ यह सब हुआ कैसे? एक दिन इसी सवाल का जवाब छोटू दे गया, अलकायदा।
काकाजी को याद आया कि जब शेयर बाजार आसमान छू रहा था तब एक खबर आई थी कि इसमें देश के भगोड़े आतंकवादियों का पैसा लग रहा है। वैसे काकाजी ने कभी भी शेयर बाजार में पैसे नहीं लगाए, लेकिन जब यह पढ़ा तो शेयर बाजार में पैसे लगाने वालों के प्रति उनके मन में पहले से पल रही घृणा और बढ़ गई। इससे पहले वे घोटालों और उससे बर्बाद हुए लोगों की दास्तां पढक़र आहत हो चुके थे। इस बार यह जानकर उन्हें धक्का लगा कि लाभ लेने का लालच पाले लोगों की जेब से पैसा निकालने के लिए कंपनियों ने फर्जी मुनाफा दिखाया और एक दिन ढह गईं। लोगों का पैसा डूब गया और घाटा नहीं सह पाने वाले कई लोगों ने आत्महत्या कर ली। काकाजी ऐसी खबरें पढ़ कर बेहद दुखी होते।
काकाजी को तब यह समझ में आ गया था कि लोगों की जेब तराशी करने के लिए कंपनियों ने अखबारों का किस तरह इस्तेमाल किया। मुनाफा कमाने का लालच बहुत धीरे से लोगों को दिया गया और शेयर कारोबार को बढ़ावा देने वाले लेख और समाचार प्रकाशित कराए गए। एक ऐसा माहौल तैयार किया गया जिसमें छोटी कमाई वाले लोग फंसे। काकाजी इस बात से दुखी थे कि सरकारी बैंकों से ज्यादा ब्याज देने का वादा कर करोड़ों रुपए लेकर चंपत होने वाली चिटफंड कंपनियों के कारनामे झेल चुके लोग शेयर बाजार के नाम पर होने वाली लूट को नहीं समझ सके। उछलने से डूबने तक में अंडरवल्र्ड का हाथ होने की खबर ने ही उन्हें परेशान किया। वे यह तय नहीं कर पा रहे कि आखिर दोनों में सच क्या है?
मंदी से पहले काकाजी एक खबर पर उलझे थे। असल में खबरों का उलझाव उस खबर के साथ ही शुरू हुआ। वह खबर थी दुनिया ग्लोबल विलेज हो रही है ऐसे में देश को अलग-थलग नहीं रखा जा सकता। काकाजी कई दिनों तक इन सवालों में डूबते उतराते रहे कि उस विलेज का हेड कौन होगा? कभी किसी भारतीय को हेड बनने का मौका मिलेगा? और अगर मिल गया तो क्या उस पद का नाम हिंदी के अनुसार विश्व ग्राम प्रधान या वैश्विक मुखियाजी हो जाएगा? उस समय ग्लोबल विलेज के समर्थक एक नेता के बयान से कई दिनों तक काकाजी सोच में पड़े रहे। नेताजी ने कहा था, दूरियां सिमट रही हैं। ऐसे में हम अगर अलग रहे तो बहुत दूर हो जाएंगे। नेताजी के बयान का मर्म समझते हुए अखबारों में लेख छपे और बयान के खिलाफ प्रदर्शन की खबरें भी छपीं। काकाजी कन्फुजिया गए? यदि संपादक सही हैं तो खबर का मतलब क्या है? और यदि विरोध में दम है तो लेख का आशय क्या है?
इस मुद्दे पर काकाजी का कन्फ्यूजन तब और बढ़ गया जब एक दिन खबर आई की नीम के औषधीय गुणों को अमेरिका की एक कंपनी ने पेटेंट करा लिया है। इस खबर के मर्म को काकाजी नहीं समझ पाए, लेकिन उनकी मित्र मंडली के ही एक सदस्य ने उनका ज्ञान वद्र्धन किया कि अब यदि कोई नीम का दवा के रूप में इस्तेमाल करता है तो उसे अमेरिका की उस कंपनी को टैक्स देना होगा। काकाजी हिल गए। आगे उन्हें हिलाने वाली और भी खबरें आती गई। हल्दी, बासमती और न जाने क्या-क्या सबकुछ विदेशी कंपनियों के कब्जे में जा रही थी। तब वे अखबारों से बहुत दुखी हो गए थे। इस अंधेरगर्दी पर लोगों का नजरिया साफ करने की बजाय अखबार सौंदर्य प्रतियोगिताओं के परिणाम छापने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाने में जुटे रहे।
उन दिनों काकाजी को एक बात पर आश्चर्य हुआ था कि आखिर अचानक भारत की लड़कियां कैसे खूबसूरत हो गईं? उनके इस सवाल का जवाब उनका अखबार नहीं दे रहा था। पहले पन्ने पर गली मोहल्लों से लेकर विभिन्न देशों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली सौंदर्य प्रतियोगिताओं में चुनी जाने वाली लड़कियों की मोहक मुस्कान वाली तस्वीर छपी होती थी। तब संपादकीय पृष्ठ पर इन प्रतियोगिताओं में चुनी गई लड़कियों को देश की उपलब्धि बताने वाले लेख होते थे। चुनी गई लड़कियों की तस्वीर देख कर काकाजी के मन में कई बार संदेह पैदा हुआ कि इन प्रतियोगिताओं के जजों को कहीं मोतियाबिंद तो नहीं था? जजों का सौंदर्यबोध भी उन्हें भ्रम में डल रहा था। उनके संदेह के कारण थे। चुनी गई लड़कियों से कहीं ज्यादा सुंदर लड़कियां उन्हें दिखती थी जिनके सामने सौंदर्य प्रतियोगिताओं में सफल लड़कियां फीकी पड़ जाएं।
काकाजी ने एक दिन अकेले में पत्नी को एक सुंदरी की तस्वीर दिखाते हुए कहा, ये दुनिया की सबसे खूबसूरत लडक़ी की तस्वीर है। पत्नी ने तस्वीर देखी और मुस्करा कर पूछा इस उम्र में फोटो निहार कर क्या मिलेगा। मुस्कराने से काकाजी भी नहीं बच पाए। फिर कहा नहीं निहार नहीं रहा हूं। देख रही हो इससे से सुंदर अपने जमाने में तुम थी। तब ये प्रतियोगिता नहीं होती थी वरना तुम्हें कोई पराजित नहीं करपाता। उम्र की ढलान पर खड़ी पत्नी का चेहरा लाल हो गया था और वह सिर्फ इतना ही कह सकी थी, हटिए आप भी.....। मगर काकाजी को के मन में सौंदर्य और सौंदर्यबोध का सवाल उछलता ही रहा। वे यह तय नहीं कर पा रहे थे कि आखिर इन सुंदरियों से ज्यादा सुंदर लड़कियां विजेता क्यों नहीं होती हैं।
इस मुद्दे पर उनका भ्रम बना रह जाता। एक दिन मित्रमंडली में यही मुद्दा छिड़ा और काकाजी के एक मित्र ने भ्रम दूर किया था। देखो शारदा यह बाजार का जमाना है। बाजार जिसे सुंदर कहे वही सुंदर है, बाकी या तो औसत या कुरूप। बाजार जिसे सच कहे वही सच बाकी सब झूठ। काकाजी यह नहीं समझ पाए कि आखिर यह कैसे हो सकता है कि किसी और के कहे पर किसी को सुंदर मान ले? किसी झूठ को सच मान ले? लेकिन, यह सच था और हो रहा था।
बाद के दिनों में एक घटना ने देश को हिला कर रख दिया और आखिर में छपी एक खबर ने काकाजी को परेशान कर दिया। कारगिल में पड़ोसी मुल्क के सैनिकों ने आतंकवादियों के वेश में डेरा जमा लिया था। उन्हें खदेडऩे के लिए देश में एक ज्वार उठा था जिसे देख कर काकाजी को संतोष हुआ था कि अभी भी कुछ बुरा नहीं हुआ है। देश जिंदा है और देशभक्ति भी। मगर हो हल्ला खत्म होने के बाद एक खबर आई जिसने काकाजी को परेशान कर दिया। आखिर बोफोर्स तोप ने अपनी काबलियत साबित कर दी। उस युद्ध में जिस विषम परिस्थितियों का सामना भारतीय सेना को करना पड़ा उससे बोफोर्स ने ही उबारा था। इस खबर ने काकाजी के मन में एक सवाल पैदा कर दिया कहीं यह युद्ध उस तोप की परीक्षा के लिए भारत पर थोपा तो नहीं गया? इसके बाद तो काकाजी के मन में हर आतंकवादी हमले और धमाकों को लेकर सवाल पैदा होने लगे।
बाद के दिनों में खबरें बदलती रहीं। कभी आतंकवादी हमले हुए नहीं कि एक पखवारे तक देशभक्ति की लहर अखबारों में समाई रहती और इससे उबरते ही शेयर बाजार और खुशनुमा माहौल का प्रचार होने लगता। हकीकत छिपाई जा रही थी, झूठ परोसा जा रहा था। संक्षेप में किसानों की आत्महत्या और प्रमुखता वाली खबरों में देश का विदेशी मुद्रा भंडार नई ऊंचाइयों पर होता था। उन्हीं दिनों अखबारों और टीवी पर एक विज्ञापन आया था इंडिया शाइनिंग। खबरों में फील गुड फैक्टर की चर्चा जोर-शोर से हो रही थी। सत्ताधारी पार्टी के नेता और मंत्री सीना तान कर बयान दे रहे थे।
शुरू-शुरू में काकाजी बेहद खुश हुए। चलो देर से ही सही देश चमका तो। लेकिन दूसरे ही पल वे बड़े उदास हुए यह चमक आई भी तो अंग्रेजी में। बाद के दिनों में काकाजी को अखबार के माध्यम से पता चला कि यह शाइनिंग तो बस अखबार तक ही रही। असल में देश की कई मुनाफा कमाने वाली कंपनियां नीलाम हो गईं और कई तो घाटे में दम तोड़ गए। घोटालों से आहत शेयर बाजार में फील गुड का बाजा बज गया और सत्ता जाते ही सत्ताधारी दल की शानिंग पर पर्दा पड़ गया। हालांकि काकाजी की सेहत पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। वे पहले की तरह ही अखबार पढ़ते रहे। फर्क सिर्फ इतना ही हुआ कि वे अब अखबार से अर्जित ज्ञान के आधार पर किसी भी मुद्दे पर राय देने से बचने लगे।
अब मंदी को लेकर काकाजी की फिर वैसी ही हालत में आ गए हैं। कारण साफ है पहले पन्ने पर मोटे-मोटे अक्षरों में खबर छपी होती है मंदी की मार और नीचे एक एक खबर तैरती होती है निशरा में आशा। काकाजी तय नहीं कर पा रहे हैं कि दोनों में से सही क्या है? काकाजी के लिए अखबार अब कबीर के रहस्यवाद से भी ज्यादा रहस्य से भरा नजर आने लगा है। उन रहस्यों पर वे पार पाना चाहते हैं, लेकिन वह और उलझता जा रहा है।
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नरेंद्र अनिकेत
जन्म : 12 अप्रैल 1967 ग्राम:- भगवानपुर कमला,समस्तीपुर बिहार
शिक्षा : बीआर अंबेदकर बिहार विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर
कृतियां: विभिन्न समाचार पत्रों में समसामयिक विषयों पर आलेख।
कथादेश के युवा कहानिकारों पर केंद्रित अंक में कहानी अनंत यात्रा समेत अभी तक तीन कहानियां प्रकाशित
यह कहानी काफी पहले लिखी गई जान पडती है पर शिल्प बेहतरीन है|
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