कहानी - चश्मा / सुशांत सुप्रिय

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चश्मा ------------- --- सुशांत सुप्रिय " पापा , भगवानजी तो इन्सानों को बड़ी मेहनत से बनाते होंगे। जब एक इंसान दूसरे इंसान को मार ड...

चश्मा

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--- सुशांत सुप्रिय

" पापा , भगवानजी तो इन्सानों को बड़ी मेहनत से बनाते

होंगे। जब एक इंसान दूसरे इंसान को मार डालता है तो

भगवानजी की सारी मेहनत बेकार हो जाती होगी न।"

--- एक पाँच साल का बच्चा अपने पिता से।

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एक जलती हुई प्यास-सा था वह दिन। और मैं उसमें एक तड़पता हुआ प्यासा। मैंने विज्ञानेश्वर जी के बारे में जान-पहचान वालों से सुन रखा था कि वे एक लेखक थे जो अपने समय को डीकोड करने की कोशिश करते रहते थे। हालाँकि उनसे मिलने का मेरा मक़सद केवल उनका लेखन नहीं था। देर रात जब उनसे मिलने मैं उनके घर पहुँचा तब मैंने उनके भीतर से एक उदास रोशनी फूटती देखी जिसके साये तले बैठ कर वे अपना लेखन कर रहे थे। उनसे मिलने के बाद मुझे समय के कोने उतने तीखे और चुभने वाले नहीं लगे। सच बताऊँ तो वे मुझे अपने उदास समय के इकलौते वारिस लगे।

उन्हें प्रणाम करके मैं उनके पास बैठ गया। वह फ़्यूज जुगनुओं वाली एक भोरहीन भारी रात थी।

" मैं आप की कहानियों का प्रशंसक हूँ। चाहे आपकी कहानी ' बंजर आकाश ' हो या ' सूखी नदी ' हो , आप जीवन की बारीकियों को बड़ी कुशलता से पकड़ते हैं। हमारे जीवन में व्याप्त असुरक्षा और मृत्यु के भय को आपकी कहानियाँ बड़ी बारीकी से उकेरती हैं। कई बार ऐसा लगता है जैसे आपकी कहानियाँ कहानियाँ न होकर कविता का विस्तार हों। आपकी कहानियों में शिल्प के प्रयोग के साथ एक सजल संवेदना बहती है। " मैंने कहा।

वे एक सूखी हँसी हँसे। उसमें आकाश के कई सितारों के टूटकर गिर जाने का दर्द था। उनकी आँखों में कोई मुस्कान नहीं थी। वहाँ भय का अजगर कुंडली मारे बैठा था। भूरा और मटमैला भय।

" लेकिन आज आपसे मिलने आने का मेरा मक़सद दूसरा है। मैं आपसे उस चश्मे के बारे में जानना चाहता हूँ जो आपके परिवार के पास कई पीढ़ियों से है। यदि आपको ऐतराज़ न हो तो।" मैं बोला।

थोड़ी देर हमारे बीच एक स्याह ख़ामोशी बिखरी रही।

" कहाँ से शुरू करूँ ?" आख़िर ख़ुद को सहेजते हुए वे बोले -- " 1850 के आस-पास मेरे एक पूर्वज को एक कबाड़ी वाले की दुकान से यह चश्मा मिला। वे उन दिनों दिल्ली के चाँदनी चौक इलाक़े में रहते थे। उन्हें पुरानी और अजीब चीज़ों को इकट्ठा करने का शौक़ था। कबाड़ी वाले से ले लेने के बाद साल-छह महीने यह चश्मा यूँ ही कहीं दबा पड़ा रह गया। एक दिन कुछ ढूँढ़ते हुए मेरे इस पूर्वज को यह चश्मा दोबारा मिल गया। उसे साफ़ करके जब उन्होंने अपनी आँखों पर लगाया तो तो वे दंग रह गये। यह कोई साधारण चश्मा नहीं था। इसे पहन कर उन्हें अजीब-अजीब दृश्य और छवियाँ दिखती थीं। मानो वे ख़ून-ख़राबे या मार-काट वाली कोई फ़िल्म देख रहे हों। हालाँकि उस समय फ़िल्म जैसी कोई कोई चीज़ ईजाद नहीं हुई थी। इस चश्मे से दिखने वाले कई दृश्य रोंगटे खड़े कर देने वाले थे।

" मेरे यह पूर्वज ठीक से समझ नहीं पाए कि आख़िर माजरा क्या है।

हालाँकि बाद में 1857 की क्रांति के समय जो दर्दनाक घटनाएँ घटीं उन से जोड़ कर देखने पर उन्होंने पाया कि उनका चश्मा उन्हें ये दृश्य तो कई साल पहले दिखा चुका था। और तब जा कर वे इस नतीजे पर पहुँचे कि यह चश्मा भविष्य में होने वाली घटनाओं के बारे में बताता था।

" एक बात और। मेरे यह पूर्वज जब भी यह चश्मा पहनते, उसके बाद कई दिनों तक उनकी आँखों में असह्य दर्द रहता और उनकी आँखों से ख़ून गिरता रहता। "

वह तवे पर जल गई रोटी-सी काली रात थी जब मैंने उनसे पूछा -- " क्या आपके इस पूर्वज ने किसी को इस चश्मे का सच बताने की कोशिश नहीं

की ? "

" कई बार की। लेकिन लोग उन्हें सनकी और पागल समझने लगे। लोग कहने लगे कि बुड्ढा सठिया गया है। उनका पूरा जीवन एक लम्बा सिर-दर्द बन गया। हार कर उन्होंने इस चश्मे की सच्चाई दूसरों को बताने की बात मन से निकाल दी। उन्होंने इस चश्मे को एक पेटी में बंद करके अँधेरी कोठरी में डाल दिया।"

" लेकिन ...।" मैंने कुछ कहना चाहा।

" मुझे बीच में ही टोकते हुए वे बोले -- " आप ही बताइए , वे और क्या करते ? उस ज़माने में यदि कोई आप से कहता कि उसके पास भविष्य देखने वाला चश्मा है तो क्या आप भी उसे सिरफिरा नहीं कहते ?"

मैंने हाँ में सिर हिलाया। वह ठंड में हो रही बारिश में भीगते कुत्ते-सी बेचारी रात थी जब उन्होंने अपनी बात दोबारा शुरू की -- " आख़िर अपनी मृत्यु-शय्या पर पड़े मेरे इस पूर्वज ने उस चश्मे का राज अपने बेटे यानी मेरे परदादा जी को बताया। यह चश्मा पा कर परदादाजी की मुसीबतें भी बढ़ गईं। उनके पास एक ऐसा राज़ आ गया है जिस पर किसी को यक़ीन नहीं था।

" मेरे परदादा जी ने एक काम किया। उन्होंने अपने यार-दोस्तों को बुलाया और उन्हें वह चश्मा पहना कर अपनी बात को प्रमाणित करने की कोशिश की। लेकिन विधि को कुछ और ही मंज़ूर था। उनके किसी भी दोस्त को चश्मा पहनने पर भी कुछ भी अजीब नहीं दिखा। परदादाजी की परेशानी बढ़ गई।

" उन्हीं दिनों एक दिन परदादाजी के पाँच साल के बेटे यानी मेरे दादाजी

और उनके नन्हे दोस्तों ने यह चश्मा चुरा कर कौतूहलवश उसे पहन लिया। उन बच्चों को वे सारे दृश्य और छवियाँ दिखने लगीं जो भविष्य में होने वाली घटनाओं से संबंधित थीं। पाँच साल के मेरे दादाजी और उनके साथी चकित हो गए। उन्होंने वह चश्मा ला कर परदादाजी को वापस कर दिया और उन्हें सारी बात बताई। बच्चों ने मार-काट वाले दृश्यों की निंदा की।

" परदादाजी सोच में पड़ गए। भविष्य में होनेवाली घटनाओं के दृश्य बच्चों को तो नज़र आए किंतु परदादाजी के मित्रों को ऐसा कुछ भी नहीं दिखा। इसके पीछे क्या राज़ था ? अंत में परदादाजी ने इस रहस्य की गुत्थी ख़ुद ही सुलझा ली। बार-बार बच्चों और बड़े लोगों पर इस चश्मे का प्रयोग करके वे इस नतीजे पर पहुँचे कि इस चश्मे से केवल उसी व्यक्ति को भविष्य दिखता था जिसका अन्तर्मन साफ़ होता था। कलुषित और कलंकित हृदय वाले लोगों को यह चश्मा पहन कर भी कुछ भी नज़र नहीं आता था। क्योंकि बच्चे मासूम और निश्छल होते हैं इसलिए उन्हें यह चश्मा पहनने पर भविष्य में घटने वाली घटनाओं के दृश्य साफ़ नज़र आने लगते थे।"

" फिर क्या हुआ ? " मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।

" मरते समय परदादाजी वह चश्मा दादाजी को सौंप गए। 1915 के आस-पास एक बार दादाजी को वह चश्मा पहनने पर नर-संहार के कुछ भयावह दृश्य दिखे जिस में अंग्रेज़ सैनिक किसी बाग़ में इकट्ठे हुए हिन्दुस्तानियों को गोलियों से भूनते हुए नज़र आए। दादाजी की रूह काँप गई। ज़ाहिर था कि वह निहत्थी भीड़

स्वतंत्रता-संग्रामियों की थी। लेकिन यह बर्बर हत्या-कांड कहाँ और कब होने वाला था ? दादाजी के दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई। उन्होंने स्वाधीनता-आंदोलन से जुड़े कुछ नेताओं से इस बारे में बात की। लेकिन उन नेताओं ने सोचा कि दादाजी उनसे मज़ाक कर रहे हैं। कोई भविष्य में घटने वाली किसी घटना के बारे में पहले से जान सकता है , यह मानने के लिए वे लोग तैयार ही नहीं हुए।

" आख़िर 14 अप्रैल , 1919 के काले दिन अमृतसर में जालियाँवाला बाग़ का नृशंस हत्या-कांड घटित हो गया। अंग्रेज़ों ने सैकड़ों निहत्थे हिंदुस्तानियों को गोलियों से भून दिया। अँधेरे ने रोशनी में सेंध लगा दी थी। दादाजी स्तब्ध रह गए। सबसे ज़्यादा दुख उन्हें इस बात का था कि इस नरसंहार के बारे में दी गई उनकी चेतावनी पर किसी ने भी यक़ीन नहीं किया था। मरते दम तक दादाजी को इस बात का मलाल रहा। वे अपनी बात का प्रचार करने के लिए अख़बारों के दफ़्तरों में भी गए किंतु अख़बार वालों ने भी उन्हें कोई ' हिला हुआ ' बूढ़ा मान लिया। संपादकों और संवाददाताओं ने उनके चश्मे को पहना पर दुर्भाग्य से उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं दिया। एक-दो अख़बारों ने उन्हें एक ' खिसका हुआ ' बूढ़ा क़रार दिया और उनके चश्मे की बात को एक अप्रैल का झूठा मज़ाक कहा। ज़ाहिर है , इस सब से दादाजी बेहद आहत हुए।

" दादाजी की मौत के बाद वह चश्मा पिताजी के पास आ गया। पिताजी ने भी उस चश्मे को ऐसे सहेज कर रखा जैसे वह चश्मा उनकी धरोहर हो। विरासत में मिली चीज़ को आप कितना सँभाल कर रखते हैं। वही हाल पिताजी का था। वे बड़े उथल-पुथल से भरे वर्ष थे। स्वाधीनता-संग्राम अपनी चरम सीमा पर था। अंग्रेज़ उसे कुचलने का भरसक प्रयत्न कर रहे थे। पिताजी जब भी यह चश्मा पहनते , उन्हें पुलिस-बर्बरता के दृश्य दिखाई देते। लेकिन उस से भी भयानक वे वहशियाना दृश्य थे जिनमें हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दंगे हो रहे होते। दरिंदे निर्दोष लोगों को मार-काट रहे होते। औरतों की इज़्ज़त लूटी जा रही होती। व्यापक स्तर पर आगज़नी और लूट-मार हो रही होती।

" भविष्य में घटने वाले ये भयानक दृश्य देख कर पिताजी सन्न रह जाते। कई-कई दिनों तक उनकी आँखों से लगातार ख़ून गिरता रहता और उन्हें रात में नींद नहीं आती। ऐसी मन:स्थिति में उन्होंने सोचा कि वे गाँधीजी या नेहरूजी से मिल कर उन्हें इस बारे में आगाह करेंगे। पता नहीं , पिताजी गाँधीजी या नेहरूजी से मिल पाए या नहीं। इतिहास की किसी किताब में इस बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता। उस ज़माने के समाचार-पत्र भी ऐसी किसी घटना के बारे में ख़ामोश हैं। यदि पिताजी समय रहते गाँधीजी या नेहरूजी से नहीं मिल पाए तो इसका क्या कारण रहा, यह बात अब हम कभी नहीं जान पाएँगे।

" हम सब अब यह तो जानते ही हैं कि देश की आज़ादी और विभाजन के समय लाखों बेगुनाह लोग मौत के घाट उतार दिए गए थे। लाखों औरतें विधवा हुई थीं। लाखों बच्चे अनाथ हुए थे। पिताजी की मानसिक दशा धीरे-धीरे ख़राब होने लगी थी। वे इस बात से दुखी थे कि पहले से जानते हुए भी वे इस ख़ून-ख़राबे को रोकने के लिए कुछ नहीं कर सके थे।

" किंतु उन्हें असली सदमा लगना तो अभी बाक़ी था। उन्हीं दिनों पिताजी ने जब एक बार वह चश्मा लगाया तो उन्हें भविष्य में होने वाली गाँधी जी की हत्या का दृश्य साफ़ नज़र आया। यह देख कर उनकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया। तब तक अंग्रेज़ों ने देश छोड़ कर जाने की घोषणा कर दी थी। पिताजी ने स्वतंत्रता-संग्राम से जुड़े लोगों से मिल कर उन्हें गाँधीजी के जीवन पर मँडराते ख़तरे के बारे में आगाह करने की भरपूर कोशिश की। किंतु देश को मिलने वाली आज़ादी के ख़ुमार

में डूबे लोगों ने इस ख़तरे को गम्भीरता से नहीं लिया। लोगों ने पिताजी का मज़ाक उड़ाया -- भला गाँधीजी जैसे सम्मानित आदमी को मारने की कोशिश कोई क्यों करेगा ? उन्होंने इस आशंका को पिताजी की कपोल-कल्पना क़रार दिया। स्वयं गाँधीजी इस ख़तरे से बेपरवाह हिंदू-मुस्लिम दंगों को रोकने के लिए बंगाल प्रांत में पद-यात्राएँ कर रहे थे।

" अंत में वह दिन भी आ गया जब अँधेरा रोशनी को साबुत निगल गया। दिशाएँ चीत्कार कर उठीं। देश के सूर्य को सदा के लिए ग्रहण लग गया। 30 जनवरी , 1948 के मनहूस दिन गाँधीजी की हत्या कर दी गई। यह ख़बर सुनकर पिताजी की ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे रह गई। उन्हें इस घटना से गहरा आघात पहुँचा। वे उस दिन के बाद से विक्षिप्त-से हो गए। ऐसी स्थिति में कोई भी संवेदनशील व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन खो बैठता। गाँधीजी केवल एक व्यक्ति नहीं थे , वे समूची मनुष्यता थे। "

किसी खुले घाव-सी थी वह रात जब मैंने उनसे पूछा -- " क्या अब वह चश्मा

आपके पास है ? "

" पिछले साठ बरस से मैं इस चश्मे का 'केयरटेकर' हूँ। इस दौरान मैंने कई बार कोशिश की कि मैं इस चश्मे की सच्चाई पूरी दुनिया को बता दूँ। लेकिन हर बार मुझे उपहास का पात्र बनना पड़ा।समाज में शीर्ष पदों पर बैठे जिन नीति-नियंताओं को मैंने इस चश्मे का सत्य बताना चाहा वे सभी स्वयं इतने कलंकित निकले कि उन्हें यह चश्मा पहनने पर भी कुछ नहीं दिखा। उन सब की आत्मा का प्रकाश ज़ीरो वॉट के बल्ब जितना मंद था। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि उन सब ने मेरी इस सच्ची बात को मज़ाक समझा। कई लोगों ने व्यंग्य में मुझे यह सलाह दी कि मुझे आगरा या राँची के पागलखाने में जा कर अपनी मानसिक स्थिति का इलाज करवाना चाहिए। कुछ लोगों ने यह भी कहा कि मुझे ' साइंस-फ़िक्शन ' लिखना शुरू कर देना चाहिए। " यह कहते-कहते वे अचानक चुप हो गए। लगा जैसे झंकार के चरम पर पहुँच कर सारंगी का तार टूट गया हो।

वह सड़क पर पड़ी लावारिस लाश-सी रात थी जब मैंने उनसे पूछा -- " क्या आप वह चश्मा अपने बेटे को सौंप कर जाएँगे ?"

" सच पूछिए तो यही दुविधा अब मुझे भीतर से खाए जा रही है। एक अकुलाहट समूची शिला-सी बहती है मेरी धमनियों में। बेचैनी मेरे अंतस् का स्थायी भाव बन गई है। कभी-कभी मैं अर्थी पर लेटे मुर्दे-सा अकेला महसूस करता हूँ। जब भी कभी मैं यह चश्मा लगाता हूँ , वक़्त के आइने में इंसानियत की नंगी छवि देख कर शर्मसार हो जाता हूँ। मेरी पीठ पर भविष्य का बोझ है। कभी-कभी बीच रात में समूचा विश्व मेरे ज़हन में नगाड़े-सा बजने लगता है। कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे कोई पागल मेरे कानों में शहर के घंटा-घर का घंटा लगातार बजाता जा रहा हो। जिस दिन से पिता ने मुझे यह चश्मा दिया है , मेरी दुनिया बेहद उदास है। मेरे भीतर हुए धमाकों से मेरा अंतस् क्षत-विक्षत हो गया है। अभिशप्त हूँ मैं जिसकी पीठ पर यह पीड़ा का 'क्रॉस' लदा है। क्या मैं अपने पुत्र को भी यही धूसर उदासी , यही यंत्रणा विरासत में दूँ ? " उनकी कराहती आवाज़ के भीतर कुछ मर रहा था जिसे मैं साफ़ महसूस कर रहा था। उनके चेहरे की ज़मीन कटे हुए जंगल-सी उजाड़ लग रही थी।

हथेलियों के बीच ऐंठन-सी थी वह रात जब वे विचलित हो कर बोले -- " मैं नहीं चाहता कि मेरा बेटा भी मेरे पूर्वजों और मेरी तरह तबाहियों का नपुंसक राज़दार बनकर रह जाए।" लगा जैसे बादलों के बीच बिजली की बैंगनी रेखा कौंध गई।

" अब आप इस चश्मे का क्या करेंगे ? " मैंने पूछा।

" मुझे नहीं मालूम। मेरे भीतर असंख्य चिड़ियों के नुचे हुए पंख पड़े हैं। अब मैं इन हाँफते हुए काले , टभकते दिनों की लम्बी क़तार का हमराज़ नहीं बनना चाहता। " पानी आने से पहले जैसे नल में फुसफुसाहट होती है , उस स्वर में वे

बोले। उनकी आँखों में कई-कई परछाइयाँ लम्बी होती चली गईं।

फिर थोड़ी देर बाद संयत हो कर उन्होंने कहा --" हम उस युग में जी रहे हैं जब मिट्टी को भी कीड़ा लग गया है। हवा को फफूँद लग गई है। रोशनी को लकवा मार गया है। इस संक्रमण-काल में सारे रंग केवल काले रंग में बदलते जा रहे हैं। लेकिन मेरा मानना है कि अच्छाई एक मशाल है जो बुराई की तेज़ हवाओं में काँपती तो है पर बुझती कभी नहीं। मेरे जीवन की आख़िरी इच्छा इस चश्मे को सही हाथों में सौंप देने की है ताकि इंसानियत का भला हो सके। " यह कह कर वे चुप हो गए। मुझे लगा जैसे बहती हुई नदी का मीठा पानी कहीं रुक गया हो। या जैसे भीषण गर्मी में ठंडी हवा का झोंका चलना बंद हो गया हो।

वह एक परित्यक्त-सी उदास , सुबकती हुई रात थी जब मैंने उनसे पूछा --

" आप तो हिन्दी के समर्थ कहानीकार हैं। आप अपने इस चश्मे पर कहानी क्यों नहीं लिखते ? "

वे बोले -- " जिस भाषा में मैं पढ़ता-लिखता , सोचता और सपने देखता हूँ , उसे दरिद्रों की भाषा माना जाता है। इस दरिद्रों की भाषा में लिखी गई मेरी यह सत्य-कथा लोग कभी पढ़ेंगे , मुझे इसमें संदेह है। " विज्ञानेश्वरजी की बात सुनकर मुझे लगा जैसे गर्म सलाखों-सा जलता हुआ यह युग सीधा मेरी आँखों में उतर गया हो।

चलने से पहले इस विषय पर कहानी जैसा कुछ लिखने के लिए मैंने उनकी अनुमति ले ली। फिर उन्हें प्रणाम करके मैं लौट आया। मैं एक प्रतिष्ठित गुप्तचर एजेंसी का निदेशक हूँ। फिर भी मुझे हिम्मत नहीं हुई कि मैं स्वयं वह चश्मा पहन कर देखता। शायद मैं उस सच का साक्षात्कार करने से डरता था जिसे बच्चों ने देख लिया था। पता नहीं वह चश्मा पहनने के बाद मुझे कुछ दिखता या नहीं।

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प्रेषकः सुशांत सुप्रिय

A-5001 ,

गौड़ ग्रीन सिटी ,

वैभव खंड ,

इंदिरापुरम ,

ग़ाज़ियाबाद -201014

( उ. प्र. )

मो: 8512070086

ई-मेल : sushant1968@gmail.com

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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बहुत ही साफसुथरेढंग से गुत्थी को शुरू से अंत तक सँभालकर ले गए. बहुत खूब.

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: कहानी - चश्मा / सुशांत सुप्रिय
कहानी - चश्मा / सुशांत सुप्रिय
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