तेवरी, कोरे रूप सौन्दर्य, व्यक्तिगत प्रेमालाप, थोथी कल्पनाशीलता, सामाजिक पलायनवादी दृष्टि से विमुख एक निश्चित अंत्यानुप्रासिक व्यवस्था स...
तेवरी, कोरे रूप सौन्दर्य, व्यक्तिगत प्रेमालाप, थोथी कल्पनाशीलता, सामाजिक पलायनवादी दृष्टि से विमुख एक निश्चित अंत्यानुप्रासिक व्यवस्था से युक्त वह विधा है जिसमें मानवतावादी चिन्तन की सत्योन्मुखी संवेदनशीलता, शोषित के प्रति करुणा और शोषक के प्रति आक्रोश, असंतोष, विरोध और विद्रोह के रसात्मक बोध से सिक्त दिखलायी देती है। तेवरी की प्रतिबद्धता हमारे उन रागात्मक मूल्यों के साथ है, जो बर्जुआ और साम्राज्यवादी वर्ग द्वारा लगातार खण्डित किये जा रहे हैं। जबकि ग़ज़ल की स्थापना दैहिक भोग और प्रशस्ति को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए की गयी। ग़ज़ल ने अपना विधागत स्वरूप अपने एक विशेष चरित्र-‘प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत’ के संदर्भ में ग्रहण किया। किसी छन्द या बहर विशेष के आधार पर ग़ज़ल का स्वरूप न तो कभी पहले तय किया गया और न बाद में। ग़ज़ल को किसी एक निश्चित छन्द में ही कहे जाने की गुंजाइश मिली। अनेक बहरों में कही जाने वाली ग़ज़ल में शेरों, रदीफ-काफियों जैसी तकनीकी व्यवस्था का प्रचलन हिन्दी में आदिकाल से मौजूद है। रीतिकाल तो इस तकनीकी व्यवस्था से भरा हुआ पड़ा है। यह सुनिश्चित है कि ग़ज़ल को विधागत मान्यता उसकी एक विशेष भाव भंगिमा [ जो कि शृंगारपरक रही है ] के आधार पर ही मिली। अतः एक तरफ जहां तेवरी की विधागत पहचान उसके सत्योन्मुखी चिन्तन के आधार पर है तो ग़ज़ल का विधागत स्वरूप उसकी व्यक्तिवादी विशेषताओं में अंतर्निहित है।
तेवरी और ग़ज़ल के इसी अंतर को स्पष्ट करने के लिए श्री ज्ञानेंद्र साज ने ‘जर्जर कश्ती’ के कई अंकों में ‘गजलें’? शीर्षक से एक लम्बी बहस का आयोजन किया। बहस के अन्तर्गत उठे विभिन्न प्रश्नों और विवादों के उत्तर श्री ज्ञानेन्द्र साज ने बड़ी ही सूझ-बूझ एवं तर्कप्रधान विवेचन के साथ प्रस्तुत किये। श्री आनन्द गोरे ने तेवरी को जनवादी ग़ज़ल की संज्ञा देते हुए इसे ग़ज़ल को अपदस्त करने का एक षड़यंत्र माना और सवाल किया कि-‘‘जब आपको प्रेमी-प्रेमिका के किस्सों वाली ग़ज़लों से इतना ही परहेज है तो रईसुद्दीन रईस की ग़ज़ल क्यों प्रकाशित की?
श्री आनन्द गोरे ने जिन तथ्यों की ओर संकेत किया, उनसे निम्न बातें उभर कर सामने आयीं- 1. हिन्दी में तेवरी का प्रादुर्भाव, ग़ज़ल को अपदस्त करने के लिए हुआ है। 2. हिन्दी में जनसापेक्ष चिन्तन से युक्त उक्त प्रकार की रचनाधर्मिता यदि ग़ज़ल नहीं तो जनवादी ग़ज़ल अवश्य है, लेकिन तवेरी कदापि नहीं। 3. यदि तेवरी आन्दोलन की पक्षधरता करने वाले सम्पादक को तेवरी से इतना ही व्यामोह है तो वह ग़ज़लें क्यों प्रकाशित करते हैं।
पहले प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री साज ने लिखा कि-‘तेवरीकार ग़ज़ल को अपदस्त करने में कतई विश्वास नहीं रखते, बल्कि उनका प्रयास तो यह है कि जो रचनाएं ग़ज़ल की सम्पूर्ण विशेषताएं अपने में समाहित किये हुए हैं, केवल उन्हें ही ग़ज़लें माना जाये। जो रचनाएं शिल्प एवं कथ्य की दृष्टि से ग़ज़ल से एकदम भिन्न हैं, उन्हें किसी भी स्थिति में ग़ज़लें नहीं कहा जा सकता।’ उन्होंने दूससे व तीसरे प्रश्न के उत्तर में जनवादी ग़ज़ल की सार्थकता को नकारते हुए कहा-‘कथित ग़ज़ल में किये गये, या आये विभिन्न कथ्य एवं शिल्प सम्बन्धी परिवर्तनों के आधार पर यदि ग़ज़ल के साथ हिन्दी, जनवादी, उर्दू, अवामी या सियासी जैसे नये-नये विशेषणों को जोड़ा जाता है तो यह स्थिति ठीक उसी प्रकार रहेगी जैसे कोई रामचन्द्र को हिन्दू रामचन्द्र, रईसुद्दीन को मुसलमान रईसुद्दीन कहकर पुकारे और एक नयी साम्प्रदायिक स्थिति पैदा करने की कोशिश करे। जबकि राम या रईसुद्दीन में ही स्पष्ट पहचान दृष्टिगोचर होती है। तब ग़ज़ल की ग़ज़ल और तेवरी की तेवरी के रूप में पहचान स्थापित करना किसी अज्ञानता का नहीं, बल्कि विवेकशीलता का द्योतक है। इसी कारण हम ग़ज़ल को ग़ज़ल के रूप में और तेवरी को तेवरी के रूप में प्रकाशित कर एक उचित और सारगर्भित मार्ग तय कर रहे हैं।‘
श्री तारिक असलम तस्नीम अपना पांडित्य प्रदर्शन करते हुए, मौलवी के अन्दाज में तेवरीकारों को नासमझ और शरारती बच्चे मानते हुए उन्हें अक्ल प्रदान करने की दुआ मागते हुए, बुजुर्गों जैसी सलाह देते हुए ग़ज़ल का अर्थ समझाते हैं-‘गजल सही मायने में हुस्नो-इश्क, जवानी, नैतिकता और आध्यात्मिकता की प्रस्तुति है। मगर जमाने के बदलाव के साथ हम अपने आचार-विचार, रस्मोरिवाज, परम्परा, आदर्श, मूल्य व रहन-सहन के स्तर व आवश्यकताओं आदि को समयानुकूल स्वीकार कर चुके हैं, तब यथार्थोन्मुखी चेतना को स्वीकारने में ग़ज़ल क्यों पीछे रहे।’’
तस्नीम के तर्क पर जर्जर कश्ती के सम्पादक ने चुटकी लेते हुए एक बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा-‘भाईजान! यदि किसी वैश्यालय को खत्म करके वहां एक विद्यालय बनवा दिया जाए तो क्या आप उसे फिर भी वैश्यालय ही कहेंगे?’
ग़ज़ल शब्द के व्यामोह में जकड़े ग़ज़ल के आचार्य श्री जमुनाप्रसाद राही यह तो मानते हैं कि ‘समसामयिक विसंगतियों, विकृतियों के प्रति विरोध स्वर को मुखर करने वाली कथित ग़ज़लें ग़ज़ल की शास्त्रीय परम्परा से मेल नहीं खातीं। ग़ज़ल का पारम्परिक स्वरूप एक ऐसी प्रेमिका या औरत का रहा है, जो सामंतों , अय्याशों के महलों को शोभा थी।’ लेकिन वह यह भी कहते हैं-‘आज वह औरत या प्रेमिका महलों से निकलकर कारखानों, दफ्तरों, सीमेंटेड सड़कों पर मर्द के साथ शाना-ब-शाना कार्यरत है। जब इतनी तब्दीली ग़ज़ल की शैली और शायर के सोच में आ गयी है तो यह तब्दीली हमें गवारा करनी चाहिए।’’
श्री ज्ञानेन्द्र साज़ उक्त प्रश्नों का उत्तर देते हुए लिखते हैं कि-‘‘जब ग़ज़ल ने अपनी अय्याशों को रिझाने वाली भाव-भंगिमाओं का परित्याग कर एक आदर्श नारी की भूमिका निभाना प्रारम्भ कर दिया है, तब वह ग़ज़ल संज्ञा के रूप में एक रक़्क़ासा ही क्यों पुकारी जा रही है, उसे एक मजदूरिन या आदर्श पत्नी के रूप में ‘तेवरी’ के नाम से विभूषित किया जाना अनौचित्य पूर्ण कैसे और क्यों है?
श्री साज, ने आगे सवाल किया कि क्या वे चारित्रिक तब्दीलियों के आधार पर भजन, प्रशस्ति, कलमा, मर्सिया आदि का भी कथ्य बदल जाने पर उन्हें भजन, मर्सिया, कलमा आदि विशेषणों से ही पुकारना औचित्यपूर्ण मानेंगे। यदि ऐसा है तो क्या मातमपुर्सी को कलमा कहा जा सकता है या विद्रोह की कविता को भजन माना जा सकता है? जैसा कि राही साहब मानते हैं कि ‘गजल के शेरों में प्रेमपूर्ण वार्तालाप एवं सुरासुन्दरी के संगम के अतिरिक्त अन्य विषयों पर भी लिखा गया है तो यदि इसी तकनीकी व्यवस्था में, बच्चे के जन्मदिन, दूल्हा-दुल्हन के विवाह का वर्णन, अलौकिक शक्ति जैसे ईश्वर आदि के प्रति विनती, किसी की मौत पर शोक संवेदना अथवा किसी राजा या मन्त्री की तारीफ का जिक्र किया जाए, तब क्या इस कथ्य से युक्त उक्त प्रकार की शैली को ग़ज़ल ही मानने का साहस कथित ग़ज़ल के हिमायती दिखा पायेंगे?
श्री शेलेन्द्र स्वरूप सक्सेना का मानना है कि-‘‘गजल एक छंद है और उसके शाब्दिक अर्थ ‘प्रेमिका से प्रेमपूर्ण वार्तालाप’ पर जाना ठीक न होगा’, हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि ग़ज़ल यदि एक छन्द है तो कौन सा? यदि ग़ज़ल एक छन्द है तो इसका शास्त्रीय पक्ष निर्धारित करने वालों से लेकर शब्दकोषों तक इसका जिक्र क्यों नहीं किया गया।
ग़ज़ल फोबिया के शिकार इन लोगों की स्थिति यह है कि इन्हें भाव, कथोपकथन, रंग-रूप, भाषा-शैली के हिसाब से तेवरी और ग़ज़ल में कोई बुनियादी अन्तर नजर नहीं आता। जबकि अशोक ठाकुर मानते हैं कि ‘तेवरी की जो बुनियादी आवश्यकता है-धरातल है, वह ग़ज़ल से भिन्न है। गरीबी, पीड़ा, कुंठा, आक्रोश, टूटन, घुटन, कुछ न कर पाने की छटपटाहट तेवरी व्यक्त करती है। तेवरी के उक्त तेवरों [ भाव भंगिमाओं ] को पहचानना और ग़ज़ल की नाजुकबयानी को समझना नीर क्षीर विवेक की स्थिति है। अतः विद्वानों को इस बहस की सार्थकता को समझना चाहिए। लेकिन आग्रही, दुराग्रही, अल्पज्ञानी साहित्यकारों की स्थिति यह है कि उन्हें नीर और क्षीर में अन्तर ही दृष्टिगोचर नहीं होता। इस अन्तर को स्पष्ट करने के लिए जब श्री ज्ञानेन्द्र साज ने जर्जर कश्ती के अंकों में बहस जारी की तो बजाय तर्क देने के तारिक असलम जैसे कथित ग़ज़लगो कुतर्क और गालीगलौज की भाषा पर उतर आये और ग़ज़ल के वैश्यायी रूप से पक्षधरता करते हुए कह उठे- ‘‘अब रही बात वैश्या और वैश्यालयों की तो मैं [ शिक्षित मूर्खों को ] सआदत हसन मंटो के शब्दों में यह बता देना चाहता हूं कि समाज मैं इनका अस्तित्व भी जरूरी है। आप शहर में चमचमाती खूबसूरत गाडि़यां देखते हैं। ये गाडि़यां कूड़ा-करकट उठाने के काम नहीं आ सकतीं। गन्दगी उठाने के लिए और गाडि़यां मौजूद हैं, जिन्हें आप कम देखते हैं। अगर देखते हैं तो नाक पर रूमाल रख लेते है। जबकि इन औरतों का भी वजूद है, जो आपकी गन्दगी समेटती हैं। अगर ये औरतें न होतीं तो हमारे सब गली-कूचे मर्दों की गन्दी हरकतों से भरे होते। ग़ज़ल के संदर्भ में यह समझने की बातें हैं ।’’
ग़ज़ल को वैश्या का जामा पहनाकर, उसके पुरुष द्वारा शोषित मन की व्यथा को न समझ पाने वाले अय्याश वर्ग की उक्त प्रकार की दलीलें, एक बात तो निश्चित रूप से उजागर करती है वह यह कि इनके मन में कोई न कोई ऐसी विकृत या हीनग्रन्थि जरुर है, जो हर स्तर पर प्रगतिशीलता और परिवर्तन की विरोधी है। सार्थक चिन्तनशीलता के स्थान पर एक अन्धी दृष्टि इन्हें वैश्यालय और विद्यालय में मूलभूत पहचान करा पाने में असमर्थ रहती है। अतः श्री ज्ञानेन्द्र साज द्वारा उठायी गई बहस के अन्तर्गत यह कहें कि भाई समस्त विश्व के आंकड़े इस बात की स्पष्ट गवाही देते हैं कि वैश्यावृत्ति करने वाला पुरुष वर्ग वैश्यावृत्ति के उपरांत भी अपनी गन्दी हरकतों से बाज नहीं आता। उसमें एक ऐसी विकृत मानसिकता पनप जाती है कि पहले वह पड़ोस को अपना शिकार बनाता है और बाद में मदिरापान कर अपनी ही मां, बहिन, बेटियों को नहीं छोड़ता। इस चारित्रिक उत्थान बनाम चारित्रिक पतन में वैश्यावृत्ति कितनी जरूरी है? यह सोचने का विषय है। यदि कूड़ा-कचरा ढोने वाली गाडि़यां ऐसे कुतर्क गढ़ने वालों के घर के सामने या किसी स्वस्थ बस्ती में उलट दी जायें तो कैसा लगेगा? वैश्याओं के अस्तित्व की सार्थकता के पीछे ऐसे महानुभावों के मन में कोई न कोई हीनग्रन्थि अवश्य है। वर्ना क्या वजह है कि एक प्रख्यात शायर की मां की वैश्या थी लेकिन उसने इन्हें समाज के जिस्म पर बदबूदार कोढ़ ही बताया।
‘जर्जर कश्ती’ में उठायी गई बहस के उक्त विवेचन से तेवरी और गजल के बीच निम्न प्रकार से अन्तर स्पष्ट होता है। जिसे हम अरुण लहरी के शबदों में इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं-
1- तेवरी, ग़ज़ल की तरह नारी को साकी के रूप में प्रस्तुत करना नहीं चाहती, वह तो स्वार्थी, शोषक समाज द्वारा छली गई नारी की पीड़ा को अपनी अभिव्यक्ति का विषय बनाती है।
2- तेवरी, गजल की तरह शमा और परवाने की दास्तान कहने में विश्वास नहीं रखती बल्कि गांव या शहर के जर्जर रामू काका के चेहरे की झुर्रियों का इतिहास बनाती है।
3- तेवरी किसी शराबी, अय्याश या नर्तकी के अंग संचालन, परिचालन, चेष्टाओं, भाव भंगिमाओं पर ध्यान केन्द्रित कर अपना सारा सोच उसकी विकृतियों पर लगाती है।
शिल्प के संदर्भ में
1- तेवरी मात्रिाक और वर्णिक छन्दों में लिखी जाने वाली रचना है, जबकि ग़ज़ल बहर में कही जाती है।
2- तेवरी का कथ्य गीत के अत्यधिक निकट है, उसमें कोई घटना या कथा भी स्थान पा सकती है, जबकि ग़ज़ल की हर दो पंक्तियों [शेर] का कथ्य पूर्ण व अन्य शेरों से अशृंखलाबद्ध होता है।
3- तेवरी की अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था स्वर और व्यंजनों के संयुक्त प्रयोग से उत्पन्न हुई है, जबकि ग़ज़ल की तुकान्त व्यव्स्था में काफिये का आधार स्वर ही लिया गया था।
4- तेवरी में मतला और मक्ता शेरों जैसी कोई प्रावधान नहीं, और न ग़ज़ल के शेरों की तरह उसके तेवरों की संख्या निश्चित है।
5- तेवरी का शास्त्रीय पक्ष भारतीय काव्यशास्त्र के सैद्धांतिक पक्ष पर ही ज्यादा खरा उतरता है, जबकि ग़ज़ल में आयातित संस्कार की झलक आज भी विद्यमान है।
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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