होली शायद दुनिया का एकमात्र ऐसा त्यौहार है,जो सामुदायिक बहुलता की समरसता से जुड़ा है। इस पर्व में मेल-मिलाप का जो आत्मीय भाव अंतर्मन से उमड...
होली शायद दुनिया का एकमात्र ऐसा त्यौहार है,जो सामुदायिक बहुलता की समरसता से जुड़ा है। इस पर्व में मेल-मिलाप का जो आत्मीय भाव अंतर्मन से उमड़ता है,वह सांप्रदायिक अतिवाद और जातीय जड़ता को भी ध्वस्त करता है। फलस्वरूप किसी भी जाति का व्यक्ति उच्च जाति के व्यक्ति के चेहरे पर पर गुलाल मल सकता है और आर्थिक रूप से विपन्न व्यक्ति भी धनकुबेर के भाल पर गुलाल का टीका लगा सकता है। यही एक ऐसा पर्व है,जब दफ्तर का चपरासी भी उच्चाधिकारी के सिर पर रंग उड़ेलने का अधिकार अनायास पा लेता है। वाकई रंग छिड़कने का यह होली पर्व उन तमाम जाति व वर्गीय वर्जनाओं को तोड़ता है,जो मानव समुदायों के बीच असमानता बढ़ाती हैं। गोया,इस त्यौहार की उपादेयता को और व्यापक बनाने की जरूरत है।
होली का पर्व हिरण्यकशिपु की बहन होलिका के दहन की घटना से जुड़ा है। ऐसी लोक-प्रचलन में मान्यता है कि होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। अलबत्ता उसके पास ऐसी कोई वैज्ञानिक तकनीक थी,जिसे प्रयोग में लाकर वह अग्नि में प्रवेश करने के बावजूद नहीं जलती थी। चूंकि होली को बुराई पर अच्छाई के पर्व के रूप में माना जाता है,इसलिए जब वह अपने भतीजे प्रहलाद को विकृत व क्रूर मानसिकता के चलते गोद में लेकर प्रज्ज्वलित आग में प्रविष्ट हुई तो खुद तो जलकर खाक हो गई,किंतु प्रहलाद बच गए। उसे मिला वरदान सार्थक सिद्ध नहीं हुआ,क्योंकि वह असत्य और अनाचार की आसुरी शक्ति में बदल गई थी।
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ऐतिहासिक व पौराणिक साक्ष्यों से पता चलता है कि होली की इस गाथा के उत्सर्जन के स्रोत पाकिस्तान के मुल्तान से जुड़े हैं। यानि अविभाजित भारत से। अभी भी यहां भक्त प्रहलाद से जुड़े मंदिर के भग्नावशेष मौजूद हैं। वह खंभा भी मौजूद है,जिससे प्रहलाद को बांधा गया था। भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान में हिंदू धर्म से जुड़े मंदिरों को नेस्तनाबूद करने का जो सिलसिला चला,उसके थपेड़ों से यह मंदिर भी लगभग नष्टप्रायः हो गया,लेकिन चंद अवशेष अब भी मुलतान में मौजूद हैं और यहां भी अल्पसंख्यक हिंदू होली के उत्सव को मानते हैं। वसंत पंचमी भी यहां वासंती वस्त्रों में सुसज्जित महिलाएं मनाती हैं और हिंदू पुरुष पतंगें उड़ाकर अपनी खुशी प्रगट करते हैं। जाहिर है,यह पर्व पाकिस्तान जैसे अतिवादियों के देश में सांप्रदायिक सद्भाव के वातावरण का निर्माण करता है। गोया,होली व्यक्ति की मनोवृत्ति को लचीली बनाने का काम करती है।
वैदिक युग में होली को ‘नवान्नेष्टि यज्ञ‘ कहा गया है। क्योंकि यह वह समय होता है,जब खेतों से पका अनाज काटकर घरों में लाया जाता है। जलती होली में जौ और गेहूं की बालियां तथा चने के बूटे भूनकर प्रसाद के रूप में बांटे जाते हैं। होली में भी बालियां होम की जाती हैं। यह लोक-विधान अन्न परिपक्व और आहार के योग्य हो जाने का प्रमाण है। इसलिए वेदों में इसे ‘नवान्नेष्टि यज्ञ‘कहा गया है। मसलन अनाज के नए आस्वाद का आगमन। यह नवोन्मेष खेती-किसानी की संपन्नता का द्योतक है,जो ग्रामीण परिवेश में अभी भी विद्यमान है। गोया यह उत्सवधर्मिता आहार और पोषण का भी प्रतीक है,जो धरती और अन्न के सनातन मूल्यों को एकमेव करता है।
होली का सांस्कृतिक महत्त्व ‘मधु‘ अर्थात ‘मदन‘ से भी जुड़ा है। संस्कृत और हिंदी साहित्य में इस मदनोत्सव को वसंत ऋतु का प्रेमाख्यान माना गया है। वसंत यानि शीत और ग्रीष्म ऋतुओं की संधि-वेला। अर्थात एक ऋतु का प्रस्थान और दूसरी ऋतु का आगमन। यह वेला एक ऐसे प्राकृतिक परिवेश को रचती है,जो मधुमय होता है,रसमय होता है। मधु का ऋग्वेद में खूब उल्लेख है। क्योंकि इसका अर्थ है,संचय से जुटाई गई मिठास। मधु-मक्खियां अनेक प्रकार के पुष्पों से मधु जुटाकर एक स्थान पर संग्रह करने का काम करती हैं। जीवन का मधु संचय का यही संघर्ष जीवन को मधुमयी बनाने का काम करता है।
होली को ‘मदनोत्सव‘ भी कहा गया है। क्योंकि इस रात चंद्रमा अपने पूर्ण आकार में होता है। इसी शीतल आलोक में भारतीय स्त्रियां अपने सुहाग की लंबी उम्र की कामना करती हैं। लिंग-पुराण में होली को ‘फाल्गुनिका‘की संज्ञा देकर इसे बाल-क्रीड़ा से जोड़ा गया है। मनु का जन्म फाल्गुनी को हुआ था,इसलिए इसे ‘मन्वादि तिथि‘ भी कहते हैं। भविष्य-पुराण में भूपतियों से आवाह्न किया गया है कि वे इस दिन अपनी प्रजा को भय-मुक्त रहने की घोषणा करें। क्योंकि यह ऐसा अनूठा दिन है,जिस दिन लोग अपनी पूरे एक साल की कठिनाइयों को प्रतीकात्मक रूप से होली में फूंक देते हैं। इन कष्टों को भस्मीभूत करके उन्हें जो शांति मिलती है,उस शांति को पूरे साल अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए ही भविष्य-पुराण में राजाओं से प्रजा को अभयदान देने की बात कही गई है। भारतीय कुटुंब की भावना इस दर्शन में अंतर्निहित है। अर्थात होली के सांस्कृतिक महत्त्व का दर्शन नैतिक,धार्मिक और सामाजिक आदर्शों को मिलाकर एकरूपता गढ़ने का काम करता है। तय है,होली के पर्व की विलक्षणता में कृषि,समाज,अर्थ और सद्भाव के आयाम एकरूप हैं। इसलिए यही एक ऐसा अद्वितीय पर्व है,जो सृजन के बहुआयामों से जुड़ा होने के साथ-साथ सामुदायिक बहुलता के आयाम से भी जुड़ा है।
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प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
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लेखक वरिष्ठ साहित्कार और पत्रकार हैं।
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